दाऊजी मन्दिर मथुरा

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दाऊजी मन्दिर मथुरा
दाऊजी का मन्दिर, बलदेव
दाऊजी का मन्दिर, बलदेव
विवरण भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का यह प्रसिद्ध मन्दिर मथुरा में स्थित है, जिसकी पौराणिक मान्यता है। मन्दिर में 'दाऊजी', 'मदनमोहन' तथा अष्टभुज 'गोपाल' के श्रीविग्रह विराजमान हैं।
स्थान बलदेव, मथुरा
राज्य उत्तर प्रदेश
निर्माणकर्ता गोस्वामी गोकुलनाथ
क्या देखें बलदेव हुरंगा
विशेष मान्यता है कि कल्याण देव नामक ब्राह्मण को बलराम जी ने दर्शन देकर भूमि से मूर्ति निकालने का आदेश दिया था।
संबंधित लेख बलराम, श्रीकृष्ण, कंस, जरासन्ध, रेवती, वल्लभ सम्प्रदाय, बलभद्र कुण्ड ,ब्रज
अन्य जानकारी मन्दिर के चार मुख्य दरवाज़े हैं, जो क्रमश: 'सिंहचौर', 'जनानी ड्योढी', 'गोशाला द्वार' या 'बड़वाले दरवाज़े' के नाम से जाने जाते हैं। मन्दिर के पीछे की ओर ही एक विशाल कुण्ड भी है, जिसका 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण आदि में वर्णन है।
अद्यतन‎

दाऊजी मन्दिर भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम से सम्बन्धित है। मथुरा में यह 'वल्लभ सम्प्रदाय' का सबसे प्राचीन मन्दिर माना जाता है। यमुना नदी के तट पर स्थित इस मन्दिर को 'गोपाल लालजी का मन्दिर' भी कहते हैं। मन्दिर में दाऊजी, मदन मोहन जी तथा अष्टभुज गोपाल के श्री विग्रह विराजमान हैं। दाऊजी या बलराम का मुख्य 'बलदेव मन्दिर' मथुरा के ही बलदेव में है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड भी है, जो 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण वर्णित है। आज कल इसे 'क्षीरसागर' के नाम से पुकारा जाता है।

स्थिति

यह प्रसिद्ध मन्दिर मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है। मथुरा से 21 किलोमीटर की दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में यह स्थित है। मार्ग के बीच में गोकुल एवं महावन, जो कि पुराणों में वर्णित 'वृहद्वन' के नाम से विख्यात है, पड़ते हैं। यह स्थान पुराणोक्त 'विद्रुमवन' के नाम से निर्दिष्ट है। इसी विद्रुमवन में बलराम की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा तथा उनकी सहधर्मिणी राजा ककु की पुत्री ज्योतिष्मती रेवती का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है, जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार स्थापित है। मन्दिर के चार मुख्य दरवाज़े हैं, जो क्रमश: 'सिंहचौर', 'जनानी ड्योढी', 'गोशाला द्वार' या 'बड़वाले दरवाज़े' के नाम से जाने जाते हैं। मन्दिर के पीछे की ओर ही एक विशाल कुण्ड भी है, जिसका 'बलभद्र कुण्ड' के नाम से पुराण आदि में वर्णन है।[1]

दाऊजी की मूर्ति

मन्दिर में मूर्ति पूर्वाभिमुख दो फुट ऊँचे संगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्य स्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु चार देव विग्रह तथा चार देवियों की मूर्तियाँ निर्माण करवा कर स्थापित की थीं। जिनमें से बलदेवजी का यही विग्रह है, जो कि 'द्वापर युग' के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था। पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्ति पूर्व कुषाण कालीन है, जिसका निर्माणकाल दो सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये। ब्रजमण्डल के प्राचीन देव स्थानों में यदि बलदेवजी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ब्रज के अतिरिक्त शायद कहीं इतना विशाल वैष्णव श्रीविग्रह दर्शन को मिले। यह मूर्ति क़रीब 8 फुट ऊँची एवं साढ़े तीन फुट चौडी श्याम-वर्ण की है। पीछे शेषनाग सात फनों से युक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं। मूर्ति नृत्य मुद्रा में स्थापित है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है। विशाल नेत्र, भुजाएँ-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं। मुकट में बारीक नक़्क़ाशी का आभास होता है। पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि प्रदेश में धोती पहने हुए हैं।

मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजयंती माला उत्कीर्ण है। मूर्ति के सिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थित है। शेष के तीन वलय हैं, जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं और योगशास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति के प्रतीक रूप हैं, क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार बलदेव शक्ति के प्रतीक योग एवं शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देते हैं, जो कि सुबल, तोष एवं श्रीदामा सखाओं की हैं। बलदेव जी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती की मूर्ति स्थापित है, जो कि बलदेव के चरणोन्मुख है और रेवती के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है। यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है। दाहिना हाथ वरद मुद्रा में तथा वाम हस्त कटि प्रदेश के पास स्थित है। इस मूर्ति में ही सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है। दोनों भुजाओं में, कण्ठ में, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है।[1] वैदिक धर्म के प्रचार एवं अर्चना का आरम्भ चर्तुव्यूह उपासना से होता है, जिसमें संकर्षण प्रधान हैं। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो ब्रजमण्डल के प्राचीनतम देवता बलदेव ही हैं। सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेव जी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं है। ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवीं शताब्दी पूर्व के हैं, बलदेवोपासना एवं उनके मन्दिर को इंगित किया गया है। अर्पटक, भोरगाँव नानाघटिका के शिलालेख, जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंग कालीन है तथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी बलदेव की पूजा उपासना एवं जनमान्यताओं के प्रतीक हैं।[1]

मूर्ति प्राकट्य

दाऊजी मन्दिर मथुरा

दाऊजी मन्दिर में बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी रोचक इतिहास है। मध्य काल का समय था। मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था। बादशाह अकबर अपने भारी श्रम, बुद्धिचातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में लीन था, जो कि उसके कल्पना लोक की मान्यता के अनुसार कभी भी न ढहे और पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहें। एक ओर यह मुग़लों की स्थापना का समय था, दूसरी ओर मध्ययुगीन धर्माचार्य एवं सन्तों के अवतरण तथा अभ्युदय का स्वर्ण युग। ब्रजमण्डल में तत्कालीन धर्माचार्यों में महाप्रभु वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य एवं चैतन्य सम्प्रदाय की मान्यताएँ अत्यन्त लोकप्रिय थीं। किसी समय गोवर्धन की तलहटी में एक बहुत प्राचीन तीर्थस्थल 'सूर्यकुण्ड' एवं उसका तटवर्ती ग्राम 'भरना-खुर्द'[2] था। इसी सूर्यकुण्ड के घाट पर परम सात्विक ब्राह्मण वंशावतंश गोस्वामी कल्याण देवाचार्य तपस्या करते थे। उनका जन्म भी इसी ग्राम में इभयराम के घर में हुआ था।

कल्याण देव का स्वप्न

एक दिन कल्याण देवजी को ऐसी अनुभूति हुई कि उनका अन्तर्मन तीर्थाटन का आदेश दे रहा है। अत: कल्याण-देवजी ने जगदीश यात्रा का निश्चय कर घर से प्रस्थान कर दिया। गिर्राज परिक्रमा कर मानसी गंगा में स्नान किया और फिर मथुरा पहुँचे। यमुना नदी में स्नान, दर्शन कर आगे बढ़े और विद्रुमवन आये, जहाँ आज का वर्तमान बलदेव नगर है। यहाँ रात्रि को विश्राम किया। सघन वट वृक्षों की छाया तथा सरोवर का किनारा, ये दोनों स्थितियाँ उनको भा गईं। फलत: उन्होंने कुछ दिन यहीं तप करने का निश्चय किया। एक दिन अपने आन्हिक कर्म से निवृत हुये ही थे कि दिव्य हल-मूसलधारी भगवान बलराम उनके सम्मुख प्रकट हुये तथा बोले कि- "मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर माँगो।" कल्याण देवजी ने करबद्ध प्रणाम कर निवेदन किया कि- "प्रभु आपके नित्य दर्शन के अतिरिक्त मुझे कुछ भी अभीष्ट नहीं है। अत: आप नित्य मेरे घर विराजें।" बलदेवजी ने तथास्तु कहकर स्वीकृति दी और अन्तर्धान हो गये। साथ ही यह भी आदेश किया कि- "जिस प्रयोजन हेतु जगदीश यात्रा कर रहे हो, वे सभी फल तुम्हें यहीं मिलेंगे, इस हेतु इसी वट वृक्ष के नीचे मेरी एवं रेवती की प्रतिमाएँ भूमिस्थ हैं, उनका प्राकट्य करो'। अब कल्याण देवजी की व्यग्रता बढ़ गई और वे भूमि खोदने के कार्य में लग गये, जिस स्थान का आदेश बलराम ने किया था।[1]

