चंद्रगुप्त मौर्य

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चंद्रगुप्त मौर्य
पूरा नाम चक्रवर्ती सम्राट चन्द्र गुप्त मौर्य
जन्म 340 ई. पू.
जन्म भूमि मगध, भारत
मृत्यु तिथि 298 ई पू (42 वर्ष में)
मृत्यु स्थान श्रवण बेल्गोला, कर्नाटक
पिता/माता "मुरा या मोरा" (माता)
संतान बिन्दुसार
उपाधि सम्राट
राज्य सीमा सम्पूर्ण भारत (लगभग)
शासन काल 322 से 298 ई. पू.
शा. अवधि 24 वर्ष (लगभग)
राज्याभिषेक 322 ई.पू.
धार्मिक मान्यता वैदिक और जैन
प्रसिद्धि भारत का प्रथम 'ऐतिहासिक सम्राट'
राजधानी पाटलिपुत्र
पूर्वाधिकारी धनानंद
वंश मौर्य वंश
संबंधित लेख चाणक्य . अशोक
चंद्रगुप्त एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- चंद्रगुप्त (बहुविकल्पी)

चक्रवर्ती सम्राट चन्द्र गुप्त मौर्य (शासनकाल: 322 से 298 ई. पू.तक) की गणना भारत के महानतम शासकों में की जाती है। उसकी महानता की सूचक अनेक उपाधियाँ हैं और उसकी महानता कई बातों में अद्वितीय भी है। वह भारत के प्रथम ‘ऐतिहासिक’ सम्राट के रूप में हमारे सामने आता है, इस अर्थ में कि वह भारतीय इतिहास का पहला सम्राट है जिसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित कालक्रम के ठोस आधार पर सिद्ध की जा सकती है।[1]

आरम्भिक जीवन

चंद्रगुप्त के प्रारम्भिक जीवन के बारे में जानकारी हमें बौद्ध कथाओं से प्राप्त होती है। इन कथाओं का स्रोत मुख्यत: दो रचनाओं में मिलता है:

  1. महावंस टीका, जिसे वंसत्थप्पकासिनी भी कहते हैं (जिसकी रचना लगभग 10वीं शताब्दी ईसवी के मध्य हुई थी) और
  2. महाबोधिवंस, जिसके रचयिता उपतिस्स हैं (लगभग 10वीं शताब्दी ईसवी के उत्तरार्ध में)।

इन दोनों ही ग्रन्थों का आधार, सीहलट्ठकथा तथा उत्तरविहारट्ठकथा नामक प्राचीन ग्रन्थ हैं। सीहलट्ठकथा के बारे में कहा जाता है कि उसकी रचना थेर महिंद (अशोक का पुत्र) तथा उनके साथ मगध से आए हुए अन्य भिक्षुओं ने की थी, जिन्हें संघ के प्रधान ने धर्मप्रचार के लिए लंका भेजा था।[2]

