अवतारवाद

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अवतारवाद का हिन्दू धर्म में बड़ा महत्त्व है। पुराणों आदि में अवतारवाद का विस्तृत तथा व्यापकता के साथ वर्णन किया गया है। 'अवतार' का अर्थ होता है- "ईश्वर का पृथ्वी पर जन्म लेना"। संसार के भिन्न-भिन्न देशों तथा धर्मों में अवतारवाद धार्मिक नियम के समान आदर और श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। पूर्वी और पश्चिमी धर्मों में यह सामान्यत: मान्य तथ्य के रूप में स्वीकार भी किया गया है। बौद्ध धर्म के महायान पंथ में अवतार की कल्पना दृढ़ मूल है। पारसी धर्म में अनेक सिद्धांत हिन्दुओं और विशेषत: वैदिक आर्यों के समान हैं, परंतु यहाँ अवतार की कल्पना उपलब्ध नहीं है।

अर्थ

'अवतारवाद' को हिन्दू धर्म में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है। अत्यंत प्राचीन काल से वर्तमान काल तक यह उस धर्म के आधारभूत मौलिक सिद्धांतों में अन्यतम है। 'अवतार' का अर्थ है- "भगवान का अपनी स्वातंत्रय शक्ति के द्वारा भौतिक जगत् में मूर्तरूप से आविर्भाव होना, प्रकट होना।" अवतार तत्व का द्योतक प्राचीनतम शब्द 'प्रादुर्भाव' है। श्रीमद्भागवत में 'व्यक्ति' शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।[1] वैष्णव धर्म में अवतार का तथ्य विशेष रूप से महत्वशाली माना जाता है, क्योंकि विष्णु के पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी तथा अर्चा नामक पंचरूपधारण का सिद्धांत पांचरात्र का मौलिक तत्व है। इसीलिए वैष्णव अनुयायी भगवान के इन नाना रूपों की उपासना अपनी रुचि तथा प्रीति के अनुसार अधिकतर करते हैं। शैवमत में भगवान शंकर की नाना लीलाओं का वर्णन मिलता है, परंतु भगवान शंकर तथा पार्वती के मूल रूप की उपासना ही इस मत में सर्वत्र प्रचलित है।

पौराणिक उल्लेख

हिन्दू धार्मिक ग्रंथों पुराणों आदि में अवतारवाद का विस्तृत तथा व्यापक वर्णन मिलता है। इस कारण इस तत्व की उद्भावना पुराणों की देन मानना किसी भी तरह न्याय नहीं है। वेदों में हमें अवतारवाद का मौलिक तथा प्राचीनतम आधार उपलब्ध होता है। वेदों के अनुसार प्रजापति ने जीवों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि के कल्याण के लिए नाना रूपों को धारण किया। 'शतपथ ब्राह्मण'[2] में मत्स्यरूप धारण का संकेत मिलता है, कूर्म का शतपथ[3] तथा जैमिनीय ब्राह्मण[4] में, वराह का तैत्तिरीय संहिता[5] तथा शतपथ[6] में नृसिंह का तैत्तिरीय आरण्यक में तथा वामन का तैत्तिरीय संहिता[7] में शब्दत: तथा ऋग्वेद में विष्णुओं में अर्थत: संकेत मिलता है। ऋग्वेद में त्रिविक्रम विष्णु को तीन डगों द्वारा समग्र विश्व के नापने का बहुश: श्रेय दिया गया है।[8] आगे चलकर प्रजापति के स्थान पर जब विष्णु में इस प्रकार अवतारों के रूप, लीला तथा घटनावैचित्रय का वर्णन वेद के ऊपर ही बहुश: आश्रित है।

  • भागवत के अनुसार सत्वनिधि हरि के अवतारों की गणना नहीं की जा सकती। जिस प्रकार न सूखने वाले तालाब से हजारों छोटी-छोटी नदियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार अक्षरय्य सत्वाश्रय हरि से भी नाना अवतार उत्पन्न होते हैं-

अवतारा हासंख्येया हरे: सत्वनिधेद्विजा:।
यथाऽविदासिन: कुल्या: सरस: स्यु: सहस्रश:।

  1. व्यूह (संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध)
  2. विभव
  3. अंतर्यामी
  4. अर्यावतार