मूर्ति स्थापना

इधर एक और विचित्र आख्यान उपस्थित हुआ कि जिस दिन कल्याण देवजी को साक्षात्कार हुआ, उसी पूर्व रात्रि को गोकुल में बल्लभाचार्य महाप्रभु के पौत्र गोस्वामी गोकुलनाथ को स्वप्न हुआ कि 'जो श्यामा गौ के बारे में आप चिन्तित हैं, वह नित्य दूध मेरी प्रतिमा के ऊपर स्त्रवित कर देती है। ग्वाला निर्दोष हैं। मेरी प्रतिमाएँ विद्रुमवन में वट वृक्ष के नीचे भूमिस्थ हैं। उसे प्राकट्य कराओ।' यह श्यामा गौ सद्य: प्रसूता होने के बावजूद दूध नहीं देती थी। महाराज को दूध के बारे में ग्वाला के ऊपर सन्देह होता था। प्रभु की आज्ञा से गोस्वामी ने उपर्युक्त स्थल पर जाने का निर्णय किया। वहाँ जाकर देखा कि कल्याण देवजी मूर्तियुगल को भूमि से खोदकर निकाल चुके हैं। वहाँ पहुँच नमस्कार अभिवादन के उपरान्त दोनों ने अपने-अपने वृत्तांत सुनाये। अत्यन्त हर्ष विह्वल धर्माचार्य हृदय को विग्रहों के स्थापन के निर्णय की चिन्ता हुई और निश्चय किया कि इस घोर जंगल से मूर्तिद्वय को हटाकर क्यों न गोकुल में प्रतिष्ठित किया जाय। एतदर्थ अनेक प्रयत्न किए, किन्तु मूर्ति अपने स्थान से टस से मस न हुई और इतना श्रम व्यर्थ गया। हार मानकर यही निश्चय किया गया कि दोनों मूर्तियों को अपने प्राकट्य के स्थान पर ही प्रतिष्ठित कर दिया जाय। अत: जहाँ कल्याण देव तपस्या करते थे, उसी पर्णकुटी में सर्वप्रथम स्थापना हुई, जिसके द्वारा कल्याण देव को नित्य घर में निवास करने का दिया गया वरदान सफल हुआ।

खीर का भोग

एक दिन संयोगत: मार्गशीर्ष मास की पूर्णमासी थी। षोडसोपचार क्रम से वेदाचार के अनुरूप दोनों मूर्तियों की अर्चना हो गई तथा सर्वप्रथम ठाकुरजी को खीर का भोग रखा गया, अत: उस दिन से लेकर आज तक प्रतिदिन खीर भोग में अवश्य आती है। गोस्वामी गोकुलनाथ ने एक नवीन मंदिर के निर्माण का भार वहन करने का संकल्प लिया तथा पूजा-अर्चना का भार कल्याण देव ने लिया। उस दिन से अद्यावधि कल्याण वंशज ही ठाकुर जी की पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं। बाद के समय में मार्गशीर्ष पूर्णिमा सम्वत 1638 विक्रम था। एक वर्ष के भीतर पुन: दोनों मूर्तियों को पर्णकुटी से हटाकर गोस्वामी महाराज के नव-निर्मित देवालय में, जो कि सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त था, मार्गशीर्ष पूर्णिमा संवत 1639 को प्रतिष्ठित कर दिया गया। कहते हैं कि भगवान बलराम की जन्म-स्थली एवं नित्य क्रीड़ा स्थली यह स्थान है। पौराणिक आख्यान के अनुसार यह स्थान नन्द बाबा के अधिकार क्षेत्र में था। यहाँ बाबा की गाय के निवास के लिये बड़े-बड़े खिरक निर्मित थे। मगधराज जरासंध के राज्य की पश्चिमी सीमा यहाँ लगती थीं, अत: यह क्षेत्र कंस के आतंक से प्राय: सुरक्षित था। इसी निमित्त नन्द बाबा ने बलदेव की माता रोहिणी को बलदेव के प्रसव के निमित्त इसी विद्रुमवन में रखा था और यहीं बलदेव का जन्म हुआ था, जिसके प्रतीक रूप रीढ़ा[3] दोनों ग्राम आज तक मौजूद हैं।

