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{{कीट संक्षिप्त परिचय}}
 
{{कीट संक्षिप्त परिचय}}
 
'''कीट''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Insect'') प्राय: छोटा, रेंगने वाला, खंडों में विभाजित शरीर वाला और बहुत-सी टाँगों वाला एक प्राणी हैं, वास्तव में यह नाम विशेष लक्षणों वाले प्राणियों को दिया जाना चाहिए। कीट अपृष्ठीवंशियों<ref>Invertebrates</ref> के उस बड़े के समुदाय अंतर्गत आते है जो संधिपाद<ref>Anthropoda</ref> कहलाते हैं। लिनीयस ने सन 1735 में कीट<ref>इनसेक्ट=इनसेक्टम्‌=कटे हुए</ref> वर्ग में वे सब प्राणी सम्मिलित किए थे, जो अब संधिपाद समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। लिनीयस के इनसेक्ट<ref>इनसेक्टम्‌</ref> शब्द को सर्वप्रथम एम. जे. ब्रिसन ने सन 1756 में सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया। कीट अर्थोपोडा संघ का एक प्रमुख वर्ग है। तभी से यह शब्द इस अर्थ में व्यवहृत हो रहा है। सन 1825 में पी. ए. लैट्रली ने कीटों के लिये हेक्सापोडा<ref>Hexapoda</ref> शब्द का प्रयोग किया, इस शब्द से इन प्राणियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण व्यक्त होता है।<ref name="nn">{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%9F|title=कीट |accessmonthday=17 अगस्त |accessyear=2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतखोज|language=हिन्दी}}</ref>
 
