भारतीय रुपया

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भारतीय रुपया
भारतीय रुपए का प्रतीक चिह्न
ISO कोड 4217 INR
उपनाम टका, रुपय्या, रुबाई
केंद्रीय बैंक भारतीय रिज़र्व बैंक
अधिकृत सदस्य भारत
अनाधिकृत सदस्य भूटान और नेपाल
मुद्रास्फीति 5.96%, मार्च 2013
स्रोत Economic Adviser
उप इकाई पैसा
सिक्के 50 पैसे, 1 रुपये, 2 रुपये, 5 रुपये और 10 रुपये
बैंकनोट 2 रुपये, 5 रुपये, 10 रुपये, 20 रुपये, 50 रुपये, 100 रुपये, 500 रुपये, 1000 रुपये
अन्य जानकारी रुपया शब्द सन् 1540 - 1545 के बीच शेरशाह सूरी के द्वारा जारी किए गए चाँदी के सिक्कों के लिए उपयोग में लाया गया। मूल रुपया चाँदी का सिक्का होता था, जिसका वजन 11.34 ग्राम था।
बाहरी कड़ियाँ रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया

भारतीय रुपया (अंग्रेज़ी: Indian Rupee, कोड: INR) भारत की राष्ट्रीय मुद्रा है। इसका बाज़ार नियामक और जारीकर्ता भारतीय रिज़र्व बैंक है। नये प्रतीक चिह्न के आने से पहले रूपये को हिन्दी में दर्शाने के लिए 'रु' और अंग्रेज़ी में Re. (1 रुपया), Rs., और Rp. का प्रयोग किया जाता था। आधुनिक भारतीय रुपये को 100 पैसे में विभाजित किया गया है। सिक्कों का मूल्य 5, 10, 20, 25 और 50 पैसे है और 1, 2, 5 और 10 रुपये भी है। बैंकनोट 1, 2, 5, 10, 20, 50, 100, 500 और 1000 के मूल्य पर हैं। रुपया शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘रौप्य’ से हुई है, जिसका अर्थ होता है, चांदी। भारतीय रुपये को हिंदी में रुपया, गुजराती में रुपियो, तेलुगूकन्नड़ में रूपई, तमिल में रुबाई, बंगालीअसमिया में टका/टॉका और उड़िया में टंका और संस्कृत में रुप्यकम कहा जाता है।

मूल्य

शेरशाह सूरी के शासनकाल के दौरान शुरू किया गया ‘रुपया’ आज तक प्रचलन में है। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान भी यह प्रचलन में रहा, इस दौरान इसका वज़न 11.66 ग्राम था और इसके भार का 91.7% तक शुद्ध चांदी थी। 19वीं शताब्दी के अंत में रुपया प्रथागत ब्रिटिश मुद्रा विनिमय दर के अनुसार एक शिलिंग और चार पेंस के बराबर था, वहीं यह एक पाउंड स्टर्लिंग का 1 / 15 हिस्सा था। उन्नीसवीं सदी में जब दुनिया में सबसे सशक्त अर्थव्यवस्थायें स्वर्ण मानक पर आधारित थीं तब चांदी से बने रुपये के मूल्य में भीषण गिरावट आयी। संयुक्त राज्य अमेरिका और विभिन्न यूरोपीय उपनिवेशों में विशाल मात्रा में चांदी के स्रोत मिलने के परिणामस्वरूप चांदी का मूल्य सोने के अपेक्षा काफी गिर गया। अचानक भारत की मानक मुद्रा से अब बाहर की दुनिया से ज्यादा खरीद नहीं की जा सकती थी। इस घटना को ‘रुपए की गिरावट" के रूप में जाना जाता है। पहले रुपए (11.66 ग्राम) को 16 आने या 64 पैसे या 192 पाई में बांटा जाता था। रुपये का दशमलवीकरण 1869 में सीलोन (श्रीलंका) में, 1957 में भारत में और 1961 में पाकिस्तान में हुआ। इस प्रकार अब एक भारतीय रुपया 100 पैसे में विभाजित हो गया। भारत में कभी कभी पैसे के लिए नया पैसा शब्द भी इस्तेमाल किया जाता था।