धीरे-धीरे समय बीत गया बलदेवजी की ख्याति एवं वैभव निरन्तर बढ़ता गया और समय आ गया धर्माद्वेषी शंहशाह औरंगजेब का। जिसका मात्र संकल्प समस्त हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्ति भंजन एवं देव स्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था। मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देव स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढ़ा तो उसने बलदेव जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय। फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर आगे बढ़ा। कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही, जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो कोस ही बताई जाती जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बलदेव कोई चमत्कारी देव विग्रह है, किन्तु अधमोन्मार्द्ध सेना लेकर बढ़ता ही चला गया जिसके परिणाम-स्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बेर्रा) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पड़ा, जिससे सैकडों सैनिक एवं घोड़े उनके देश के आहत होकर काल कवलित हो गये। औरंगजेब के अन्तर ने स्वीकार किया देवालय का प्रभाव और शाही फ़रमान जारी किया जिसके द्वारा मंदिर को 5 गाँव की माफ़ी एवं एक विशाल नक्कारख़ाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कारख़ाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने का आदेश प्रसारित किया। वहीं नक्कारख़ाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।

होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव
Holi, Dauji Temple, Baldev

इसी फ़रमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्र शाह आलम ने सन् 1196 फ़सली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ाकर यानि 7 गाँव कर दिया। जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फ ख़ाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाह आलम ने एक पृथक् से आदेश चैत्र सुदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया। शाह आलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ। उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथास्थान रखा एवं पृथक् से भोगराग माखन मिश्री एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनाँक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देवजी के पौत्र गोस्वामी हंसराजजी, जगन्नाथजी को दी। यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्रीदाऊ जी महाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनके अधिकार में है। मुग़ल काल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्ण महावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक् देव स्थान खाते की माल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुग़लकाल से आज तक शाही ग्रांट के नाम से जानी जाती है, सरकारी ख़ज़ाने से आज तक भी मंदिर को प्रतिवर्ष भेंट की जाती है।

ब्रिटिश शासन

इसके बाद फिरंगी का ज़माना आया। मन्दिर सदैव से देश-भक्तों के जमावाड़े का केन्द्र रहा, उनकी सहायता एवं शरण-स्थल का एक मान्य-स्रोत भी। जब ब्रिटिश शासन को पता चला तो उन्होंने मन्दिर के मालिकान पण्डों को आगाह किया कि वे किसी भी स्वतन्त्रता प्रेमी को अपने यहाँ शरण न दें, परन्तु आत्मीय सम्बन्ध एवं देश के स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर के मालिकों ने यह हिदायत नहीं मानी, जिससे चिढ़-कर अंग्रेज़ शासकों ने मन्दिर के लिये जो जागीरें भूमि एवं व्यवस्थाएं पूर्व शाही परिवारों से प्रदत्त थी, उन्हें दिनाँक 31 दिसम्बर सन् 1841 को स्पेशल कमिश्नर के आदेश से कुर्की कर जब्त कर लिया और मन्दिर के ऊपर पहरा बिठा दिया, जिससे कोई भी स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर में न आ सके। परन्तु क़िले जैसे प्राचीरों से आवेष्ठित मन्दिर में किसी दर्शनार्थी को कैसे रोक लेते? अत: स्वतन्त्रता संग्रामी दर्शनार्थी के रूप में आते तथा मन्दिर में निर्बाध चलने वाले सदावर्त एवं भोजन व्यवस्था का आनन्द लेते ओर अपनी कार्य-विधि का संचालन करके पुन: अभीष्ट स्थान को चले जाते। अत: प्रयत्न करने के बाद भी गदर प्रेमियों को शासन न रोक पाया।