'''कीट''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Insect'') प्राय: छोटा, रेंगने वाला, खंडों में विभाजित शरीर वाला और बहुत-सी टाँगों वाला एक प्राणी हैं, वास्तव में यह नाम विशेष लक्षणों वाले प्राणियों को दिया जाना चाहिए। कीट अपृष्ठीवंशियों<ref>Invertebrates</ref> के उस बड़े के समुदाय अंतर्गत आते है जो संधिपाद<ref>Anthropoda</ref> कहलाते हैं। लिनीयस ने सन 1735 में कीट<ref>इनसेक्ट=इनसेक्टम्‌=कटे हुए</ref> वर्ग में वे सब प्राणी सम्मिलित किए थे, जो अब संधिपाद समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। लिनीयस के इनसेक्ट<ref>इनसेक्टम्‌</ref> शब्द को सर्वप्रथम एम. जे. ब्रिसन ने सन 1756 में सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया। कीट अर्थोपोडा संघ का एक प्रमुख वर्ग है। तभी से यह शब्द इस अर्थ में व्यवहृत हो रहा है। सन 1825 में पी. ए. लैट्रली ने कीटों के लिये हेक्सापोडा<ref>Hexapoda</ref> शब्द का प्रयोग किया, इस शब्द से इन प्राणियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण व्यक्त होता है।<ref name="nn">{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%9F|title=कीट |accessmonthday=17 अगस्त |accessyear=2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतखोज|language=हिन्दी}}</ref>
==वक्ष==
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==लक्षण==
ये प्रगति का केंद्र है। यह शरीर का मध्यभाग होने के कारण प्रगति के लिए बहुत ही उपयुक्त है। इस भाग में तीन खण्ड होते हैं, जो अग्रवक्ष<ref>प्रोथोरेक्स-Prothorax</ref>, मध्य वक्ष<ref>मेसोथोरैक्स-Mesothorax</ref> और पश्च वक्ष<ref>मेटाथोरेक्स-Metathorax</ref> कहलाते हैं। भिन्न-भिन्न समुदाय के कीटों के तीन खण्डों में अत्यधिक भेद पाया जाता है। फुदकने वाले कीटों का अग्र वक्ष सबसे अधिक विकसित होता है, किंतु मध्य वक्ष और पश्च वक्ष का आकार पक्षों की परिस्थिति पर निर्भर करता है। जब दोनों पक्षों का आकार लगभग एक-सा होता है तब दोनों वक्षों का आकार भी एक-सा पाया जाता है। द्विपक्षों में केवल एक ही जोड़ी अर्थात् अग्र पक्ष ही होते हैं। इस कारण मध्य पक्ष सबसे अधिक बड़ा होता है। <br />
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[[कीट|कीटों]] का शरीर खंडों में विभाजित रहता है जिसमें सिर में मुख भाग, एक जोड़ी श्रृंगिकाएँ<ref>Antenna</ref>, प्राय: एक जोड़ी संयुक्त [[नेत्र]] और बहुधा सरल नेत्र भी पाए जाते हैं। वृक्ष पर तीन जोड़ी टाँगें और दो जोड़े पक्ष होते हैं। कुछ कीटों में एक ही जोड़ा पक्ष होता है और कुछ पक्षविहीन भी होते हैं। उदर में टाँगें नहीं होती है। इनके पिछले सिरे पर गुदा होती है और गुदा से थोड़ा सा आगे की ओर जनन छिद्र होता है। श्वसन महीन श्वास नलियों<ref>ट्रेकिया-Trachea</ref> द्वारा होता हैं। श्वास नली बाहर की ओर श्वासरध्रं<ref>स्पाहरेकल Spiracle</ref> द्वारा खुलती है। प्राय: दस जोड़ी श्वासध्रां शरीर में दोनों ओर पाए जाते हैं, किंतु कई जातियों में परस्पर भिन्नता भी रहती है। रक्त लाल कणिकाओं से विहीन होता है और प्लाज्म़ा<ref>Plasma</ref> में हीमोग्लोबिन<ref>Haemoglobin</ref> भी नहीं होता। अत: श्वसन की गैसें नहीं पहुँचती हैं। परिवहन तंत्र खुला होता है, हृदय पृष्ठ की ओर आहार नाल के ऊपर रहता है। रक्त देहगुहा में बहता है, बंद वाहिकाओं की संख्या बहुत थोड़ी होती है। वास्तविक शिराएँ, [[धमनियाँ|धमनियों]] और [[कोशिका|कोशिकाएँ]] नहीं होती हैं। निसर्ग<ref>मैलपीगियन-Malpighian</ref> नलिकाएँ पश्चांत्र के अगले सिरे पर खुलती हैं। एक जोड़ी पांडुर ग्रंथियाँ<ref>Corpora allata</ref> भी पाई जाती हैं। [[अंडा|अंडे]] के निकलने पर परिवर्धन प्राय: सीधे नहीं होता, साधारणतया रूपांतरण द्वारा होता है।
पक्ष विहीन कीटों में प्रत्येक खंड का पृष्ठीय भाग सरल तथा अविभाजित रहता है। पक्ष वाले खंडों का पृष्ठीय भाग लाक्षणिक रूप से तीन भागों में विभाजित रहता है, जो एक दूसरे के पीछे क्रम से जुड़े रहते हैं और प्रग्वरूथ<ref>प्रिस्क्यूटम-Prescutum</ref>, वरूथ<ref>स्क्यूटम-Scutum</ref> तथा वरूथिका<ref>स्क्यूटैलम-Scutalum</ref> कहलाते हैं, वरूथिका के पीछे की ओर पश्च वरूथिका<ref>पोस्ट स्क्यूटैलम Post-Scutalum</ref> भी जुड़ी रहती है जो अंतखंडीय झिल्ली के कड़े होने से बन जाती है। इन सब भागों में वरूथिका ही प्राय: सबसे मुख्य होती है। दोनों ओर के पार्श्वक भी दो-दो भागों में विभाजित रहता है। अग्रभाग उदरोस्थि<ref>एपिस्टर्नम-Episternum</ref> और पश्चभाग पार्श्वक खंड<ref>एपिमीराँन-Epimeron</ref> कहलाता है। प्रतिपृष्ठ में बेसिस्टर्नम<ref>Basisternum</ref> और फर्कास्टर्नम<ref>Fursasternum</ref> नामक दो भाग होते हैं। फर्कास्टर्नम के पीछे की ओर अंतखंडीय झिल्ली कड़ी होकर स्पाइनास्टर्नम<ref>Spinasternum</ref> बनकर जुड़ जाती है।
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{{seealso|कीटों के लक्षण एवं जातियाँ|कीटों का पोषण एवं आवास}}
==पद==
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====जातियाँ====
वक्ष के प्रत्येक खंड में एक जोड़ी टाँग होती है। प्रत्येक टाँग पाँच भागों में विभाजित रहती है। टाँग का निकटस्थ भाग, जो वक्ष से जुड़ा होता है, कक्षांग<ref>कोक्स-Coxa</ref> कहलाता है। दूसरा छोटा-सा भाग ऊरूकट<ref>ट्राकेटर-Trochanter</ref>, तीसरा लंबा और दृण भाग उर्विका<ref>फ़ामर-Femur</ref>, चौड़ा लम्बा पतला भाग जंघा<ref>टिविया-Tibia</ref> और पाँचवा भाग गुल्फ<ref>टार्सस-Tarsus</ref> कहलाता है, जो दो से लेकर पाँच खण्डों में विभाजित हो सकता है। गुल्फ के अंतिम खंड में नखर<ref>क्लाज़-Claws</ref> तथा गद्दी<ref>उपवर्हिका-Pulvillus</ref> जुड़ी होती है और यह भाग गुल्फाग्र<ref>प्रोटार्सस-Pretarsus</ref> कहलाता है। नखर प्राय: एक जोड़ी होते हैं। गद्दियों को पलविलाइ<ref>Pulvilli</ref>, एरोलिया<ref>Arolia</ref>, एपीडिया<ref>Empodia</ref> आदि नाम दिए गए हैं।
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प्राणियों में सबसे अधिक जातियाँ कीटों की हैं। कीटों की संख्या अन्य सब प्राणियों की सम्मिलित संख्या से छह गुनी अधिक है। इनकी लगभग दस बारह लाख जातियाँ अब तक ज्ञात हो चुकी हैं। प्रत्येक वर्ष लगभग छह सहस्त्र नई जातियाँ ज्ञात होती हैं और ऐसा अनुमान है कि कीटों की लगभग बीस लाख जातियाँ संसार में वर्तमान में हैं। इतने अधिक प्राचुर्य का कारण इनका असाधारण अनुकूलन<ref>ऐडैप्टाबिलिटी-Adaptability</ref> का गुण हैं। ये अत्यधिक भिन्न परिस्थितियों में भी सफलतापूर्वक जीवित रहते हैं। पंखों की उपस्थिति के कारण कीटों को विकिरण<ref>डिसपर्सल-dispersal</ref> में बहुत सहायता मिलती हैं। ऐसा देखने में आता है कि परिस्थितियों में परिवर्तन के अनुसार कीटों में नित्य नवीन संरचनाओं तथा वृत्तियों<ref>हैबिट्स- habit</ref> का विकास होता जाता है।
====विशेषता====
 
