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'''ब्रह्मगिरि''' [[मैसूर]] राज्य के चितलदुर्ग जनपद में स्थित है। इसी क्षेत्र में सिद्धपुर नामक ग्राम है। जहाँ [[अशोक]] का एक [[शिलालेख]] मिला है। यह [[अभिलेख]] उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा निर्धारित करता है।
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ब्रह्मगिरि [[मैसूर]] राज्य के चितलदुर्ग जनपद में स्थित है। इसी क्षेत्र में सिद्धपुर नामक ग्राम है। जहाँ [[अशोक]] का एक शिलालेख मिला है। यह अभिलेख उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा निर्धारित करता है।
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सन [[1947]]  ई. में ब्रह्मगिरि के कई स्थलों पर [[उत्खनन]] किया गया। परंतु बस्ती के प्रमुख सांस्कृतिक कालों का परिज्ञान, उत्तर-पूर्व की ओर किये गये उत्खनन से ही हुआ।  
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ब्रह्मगिरि में सर्वप्रथम [[दक्षिण भारत]] में [[भारत का इतिहास पाषाण काल|पाषाण]] युग के अवसान से ऐतिहासिक काल के आरम्भ तक की मानव [[संस्कृति]] के विभिन्न चरणों के अवशेष प्राप्त हुए हैं-
सन [[1947]]  ई. में ब्रह्मगिरि के कई स्थलों पर उत्खनन किया गया। परंतु बस्ती के प्रमुख सांस्कृतिक कालों का परिज्ञान, उत्तर-पूर्व की ओर किये गये उत्खनन से ही हुआ।  
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#ब्रह्मगिरि पाषाण- कुठार संस्कृति  
ब्रह्मगिरि में सर्वप्रथम दक्षिण भारत में [[भारत का इतिहास पाषाण काल|पाषाण]] युग के अवसान से ऐतिहासिक काल के आरम्भ तक की मानव [[संस्कृति]] के विभिन्न चरणों के अवशेष प्राप्त हुए है - यथा
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#महाश्म संस्कृति
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====विभिन्न संस्कृतियाँ====
 
====विभिन्न संस्कृतियाँ====
ब्रह्मगिरि पाषाण- कुठार संस्कृति से ज्ञात होता है कि इस काल के लोग पशुपालन [[कृषि]] कर्म जैसी क्रियाओं से परिचित हो चुके थे। आवास निर्माण में काष्ठ का उपयोग किया जाता था। इस संस्कृति में शिशुओं और वयस्कों के शवों को गाड़ने की भिन्न विधियाँ प्रचलित थीं। मृत शिशु को चौड़े मुँह के पात्र में मोड़कर रख दिया जाता था। और पात्रों का मुँह कटोरे या भग्न-पात्र के पैंदे से ढँक दिया जाता था। वयस्कों के शव भूमि में दफ़ना दिये जाते थे। आन्ध्र संस्कृति ब्रह्मगिरि की अंतिम संस्कृति है। इसके अधिकांश भांड तीव्र गति वाले चक्र पर निर्मित हैं। इस काल के विशिष्ट भाण्ड पर [[सफ़ेद रंग|श्वेत]] [[ रंग]] के रेखाचित्र अंकित हैं, जिन पर [[कत्थई रंग]] चढ़ाया गया है। यह सातवाहनों के समय की संस्कृति हैं।
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ब्रह्मगिरि पाषाण- कुठार संस्कृति से ज्ञात होता है कि इस काल के लोग पशुपालन [[कृषि]] कर्म जैसी क्रियाओं से परिचित हो चुके थे। आवास निर्माण में काष्ठ का उपयोग किया जाता था। इस संस्कृति में शिशुओं और वयस्कों के शवों को गाड़ने की भिन्न विधियाँ प्रचलित थीं। मृत शिशु को चौड़े मुँह के पात्र में मोड़कर रख दिया जाता था। और पात्रों का मुँह कटोरे या भग्न-पात्र के पैंदे से ढँक दिया जाता था। वयस्कों के शव भूमि में दफ़ना दिये जाते थे। आन्ध्र संस्कृति ब्रह्मगिरि की अंतिम संस्कृति है। इसके अधिकांश भांड तीव्र गति वाले चक्र पर निर्मित हैं। इस काल के विशिष्ट भाण्ड पर [[सफ़ेद रंग|श्वेत]] [[ रंग]] के रेखाचित्र अंकित हैं, जिन पर [[कत्थई रंग]] चढ़ाया गया है। यह [[सातवाहन|सातवाहनों]] के समय की संस्कृति है।
 
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महाश्मक संस्कृति में [[लोहा|लोहे]] का प्रयोग आरम्भ हुआ। लोहे के उपकरणों में हँसिया, चाकू, तलवार, भाला, तीर-फलक तथा शंकु प्राप्त हुए हैं। इस काल के विशिष्ट भांड सामान्यतः अन्दर की ओर तथा मुँह के पास [[काला रंग|काले]] हैं और उनका शेष बाह्य भाग [[लाल रंग|लाल]] है। इन्हें मेगेलिथिक या कृष्ण एवं रक्त भांड की [[संज्ञा]] दी गई है। ये चमकदार हैं। इनका निर्माण मंद गतिवान चक्र पर किया गया।  
 
