"न्यायकन्दली" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replace - "==टीका-टिप्पणी==" to "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==")
छो (Text replace - "Category:दर्शन" to "")
पंक्ति 43: पंक्ति 43:
 
{{वैशेषिक दर्शन}}
 
{{वैशेषिक दर्शन}}
  
[[Category:दर्शन]]
+
 
 
[[Category:दर्शन कोश]]
 
[[Category:दर्शन कोश]]
 
[[Category:वैशेषिक दर्शन]]
 
[[Category:वैशेषिक दर्शन]]
 
   
 
   
 
__INDEX__
 
__INDEX__

09:13, 21 अगस्त 2010 का अवतरण

प्रशस्तपाद के पदार्थ धर्म संग्रह पर श्रीधराचार्य द्वारा रचित व्याख्या न्यायकन्दली के नाम से प्रख्यात है। न्यायकन्दली पर कई उपटीकाएँ लिखी गईं, जिनमें जैनाचार्य राजशेखर द्वारा रचित न्यायकन्दली पंजिका और पद्मनाभ मिश्र द्वारा रचित न्यायकन्दली सार प्रमुख हैं।

परिचय

न्यायकन्दली के पुष्पिका भाग में श्रीधर ने अपने देश-काल के सम्बन्ध में कुछ विवरण दिया है। तदनुसार उनके जन्मस्थान के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि वह बंगाल प्रान्त में आधुनिक हुगली ज़िले के राढ़ क्षेत्र के भूरिश्रेष्ठ नामक गाँव में उत्पन्न हुए थे। उनका समय 991 ई. माना जाता है। श्रीधर के पिता का नाम बलदेव तथा माता का नाम अब्बोका था। उनके संरक्षक तत्कालीन शासक का नाम नरचन्द्र पाण्डुदास था। श्रीधर ने उनके अनुरोध पर ही 991 ई. में न्यायकन्दली की रचना की थी। कार्ल एच. पाटर ने भी इस तथ्य का उल्लेख किया है। श्रीकृष्ण मिश्र ने अपने प्रबोधचन्द्रोदय नाटक में राठापुरी और भूरिश्रेष्ठिक का उल्लेख किया, जो कि महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश प्रभृति विद्वानों के अनुसार श्रीधर के निवासस्थान से ही सम्बद्ध है।[1]

श्रीधर विरचित ग्रन्थ

गोपीनाथ कविराज के मतानुसार श्रीधर ने चार ग्रन्थ लिखे थे। उन्होंने स्वयं इन कृतियों के संकेत न्यायकन्दली में दिये हैं।[2]

  1. अद्वयसिद्धि; (वेदान्तदर्शन पर)
  2. तत्त्वप्रबोध; (मीमांसा पर)
  3. तत्त्वसंवाहिनी; (न्याय पर)
  4. न्यायकन्दली; (पदार्थ धर्म संग्रह पर)

न्यायकन्दली टीका का दूसरा नाम संग्रह टीका भी है, किन्तु वी. वरदाचारी के अनुसार संग्रह टीका व्योमवती का अपर नाम है, न कि न्यायकन्दली का। कविराज का यह भी कथन है कि न्यायकन्दली कश्मीर में प्रख्यात थी, मिथिला में विद्वज्जन उसका उपयोग करते थे। किन्तु बंगाल में उसका उपयोग नहीं के बराबर हुआ।[3]

न्यायकन्दली का प्रचार दक्षिण में पर्याप्त रूप से हुआ। अत: कतिपय लोगों ने श्रीधर के नाम के साथ भट्ट जोड़ कर इनको दक्षिण देशवासी बताने का प्रयास किया, किन्तु आचार्य श्रीधर द्वारा स्वयं ही अपने जन्म-स्थान का उल्लेख कर देने के कारण यह कल्पना स्वयं ही असंगत सिद्ध हो जाती है।

श्रीधर नाम के अन्य भी कई आचार्य हो चुके हैं, यथा भागवत तथा विष्णु पुराण के टीकाकार श्रीधर स्वामी, किन्तु वह कन्दलीकार श्रीधर से भिन्न थे। पाटीगणितम के रचयिता भी कोई श्रीधर हैं, किन्तु न्यायकन्दली में पाटीगणितम का उल्लेख न होने के कारण वह भी कन्दलीकार श्रीधर नहीं थे। इस सन्दर्भ में पाटीगणितम की भूमिका में श्री सुधाकर द्विवेदी ने दोनों के एक ही व्यक्ति होने के संबन्ध में जो मत व्यक्त किया है, उसकी पुष्टि नहीं होती, अत: वह हमारे विचार में ग्रह्य नहीं है। श्रीधर ने इस ग्रन्थ में धर्मोत्तर, उद्योतकर, मण्डन मिश्र आदि आचार्यों तथा अद्वयसिद्धि, स्फोटसिद्धि, ब्रह्मसिद्धि आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है तथा महोदय शब्द के विश्लेषण के प्रसंग में बौद्धों और जैनों का, संख्यानिरूपण के प्रसंग में विज्ञानवादी बौद्धों का, संयोग के निरूपण के अवसर पर सत्कार्यवाद का और वाक्यार्थप्रकाशकत्व के प्रसंग में स्फोटवाद का खण्डन किया है।