टाँगों में उपयोगितानुसार अनेक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। खेरिया<ref>ग्रिलोटैल्पा-Gryllotalpa</ref> की टीवियां [[मिट्टी]] खोदने के लिए हैंगी के आकार की हो जाती है और इसके नीचे की ओर तीन खंड वाला गुल्फ जुड़ा होता है। फुदकने वाले टिड्डों की पश्च टागों की ऊर्विका<ref>फ़ीमर-Femur</ref> बहुत पुष्ट होती है। श्रमिक मधुमक्खियों की पश्च टाँगें पराग एकत्र करने के लिए उपयोगी होती हैं। इनमें गुल्फ में क्रमानुसार श्रेणीबद्ध बाल लगे होते हैं, जिनसे वे पराग एकत्र करते हैं, और जंघा के किनारे पर काँटे होते हैं, जो पराग को छत्ते तक ले जाने के लिए पराग डलिया का कार्य करते हैं। आखेटिपतंग की टाँगें गमन करने वाली होने के कारण ऊरूकूट दो भागों में विभाजित हो जाता है। जूँ की टाँगें बालों को पकड़ने के लिए बनी होने के कारण गुल्फ में केवल एक ही खंड होता है तथा उसमें एक ही नखर लगा होता है। बाल को पकड़े रहने के लिए नखर विशेष आकृति का होता है। जलवासी कीटों की टाँगें तैरने के लिए बनी होती हैं। इनमें लम्बे बाल होते हैं, जो पतवार का काम करते हैं। बद्धहस्त<ref>मैंटिस-Mantis</ref> की अगली टाँगें शिकार को पकड़ने के लिए होती हैं। इसका कक्षांग बहुत लंबा, ऊर्विका और जंघा काँटेदार होती है। खाते समय वह इसी से शिकार को पकड़े रहता है। घरेलू मक्खी के गुल्फ में नखर, उपबर्हिकाएँ और बाल होते हैं, जिनके कारण इनका अधोमुख चलाना सम्भव होता है।
 
====प्रगति====
 
चलते समय कीट अपनी अगली और पिछली टाँगें एक ओर, मध्य टाँग दूसरी ओर आगे बढ़ाता है। सारा शरीर क्षण भर को शेष तीन टाँगों की बनी तिपाई पर आश्रित रहता है। अगली टाँग शरीर को आगे की ओर खींचती है, पिछली टाँग उसी ओर को धक्का देती है और मध्य टाँग शरीर को सहारा देकर नीचे या ऊपर करती है। आगे की ओर बढ़ते समय कीट मोड़दार मार्ग का अनुसरण करते हैं।
 
==पक्ष==
 
महीन तथा दो परतों से बने होते हैं, जो मध्य वक्ष और पश्च वक्ष के पृष्ठीय भागों के किनारे से दाएँ बाएँ परत की भाँति विकसित होते हैं। पक्षों में कड़ी, महीन नलिकाओं का एक ढाँचा होता है, जो इसको दृढ़ बनाता है। ये नलिकाएँ शिराएँ<ref>Venis</ref> कहलाती हैं। पक्ष कुछ-कुछ त्रिकोणाकार होते हैं। इसका आगे वाला किनारा पार्श्व<ref>कौस्टैल-Costal</ref>, बाहर की ओर वाला बाहरी<ref>Epical</ref> और तीसरी ओर का किनारा गुदीय<ref>Anal</ref> कहलाता है। पार्श्व किनारे की ओर की शिरायें प्राय: मोटी या अधिक पास होती हैं, क्योंकि उड़ते समय सबसे अधिक दाब पक्ष के इसी भाग पर पड़ती है। शिराओं की रचना कीट के वर्गीकरण में बहुत महत्व रखती हैं। मुख्य शिराओं के नाम इस प्रकार हैं-
 
#कौस्टा<ref>Costa</ref>
 
#सबकौस्टा<ref>Subcosta</ref>
 
#रेडियस<ref>Radius</ref>
 
#मीडियस<ref>Medius</ref>
 
#क्यूबिटस<ref>Cubitus</ref>
 
#ऐनैल<ref>Anal</ref>
 
भिन्न-भिन्न समुदाय के कीटों के पक्षों की शिराओं की रचना में बहुत भेद पाया जाता है। इनमें से कुछ शिराएँ तो लुप्त हो जाती हैं, या उनकी शाखाओं की संख्या बढ़ जाती है। इन शिराओं के बीच-बीच में खड़ी शिराएँ भी पाई जाती हैं।
 
====पक्ष का महत्व====
 
कीटों के जीवन में पक्षों को अत्यधिक महत्व है। पक्ष होने के कारण ये अपने भोजन की खोज में दूर-दूर तक उड़ जाते हैं। इनको अपने शत्रुओं से बचकर भाग निकलने में पक्षों से बड़ी सहायता मिलती है। पक्षों की उपस्थिति के कारण कीटों को अपनी परिव्याप्ति<ref>Dispersal</ref> में, अपने संगों को प्राप्त करने में, अंडा रखने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने में तथा अपना घोंसला ऐसे स्थानों पर बनाने में जहाँ उनके शत्रु न पहुँच पाएँ, बहुत सहायता मिलती है।
 