प्रतीक चिह्न

'भारतीय रुपए' का प्रतीक चिह्न अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आदान-प्रदान तथा आर्थिक संबलता को परिलक्षित कर रहा है। रुपए का चिह्न भारत के लोकाचार का भी एक रूपक है। रुपए का यह नया प्रतीक देवनागरी लिपि के 'र' और रोमन लिपि के अक्षर 'आर' को मिला कर बना है, जिसमें एक क्षैतिज रेखा भी बनी हुई है। यह रेखा हमारे राष्ट्रध्वज तथा बराबर के चिह्न को प्रतिबिंबित करती है। भारत सरकार ने 15 जुलाई, 2010 को इस चिह्न को स्वीकार कर लिया है। यह चिह्न भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मुम्बई के पोस्ट ग्रेजुएट डिजाइन श्री डी. उदय कुमार ने बनाया है। इस चिह्न को वित्त मंत्रालय द्वारा आयोजित एक खुली प्रतियोगिता में प्राप्त हज़ारों डिज़ायनों में से चुना गया है। इस प्रतियोगिता में भारतीय नागरिकों से रुपए के नए चिह्न के लिए डिज़ाइन आमंत्रित किए गए थे। इस चिह्न को डिजीटल तकनीक तथा कम्प्यूटर प्रोग्राम में स्थापित करने की प्रक्रिया चल रही है।

रुपये का इतिहास

भारतीय एक रुपये का सिक्का (1862)
भारतीय आधा आना का सिक्का (1945)
ऐतिहासिक भारतीय सिक्के

भारत विश्व की उन प्रथम सभ्यताओं में से है जहाँ सिक्कों का प्रचलन शुरू हुआ। लगभग 6वीं सदी ईसा पूर्व में रुपए शब्द का अर्थ, शब्द 'रूपा' से जोडा जा सकता है जिसका अर्थ होता है चाँदीसंस्कृत में 'रूप्यकम्' का अर्थ है 'चाँदी का सिक्का'। रुपया शब्द सन् 1540 - 1545 के बीच शेरशाह सूरी के द्वारा जारी किए गए चाँदी के सिक्कों के लिए उपयोग में लाया गया। मूल रुपया चाँदी का सिक्का होता था, जिसका वजन 11.34 ग्राम था। यह सिक्का ब्रिटिश भारत के शासन काल में भी उपयोग में लाया जाता रहा। बीसवीं सदी में फ़ारस की खाड़ी के देशों[1] तथा अरब मुल्कों में भारतीय रुपया मुद्रा के तौर पर प्रचलित थी। सोने की तस्करी को रोकने तथा भारतीय मुद्रा के बाहर में प्रयोग को रोकने के लिए मई 1959 में भारतीय रिज़र्व बैंक ने गल्फ़ रुपी[2] का विपणन किया। साठ के दशक में कुवैत तथा बहरीन ने अपनी स्वतंत्रता के बाद अपनी ख़ुद की मुद्रा प्रयोग में लानी शुरू की तथा 1966 में भारतीय रुपये में हुए अवमूल्यन से बचने के लिए क़तर ने भी अपनी मुद्रा शुरू कर दी ।[3]

चाँदी का रुपया

ऐतिहासिक तौर पर रुपया चाँदी पर आधारित मुद्रा थी। 19वी शताब्दी में इसके विपरीत परिणाम हुए, जब यूरोप और अमेरिका में भारी पैमाने में चाँदी की खोज हुई। उस समय की मज़बूत अर्थव्यवस्थाएँ सोने पर आधारित थी। चाँदी की खोज से चाँदी और सोने के सापेक्षित मूल्यो में भारी अंतर आया। अचानक ही भारत की मुद्रा विश्व बाज़ार में उतना नहीं ख़रीद सकती थी जितना पहले। इसे "'रुपए की गिरावट'" के नाम से भी जाना जाता है। शुरुआत में एक रूपए को 16 आना, 64 पैसों या 192 पाई में बाँटा गया। यानी 1 आना 16 पैसों या 12 पाई में विभाजित था।

काग़ज़ के नोटों की शुरुआत

रुपयों के काग़ज़ के नोटों को सबसे पहले जारी करने वालों में से थे 'बैंक ऑफ हिन्दुस्तान' (1770-1832), 'द जनरल बैंक ऑफ बंगाल एंड बिहार' (1773-75, वारेन हॉस्टिग्स द्वारा स्थापित) और 'द बंगाल बैंक' (1784-91)। शुरुआत में बैंक ऑफ बंगाल द्वारा जारी किए गए काग़ज़ के नोटों पे केवल एक तरफ ही छपा होता था। इसमें सोने की एक मोहर बनी थी और यह 100, 250, 500 आदि वर्गों में थे। बाद के नोट में एक बेलबूटा बना था जो एक महिला आकृति, व्यापार का मानवीकरण दर्शाता था। यह नोट दोनों ओर छपे होते थे, तीन लिपिओं उर्दू, बंगाली और देवनागरी में यह छपे होते थे, जिसमें पीछे की तरफ बैंक की छाप होती थी। 1800 सदी के अंत तक नोटों के मूलभाव ब्रितानी हो गए और जाली बनने से रोकने के लिए उनमे अन्य कई लक्षण जोडे गए।