जन्म और वंश

इस संबंध में विभिन्न मत हैं:-

  • चंद्रगुप्त के वंश के सम्बन्ध में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है। चंद्रगुप्त के वंश के समान उसके आरम्भिक जीवन के पुनर्गठन का भी आधार किंवदंतियाँ एवं परम्पराएँ ही अधिक हैं और ठोस प्रमाण कम हैं। इस सम्बन्ध में चाणक्य चंद्रगुप्त कथा का सारांश उल्लेखनीय है। जिसके अनुसार नंद वंश द्वारा अपमानित किए जाने पर चाणक्य ने उसे समूल नष्ट करने का प्रण किया। संयोगवश उसकी भेंट चंद्रगुप्त से हो गई और वह उसे तक्षशिला ले गया।[3]
  • धुंढिराज[4] के मतानुसार चंद्रगुप्त का पिता मौर्य था और सर्वार्थसिद्धि ने अपना सेनापति अपने नंद पुत्रों को न बनाकर मौर्य को बनाया था, इस पर नंद बंधुओं ने छल से मौर्य तथा उसके सब पत्रों को मरवा दिया, केवल चंद्रगुप्त भाग निकला। नंदों का एक दूसरा शत्रु चाणक्य भी था। समान शत्रुता के कारण ये दोनों मित्र बन गए।
  • मौर्यवंश का संस्थापक। उसके माता-पिता के नाम ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हैं। पुराणों के अनुसार वह मगध के राजा नन्द का उपपुत्र था, जिसका जन्म मुरा नामक शूद्रा दासी से हुआ था। बौद्ध और जैन सूत्रों से पता चलता है। कि चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म पिप्पलिवन के मोरिय क्षत्रिय कुल में हुआ था। जो भी हो चन्द्रगुप्त प्रारंभ से ही बहुत साहसी व्यक्ति था।[5]
  • विशाखदत्त के नाटक 'मुद्राराक्षस' में चंद्रगुप्त को नंदपुत्र न कहकर मौर्यपुत्र कहा गया है। फिर भी उसे ‘नंदवंश की सन्तान’ कहा गया है, क्योंकि वह सर्वार्थसिद्धि के पुत्र मौर्य का बेटा था और सर्वार्थसिद्धि नौ नंदों का पिता था और स्वंय नंदवंश की सन्तान था। इस बूढ़े राजा को भी नंद कहा गया है। नाटक में दिखाया गया है कि राक्षस के परामर्श से वह पाटलिपुत्र छोड़कर वन में भाग गया था क्योंकि चंद्रगुप्त तथा चाणक्य ने एक-एक करके उसके सभी पुत्रों (नौ नंदों को) मरवा डाला था। फिर भी चंद्रगुप्त को अपने पिता का हत्यारा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसे कहीं नंदपुत्र नहीं कहा गया है। वह उन नौ नंदों में से किसी की भी सन्तान नहीं था। उसके लिए जिस दूसरे शब्द ‘मौर्यपुत्र’ का प्रयोग किया गया, उसके कारण वह इस जघन्य अपराध के दोष से मुक्त हो गया है[6][7]
  • वृत्तांतों के अनुसार चंद्रगुप्त का जन्म मोरिय नामक क्षत्रिय जाति में हुआ था जिनका शाक्यों के साथ सम्बन्ध था। अपनी जन्मभूमि छोड़कर चली आने वाली मोरिय जाति का मुखिया चंद्रगुप्त का पिता था। दुर्भाग्यवश वह सीमांत पर एक झगड़े में मारा गया और उसका परिवार अनाथ रह गया। उसकी अबला विधवा अपने भाइयों के साथ भागकर पुष्यपुर (कुसुमपुर पाटलिपुत्र) नामक नगर में पहुँची, जहाँ उसने चंद्रगुप्त को जन्म दिया। सुरक्षा के विचार से इस अनाथ बालक को उसके मामाओं ने एक गोशाला में छोड़ दिया, जहाँ एक गड़रिए ने अपने पुत्र की तरह उसका लालन-पालन किया और जब वह बड़ा हुआ तो उसे एक शिकारी के हाथ बेच दिया, जिसने उसे गाय-भैंस चराने के काम पर लगा दिया। कहा जाता है कि एक साधारण ग्रामीण बालक चंद्रगुप्त ने राजकीलम नामक एक खेल का आविष्कार करके जन्मजात नेता होने का परिचय दिया। इस खेल में वह राजा बनता था और अपने साथियों को अपना अनुचर बनाता था। वह राजसभा भी आयोजित करता था जिसमें बैठकर वह न्याय करता था। गाँव के बच्चों की एक ऐसी ही राजसभा में चाणक्य ने पहली बार चंद्रगुप्त को देखा था।[8]
  • कुछ लोग चंद्रगुप्त को मुरा नाम की शूद्र स्त्री के गर्भ से उत्पन्न नंद सम्राट की संतान बताते हैं पर बौद्ध और जैन साहित्य के अनुसार यह मौर्य (मोरिय) कुल में जन्मा था और नंद राजाओं का महत्त्वाकांक्षी सेनापति था। चंद्रगुप्त के वंश और जाति के सम्बन्ध में विद्वान् एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने ब्राह्मण ग्रंथों, मुद्राराक्षस, विष्णुपुराण की मध्यकालीन टीका तथा 10वीं शताब्दी की धुण्डिराज द्वारा रचित मुद्राराक्षस की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त को शूद्र माना है। चंद्रगुप्त के वंश के सम्बन्ध में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है।[9]
  • बौद्ध रचनाओं में कहा गया है कि ‘नंदिन’ के कुल का कोई पता नहीं चलता (अनात कुल) और चंद्रगुप्त को असंदिग्ध रूप से अभिजात कुल का बताया गया है। चंद्रगुप्त के बारे में कहा गया है कि वह मोरिय नामक क्षत्रिय जाति की संतान था; मोरिय जाति शाक्यों की उस उच्च तथा पवित्र जाति की एक शाखा थी, जिसमें महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। कथा के अनुसार, जब अत्याचारी कोसल नरेश विडूडभ ने शाक्यों पर आक्रमण किया तब मोरिय अपनी मूल बिरादरी से अलग हो गए और उन्होंने हिमालय के एक सुरक्षित स्थान में जाकर शरण ली। यह प्रदेश मोरों के लिए प्रसिद्ध था, जिस कारण वहाँ आकर बस जाने वाले ये लोग मोरिय कहलाने लगे, जिनका अर्थ है मोरों के स्थान के निवासी। मोरिय शब्द ‘मोर’ से निकला है, जो संस्कृत के मयूर शब्द का पालि पर्याय है।
    एक और कहानी भी है जिसमें मोरिय नगर नामक एक स्थान का उल्लेख मिलता है। इस शहर का नाम मोरिय नगर इसलिए रखा गया था कि वहाँ की इमारतें मोर की गर्दन के रंग की ईंटों की बनी हुई थीं। जिन लोगों ने इस नगर का निर्माण किया था, वे मोरिय कहलाए। महाबोधिवंस [10] में कहा गया है कि ‘कुमार’ चंद्रगुप्त, जिसका जन्म राजाओं के कुल में हुआ था (नरिंद-कुलसंभव), जो मोरिय नगर का निवासी था, जिसका निर्माण साक्यपुत्तों ने किया था, चाणक्य नामक ब्राह्मण (द्विज) की सहायता से पाटलिपुत्र का राजा बना।
    महाबोधिवंस में यह भी कहा गया है कि ‘चंद्रगुप्त का जन्म क्षत्रियों के मोरिय नामक वंश में’ हुआ था (मोरियनं खत्तियनं वंसे जातं)। बौद्धों के दीघ निकाय नामक ग्रन्थ में[11] पिप्पलिवन में रहने वाले मोरिय नामक एक क्षत्रिय वंश का उल्लेख मिलता है। दिव्यावदान[12]में बिन्दुसार (चंद्रगुप्त के पुत्र) के बारे में कहा गया है कि उसका क्षत्रिय राजा के रूप में विधिवत अभिषेक हुआ था (क्षत्रिय-मूर्धाभिषिक्त) और अशोक (चंद्रगुप्त के पौत्र) को क्षत्रिय कहा गया है।[13]
  • एक मत कथासरित्सागर में उपलब्ध होता है। इसके अनुसार चंद्रगुप्त नन्द राजा का ही पुत्र था, और उसके अन्य कोई सन्तान नहीं थी।
  • चंद्रगुप्त के विषय में महावंश में पाये मतानुसार अनुसार चंद्रगुप्त पिप्पलिवन के मोरिय गण का कुमार था। नन्द के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं था। मोरिय गण वज्जि-महाजनपद के पड़ोस में स्थित था। उत्तरी बिहार के सब गणराज्य कौशल और मगध के साम्राज्यवाद के शिकार हो गए थे, और मोरिय गण भी मगध की अधीनता में आ गया था। इस गण की एक राजमहिषी पाटलिपुत्र में छिपकर जीवन व्यतीत कर रही थी। वहीं पर उसने चंद्रगुप्त को जन्म दिया। चंद्रगुप्त कहीं मगध के राजकर्मचारियों के हाथों में न पड़ जाए, इसलिए उसने अपने नवजात शिशु को ग्वाले के सुपुर्द कर दिया। अपनी आयु के अन्य ग्वाल-बालकों के साथ मोरिय चंद्रगुप्त का भी पालन होने लगा।

चंद्रगुप्त और चाणक्य की भेंट

चाणक्य ने अपनी दिव्यदृष्टि से तुरन्त इस ग्रामीण अनाथ बालक में राजत्व की प्रतिभा तथा चिह्न देखे और वहीं पर 1,000 कार्षापण देकर उसे उसके पालक-पिता से ख़रीद लिया। उस समय चंद्रगुप्त आठ या नौ वर्ष का बालक रहा होगा। चाणक्य जिसे तक्षशिला नामक नगर का निवासी (तक्कसिलानगर-वासी) बताया गया है, बालक को लेकर अपने नगर लौटा और 7 या 8 वर्ष तक उस प्रख्यात विद्यापीठ में उसे शिक्षा दिलाई, जहाँ जातककथाओं के अनुसार, उस समय की समस्त ‘विधाएँ तथा कलाएँ’ सिखाई जाती थीं। वहाँ चाणक्य ने उसे अप्राविधिक विषयों और व्यावहारिक तथा प्राविधिक कलाओं की भी सर्वांगीण शिक्षा दिलाई[14][15]