====उड़ान====
 
उड़ते समय प्रत्येक पक्ष में पेशियों के दो समूहों द्वारा प्रगति होती है। एक समूह तो उन पेशियों का है, जिनका प्रत्यक्ष रूप में पक्षों से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता है। ये पेशियाँ वक्ष की भित्ति पर जुड़ी होती हैं। इनका पक्ष की जड़ से कोई संबंध नहीं रहता है। खड़ी पेशियाँ वक्ष के पृष्ठीय भाग को दबाती हैं। वक्ष के पक्षों की संधि विशेष प्रकार की होने के कारण, इस दाब का यह प्रभाव होता है कि पक्ष ऊपर की ओर उठ जाते हैं। लंबान पेशियाँ वक्ष के पृष्ठीय भाग को वृत्ताकार बना देती हैं, जिसके प्रभाव से पक्ष नीचे की ओर झुक जाते हैं। <br />
 
दूसरे समूह की पेशियाँ, पक्षों की जड़ पर, या पक्षों की जड़ से नन्हें-नन्हें स्किलेराइट पर, जुड़ी होती हैं, इनमें से पक्षों को फैलाने वाली अग्र और पश्च पेशियाँ मुख्य हैं। उड़ते समय प्रथम समूह की पेशियाँ जब पक्षों को बारी-बारी से ऊपर-नीचे करती हैं, तब पक्षों को फैलाने वाली पेशियाँ मुख्य है। उड़ते समय प्रथम समूह की पेशियाँ जब पक्षों को बारी-बारी से उपर-नीचे करती है, तब पक्षों को फैलाने वाली पेशियाँ पक्षों को आगे और पीछे की ओर करती है। उड़ते हुए कीट के पक्षों के आर-पार हवा का बहाव इस प्रकार का होता है कि पक्ष के ऊपरी और निचले तल पर दाब में अंतर रहता है। फलत: एक वायु गति का बल बन जाता है, जो पक्षों को ऊपर की ओर साधे रहता है और शरीर को उड़ते समय सहारा देता है।
 
====कंपन====
 
मक्खियों और मधुमक्खियों में पक्ष कंपन सबसे अघिक होता है। घरेलू मक्खी का पक्ष कंपन प्रति सेकंड 180 से 167 बार होता है, मधुमक्खी में 180 से 203 बार, और मच्छर में 278 से 307 बार। ओडोनेटा<ref>Odonata</ref> गण के कीटों का पक्ष कंपन 28 बार प्रति सेकंड होता है। अत्यधिक वेग से उड़ने वाले कीटों में बाजशलभ और ओडोनेटा की एक जाति के कीट की गति 90 प्रति घंटा तक पहुँच जाती है।
 
==उदर==
 
उदर उपापचय<ref>Metabolism</ref> और जनन का केंद्र है। इसमें 10 खंड होते हैं, अंधकगण<ref>प्रोट्यूरा-Protura</ref> में 12 खंड और अन्य कुछ गणों में 11 खंड पाए जाते हैं। बहुत से गणों में अग्र और पश्च भाग के खंडों में भेद होता है और इस कारण इन भागों के खंडों की सीमा कठिनता से निश्चित हो पाती है, किंतु गुदा सब कीटों में अंतिम खंड पर ही होती है। कुछ कीटों में अंतिम खंड पर एक जोड़ी खंड वाली पुच्छकाएँ<ref>सरसाई-Cerci</ref> लगी होती है। नर में नौवाँ खंड जनन संबंधी होता है। इसके ठीक पीछे ओर प्रतिपृष्ट पर जनन संबंधी छिद्र पाया जाता है और पर जनन अवश्य लगे रहते हैं। जनन अवश्य या बाह्य जननेंद्रियाँ ये हैं-एक शिशन<ref>ईडीगस-Aedeagus</ref>, एक जोड़ी अंतर अवयव<ref>पेरामीयर-Paramere</ref> और एक जोड़ी बाह्य अवयव<ref>क्लास्पर-Clasper</ref>, जो मैथुन के समय मादा को थामने का काम करती है। ये सब अवश्य नवें खंड से विकसित होते हैं। मादा में आठवाँ और नौवाँ जनन संबंधी खंड है और इन्हीं पर जनन अवश्य या बाह्य जननेंद्रियाँ लगी होती है। ये इंद्रियाँ अंडा रखने का कार्य करती है। इसलिए इनको अंडस्थापक भी कहते हैं। मादा का जनन संबंधी छिद्र सांतवे प्रतिपृष्ट के ठीक पीछे होता है, किंतु कुछ गणों में यह अधिक पीछे की ओर हट जाता है।  
 
==कपाट==
 
अंडस्थापक विभिन्न समुदायों के कीटों में विभिन्न कार्य करता है, यथा मधुमक्खियों, बर्रों और बहुत सी चींटियों में डंक का, साफ़िलाइज में पौधों में अंडा रखने के लिए गहरा छेद करने का तथा आखेटिपतंग में दूसरे कीटों के शरीर में अंडा रखने के लिए छेद करने का। कुछ कीटों में अंडस्थापक नहीं होता है। बहुत में कंचुक पक्षों और मक्खियों में शरीर के अंतिम खंड दूरबीन के सदृश हो जाते हैं और अंडा रखने का कार्य करते हैं। अंडस्थापक तीन जोड़ी अवयवों का बना होता है, जो अग्र, पश्च और पृष्ठीय कपाट कहलाते हैं। अग्र कपाट आठवें खंड से और शेष दो जोड़ी कपाट नवे खंड से विकसित होते हैं।
 