मान्यताएं

बलदेव एक ऐसा तीर्थ है जिसकी मान्यताएँ हिन्दू धर्मावलम्बी करते आये हैं। धर्माचार्यों में वल्लभाचार्य जी के वंश की तो बात ही पृथक् है। निम्बार्क, माध्व, गौड़ीय, रामानुज, शंकर कार्ष्णि, उदासीन आदि समस्त धर्माचार्यों में बलदेव जी की मान्यताएँ हैं। सभी नियमित रूप से बलदेवजी के दशनार्थ पधारते रहे हैं और यह क्रम आज भी जारी है।

दाऊजी मन्दिर का हुरंगा, बलदेव
Huranga in Dauji Temple, Baldev

इसके साथ ही एक धक्का ब्रिटिश राज में मंदिर को तब लगा, जब ग्राउस यहाँ का कलेक्टर नियुक्त हुआ। ग्राउस महोदय का विचार था कि बलदेव जैसे प्रभावशाली स्थान पर एक चर्च का निर्माण कराया जाय, क्योंकि बलदेव उस समय एक मूर्धन्य तीर्थ स्थल था। अत: उसने मंदिर की बिना आज्ञा के चर्च निर्माण प्रारम्भ कर दिया। शाही जमाने से ही मंदिर की 256 एकड़ भूमि में मंदिर की आज्ञा के बग़ैर कोई व्यक्ति किसी प्रकार का निर्माण नहीं करा सकता था। क्योंकि उपर्युक्त भूमि के मालिक ज़मींदार श्री दाऊजी हैं, तो उनकी आज्ञा के बिना कोई निर्माण कैसे हो सकता था? परन्तु उन्मादी ग्राउस महोदय ने बिना कोई परवाह किये निर्माण कराना शुरू कर दिया। मंदिर के मालिकान ने उसको बलपूर्वक ध्वस्त करा दिया, जिससे चिढ़-कर ग्राउस ने पण्डा वर्ग एवं अन्य निवासियों को भारी आतंकित किया, तो आगरा के एक मूर्धन्य सेठ एवं महाराज मुरसान के व्यक्तिगत प्रभाव का प्रयोग कर वायसराय से भेंट कर ग्राउस का स्थानान्तरण बुलन्दशहर कराया। जिस स्थान पर चर्च का निर्माण कराने की ग्राउस की हठ थी। उसी स्थान पर आज वहाँ बेसिक प्राइमरी पाठशाला है, जो पश्चिमी स्कूल के नाम से जानी जाती है। ग्राउस की पराजय का मूक साक्षी है।

मुख्य आकर्षण

वैसे बलदेव में मुख्य आकर्षण श्री दाऊजी का मंदिर है। किन्तु इसके अतिरिक्त क्षीरसागर तालाब जो कि क़रीब 80 गज़ चौड़ा 80 गज़ लम्बा है। जिसके चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं जिसमें हमेशा जल पूरित रहता है। उस जल में सदैव जैसे दूध पर मलाई होती है उसी प्रकार काई (शैवाल) छायी रहती है। दशनार्थी इस सरोवर में स्नान आचमन करते हैं। इसके पश्चात् दर्शन को जाते हैं।