पालि स्रोतों से प्राप्त चंद्रगुप्त के प्रारम्भिक जीवन के इस विवरण से जस्टिन के इस कथन की भी पुष्टि होती है कि उसका जन्म एक मामूली घराने में हुआ था।[16]

मगध के राजा जाति-नियमों को वैसे ही विशेष महत्त्व नहीं देते थे; मौर्य तो आदिवासी मूल अथवा मिश्रित वंश के थे, यद्यपि उनका आर्यीकरण हो चुका था। मौर्य (पालि: मोरिय) नाम मोर टोटेम का सूचक है, यह वैदिक-आर्य नाम नहीं हो सकता।[17]

जो भी हो चन्द्रगुप्त प्रारंभ से ही बहुत साहसी व्यक्ति था। जब वह किशोर ही था, उसने पंजाब में पड़ाव डाले हुए यवन (यूनानी) विजेता सिकंदर से भेंट की। उसने अपनी स्पष्टवादिता से सिकंदर को नाराज़ कर दिया। सिकंदर ने उसे बंदी बना लेने का आदेश दिया, लेकिन वह अपने शौर्य का प्रदर्शन करता हुआ सिकंदर के शिकंजे से भाग निकला और कहा जाता है। कि इसके बाद ही उसकी भेंट तक्षशिला के एक आचार्य चाणक्य या कौटिल्य-से हुई।[18]

चंद्रगुप्त की शिक्षा

जातककथाओं से हमें पता चलता है कि उस समय के राजा अपने राजकुमारों को विद्योपार्जन के लिए तक्षशिला भेजा करते थे, जहाँ विश्व-विख्यात अध्यापक थे। इन कथाओं में हम पढ़ते हैं : "सारे भारत से क्षत्रियों तथा ब्राह्मणों के पुत्र इन अध्यापकों से विभिन्न कलाएँ सीखने आते थे।" तक्षशिला प्राथमिक शिक्षा का ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा का केन्द्र भी था। इस बात का उल्लेख मिलता है कि वहाँ बालकों को 16 वर्ष की अवस्था में अर्थात् ‘किशोरावस्था में प्रवेश करने पर’ भरती किया जाता था। इससे बड़ी अवस्था के छात्र अथवा गृहस्थ लोग भी यहाँ शिक्षा प्राप्त करते थे। वे अपने रहने आदि का प्रबंध स्वंय करते थे। हमें तक्षशिला के एक ऐसे अध्यापक का भी उल्लेख मिलता है, जिसकी पाठशाला में केवल राजकुमार ही पढ़ते थे, "उस समय भारत में इन राजकुमारों की संख्या 101 थी।" वहीं जिन विषयों की शिक्षा दी जाती थी, उनमें तीन वेदों तथा 18 ‘सिप्पों’ अर्थात् शिल्पों का उल्लेख मिलता है, जिनमें धनुर्विद्या (इस्सत्थ-सिप्प), आखेट तथा हाथियों से सम्बन्धित ज्ञान (हत्थिसुत्त) का उल्लेख किया गया है, जिन्हें राजकुमारों के लिए उपयुक्त समझा जाता था। सिद्धान्त तथा व्यवहार दोनों ही की शिक्षा दी जाती थी।

तक्षशिला अपनी विधिशास्त्र, चिकित्सा विज्ञान तथा सैन्यविद्या की अलग-अलग पाठशालाओं के लिए प्रख्यात था। तक्षशिला की सैनिक अकादमी का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें 103 राजकुमार शिक्षा पाते थे। एक जगह पर यह विवरण मिलता है कि किस प्रकार एक शिष्य को सैन्यविद्या की शिक्षा समाप्त कर लेने के बाद उसके गुरु ने प्रमाणपत्र के रूप में स्वंय अपनी "तलवार, एक धनुष और बाण, एक कवच तथा एक हीरा" दिया और उससे कहा कि वह उसके स्थान पर सैन्यविद्या की शिक्षा प्राप्त करने वाले 500 शिष्यों की पाठशाला के प्रधान का पद ग्रहण करे, क्योंकि वह वृद्ध हो गया है और अवकाश ग्रहण करना चाहता है[19]। चाणक्य अपने अल्पवयस्क शिष्य की शिक्षा का इससे अच्छा कोई दूसरा प्रबंध नहीं कर सकता था कि उसे विद्योपार्जन के लिए तक्षशिला में भरती करा दे।

धननंद

पालि ग्रन्थों में मगध के तत्कालीन शासक का नाम धननंद बताया गया है। इसका उल्लेख संस्कृत ग्रन्थों में केवल 'नंद' के नाम से किया गया है। इसके अतिरिक्त पालि ग्रन्थों में नौ नंदों के नाम तथा उनके जीवन से सम्बन्धित कुछ बातें भी बताई गई हैं। इन ग्रन्थों से हमें पता चलता है कि नंदवंश के नौ राजा, जो सब भाई थे, बारी-बारी से अपनी आयु के क्रम से गद्दी पर बैठे[20]धननंद उनमें सबसे छोटा था। सबसे बड़े भाई का नाम उग्रसेननंद बताया गया है; वही नंदवंश का संस्थापक था। चंद्रगुप्त की तरह ही उसका प्रारम्भिक जीवन भी अत्यन्त रोमांचपूर्ण था। वह मूलत: सीमांत प्रदेश का निवासी था (पच्चंत-वासिक); एक बार डाकुओं ने उसे पकड़ लिया और उसे मलय नामक एक सीमांत प्रदेश में ले गए[21] और उसे इस मत का समर्थक बना लिया कि लूटमार करना ज़मीन जोतने से अच्छा व्यवसाय है। वह अपने भाइयों तथा सगे-सम्बन्धियों सहित डाकुओं के एक गिरोह में भरती हो गया और शीघ्र ही उनका नेता बन बैठा। वे आसपास के राज्यों पर धावे मारने लगे (रट्ठं विलुमपमानो विचरंतो) और सीमांत के नगरों पर चढ़ाई करके (पच्चंत नगर) यह चुनौती दी : ‘या तो अपना राज्य हमारे हवाले कर दो या युद्ध करो'[22]। धीरे-धीरे वे सार्वभौम सत्ता पर अधिकार करने के स्वप्न देखने लगे[23]। इस प्रकार एक डाकू राजा राजाओं का राजा बन बैठा।