महाश्मक संस्कृति में [[लोहा|लोहे]] का प्रयोग आरम्भ हुआ। लोहे के उपकरणों में हँसिया, चाकू, तलवार, भाला, तीर-फलक तथा शंकु प्राप्त हुए हैं। इस काल के विशिष्ट भांड सामान्यतः अन्दर की ओर तथा मुँह के पास [[काला रंग|काले]] हैं और उनका शेष बाह्य भाग [[लाल रंग|लाल]] है। इन्हें मेगेलिथिक या कृष्ण एवं रक्त भांड की [[संज्ञा]] दी गई है। ये चमकदार हैं। इनका निर्माण मंद गतिवान चक्र पर किया गया।  
 
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ब्रह्मगिरि के उत्खनन में प्राप्त मृद्भाण्डों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि यहाँ कुम्भ [[कला]] का विकास एक क्रमित गति से हुआ था। प्रस्तर-कुल्हाड़ी युगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड हाथ से बनाये गये थे और अत्यंत भद्दी आकृति के हैं।  
 
ब्रह्मगिरि के उत्खनन में प्राप्त मृद्भाण्डों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि यहाँ कुम्भ [[कला]] का विकास एक क्रमित गति से हुआ था। प्रस्तर-कुल्हाड़ी युगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड हाथ से बनाये गये थे और अत्यंत भद्दी आकृति के हैं।  
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महाश्मयुगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड पॉलिस युक्त, सुन्दर काले और भूरे रंग वाले और कुछ मुड़ी हुई आकृति के हैं। आंध्रयुगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड अधिक विकसित मिलते हैं। इस प्रकार यहाँ की मृद्भाण्ड कला में क्रमिक विकास उल्लेखनीय है। इस क्रमिक विकास का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
 
महाश्मयुगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड पॉलिस युक्त, सुन्दर काले और भूरे रंग वाले और कुछ मुड़ी हुई आकृति के हैं। आंध्रयुगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड अधिक विकसित मिलते हैं। इस प्रकार यहाँ की मृद्भाण्ड कला में क्रमिक विकास उल्लेखनीय है। इस क्रमिक विकास का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
 
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08:59, 7 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

ब्रह्मगिरि

ब्रह्मगिरि मैसूर राज्य के चितलदुर्ग जनपद में स्थित है। इसी क्षेत्र में सिद्धपुर नामक ग्राम है। जहाँ अशोक का एक शिलालेख मिला है। यह अभिलेख उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा निर्धारित करता है।

इतिहास

सन 1947 ई. में ब्रह्मगिरि के कई स्थलों पर उत्खनन किया गया। परंतु बस्ती के प्रमुख सांस्कृतिक कालों का परिज्ञान, उत्तर-पूर्व की ओर किये गये उत्खनन से ही हुआ। ब्रह्मगिरि में सर्वप्रथम दक्षिण भारत में पाषाण युग के अवसान से ऐतिहासिक काल के आरम्भ तक की मानव संस्कृति के विभिन्न चरणों के अवशेष प्राप्त हुए हैं-

  1. ब्रह्मगिरि पाषाण- कुठार संस्कृति
  2. महाश्म संस्कृति
  3. आन्ध्र संस्कृति

विभिन्न संस्कृतियाँ

ब्रह्मगिरि पाषाण- कुठार संस्कृति से ज्ञात होता है कि इस काल के लोग पशुपालन कृषि कर्म जैसी क्रियाओं से परिचित हो चुके थे। आवास निर्माण में काष्ठ का उपयोग किया जाता था। इस संस्कृति में शिशुओं और वयस्कों के शवों को गाड़ने की भिन्न विधियाँ प्रचलित थीं। मृत शिशु को चौड़े मुँह के पात्र में मोड़कर रख दिया जाता था। और पात्रों का मुँह कटोरे या भग्न-पात्र के पैंदे से ढँक दिया जाता था। वयस्कों के शव भूमि में दफ़ना दिये जाते थे। आन्ध्र संस्कृति ब्रह्मगिरि की अंतिम संस्कृति है। इसके अधिकांश भांड तीव्र गति वाले चक्र पर निर्मित हैं। इस काल के विशिष्ट भाण्ड पर श्वेत रंग के रेखाचित्र अंकित हैं, जिन पर कत्थई रंग चढ़ाया गया है। यह सातवाहनों के समय की संस्कृति है।

लोहे के विभिन्न उपकरण

महाश्मक संस्कृति में लोहे का प्रयोग आरम्भ हुआ। लोहे के उपकरणों में हँसिया, चाकू, तलवार, भाला, तीर-फलक तथा शंकु प्राप्त हुए हैं। इस काल के विशिष्ट भांड सामान्यतः अन्दर की ओर तथा मुँह के पास काले हैं और उनका शेष बाह्य भाग लाल है। इन्हें मेगेलिथिक या कृष्ण एवं रक्त भांड की संज्ञा दी गई है। ये चमकदार हैं। इनका निर्माण मंद गतिवान चक्र पर किया गया।

मृद्भाण्ड

ब्रह्मगिरि के उत्खनन में प्राप्त मृद्भाण्डों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि यहाँ कुम्भ कला का विकास एक क्रमित गति से हुआ था। प्रस्तर-कुल्हाड़ी युगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड हाथ से बनाये गये थे और अत्यंत भद्दी आकृति के हैं।

महाश्मयुगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड पॉलिस युक्त, सुन्दर काले और भूरे रंग वाले और कुछ मुड़ी हुई आकृति के हैं। आंध्रयुगीन सभ्यता के मृद्भाण्ड अधिक विकसित मिलते हैं। इस प्रकार यहाँ की मृद्भाण्ड कला में क्रमिक विकास उल्लेखनीय है। इस क्रमिक विकास का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।


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