==परिवहन तंत्र==
 
पृष्ठ वाहिका मुख्य परिवहन इंद्रिय है। यह शरीर की पृष्ठ भित्ति के नीचे मध्य रेखा में पाई जाती है। यह दो भागों में विभाजित रहती है-
 
#हृदय
 
#महाधमनी
 
====स्पंदनीय इंद्रियाँ====
 
हृदय के प्रत्येक खंड में एक जोड़ी कपाटदार छिद्र, मुखिकाएँ होती हैं। जब हृदय में संकोचन होता है तो ये कपाट रक्त को शरीर गुहा में नहीं जाने देते हैं। कुछ कीटों में विशेष प्रकार की स्पंदनीय इंद्रियाँ पक्षों के तल पर, श्रृगिकाओं और टाँगों में, पाई जाती हैं।  
 
====परिहृद विवर तथा परितंत्रिक्य विवर====
 
पृष्ठ मध्यच्छदा<ref>डायफ्राम-diaphram</ref> जो हृदय के ठीक नीचे की ओर होती हैं, पृष्ठ वाहिका के बाहर रक्त प्रवाह पर कुछ नियंत्रण रखती है। पृष्ठ मध्यच्छदा के ऊपर की ओर से शरीर गुहा के भाग को परिहृद<ref>परिकार्डियल-Pericardial</ref> विवर<ref>साइनस-sinus</ref> कहते हैं। यह दोनों ओर पृष्ठ भित्ति से जुड़ा रहता है। कुछ कीटों के प्रति पृष्ठ मध्यच्छदा भी होती है। यह उदर में तंत्रिका तंतु के ऊपर पाई जाती हैं। उस मध्यच्छदा के नीचे वाले शरीर गुहा के भाग का परितंत्रिक्य<ref>पेरिन्यूरल-Perineural</ref> विवर कहते है। <br />
 
विवर प्रगति के कारण इसके नीचे के रक्त का प्रवाह पीछे की ओर और दाँए-बाएँ होता है। पृष्ठ वाहिका में रक्त आगे की ओर प्रवाहित होता है और उसके द्वारा रक्त सिर में पहुँच जाता है। वहाँ के विभिन्न इंद्रियों और अवयवों में प्रवेश कर जाता है। दोनों मध्यच्छदाओं की प्रगति के कारण शरीर गुहा में रक्त का परिवहन होता रहता है। अंत में मध्यच्छदा के छिद्रों द्वारा रक्त परिहृद विवर में वापस आ जाता है। वहाँ से रक्त मुखिकाओं द्वारा फिर पृष्ठ वाहिका में भर जाता है। रक्त में प्लाविका होती है, जिसमें विभिन्न प्रकार की कणिकाएँ पाई जाती हैं। रक्त द्वारा सब प्रकार के रस द्रव्यों की विभिन्न इंद्रियों में परस्पर अदला-बदली होती रहती है। यही हारमोन की ओर आहार नली से भोजन को सारे शरीर में ले जाता है, उत्सर्जित पदार्थ को उत्सर्जन इंद्रियों तक पहुँचाता है तथा रक्त श्वसन क्रिया में भी कुछ भाग लेता है। परिहृद कोशिकाएँ या नफ्रेोसाइट<ref>Nephrocyte</ref> प्राय: हृदय के दोनों ओर लगी रहती हैं।
 
==उत्सर्जन तंत्र==
 
मैलपीगियन<ref>निसर्ग</ref> नलिकाएँ ही मुख्य उत्सर्जन इंद्रियाँ हैं। ये शरीर गुहा के रक्त में से उत्सर्जित पदार्थ अवशोषण कर पश्चांत्र में ले जाती है। नाइट्रोजन, विशेष करके यूरिक अम्ल या इसके लवण, जैसे अमोनियम यूरेट, बनकर उत्सर्जित होता है। यूरिया केवल बहुत ही मात्रा में पाया जाता है।
 
====उत्सर्जन कार्य====
 
ये उत्सर्जन योग्य पदार्थो को रक्त से पृथक् कर जमा कर लेती है। तृणाभ कोशिकाएँ<ref>ईनोसाइट-Oenocytes</ref> प्राय हल्के पीले रंग की कोशिकाएँ होती है, जो विभिन्न कीटों में विभिन्न स्थानों पर पाई जाती हैं। कुछ कीटों में ये श्वासरध्रं<ref>स्पायरेकिल-Spiracle</ref> के पास मिलती हैं। इनका कार्य भी उत्सर्जन और विषैले पदार्थों को रक्त से पृथक् करना है। इनका वृद्धि और संभवत जनन से विशिष्ट संबंध रखता है। वसा पिंडक या अव्यवस्थित [[ऊतक]] शरीर गुहा में पाया जाता है। कभी-कभी इनका विन्यास खंडीय प्रतीत होता है। वसा पिंडक पत्तर या ढीले सूत्रों<ref>स्टाँड्स-Strands</ref> अथवा ढीले ऊतकों के समान होते हैं। उनका मुख्य कार्य संचित पदार्थो के रक्त से पृथक् कर अपने में जमा करना है। कुछ कीटों में यह उत्सर्जन का कार्य भी करते हैं। पांडुंर ग्रंथियाँ<ref>Corpora allata</ref> एक जोड़ी निश्रोत ग्रंथियाँ होती हैं, जो ग्रसिका के पास, मष्तिष्क के कुछ पीछे और कॉरपोरा कार्डियेका<ref>Corpora cordieca</ref> से जुड़ी हुई पाई जाती हैं। ये तारुणिका हारमोन का उत्सर्जन करती हैं, जो रूपांतरण और निर्मोचन पर नियंत्रण रखता है।
 
