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[[फाल्गुन]] के माह [[रंगभरनी एकादशी]] से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो [[दौज]] तक चलते हैं। दौज को [[बलदेव|बल्देव (दाऊजी)]] में [[हुरंगा]] होता है। [[बरसाना]], [[नन्दगाँव|नन्दगांव]], [[जावट ग्राम|जाव]], [[बठैन]], [[जतीपुरा]], [[आन्यौर]] आदि में भी होली खेली जाती है । यह [[ब्रज]] विशेष त्योहार है यों तो [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराणकथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें [[यज्ञ]] रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती है। [[प्रह्लाद]] की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं।  होली दहन के दिन [[कोसी]] के निकट [[फालैन]] गांव में [[प्रह्लाद कुण्ड]] के पास भक्त प्रह्लाद का मेला लगता है। यहाँ तेज जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है।
 
[[फाल्गुन]] के माह [[रंगभरनी एकादशी]] से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो [[दौज]] तक चलते हैं। दौज को [[बलदेव|बल्देव (दाऊजी)]] में [[हुरंगा]] होता है। [[बरसाना]], [[नन्दगाँव|नन्दगांव]], [[जावट ग्राम|जाव]], [[बठैन]], [[जतीपुरा]], [[आन्यौर]] आदि में भी होली खेली जाती है । यह [[ब्रज]] विशेष त्योहार है यों तो [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराणकथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें [[यज्ञ]] रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती है। [[प्रह्लाद]] की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं।  होली दहन के दिन [[कोसी]] के निकट [[फालैन]] गांव में [[प्रह्लाद कुण्ड]] के पास भक्त प्रह्लाद का मेला लगता है। यहाँ तेज जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है।
 
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[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] [[राधा]] और [[गोपि|गोपियों]]–ग्वालों के बीच की होली के रूप में [[गुलाल]], रंग [[केसर]] की [[पिचकारी]] से खूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन [[शुक्ल]] 9 [[बरसाना]] से होता है। वहां की [[होली बरसाना विडियो 1|लठामार होली]] जग प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली [[नन्दगांव]] में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। [[धूलेंड़ी]] को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद [[हुरंगे]] चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ [[लाठियों]], [[कोड़ों]] आदि से पुरुषों को घेरती हैं। यह सब धार्मिक वातावरण होता है।
 
[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] [[राधा]] और [[गोपि|गोपियों]]–ग्वालों के बीच की होली के रूप में [[गुलाल]], रंग [[केसर]] की [[पिचकारी]] से खूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन [[शुक्ल]] 9 [[बरसाना]] से होता है। वहां की [[होली बरसाना विडियो 1|लठामार होली]] जग प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली [[नन्दगांव]] में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। [[धूलेंड़ी]] को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद [[हुरंगे]] चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ [[लाठियों]], [[कोड़ों]] आदि से पुरुषों को घेरती हैं। यह सब धार्मिक वातावरण होता है।
 
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चित्र:Holi Barsana Mathura 4.jpg|लड्डू होली, [[राधा]] रानी मन्दिर, [[बरसाना]]<br />Laddu Holi, Radha Rani Temple,  Barsana
 
चित्र:Holi Barsana Mathura 4.jpg|लड्डू होली, [[राधा]] रानी मन्दिर, [[बरसाना]]<br />Laddu Holi, Radha Rani Temple,  Barsana
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चित्र:Lathmar-Holi-Barsana-Mathura-23.jpg|[[होली बरसाना विडियो 1|लट्ठामार होली]], [[बरसाना]]<br />Lathmar Holi, Barsana
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चित्र:Baldev-Holi-Mathura-32.jpg|[[होली]], [[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव मथुरा|बलदेव]]<br />Holi, Dauji Temple, Baldev
 
चित्र:Baldev-Holi-Mathura-32.jpg|[[होली]], [[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव मथुरा|बलदेव]]<br />Holi, Dauji Temple, Baldev
 
चित्र:Holi-Holigate-Mathura-3.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura
 
चित्र:Holi-Holigate-Mathura-3.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura

10:48, 3 मई 2010 का अवतरण

होली / Holi

फाग उत्सव

फालैन गांव में तेज जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव निकलता पण्डा

फाल्गुन के माह रंगभरनी एकादशी से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो दौज तक चलते हैं। दौज को बल्देव (दाऊजी) में हुरंगा होता है। बरसाना, नन्दगांव, जाव, बठैन, जतीपुरा, आन्यौर आदि में भी होली खेली जाती है । यह ब्रज विशेष त्योहार है यों तो पुराणों के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराणकथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें यज्ञ रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती है। प्रह्लाद की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं। होली दहन के दिन कोसी के निकट फालैन गांव में प्रह्लाद कुण्ड के पास भक्त प्रह्लाद का मेला लगता है। यहाँ तेज जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है।


लट्ठामार होली, बरसाना
Lathmar Holi, Barsana

श्रीकृष्ण राधा और गोपियों–ग्वालों के बीच की होली के रूप में गुलाल, रंग केसर की पिचकारी से खूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल 9 बरसाना से होता है। वहां की लठामार होली जग प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली नन्दगांव में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। धूलेंड़ी को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद हुरंगे चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ लाठियों, कोड़ों आदि से पुरुषों को घेरती हैं। यह सब धार्मिक वातावरण होता है।