धननंद द्वारा चाणक्य का अपमान

सिकंदर के भारत आक्रमण के समय चंद्रगुप्त मौर्य की उससे पंजाब में भेंट हुई थी। किसी कारणवश रुष्ट होकर सिकंदर ने चंद्रगुप्त को क़ैद कर लेने का आदेश दिया था। पर चंद्रगुप्त उसकी चंगुल से निकल आया। इसी समय इसका संपर्क कौटिल्य या चाणक्य से हुआ। चाणक्य नंद राजाओं से रुष्ट था। उसने नंद राजाओं को पराजित करके अपनी महत्त्वाकांक्षा पूर्ण करने में चंद्रगुप्त मौर्य की पूरी सहायता की।

चंद्रगुप्त के वंश के समान उसके आरम्भिक जीवन के पुनर्गठन का भी आधार किंवदंतियाँ एवं परम्पराएँ ही अधिक हैं और ठोस प्रमाण कम हैं। इस सम्बन्ध में चाणक्य चंद्रगुप्त कथा का सारांश उल्लेखनीय है। जिसके अनुसार नंद वंश द्वारा अपमानित किए जाने पर चाणक्य ने उसे समूल नष्ट करने का प्रण किया।

जिस समय चाणक्य पाटलिपुत्र आया था, उस समय धनानंद वहाँ का राजा था। वह अपने धन के लोभ के लिए बदनाम था। वह ’80 करोड़ (कोटि) की सम्पत्ति’ का मालिक था और "खालों, गोंद, वृक्षों तथा पत्थरों तक पर कर वसूल" करता था। तिरस्कार में उसका नाम धननंद रख दिया गया था, क्योंकि वह ‘धन के भण्डार भरने का आदी’ था[24]। कथासरित्सागर में नंद की ’99 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं’ का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि उसने गंगा नदी की तली में एक चट्टान खुदवाकर उसमें अपना सारा ख़ज़ाना गाड़ दिया था[25]। उसकी धन सम्पदा की ख्याति दक्षिण तक पहुँची। तमिल भाषा की एक कविता में उसकी सम्पदा का उल्लेख इस रूप में किया गया है कि "पहले वह पाटलि में संचित हुई और फिर गंगा की बाढ़ में छिप गई।"[26]। परन्तु चाणक्य ने उसे बिल्कुल ही दूसरे रूप में देखा। अब वह धन बटोरने के बजाए, उसे दान-पुण्य में व्यय कर रहा था; यह काम दानशाला नामक एक संस्था द्वारा संगठित किया जाता था। जिसकी व्यवस्था का संचालन एक संघ के हाथों में था, जिसका अध्यक्ष कोई ब्राह्मण होता था। नियम यह था कि अध्यक्ष एक करोड़ मुद्राओं तक का दान दे सकता था और संघ का सबसे छोटा सदस्य एक लाख मुद्राओं तक का। चाणक्य को इस संघ का अध्यक्ष चुना गया। परन्तु, होनी की बात, राजा को उसकी कुरूपता तथा उसका धृष्ट स्वभाव अच्छा न लगा और उसने उसे पदच्युत कर दिया। इस अपमान पर क्रुद्ध होकर चाणक्य ने राजा को शाप दिया, उसके वंश को निर्मूल कर देने की धमकी दी और एक नग्न आजीविक साधु के भेष में उसके चंगुल से बच निकला।[27]

अलक्षेन्द्र (सिकन्दर) का हमला

चित्र:Chandragupta-greek-1.ogg भारत पर सिकन्दर का आक्रमण मई 327 ई.पू. से मई 324 ई.पू. तक रहा। चंद्रगुप्त सिकन्दर का समकालीन था और स्वंय सिकन्दर से मिला भी था। यह बात हमें प्लूटार्क की रचनाओं से मालूम होती है जिसने लिखा है- ‘ऐंड्रोकोट्टोस (चन्द्रगुप्त) , जो उस समय नवयुवक ही था, स्वंय सिकन्दर से मिला था।’ सिकन्दर ने सबसे पहले ग्रीक राज्यों को जीता और फिर वह एशिया माइनर (आधुनिक तुर्की) की तरफ बढ़ा। उस क्षेत्र पर उस समय फ़ारस का शासन था। फ़ारसी साम्राज्य मिस्र से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक फैला था। फ़ारस के शाह दारा तृतीय को उसने तीन अलग-अलग युद्धों में पराजित किया हालाँकि उसकी तथाकथित 'विश्व-विजय' फ़ारस विजय से अधिक नहीं थी पर उसे शाह दारा के अलावा अन्य स्थानीय प्रांतपालों से भी युद्ध करना पड़ा था। मिस्र, बॅक्ट्रिया, तथा आधुनिक ताज़िकिस्तान में स्थानीय प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। ऐसी मान्यता है और उल्लेख हैं कि भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय चाणक्य तक्षशिला में प्राध्यापक था। तक्षशिला और गान्धार के राजा आम्भि ने सिकन्दर से समझौता कर लिया। चाणक्य ने भारत की संस्कृति को विदेशियों से बचाने के लिए सभी राजाओं से आग्रह किया किन्तु सिकन्दर से लड़ने कोई नहीं आया। पुरु ने सिकन्दर से युद्ध किया किन्तु हार गया।

सिकन्दर के आक्रमण ने पंजाब की इन स्वतंत्र जातियों की रणक्षमता तथा वीरता को प्रकट कर दिया। युवक चंद्रगुप्त ने इन बातों को अवश्य देखा होगा। सिकन्दर के आक्रमणों के विरुद्ध उनके प्रतिरोध की कहानी सिकन्दर की विजय की कहानी से कम प्रेरणाप्रद नहीं है। भारत के विभिन्न स्थानों में सिकन्दर का जो विरोध किया गया, उसका मूल्यांकन स्वंय यूनानियों द्वारा उल्लिखित तथ्यों तथा आंकड़ों के आधार पर किया जा सकता है।[28]

तीसरी शताब्दी ई.पू. में जिन यूरोपीय राजदूतों को यूनानी राजाओं ने भारत भेजा था, उनमें से कुछ ने सिकन्दर के इन साथियों की रचनाओं में पूरक जोड़े हैं।:

