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कालिदास लोकाचार और लोकतत्त्व

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कालिदास लौकिक जीवन और ऐहलौकिक आस्था के कवि हैं। अपने समय में प्रचलित लोकाचारों, रीति-रिवाजों और लोकविश्वासों का उन्होंने प्रामाणिक उल्लेख किया है। मेघदूत जैसे लघु कलेवर काव्य में भी उन्होंने कई स्थलों पर लोकजीवन और लोकाचारों की छवियाँ उकेरी हैं। यक्ष ने अपने घर का अभिज्ञान बताते हुए कहा है - द्वारोपांते लिखितवपुषौ शङ्खपदमौ च दृष्टवा उसके घर के द्वार के निकट शंख और पद्म बनाये हुए थे। पूर्ण सरस्वती ने इसकी व्याख्या में कहा है कि शंख से लाँछित देवता शंखनिधि तथा पद्म से लाँछित पद्ममनिथि हैं, जिनकी आकृतियाँ उस काल में द्वार के निकट अंकित की जाती थीं।[1]

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में

'भरतमल्लिक' ने द्वार पर शंख और पद्म बनाने के लोकाचार को पौराणिक विधान से जोड़ते हुए विष्णुधर्मोत्तर पुराण से चित्रसूत्र से शंख और पद्म का लक्षण उद्धत करते हुए इनका स्वरूप विशद रूप में प्रतिपादित किया है। वे यह भी बताते हैं कि शंख और पद्म की आकृतियों के साथ-साथ गृहस्वामी के नाम की सूचना देने वाले विशेष संकेत भी साथ में अंकित किये जाते थे।[2]

मेघदूत में
  • इस प्रकार यक्ष का यह कथन बड़ा सुसंगत लगता है कि मेरे गृहद्वार पर शंख और पद्म को देखकर तुम पहचान लोगे कि वह मेरा ही घर है।

यक्षिणी के वर्णन में विन्यस्यती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पै: इस कथन में भी उस समय के लोकाचार का बड़ा मार्मिक रूप सामने आता है।

  • यक्षिणी शाप की अवधि के दिनों की गणना करती रहती होगी - यह यक्ष अनुमान करता है, पर गणना फूलों से ही क्यों, और वह भी देहली पर रखे फूलों से क्यों? सारोद्धारिणी, मेघलता, महिमसंघगणि कृत टीका तथा सुमतिविजय की टीका में गृहद्वारदारु की प्रतिदिन पूजा करने का लोकाचार 'इस पद्य की व्याख्या में सूचित किया गया है।[3]
  • भरतमल्लिक कहते हैं कि प्रिय इस द्वार से गये हैं और इसी द्वार से लौटेंगे-इस भावना के साथ विरहिणियाँ देहली को पूजती हैं।[4]
  • यक्ष के कथन - वामश्चास्या: कररुहपदैर्मुच्यमानों मदीयै: की व्याख्या में भी भरतमल्लिक यह लोकाचार बताते हैं- प्रवासगमनकाले प्रियेण प्रियाया ऊर्वो: स्तनपार्श्वे च स्मरणार्थ तिस्त्रश्चतस्त्रो वा नखरेखा दीयंते।[5]
  • आलोके ते निपतपि पुरा सा बलिव्याकुला वा - यक्षिणी की देवबलि में ऐसे व्यग्रता के चित्रण में दक्षिणावर्तनाथ प्रोषितभर्तृका का प्रिय के आगमन की वार्ता सुनाने वाले कौवे को बलिपिण्ड देने का उद्यम निरूपित करने वाली लोकजीवन से जुड़ी एक प्राकृत गाथा भी वे प्रमाण में यहाँ उद्धत करते हैं।[6]
कुमारसम्भव
  • इसी प्रकार कुमारसम्भव में शिव - पार्वती के विवाह के वर्णन में महाकवि ने उस समय की वैवाहिक प्रथाओं का सूक्ष्म अंकन किया है। सिद्धार्थ पुष्प और दूर्वा के अंकुर के साथ कौशेय वस्त्र से नववधू पार्वती को अलंकृत किया गया था और उसे हाथ में एक 'बाण' दिया गया था। नववधू के हाथ में बाण देने की प्रथा उस समय की वैवाहिक प्रथाओं में विशिष्ट ही कही जा सकती है।सन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला प्र
  • दक्षिणात्रय, लाजामोक्ष, ध्रुवदर्शन आदि परिणय विधि में आने वाले आचारों का भी चित्रण कवि ने किया है।[7]
रघुवंश महाकाव्य में

रघुवंश में 'दिलीप' और 'सुदक्षिणा' की वसिष्ठाश्रम के प्रति यात्रा में यूपचिह्न वाले ग्राम तथा हैयङ्गवीन[8] लेकर उपस्थित हुए घोषवृद्ध[9] लोकजीवन की छवि साकार करते हैं। इसके आगे वसिष्ठ के आश्रम का वर्णन तो आश्रम के सम्पूर्ण पर्यावरण का यथार्थ अनुभव कराने वाला है।[10] इसी महाकाव्य के सत्रहवें सर्ग में अतिथि के राज्याभिषेक के समय दूर्वा, यवाङ्कुर, प्लक्ष की खाल आदि से उसकी नीराजनाविधि तथा अभिषेक के अनन्तर विशेष नेपथ्यविधि के चित्रण में भी उस समय के लोकाचार प्रतिबिम्बित हैं।[11]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विद्युल्लताटीका, सं, कृष्णमारियर, पृष्ठ 118
  2. विद्युल्लताटीका, सं. कृष्णमाचारिय, पृष्ठ.118
  3. मेघदूत: सं.नन्दगीकर, पृष्ठ 95
  4. सुबोधाटीका, पृष्ठ 66
  5. सुबोधाटीका, पृष्ठ72
  6. मेघदूत: सं. एन. पी. उन्नि,पृष्ठ 150-51
  7. कुमारसम्भव, 7।79-85
  8. ताजा घी
  9. रघुवंश, 1।44,45
  10. रघुवंश, 1।49-53
  11. रघुवंश,17।12-26

बाहरी कड़ियाँ

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