भगवान विष्णु के अवतारों की संख्या 24 मानी जाती है।[9], परंतु 'दशावतार' की कल्पना नितांत लोकप्रिय है।

अन्य धर्मों में अवतारवाद

  • पारसी धर्म में अनेक सिद्धांत हिन्दुओं और विशेषत: वैदिक आर्यों के समान हैं, परंतु यहाँ अवतार की कल्पना उपलब्ध नहीं है। पारसी धर्मानुयायियों का कथन है कि इस धर्म के प्रौढ़ प्रचारक या प्रतिष्ठापक जरथुष्ट्र के कहीं भी अवतार नहीं माने गए हैं। तथापि ये लोग राजा को पवित्र तथा दैवी शक्ति से संपन्न मानते थे। 'ह्रेनारह' नामक अद्भूत तेज की सत्ता मान्य थी, जिसका निवास पीछे अर्दशिर राजा में तथा सस्नवंशी राजाओं में था, ऐसी कल्पना पारसी ग्रंथों में उपलब्ध है। सामी लोगों में भी अवतारवाद की कल्पना न्यूनाधिक रूप में विद्यमान है। इन लोगों में राजा भौतिक शक्ति का जिस प्रकार चूडांत निवास था, उसी प्रकार वह दैवी शक्ति का पूर्ण प्रतीक माना जाता था। इसलिए राजा को देवता का अवतार मानना यहाँ स्वभावत: सिद्ध सिद्धांत माना जाता था। प्राचीन बेबिलोनिया में इस मान्यता का पूर्ण विकास दिखाई देता है। किश का राजा 'उरुमुश' अपने जीवन काल में ही ईश्वर का अवतार माना जाता था। नरामसिन नामक राजा अपने में देवता का रक्त प्रवाहित मानता था, इसलिए उसने अपने मस्तक पर सींग से युक्त चित्र अंकित करवा रखा था। वह 'अक्काद का देवता' नाम से विशेष प्रख्यात था।
  • बौद्ध धर्म के महायान पंथ में अवतार की कल्पना दृढ़ मूल है। 'बोधिसत्व' कर्मफल की पूर्णता होने पर बुद्ध के रूप में अवतरित होते हैं तथा निर्वाण की प्राप्ति के अनंतर बुद्ध भी भविष्य में अवतार धारण करते हैं। यह महायानियों की मान्यता है। बोधिसत्व 'तुषित' नामक स्वर्ग में निवास करते हुए अपने कर्मफल की परिपक्वता की प्रतीक्षा करते हैं और उचित अवसर आने पर वह मानव जगत् में अवतीर्ण होते हैं। थेरवादियों में यह मान्यता नहीं है। बौद्ध अवतारतत्व का पूर्ण निदर्शन तिब्बत में दलाई लामा की कल्पना में उपलब्ध होता है। तिब्बत में दलाई लामा अवलोकितेश्वर बुद्ध के अवतार माने जाते हैं। तिब्बती परंपरा के अनुसार ग्रेदैन द्रुप[10] नामक लामा ने इस कल्पना का प्रथम प्रादुर्भाव किया था, जिसके अनुसार दलाई लामा धार्मिक गुरु तथा राजा के रूप में प्रतिष्ठित किए गए। ऐतिहासिक दृष्टि से लोजंग-ग्या-मत्सो[11] नामक लामा ने ही इस परंपरा को जन्म दिया। तिब्बती लोगों का दृढ़ विश्वास है कि दलाई लामा के मरने पर उनकी आत्मा किसी बालक में प्रवेश करती है, जो उस मठ के आस-पास ही जन्म लेता है। इसमें अवतार की कल्पना मान्य नहीं थी। चीनी लोगों का पहला राजा शंगती सदाचार और सद्गुण का आदर्श माना जाता था, परंतु उसके ऊपर देवत्व का आरोप कहीं भी नहीं मिलता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10.29.14
  2. 2.8.1।1
  3. 7.5.1.5.
  4. 3।272
  5. 7.5.1.1
  6. 14.1.2.11
  7. 2.1.3.1
  8. एको विममे त्रिभिरित् पदेभि:-ऋग्वेद 1.154.3
  9. श्रीमद्भागवत 2.6
  10. 1473 ई.
  11. 1615-1682

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