  1. स्त्राबो : इसका जीवनकाल लगभग 64 ई.पू. से 19 ई. तक था। इसने भूगोल की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक के 15वें भाग का प्रथम अध्याय भारत के बारे में है, इसमें सिकन्दर के साथियों तथा मेगास्थनीज़ की रचनाओं से ली गई सामग्री के आधार पर भारत के भूगोल, उसके निवासियों के रहन-सहन तथा रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है।
  2. डियोडोरस 36 ई.पू. तक जीवित रहा। इसने मेगास्थनीज़ की रचनाओं के आधार पर भारत का एक वृत्तांत लिखा।
  3. प्लिनी ज्येष्ठ, जो नेचरल हिस्ट्री (प्रकृति वृत्त) नामक विशद ज्ञानकोष का रचयिता है। उसकी यह रचना लगभग 75 ई. में प्रकाशित हुई थी। इसमें यूनानी रचनाओं तथा व्यापारियों के नवीनतम विवरणों के आधार पर भारत का विवरण दिया गया था।
  4. एर्रियान : इसका जन्म लगभग 130 ई. में हुआ था। यह कम से कम 172 ई. तक जीवित रहा। इसने सिकन्दर के अभियानों का सबसे अच्छा वृत्तांत (ऐनाबेसिस) लिखा और निआर्कस, मेगास्थनीज़ तथा भूगोलवेत्ता एराटोस्थनीज़ (276-195 ई.पू.) की रचनाओं के आधार पर भारत, उसके भूगोल, वहाँ के रहन-सहन तथा रीति-रिवाजों के बारे में एक छोटी-सी पुस्तक लिखी है।
  5. प्लूटार्क (लगभग 45-125 ई.), जिसकी लाइव्स (जीवनियाँ) नामक रचना के 57वें से 67वें अध्यायों तक सिकन्दर की जीवनी दी गई है। उन अध्यायों में भारत का भी विवरण मिलता है।[29]
  6. जस्टिन : यह दूसरी शताब्दी ईसवी में हुआ था। इसने एक एपिटोम (सारसंग्रह) की रचना की थी जिसके 12वें खंड में भारत में सिकन्दर के विजय-अभियानों का विवरण दिया गया है।

लेखकों के वृत्तांत

मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त को नंद वंश के उन्मूलन तथा पंजाब-सिंध में विदेशी शासन का अंत करने का ही श्रेय नहीं है वरन् उसने भारत के अधिकांश भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।

  • प्लूटार्क ने लिखा है कि चंद्रगुप्त ने 6 लाख सेना लेकर समूचे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
  • जस्टिन के अनुसार सारा भारत उसके क़ब्ज़े में था।
  • महावंश में कहा गया है कि कौटिल्य ने चंद्रगुप्त को जंबूद्वीप का सम्राट बनाया।
  • प्लिनी ने, जिसका वृत्तान्त मैगस्थनीज़ की इंडिका पर आधारित है, लिखा है कि मगध की सीमा सिंधु नदी है। पश्चिम में सौराष्ट्र चंद्रगुप्त के अधिकार में था। इसकी पुष्टि शक महाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से होती है।

चन्द्रगुप्त का मगध पर आक्रमण

चाणक्य तथा चंद्रगुप्त ने सबसे पहले सीमांत के देशों पर आक्रमण किया (अंतोजनपदं पविसित्वा) और सार्वभौम सत्ताप्राप्त करने की इच्छा से (रज्जम इच्छंतो) उनके गाँवों को लूटना आरंभ किया। (गामाघाटादिकम्मम्)। चंद्रगुप्त सीमांत से भारत के अंत: प्रदेश की ओर मगध तथा पाटलिपुत्र की ओर बढ़ रहा था, परंतु पहले उसने रणनीति में ग़लतियाँ की। एक कहानी इस प्रकार प्रचलित है:-

"इनमें से किसी गाँव में एक स्त्री ने (जिसके घर में चंद्रगुप्त के एक गुप्तचर ने शरण ले रखी थी) रोटी पकाकर अपने बच्चे को दी। बच्चे ने रोटी के किनारे छोड़कर केवल बीच का भाग खा लिया और किनारे फेंककर और रोटी माँगने लगा। इस पर वह स्त्री बोली, 'यह लड़का तो बिलकुल वैसी ही बात कर रहा है जैसी चंद्रगुप्त ने राज्य पर आक्रमण करने में की है।
लड़का बोला, ' क्यों माँ, मैं क्या कर रहा हूँ और चंद्रगुप्त ने क्या किया है? 'वह और बोली, बच्चे, तू रोटी का किनारा-किनारा छोड़कर केवल बीच का भाग खा रहा है। ऐसे ही चंद्रगुप्त ने राजा बनने की महत्त्वाकांक्षा में सीमांत प्रदेशों से आरंभ किए बिना और रास्ते में पड़नेवाले नगरों पर अधिकार किए बिना देश के अंतराल पर आक्रमण कर दिया हैं...... और उसकी सेना को घेरकर नष्ट कर दिया गया है। यह उसकी मूर्खता थी"[30]

इसके बाद चंद्रगुप्त ने दूसरी पद्धति अपनाई। उसने सीमांत प्रदेशों से अपना विजय-अभियान आरंभ किया (पच्चंततो पट्ठाय) और रास्ते में पड़नेवाले अनेक राष्ट्रों तथा जनपदों पर विजय प्राप्त की; पर उसने एक ग़लती यह की कि अपनी विजयों को सुरक्षित रखने के लिए उसने पीछे अपनी सेनाएँ नहीं नियुक्त कीं। परिणाम यह हुआ कि जैसे-जैसे वह आगे बढता गया, वैसे-वैसे जिन जातियों को पराजित करके वह पीछे छोड़ता गया, वे स्वतंत्रतापूर्वक आपस में मिल सकती थीं। और उसकी सेना को घेरकर उसकी योजनाओं को निष्फल बना सकती थीं। तब उसे सही रणनीति सूझी। वह जैसे-जैसे इन राष्ट्रों तथा जनपदों पर विजय प्राप्त करता गया वैसे-वैसे वह वहाँ अपनी सेनाएँ भी नियुक्त करता गया (उग्गहितनया बलम् संविधाय) और फिर उसने अपनी विजयी सेना के साथ मगध की सीमा में प्रवेश करके पाटलिपुत्र पर घेरा डाला और घननंद को मार डाला।[31]

चंद्रगुप्त तथा नंद के बीच जो लड़ाई हुई उसका विवरण नहीं मिलता। परिशिष्टपर्वन नामक जैनग्रंथ के छंद में[32] कहा गया है कि 'नंद के शासन को समूल नष्ट करने के लिए ज़मीन के नीचे छिपाकर रखे गए घनकोषों की सहायता से चाणक्य ने चंद्रगुप्त की सेना के लिए सैनिक भरती किए।' "कुछ गोलों ने यह मत भी व्यक्त किया है कि कदाचित नंद के विरुद्ध अपनी लड़ाई में उसने यूनानी वेतन भोगी सैनिकों को भी इस्तेमाल किया होगा"[33][34]