होली या होलिका आनन्द एवं उल्लास का ऐसा उत्सव है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। बंगाल को छोड़कर होलिका-दहन सर्वत्र देखा जाता है। बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण-प्रतिमा का झूला प्रचलित है किन्तु यह भारत के अधिकांश स्थानों में नहीं दिखाई पड़ता। इस उत्सव की अवधि विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न है। इस अवसर पर लोग बाँस या धातु की पिचकारी से रंगीन जल छोड़ते हैं या अबीर-गुलाल लगाते हैं। कहीं-कहीं अश्लील गाने गाये जाते हैं। इसमें जो धार्मिक तत्त्व है वह है बंगाल में कृष्ण-पूजा करना तथा कुछ प्रदेशों में पुरोहित द्वारा होलिका की पूजा करवाना। लोग होलिका दहन के समय परिक्रमा करते हैं, अग्नि में नारियल फेंकते हैं, गेहूँ, जौ आदि के डंठल फेंकते हैं और इनके अधजले अंश का प्रसाद बनाते हैं। कहीं-कहीं लोग हथेली से मुख-स्वर उत्पन्न करते हैं।

आरम्भिक शब्दरूप

यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था।<balloon title="जैमिनि, 1।3।15-16)" style="color:blue">*</balloon> भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि होला का सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य<balloon title="73,1" style=color:blue>*</balloon> में एक सूत्र है 'राका होला के', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है-'होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका (पूर्णचन्द्र) देवता है।'[1] अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य रूपों में की है। होला का उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र<balloon title="कामसूत्र, 1।4।42" style=color:blue>*</balloon> में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि<balloon title="काल, पृ0 106" style=color:blue>*</balloon> ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी (आलकज की भाँति) कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है।' वराह पुराण में आया है कि यह 'पटवास-विलासिनी' (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) है। [2]

होलिका

हेमाद्रि<balloon title="(व्रत, भाग 2, पृ0 174-190)" style="color:blue">*</balloon> ने भविष्योत्तर<balloon title="भविष्योत्तर, 132।1।51" style=color:blue>*</balloon> से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है।
होलिका दहन, मथुरा
Holika Dahan, Mathura
कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन अडाडा या होलिका कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'

अन्य प्रान्तों में होलिका

आनन्दोल्लास से परिपूर्ण एवं अश्लील गान-नृत्यों में लीन लोग जब अन्य प्रान्तों में होलिका का उत्सव मनाते हैं तब बंगाल में दोलयात्रा का उत्सव होता है। देखिए शूलपाणिकृत 'दोलयात्राविवेक।' यह उत्सव पाँच या तीन दिनों तक चलता है। पूर्णिमा के पूर्व चतुर्दशी को सन्ध्या के समय मण्डप के पूर्व में अग्नि के सम्मान में एक उत्सव होता है। गोविन्द की प्रतिमा का निर्माण होता है। एक वेदिका पर 16 खम्भों से युक्त मण्डप में प्रतिमा रखी जाती है। इसे पंचामृत से नहलाया जाता है, कई प्रकार के कृत्य किये जाते हैं, मूर्ति या प्रतिमा को इधर-उधर सात बार डोलाया जाता है। प्रथम दिन की प्रज्वलित अग्नि उत्सव के अन्त तक रखी जाती है। अन्त में प्रतिमा 21 बार डोलाई या झुलाई जाती है। ऐसा आया है कि इन्द्रद्युम्न राजा ने वृन्दावन में इस झूले का उत्सव आरम्भ किया था। इस उत्सव के करने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। शूलपाणि ने इसकी तिथि, प्रहर, नक्षत्र आदि के विषय में विवेचन कर निष्कर्ष निकाला है कि दोलयात्रा पूर्णिमा तिथि की उपस्थिति में ही होनी चाहिए, चाहे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो या न हो। होलिकोत्सव के विषय में नि0 सि0<balloon title="नि0 सि0, पृ0 227" style=color:blue>*</balloon>, स्मृतिकौस्तुभ<balloon title="(स्मृतिकौस्तुभ, पृ0 516-519), पृ0 चि0 (पृ0 308-319)" style=color:blue>*</balloon> आदि निबन्धों में वर्णन आया है।

शताब्दियों पूर्व से होलिका उत्सव प्रचलित था

जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं भविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्तीभरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं। [3] कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। कहीं-कहीं लोग भद्दे मजाकों, अश्लील गानों से अपनी कामेच्छाओं की बाह्य तृप्ति करते हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्ट जनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख<balloon title="हिन्दू हालीडेज एवं सेरीमनीज'(पृ0 92)" style="color:blue">*</balloon> में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट (मिस्त्र) या ग्रीस (यूनान) से लिया गया है। किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है। लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस विषय में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।

वीथिका / Gallery

टीका-टिप्पणी

  1. राका होलाके। काठकगृह्य (73।1)। इस पर देवपाल की टीकायों है: 'होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होला के राका देवता। यास्ते राके सुभतय इत्यादि।'
  2. लिंगपुराणे। फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी। ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकर्विभूतये।। वाराहपुराणे। फाल्गुने पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी। ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये॥ हे0 (काल, पृ0 642)। इसमें प्रथम का0वि0 (पृ0 352) में भी आया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थ:
  3. वर्षकृत्यदीपक (पृ0 301) में निम्न श्लोक आये हैं-
    'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥
    सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥
    ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥'

अन्य लिंक

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