 
==जीवन चक्र==
 
==जीवन चक्र==
 
सम शीतोष्ण और शीतल देशों के कीटों के जीवन चक्र में शीत काल में शीत निष्क्रियता<ref>हाइबर्नेशन-Hibernation</ref> पाई जाती है। इन दिनों कीट शिथिल रहता है। अयन वृत्त के देशों में, जहाँ की जलवायु सदा उष्ण और नम होती है, कीटों के जीवन चक्र में शीत निष्क्रियता प्राय: नहीं पाई जाती है और एक पीढ़ी के पश्चात् दूसरी पीढ़ी क्रमानुसार आ जाती है। भारतीय शलभों में ईख की जड़ को भेदने वाला शलभ इल्ली की अवस्था में दिसंबर के प्रथम सप्ताह में शीत निष्क्रिय हो जाता है और प्यूपा बनना [[मार्च]] में आरंभ करता है। पैपिलियो डिमोलियस<ref>Papilio demoleus</ref> नामक तितली प्यूपा अवस्था में और पीत बर्रे प्रौढ़ावस्था में शीत निष्क्रिय होते हैं। पीरिऑडिकल सिकेडा<ref>Periodical cieada</ref> के, जो उत्तरी अमरीका में पाया जाता है, जीवन चक्र पूरे होने में तेरह से सत्रह वर्ष तक लग जाते हैं, किंतु बहुत सी द्रमयूका ऐसी होती हैं, जिनकी एक पीढ़ी लगभग एक सप्ताह में ही पूर्ण हो जाती है। सबसे छोटा जीवन चक्र नन्हें नन्हें कैलसिड नामक कलापक्ष के कीटों का होता है। इन कीटों के डिंभ दूसरे कीटों के अंडों के भीतर पराश्रयी की भाँति रहते हैं और इनका जीवन चक्र केवल सात ही दिन में पूर्ण हो जाता है।  
 
सम शीतोष्ण और शीतल देशों के कीटों के जीवन चक्र में शीत काल में शीत निष्क्रियता<ref>हाइबर्नेशन-Hibernation</ref> पाई जाती है। इन दिनों कीट शिथिल रहता है। अयन वृत्त के देशों में, जहाँ की जलवायु सदा उष्ण और नम होती है, कीटों के जीवन चक्र में शीत निष्क्रियता प्राय: नहीं पाई जाती है और एक पीढ़ी के पश्चात् दूसरी पीढ़ी क्रमानुसार आ जाती है। भारतीय शलभों में ईख की जड़ को भेदने वाला शलभ इल्ली की अवस्था में दिसंबर के प्रथम सप्ताह में शीत निष्क्रिय हो जाता है और प्यूपा बनना [[मार्च]] में आरंभ करता है। पैपिलियो डिमोलियस<ref>Papilio demoleus</ref> नामक तितली प्यूपा अवस्था में और पीत बर्रे प्रौढ़ावस्था में शीत निष्क्रिय होते हैं। पीरिऑडिकल सिकेडा<ref>Periodical cieada</ref> के, जो उत्तरी अमरीका में पाया जाता है, जीवन चक्र पूरे होने में तेरह से सत्रह वर्ष तक लग जाते हैं, किंतु बहुत सी द्रमयूका ऐसी होती हैं, जिनकी एक पीढ़ी लगभग एक सप्ताह में ही पूर्ण हो जाती है। सबसे छोटा जीवन चक्र नन्हें नन्हें कैलसिड नामक कलापक्ष के कीटों का होता है। इन कीटों के डिंभ दूसरे कीटों के अंडों के भीतर पराश्रयी की भाँति रहते हैं और इनका जीवन चक्र केवल सात ही दिन में पूर्ण हो जाता है।  
==संगीतज्ञ कीट==
 
बहुत से कीट संगीतज्ञ होते हैं। कीट वाणीहीन होते हैं, इसलिए इनका संगीत वाद्य संगीत होता है। ये केवल प्रौढ़ावस्था में ही अपना वाद्य जानते हैं। प्राय: नर कीट ही संभवत: मादा को आकर्षित करने के लिए संगीत उत्पन्न करते हैं। इनके वाद्य अधिकतर ढोल के आकार के होते हैं, अर्थात् इन वाद्यों में एक झिल्ली होती है जिसमें तीव्र कंपन होने से ध्वनि उत्पन्न होती है। कंपन उत्पन्न करने की दो विधियाँ है। एक भाग को दूसरे भाग पर रगड़कर जो ध्वनि उत्पन्न की जाती है। उसकी बेला<ref>Violin</ref> से उत्पन्न हुई ध्वनि से तुलना कर सकते हैं। दूसरी विधि में कीट की पेशियों का संकोचन विमोचन होता है। ये पेशियाँ झिल्ली से जुड़ी रहती हैं और इसलिए झिल्ली में भी कंपन होने लगता है। इस प्रकार से ध्वनि उत्पन्न करने का मनुष्य के पास कोई साधन नहीं है। झींगुर, कैटीडिड<ref>Katydid</ref>, टिड्डे तथा सिकेडा कीट समाज की गाने वाली प्रसिद्ध मंडली के सदस्य हैं। झींगुर, कैटीडिड और टिड्डे एक ही गण के अंतर्गत आते हैं। झींगुर और कैटीडिड के एक अग्र पक्ष पर रेती के समान एक फलक होता है, जो दूसरे अग्र पक्ष के उस भाग को रगड़ता है, जो किनारे की ओर मोटा-सा हो जाता है। कैटीडिड में रेती बाएँ पक्ष पर होती है। कुछ झींगुर अपने दाएँ पक्ष वाली रेती से ही काम लेते हैं। टिड्डे के पक्षों पर दाते होते हैं और पिछली टाँगों पर भीतर की ओर तेज किनारा होता है। सिकेडा की पीठ पर दोनों ओर पक्षों के पीछे एक-एक अंडाकार छिद्र होता है, जिस पर एक झिल्ली बनी रहती है। इस प्रकार एक ढोल सा बन जाता है। इस झिल्ली पर भीतर की ओर पेशियाँ जुड़ी रहती हैं, जो इसमें कंपन उत्पन्न करती हैं। ढोल में तीलियाँ होती है। इन तीलियों की संख्या भिन्न-भिन्न जातियों में भिन्न होती है। मच्छर दो प्रकार का गान करते हैं, इनके नाम निम्न हैं-
 