उसने जो विजय प्राप्त कीं उनके फलस्वरूप यह राज्य और भी बढ़ गया। इसके बाद के चंद्रगुप्त के जीवन का पता हमें प्लूटार्क के निम्नलिखित वक्तव्य से चल सकता है "इसके कुछ ही समय बाद ऐंड्रोकोट्टस[35] ने, जो उसी समय राजसिंहासन पर बैठा था, सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किए और 6,00,000 की सेना लेकर सारे भारत को अपने अधीन कर लिया।"[36] [37]

अभिलेख

  • मैसूर से प्राप्त कुछ शिलालेखों के अनुसार उत्तरी मैसूर में चंद्रगुप्त का शासन था।
  • एक अभिलेख मिला है जिसके अनुसार शिकापुर ताल्लुके के नागरखंड की रक्षा मौर्यों की ज़िम्मेदारी थी। यह उल्लेख 14वीं शताब्दी का है।
  • अशोक के शिलालेखों से भी स्पष्ट है कि मैसूर मौर्य साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण अंग था।
  • प्लूटार्क, जस्टिन, तमिल ग्रंथों तथा मैसूर के अभिलेखों के सम्मिलित प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रथम मौर्य सम्राट ने विध्य पार के काफ़ी भारतीय हिस्सों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था।

राजनीतिक परिस्थितियाँ

चंद्रगुप्त मौर्य का सभा गृह
The court of Chandragupta Maurya

जिस समय चंद्रगुप्त मौर्य साम्राज्य के निर्माण में तत्पर था, सिकन्दर का सेनापति सेल्यूकस अपनी महानता की नींव डाल रहा था। सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके सेनानियों में यूनानी साम्राज्य की सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस, पश्चिम एशिया में प्रभुत्व के मामले में, ऐन्टिगोनस का प्रतिद्वन्द्वी बना। ई. पू. 312 में उसने बेबिलोन पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद उसने ईरान के विभिन्न राज्यों को जीतकर बैक्ट्रिया पर अधिकार किया। अपने पूर्वी अभियान के दौरान वह भारत की ओर बढ़ा। ई. पू. 305-4 में काबुल के मार्ग से होते हुए वह सिंधु नदी की ओर बढ़ा। उसने सिंधु नदी पार की और चंद्रगुप्त की सेना से उसका सामना हुआ। सेल्यूकस पंजाब और सिंधु पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु इस समय की राजनीतिक स्थिति सिकन्दर के आक्रमण के समय से काफ़ी भिन्न थी। यूनानी लेखक स्त्रावो के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में अग्रोनोमोई नामक अधिकारी नदियों की देखभाल, भूमि की नापजोख, जलाशयों का निरीक्षण और नहरों की देखभाल करते थे, ताकि सभी लोगों को पानी ठीक से मिल सके।

पंजाब और सिंधु अब परस्पर युद्ध करने वाले छोटे-छोटे राज्यों में विभिक्त नहीं थे, बल्कि एक साम्राज्य का अंग थे। आश्चर्य की बात है कि यूनानी तथा रोमी लेखक, सेल्यूकस और चंद्रगुप्त के बीच हुए युद्ध का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं देते। केवल एप्पियानस ने लिखा है कि "सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त से युद्ध छेड़ा। अंत में उनमें संधि हो गई और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गया।" जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त से संधि करके और अपने पूर्वी राज्य को शान्त करके सेल्यूकस एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। एप्पियानस के कथन से स्पष्ट है कि सेल्यूकस चंद्रगुप्त के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सका। अपने पूर्वी राज्य की सुरक्षा के लिए सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से संधि करना ही उचित समझा और उस संधि को उसने वैवाहिक सम्बन्ध से और अधिक पुष्ट कर लिया।

सिल्यूकस् को अपने उन भूतपूर्व सहयोगी-सेनापतियों से युद्ध करने की छूट थी जिन्होंने सिकंदर के विजित साम्राज्य को आपस में बाँट लिया, परंतु इसके बाद उसे भारत को अलग-अलग करके छोड़ देना पड़ा। भारत के बारे में जिन यूनानी विवरणों का यहाँ बीच-बीच में उल्लेख हुआ है, वे अधिकतर पाटलिपुत्र (पटना) की राजसभा में सिल्यूकस् के राजदूत मेगास्थनीज़ की सूचनाओं पर आधारित हैं। मेगास्थनीज़ की मूल कृति नष्ट हो गई है, परंतु उसके विवरण के कुछ अंश दूसरे लेखकों की पुस्तकों में आज भी देखने को मिलते हैं।[38]

चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 युद्धोपयोगी हाथी उपहार में देकर इस मैत्री को सुदृढ़ बनाने में अपना योगदान किया। यह उपहार सेल्यूकस के लिए बहुत बहुमूल्य था, क्योंकि उसके संघ के कैसेंडर, लाइसिमैकस तथा तोलेमी नामक राजाओं ने जो उसके मित्र थे, अपने समान शत्रु ऐंटिगोनस के विरुद्ध, उससे सहायता माँगी थी जिसके कारण वह बहुत चिंतित था। चंद्रगुप्त के दिए हुए हाथी ठीक समय पर इप्टस के रणक्षेत्र में पहुँच गए और ऐंटीगोनस का बना-बनाया खेल बिगड़ गया। जब चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को हाथी भेंट किए तो उसके बाद पश्चिमी देशों में लड़े जानेवाले युद्धों के लिए उनकी माँग होने लगी। 281 ई. पू. में पाइर्रहोम इन हाथियों को एपिरोस से इटली ले गया। 251 ई. पू. में हैसड्रबुल ने पैनोरमन में 'भारतीय' महावतों द्वारा चलाए जानेवाले हाथी इस्तेमाल किए। रोम के विरुद्ध द्वितीत प्यूनिक युद्ध में हैनिबाल तथा हैसड्रबुल ने इन्हीं हाथियों को इस्तेमाल किया और राफ़िया की लड़ाई में तोलेमी के लीबियाई हाथी ऐंटीओकस के भारतीय हाथियों के सामने जरा देर न टिक सके[39][40]