न्यायकन्दली की टीकाएँ-प्रटीकाएँ

श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी ने[4] में श्रीधर और उदयन के पौर्वापरृय पर विचार करते हुए यह लिखा कि उदयनाचार्य बुद्धिनिरूपण पर्यन्त किरणावली टीका का निर्माण कर स्वर्गवासी हो गये। तब श्रीधर ने न्यायकन्दली के रूप में सम्पूर्ण भाष्य पर टीका की। इस प्रकार उदयन, श्रीधर के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं, किन्तु इस संदर्भ में अन्य विद्वान एकमत नहीं हैं।

श्रीनिवास शास्त्री का यह कथन है कि इन दोनों के अनुशीलन से यह सिद्ध होता है कि किरणावली से पूर्व कन्दली की रचना हुई।

न्यायकन्दली की अनेक टीकाएँ और उपटीकाएँ रची गईं, जिनमें जैन आचार्य राजशेखर की न्यायकन्दलीपंजिका और पद्मनाभ मिश्र का न्यायकन्दलीसार प्रमुख है।

पद्मनाभ मिश्रविरचित न्यायकन्दलीसार

कन्दलीसार की रचना पद्मनाभ मिश्र ने की। उनके पिता का नाम श्रीबलभद्र मिश्र तथा माता का नाम विजयश्री था। ऐसा प्रतीत होता है कि पद्मनाभ ने अपने गुरु श्रीधराचार्य से साक्षात रूप में न्यायकन्दली का अध्ययन करने के अनन्तर कन्दली के सारतत्त्व का वर्णन करने के लिए कन्दलीसार नामक टीका लिखी।[5]

राजशेखर सूरि विरचित न्यायकन्दली पंजिका

न्यायकन्दली पर पंजिका नाम की एक टीका जैनाचार्य राजशेखर सूरि ने 1348 ई. में लिखी थी। गायकवाड़ सीरीज से प्रकाशित 'वैशेषिकसूत्रम्' के अष्टम परिशिष्ट में पंजिका के प्रारम्भिक तथा अन्तिम अंश उद्धृत किये गये हैं। राजशेखर सूरि ही सम्भवत: मलधारि सूरि के नाम से भी विख्यात थे। इन्होंने रत्नवार्तिकपंजिका, स्याद्वादकारिका जैसे अन्य ग्रन्थों की भी रचना की।

नरचन्द्र सूरि विरचित न्यायकन्दली टिप्पणिका

इस टिप्पणिका के रचयिता नरचन्द्र सूरि हैं। इसकी पाण्डुलिपि सरस्वती भवन पुस्तकालय में ग्रन्थांक 34148 पर उपलब्ध है। न्यायकन्दली टिप्पणिका के अन्त में इन्होंने यह कहा कि कन्दली की व्याख्या उन्होंने आत्मस्मृति के लिए की है। वह आत्मस्मृति को ही मोक्ष मानते थे। तथा
पृथ्वीधर: सकलतर्कवितर्कसीमाधीमान् जगौ यदिह कन्दलिकारहस्यम्।
व्यक्तीकृतं तदखिलं स्मृतिबीजबोधप्रारोहणाय नरचन्द्रमुनीश्वरेण॥
इनका समय 1150 के आसपास माना जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायपरिचय पृ. 72.
  2. (क) विस्तरस्त्वद्वयसिद्धौ द्रष्टव्य:, न्या. क. पृ. 11, 197
    (ख) मीमांसासिद्धान्तरहस्यं तत्त्वप्रबोधे कथितमस्माभि:, न्या. क. पृ. 347
    (ग) प्रपंचितश्चायमर्थोऽस्माभिस्तत्त्वप्रबोधे तत्त्वसंवादिकायांचेति, न्या. क. पृ. 187
    (घ) तस्य विषयापहारनान्तरीयकं स्यादिति कृतं ग्रन्थविस्तरेण संग्रहटीकायाम्, न्या. क., पृ. 277
  3. Encyclopaidia of Indian Philosophies: Polter, P.485
  4. सटीक प्रशस्तपादभाष्यविज्ञापन पृ. 19
  5. उपदिष्टा गुरुवरैरस्पृष्टा वर्धमानाद्यै:। कन्दल्या: सारार्थास्तन्यन्ते पद्मनाभेन॥ न्यायकन्दलीसार:, पृ. 4

सम्बंधित लिंक