#प्रेमगान
 
#लालसागान
 
====प्रेमगान ====
 
प्रेमगान नर को मैथुन करने के लिए आकर्षित करता है।
 
====लालसागान ====
 
जो प्रेमगान और लालसागान कहलाते हैं। लालसागान द्वारा एक मादा अन्य मादाओं को संदेश देती है कि उसने रुधिर चूसने के लिये शिकार ढूँढ़ लिया है और वे वहाँ पहुँचकर रुधिर चूस सकती हैं।
 
  
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==संबंधित लेख==
 
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09:15, 14 जनवरी 2018 के समय का अवतरण

कीट विषय सूची
कीट
विभिन्न प्रकार के कीट
विवरण कीट प्राय: छोटा, रेंगने वाला, खंडों में विभाजित शरीर वाला और बहुत-सी टाँगों वाला एक प्राणी हैं।
जगत जीव-जंतु
उप-संघ हेक्सापोडा (Hexapoda)
कुल इंसेक्टा (Insecta)
लक्षण इनका शरीर खंडों में विभाजित रहता है जिसमें सिर में मुख भाग, एक जोड़ी श्रृंगिकाएँ, प्राय: एक जोड़ी संयुक्त नेत्र और बहुधा सरल नेत्र भी पाए जाते हैं।
जातियाँ प्राणियों में सबसे अधिक जातियाँ कीटों की हैं। कीटों की संख्या अन्य सब प्राणियों की सम्मिलित संख्या से छह गुनी अधिक है। इनकी लगभग दस बारह लाख जातियाँ अब तक ज्ञात हो चुकी हैं। प्रत्येक वर्ष लगभग छह सहस्त्र नई जातियाँ ज्ञात होती हैं और ऐसा अनुमान है कि कीटों की लगभग बीस लाख जातियाँ संसार में वर्तमान में हैं।
आवास कीटों ने अपना स्थान किसी एक ही स्थान तक सीमित नहीं रखा है। ये जल, स्थल, आकाश सभी स्थानों में पाए जाते हैं। जल के भीतर तथा उसके ऊपर तैरते हुए, पृथ्वी पर रहते और आकाश में उड़ते हुए भी ये मिलते हैं।
आकार कीटों का आकार प्राय: छोटा होता है। अपने सूक्ष्म आकार के कारण वे वहुत लाभान्वित हुए हैं। यह लाभ अन्य दीर्घकाय प्राणियों को प्राप्त नहीं है।
अन्य जानकारी कीटों की ऐसी कई जातियाँ हैं, जो हिमांक से भी लगभग 50 सेंटीग्रेट नीचे के ताप पर जीवित रह सकती हैं। दूसरी ओर कीटों के ऐसे वर्ग भी हैं जो गरम पानी के उन श्रोतों में रहते हैं जिसका ताप 40 से अधिक है।

कीट (अंग्रेज़ी: Insect) प्राय: छोटा, रेंगने वाला, खंडों में विभाजित शरीर वाला और बहुत-सी टाँगों वाला एक प्राणी हैं, वास्तव में यह नाम विशेष लक्षणों वाले प्राणियों को दिया जाना चाहिए। कीट अपृष्ठीवंशियों[1] के उस बड़े के समुदाय अंतर्गत आते है जो संधिपाद[2] कहलाते हैं। लिनीयस ने सन 1735 में कीट[3] वर्ग में वे सब प्राणी सम्मिलित किए थे, जो अब संधिपाद समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। लिनीयस के इनसेक्ट[4] शब्द को सर्वप्रथम एम. जे. ब्रिसन ने सन 1756 में सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया। कीट अर्थोपोडा संघ का एक प्रमुख वर्ग है। तभी से यह शब्द इस अर्थ में व्यवहृत हो रहा है। सन 1825 में पी. ए. लैट्रली ने कीटों के लिये हेक्सापोडा[5] शब्द का प्रयोग किया, इस शब्द से इन प्राणियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण व्यक्त होता है।[6]