यूनान के सेल्यूसिड राजवंश ने फ़ारस में अपनी स्थिति सुदृढ़ बना ली थी और वह सिंधु-पार का क्षेत्र अपने अधिकार में रखने के लिए कृतसंकल्प था। अतः चंद्रगुप्त ने अपना ध्यान कुछ समय के लिए मध्य भारत पर केंद्रित किया और नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित प्रदेश पर अधिकार कर लिया। परंतु 305 ई. पू. में उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में लौटकर उसने सेल्यूकस निकेटर से युद्ध किया और अंततः 303 ई. पू. में उसे पराजित कर दिया। फलतः सिंधु पार के जो प्रांत सेल्यूकस के अधिकार में थे- जिनमें आज के अफ़ग़ानिस्तान का कुछ भाग सम्मिलित है- चंद्रगुप्त को मिल गए। इस प्रकार, सिंध एवं गंगा का मैदान तथा सुदूर उत्तर-पश्चिम चंद्रगुप्त के नियंत्रण में आ गए, जिससे मौर्य साम्राज्य की सीमाएँ निर्धारित हो गईं। कहना न होगा कि यह साम्राज्य किसी भी दृष्टि से दुर्जेय था।[41]

विवाह

  • स्ट्रैबो का कथन है कि सेल्यूकस ने ऐरियाना के प्रदेश, चंद्रगुप्त को विवाह-सम्बन्ध के फलस्वरूप दिए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यूनानी राजकुमारी मौर्य सम्राट को ब्याही गई और ये प्रदेश दहेज के रूप में दिए गए। इतिहासकारों का आमतौर पर यह मत है कि सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को चार प्रान्त दहेज में दिए। :-
  1. एरिया अर्थात् काबुल
  2. अराकोसिया अर्थात् कंधार
  3. जेड्रोसिया अर्थात् मकरान
  4. परीपेमिसदाई अर्थात् हेरात प्रदेश
  • अशोक के लेखों से सिद्ध होता है कि काबुल की घाटी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थी। इन अभिलेखों के अनुसार योन, यवन गांधार भी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थे।
  • प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी उपहार में दिए। सम्भवतः इस संधि के परिणामस्वरूप ही हिन्दुकुश मौर्य साम्राज्य और सेल्यूकस के राज्य के बीच की सीमा बन गया। 2,000 से अधिक वर्ष पूर्व भारत के प्रथम सम्राट ने उस प्राकृतिक सीमा को प्राप्त किया जिसके लिए अंग्रेज़ तरसते रहे और जिसे मुग़ल सम्राट भी पूरी तरह प्राप्त करने में असमर्थ रहे। वैवाहिक सम्बन्ध से मौर्य सम्राटों और सेल्यूकस वंश के राजाओं के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ। सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगस्थनीज़ को चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा। ये मैत्री सम्बन्ध दोनों के उत्तराधिकारियों के बीच भी बने रहे।

चंद्रगुप्त मौर्य ने तक्षशिला-सहित पूरे पंजाब पर अधिकार कर लिया; अफ़ग़ानिस्तान के भीतर तक का गंधार का शेष भाग उसने 305 ई. पू. के आसपास थोड़ी और लड़ाई लड़कर सिल्यूकस् निकेतन से छीन लिया। जानकारी मिलती है कि सिल्यूकस् और विजयी चंद्रगुप्त मौर्य के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हुआ था, इसलिए प्लुटार्क की सूचना के अनुसार, 500 हाथी भेंट किए गए थे। बताया जाता है कि सिल्यूकस् की एक पुत्री का ब्याह चंद्रगुप्त के पुत्र बिंदुसार के साथ हुआ था। यह कोई असंभव बात नहीं है, यद्यपि दो आपत्तियाँ उठाई गई हैं। यूनानी विवाह के नियम और भारतीय जातिप्रथा। [42]

योग्य शासक

चंद्रगुप्त एक कुशल योद्धा, सेनानायक तथा महान् विजेता ही नहीं था, वरन् एक योग्य शासक भी था। इतने बड़े साम्राज्य की शासन - व्यवस्था कोई सरल कार्य नहीं था। अतः अपने मुख्यमंत्री कौटिल्य की सहायता से उसने एक ऐसी शासन - व्यवस्था का निर्माण किया जो उस समय के अनुकूल थी। यह शासन व्यवस्था एक हद तक मगध के पूर्वगामी शासकों द्वारा विकसित शासनतंत्र पर आधारित थी किन्तु इसका अधिक श्रेय चंद्रगुप्त और कौटिल्य की सृजनात्मक क्षमता को ही दिया जाना चाहिए। कौटिल्य ने लिखा है कि उस समय शासन तंत्र पर जो भी ग्रंथ उपलब्ध थे और भिन्न-भिन्न राज्यों में शासन - प्रणालियाँ प्रचलित थीं उन सबका भली-भाँति अध्ययन करने के बाद उसने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ "अर्थशास्त्र" लिखा। विद्वानों का विचार है कि मौर्य शासन व्यवस्था पर तत्कालीन यूनानी तथा आखमीनी शासन प्रणाली का भी कुछ प्रभाव पड़ा। चंद्रगुप्त ने ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की जिसे परवर्ती भारतीय शासकों ने भी अपनाया।

  • इस शासन की मुख्य विशेषताएँ थीं -
  1. सत्ता का अत्यधिक केन्द्रीकरण,
  2. विकसित आधिकारिक तंत्र,
  3. उचित न्याय व्यवस्था,
  4. नगर-शासन, कृषि, शिल्प उद्योग, संचार, वाणिज्य एवं व्यापार की वृद्धि के लिए राज्य के द्वारा अनेक कारगर उपाय।

चंद्रगुप्त के शासन प्रबन्ध का उद्देश्य लोकहित था। जहाँ एक ओर आर्थिक विकास एवं राज्य की समृद्धि के अनेक ठोस क़दम उठाए गए और शिल्पियों एवं व्यापारियों के जान - माल की सुरक्षा की गई, वहीं दूसरी ओर जनता को उनकी अनुचित तथा शोषणात्मक कार्य-विधियों से बचाने के लिए कठोर नियम भी बनाए गए। दासों और कर्मकारों को मालिकों के अत्याचार से बचाने के लिए विस्तृत नियम थे। अनाथ, दरिद्र, मृत सैनिकों तथा राजकर्मचारियों के परिवारों के भरण - पोषण का भार राज्य के ऊपर था। तत्कालीन मापदंड के अनुसार चंद्रगुप्त का शासन - प्रबन्ध एक कल्याणकारी राज्य की धारणा को चरितार्थ करता है। यह शासन निरकुंश था, दंड व्यवस्था कठोर थी और व्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वथा अभाव था, किन्तु यह सब नवज़ात साम्राज्य की सुरक्षा तथा प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर किया गया था। चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था का चरम लक्ष्य अर्थशास्त्र के निम्न उद्धरण से व्यक्त होता है—