पर्वोत्सव-मन्दिर

पर्वोत्सव-मन्दिर मूलत: बलभद्र सम्प्रदायी है। किन्तु पूजार्चन में ज़्यादातर प्रसाव पुष्टि मार्गीय है। वैसे वर्ष-भर कोई न कोई उत्सव होता ही रहता है, किन्तु मुख्यत: वर्ष प्रतिपदा, चैत्र पूर्णिमा, बलदेवजी का रासोत्सव, अक्षय तृतीया, (चरण दर्शन), गंगा दशहरा, देवशयनी एकादशी, समस्त श्रावण मास के झूलोत्सव, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, बलदेव श्रीदाऊजी का जन्मोत्सव (भाद्रपद शुक्ल 6) तथा राधाष्टमी, दशहरा, शरद पूर्णिमा, दीपमालिका, गोवर्धन पूजा (अन्नकूट), यम द्वितीया तथा अन्य समस्त कार्तिक मास के उत्सव मार्गशीर्ष पूर्णिमा (पाटोत्सव) तथा माघ की बसंत पंचमी से प्रारम्भ होकर चैत्र कृष्ण-पंचमी तक का 1-1/2 माह का होली उत्सव प्रमुख है। होली में विशेषकर फाल्गुन शुक्ल 15 को होली पूजन सम्पूर्ण हुरंगा जो कि ब्रज मंडल के होली उत्सव का मुकुट मणि है, अत्यन्त सुरम्य एवं दर्शनीय हैं। पंचमी को होली उत्सव के बाद 1 वर्ष के लिये इस मदन-पर्व को विदायी दी जाती है। वैसे तो बलदेव में प्रतिमाह पूर्णिमा को विशेष मेला लगता है फिर भी विशेषकर चैत्र पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, मार्गशीर्ष पूर्णिमा एवं देवछट को भारी भीड़ होती है। इसके अतिरिक्त वर्ष-भर हज़ारों दर्शनार्थी प्रतिदिन आते हैं। भगवान विष्णु के अवतारों की तिथियों को विशेष स्नान भोग एवं अर्चना होती है तथा 2 बार स्नान श्रृँगार एवं विशेष भोग राग की व्यवस्था होती है। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन एवं मिश्री है तथा खीर का प्रसाद, जो कि नित्य भगवान आरोगते हैं, प्रसिद्ध है।

दर्शन का क्रम

यहाँ दर्शन का क्रम प्राय: गर्मी में अक्षय तृतीया से हरियाली तीज तक प्रात: 6 बजे से 12 बजे तक दोपहर 4 बजे से 5 बजे तक एवं सायं 7 बजे से 10 तक होते हैं। हरियाली तीज से प्रात: 6 से 11 एवं दोपहर 3-4 बजे तक एवं रात्रि 6-1/2 से 9 तक होते हैं। मन्दिर में समय-समय पर दर्शन, एवं उत्सवों के अनुरूप यहाँ की समाज गायकी अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहाँ की साँझी कला जिसका केन्द्र मन्दिर ही है अत्यन्त प्रसिद्ध है। बलदेव पटेबाज़ी के अखाड़ेबन्दी (जिसमें हथियार चलाना लाठी भाँजना आदि) का बड़ा शौक़ है समस्त मथुरा जनपद एवं पास-पड़ौसी ज़िलों में भी यहाँ का 'काली' का प्रदर्शन अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है। बलदेव के मिट्टी के बर्तन बहुत प्रसिद्ध हैं। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन मिश्री तथा श्री ठाकुरजी को भाँग का भोग लगने से यहाँ प्रसाद रूप में भाँग पीने के शौक़ीन लोगों की भी कमी नहीं। भाँग तैयार करने के भी कितने ही सिद्ध हस्त-उस्ताद हैं यहाँ की समस्त परम्पराओं का संचालन आज भी मन्दिर से होता है। यदि सामंती युग का दर्शन करना हो तो आज भी बलदेव में प्रत्यक्ष हो सकता है। आज भी मन्दिर के घंटे एवं नक्कारखाने में बजने वाली बम्ब की आवाज़ से नगर के समस्त व्यापार व्यवहार चलते हैं।

महामना मालवीय जी, पं. मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, मोहनदास करमचन्दगाँधी (बापू), माता कस्तूरबा, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णजी, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मोरारजी देसाई, दीनदयालजी उपाध्याय, जैसे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र, निरालाजी, भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बांग्चू के. एन. जी जैसे महापुरुष बलदेव दर्शनार्थ पधारते रहे हैं। जिनके दर्शनार्थ पधारने के दस्तावेज़ आज भी सुरक्षित हैं।


बलदेव होली के विभिन्न दृश्य


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टीका टिप्पणी और सन्दर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 श्रीदाऊजी का मन्दिर, बलदेव (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 05 मई, 2013।
  2. छोटा भरना
  3. रोहिणेयक ग्राम का अपभ्रंश तथा अबैरनी, बैर रहित क्षेत्र

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