लक्षण

कीटों का शरीर खंडों में विभाजित रहता है जिसमें सिर में मुख भाग, एक जोड़ी श्रृंगिकाएँ[7], प्राय: एक जोड़ी संयुक्त नेत्र और बहुधा सरल नेत्र भी पाए जाते हैं। वृक्ष पर तीन जोड़ी टाँगें और दो जोड़े पक्ष होते हैं। कुछ कीटों में एक ही जोड़ा पक्ष होता है और कुछ पक्षविहीन भी होते हैं। उदर में टाँगें नहीं होती है। इनके पिछले सिरे पर गुदा होती है और गुदा से थोड़ा सा आगे की ओर जनन छिद्र होता है। श्वसन महीन श्वास नलियों[8] द्वारा होता हैं। श्वास नली बाहर की ओर श्वासरध्रं[9] द्वारा खुलती है। प्राय: दस जोड़ी श्वासध्रां शरीर में दोनों ओर पाए जाते हैं, किंतु कई जातियों में परस्पर भिन्नता भी रहती है। रक्त लाल कणिकाओं से विहीन होता है और प्लाज्म़ा[10] में हीमोग्लोबिन[11] भी नहीं होता। अत: श्वसन की गैसें नहीं पहुँचती हैं। परिवहन तंत्र खुला होता है, हृदय पृष्ठ की ओर आहार नाल के ऊपर रहता है। रक्त देहगुहा में बहता है, बंद वाहिकाओं की संख्या बहुत थोड़ी होती है। वास्तविक शिराएँ, धमनियों और कोशिकाएँ नहीं होती हैं। निसर्ग[12] नलिकाएँ पश्चांत्र के अगले सिरे पर खुलती हैं। एक जोड़ी पांडुर ग्रंथियाँ[13] भी पाई जाती हैं। अंडे के निकलने पर परिवर्धन प्राय: सीधे नहीं होता, साधारणतया रूपांतरण द्वारा होता है। इन्हें भी देखें: कीटों के लक्षण एवं जातियाँ एवं कीटों का पोषण एवं आवास

जातियाँ

प्राणियों में सबसे अधिक जातियाँ कीटों की हैं। कीटों की संख्या अन्य सब प्राणियों की सम्मिलित संख्या से छह गुनी अधिक है। इनकी लगभग दस बारह लाख जातियाँ अब तक ज्ञात हो चुकी हैं। प्रत्येक वर्ष लगभग छह सहस्त्र नई जातियाँ ज्ञात होती हैं और ऐसा अनुमान है कि कीटों की लगभग बीस लाख जातियाँ संसार में वर्तमान में हैं। इतने अधिक प्राचुर्य का कारण इनका असाधारण अनुकूलन[14] का गुण हैं। ये अत्यधिक भिन्न परिस्थितियों में भी सफलतापूर्वक जीवित रहते हैं। पंखों की उपस्थिति के कारण कीटों को विकिरण[15] में बहुत सहायता मिलती हैं। ऐसा देखने में आता है कि परिस्थितियों में परिवर्तन के अनुसार कीटों में नित्य नवीन संरचनाओं तथा वृत्तियों[16] का विकास होता जाता है।

जीवन चक्र

सम शीतोष्ण और शीतल देशों के कीटों के जीवन चक्र में शीत काल में शीत निष्क्रियता[17] पाई जाती है। इन दिनों कीट शिथिल रहता है। अयन वृत्त के देशों में, जहाँ की जलवायु सदा उष्ण और नम होती है, कीटों के जीवन चक्र में शीत निष्क्रियता प्राय: नहीं पाई जाती है और एक पीढ़ी के पश्चात् दूसरी पीढ़ी क्रमानुसार आ जाती है। भारतीय शलभों में ईख की जड़ को भेदने वाला शलभ इल्ली की अवस्था में दिसंबर के प्रथम सप्ताह में शीत निष्क्रिय हो जाता है और प्यूपा बनना मार्च में आरंभ करता है। पैपिलियो डिमोलियस[18] नामक तितली प्यूपा अवस्था में और पीत बर्रे प्रौढ़ावस्था में शीत निष्क्रिय होते हैं। पीरिऑडिकल सिकेडा[19] के, जो उत्तरी अमरीका में पाया जाता है, जीवन चक्र पूरे होने में तेरह से सत्रह वर्ष तक लग जाते हैं, किंतु बहुत सी द्रमयूका ऐसी होती हैं, जिनकी एक पीढ़ी लगभग एक सप्ताह में ही पूर्ण हो जाती है। सबसे छोटा जीवन चक्र नन्हें नन्हें कैलसिड नामक कलापक्ष के कीटों का होता है। इन कीटों के डिंभ दूसरे कीटों के अंडों के भीतर पराश्रयी की भाँति रहते हैं और इनका जीवन चक्र केवल सात ही दिन में पूर्ण हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Invertebrates
  2. Anthropoda
  3. इनसेक्ट=इनसेक्टम्‌=कटे हुए
  4. इनसेक्टम्‌
  5. Hexapoda
  6. कीट (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 17 अगस्त, 2015।
  7. Antenna
  8. ट्रेकिया-Trachea
  9. स्पाहरेकल Spiracle
  10. Plasma
  11. Haemoglobin
  12. मैलपीगियन-Malpighian
  13. Corpora allata
  14. ऐडैप्टाबिलिटी-Adaptability
  15. डिसपर्सल-dispersal
  16. हैबिट्स- habit
  17. हाइबर्नेशन-Hibernation
  18. Papilio demoleus
  19. Periodical cieada

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