"प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है और प्रजा की भलाई में उसकी भलाई। राजा को जो अच्छा लगे वह हितकर नहीं है, वरन् हितकर वह है जो प्रजा को अच्छा लगे।"

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि कौटिल्य ने राजा के समक्ष प्रजाहितैषी राजा का आदर्श रखा।

धार्मिक रुचि

चंद्रगुप्त धर्म में भी रुचि रखता था। यूनानी लेखकों के अनुसार जिन चार अवसरों पर राजा महल से बाहर जाता था, उनमें एक था यज्ञ करना। कौटिल्य उसका पुरोहित तथा मुख्यमंत्री था। हेमचंद्र ने भी लिखा है कि वह ब्राह्मणों का आदर करता है।

जैनियों का दावा है कि चंद्रगुप्त ने अपने जीवन के अंतिम समय में जैन मत स्वीकार कर लिया था और अपने पुत्र को राज्य देकर संन्यासी हो गया था। एक जैन मुनि और अनेक अन्य साधुओं के साथ वह दक्षिण भारत गया, जहाँ उसने जैन धर्म की परंपरागत रीति से धीरे-धीरे अनाहार द्वारा अपने जीवन का अंत कर लिया।[43]

मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि चंद्रगुप्त वन में रहने वाले तपस्वियों से परामर्श करता था और उन्हें देवताओं की पूजा के लिए नियुक्त करता था। वर्ष में एक बार विद्वानों (ब्राह्मणों) की सभा बुलाई जाती थी ताकि वे जनहित के लिए उचित परामर्श दे सकें। दार्शनिकों से सम्पर्क रखना चंद्रगुप्त की जिज्ञासु प्रवृत्ति का सूचक है। जैन अनुयायियों के अनुसार जीवन के अन्तिम चरण में चंद्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि जब मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो चंद्रगुप्त राज्य त्यागकर जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ श्रवण बेल्गोला (मैसूर के निकट) चला गया और एक सच्चे जैन भिक्षु की भाँति उसने निराहार समाधिस्थ होकर 'प्रायोपवेश' प्रक्रिया से प्राणत्याग किया (अर्थात् कैवल्य प्राप्त किया)। 900 ई. के बाद के अनेक अभिलेख भद्रबाहु और चंद्रगुप्त का एक साथ उल्लेख करते हैं।


सिकंदर की मृत्यु के बाद उसका सेनापति सेल्यूकस यूनानी साम्राज्य का शासक बना और उसने चंद्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण कर दिया। पर उसे मुँह की खानी पड़ी। काबुल, हेरात, कंधार, और बलूचिस्तान के प्रदेश देने के साथ-साथ वह अपनी पुत्री हेलना का विवाह चंद्रगुप्त से करने के लिए बाध्य हुआ। इस पराजय के बाद अगले सौ वर्षो तक यूनानियों को भारत की ओर मुँह करने का साहस नहीं हुआ।

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था। इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ के विवरण और कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' से मिलता है। लगभग-300 ई. पू. में चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी।



मौर्य काल
पूर्वाधिकारी
धनानंद
चंद्रगुप्त मौर्य उत्तराधिकारी
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 13 |
  2. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 30 |
  3. प्राचीन भारत का इतिहास |लेखक: द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली |प्रकाशक: दिल्ली विश्वविद्यालय |पृष्ठ संख्या: 174-175 |
  4. विशाखदत्त के प्रसिद्ध नाटक मुद्राराक्षस का टीकाकार
  5. भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानंद भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 143-144 |
  6. सी.डी. चटर्जी | इंडियन कल्चर में आब्ज़र्वेशंस ऑन दि बृहत्कथा | खंड 1- पृष्ठ 221
  7. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 26 |
  8. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 30 |
  9. प्राचीन भारत का इतिहास |लेखक: द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली |प्रकाशक: दिल्ली विश्वविद्यालय |पृष्ठ संख्या: 174 |
  10. सम्पादक: स्ट्रांग, पृष्ठ 98
  11. दीघ निकाय 2,167
  12. सम्पादक: कावेल, पृष्ठ 370
  13. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 28 |
  14. बहुसच्चाभावंच; उग्गहितसिप्पकंच
  15. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 30 |
  16. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 32 |
  17. प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता |लेखक: दामोदर धर्मानंद कोसंबी |अनुवादक: गुणाकर मुले |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 174 |
  18. भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानंद भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 143 |
  19. विस्तृत विवरण के लिए राधाकुमुद मुखर्जी की "ऐन्शेंट इंडियन एजुकेशन", मैकमिलंस, लंदन, नामक रचना का 19वाँ अध्याय देखिए।
  20. वुड्ढपटिपाटिया
  21. मुद्राराक्षस में मलय का उल्लेख मिलता है
  22. रज्जम वा देंतु युद्धं वा
  23. सिंहली भाषा में महावंस टीका का मूलपाठ, जो श्री सी.डी. चटर्जी ने श्री राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़कर बताया [भारतकोश टिप्पणी]
  24. महावंस टीका
  25. महावंस टीका
  26. ऐय्यंगर कृत-बिगिनिंग्स ऑफ़ साउथ इंडियन हिस्ट्री, पृष्ठ 89
  27. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 36 |
  28. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 40 |
  29. Plutarch: Life of Alexander (अंग्रेज़ी) (एच टी एम एल) penelope.uchicago.edu। अभिगमन तिथि: 18 अक्टूबर, 2011।
  30. महावंश टीका, पृष्ठ.123, परिशिष्ट1
  31. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 51 |
  32. VIII, 253-54
  33. कैंब्रिज हिस्ट्री, पृ.435
  34. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 53 |
  35. 'एंड्रोकोट्टस' और 'सैंड्रोकोट्टस' दोनों चन्द्रगुप्त के ही नाम हैं जो यूनानी ग्रंथों में पाये जाते हैं।
  36. लाइव्स, अध्याय 42
  37. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 54 |
  38. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 174 |
  39. वारमिंगटन. कामर्स बिटविन रोमन एंपायर ऐंड इंडिया, पृष्ठ 151
  40. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 55 |
  41. भारत का इतिहास |लेखक: रोमिला थापर |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 62 |
  42. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 174 |
  43. भारत का इतिहास |लेखक: रोमिला थापर |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 62 |

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