भारतीय मुद्रा का निर्माण

प्रारंभ में छोटे राज्य थे जहां वस्तु विनिमय अर्थात एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का आदान-प्रदान संभव था। परंतु कालांतर में जब बड़े-बड़े राज्यों का निर्माण हुआ तो यह प्रणाली समाप्त होती गई और इस कमी को पूरा करने के लिए मुद्रा को जन्म दिया गया। इतिहासकार के. वी. आर. आयंगर का मानना है कि प्राचीन भारत में मुद्राएं राजसत्ता के प्रतीक के रूप में ग्रहण की जाती थीं। परंतु प्रारंभ में किस व्यक्ति अथवा संस्था ने इन्हें जन्म दिया, यह ज्ञात नहीं है। अनुमान यह किया जाता है कि व्यापारी वर्ग ने आदान-प्रदान की सुविधा हेतु सर्वप्रथम सिक्के तैयार करवाए। संभवत: प्रारंभ में राज्य इसके प्रति उदासीन थे। परंतु परवर्ती युगों में इस पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो गया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मुद्रा निर्माण पर पूर्णत: राज्य का अधिकार था। कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत में मुद्राओं का प्रचलन विदेशी प्रभाव का परिणाम है। वहीं कुछ इसे इसी धरती की उपज मानते हैं। विल्सन और प्रिंसेप जैसे विद्वानों का मानना है कि भारत भूमि पर सिक्कों का आविर्भाव यूनानी आक्रमण के पश्चात हुआ। वहीं जान एलन उनकी इस अवधारणा को गलत बताते हुए कहते हैं कि ‘प्रारम्भिक भारतीय सिक्के जैसे ‘कार्षापण’ अथवा ‘आहत’ और यूनानी सिक्कों के मध्य कोई सम्पर्क नहीं था।[4]

उत्पत्ति समय एवं स्थान

उत्पत्ति स्थान के अलावा मुद्रा के जन्म काल में भी विद्वानों में मतभेद हैं। ज्यादातर विद्वान मानते हैं कि भारत में सिक्के 800 ई. पू. प्रकाश में आये। वहीं डा. डी. आर. भण्डारकर तथा विटरनित्ज जैसे विद्वान भारत में सिक्कों की प्राचीनता 3000 ई. पू. के आस-पास बताते हैं। जन्म स्थान और काल में बेशक विवाद हो लेकिन सिक्कों के निर्माण में इस्तेमाल की जाने वाली धातु के संबंध में कोई विवाद नहीं है।

सिक्कों का निर्माण

सिक्कों के निर्माण के लिए अनेक धातुएं प्रयोग में लाई जाती थीं। इनमें सोना, चांदी तथा तांबा प्रमुख धातुएं थीं। सोना तो भारत में विपुल मात्रा में था। तांबा भी अयस्क के रूप में प्राप्त होता था। परंतु चांदी बहुत कम मात्रा में उपलब्ध थी इसलिए इसका आयात किया जाता था। सातवाहन वंश ने मुद्रा निर्माण में एक नया प्रयोग किया। उन्होंने मुद्रा निर्माण के लिए सीसे का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया। विद्वान पेरीप्लस का विवरण है कि भारतीय लोग सीसे का बाहर से आयात करते थे। इतिहासकार प्लिनी ने इसका समर्थन करते हुए कहा है कि हिन्द यवन शासकों ने एक और धातु मुद्रा निर्माण हेतु प्रयुक्त किया जिसे निकिल के नाम से जाना जाता है। कभी-कभी सिक्कों के निर्माण हेतु पोटीन, कांस्य तथा पीतल का भी प्रयोग किया जाता था। कई बार मुद्रा निर्माण में मिश्रित धातुओं का भी प्रयोग किया जाता था। धातुओं को कठोर बनाने में और गिरती हुई अर्थव्यवस्था के संदर्भ में इनका उपयोग सिक्कों में किया जाने लगा। पोटीन कई धातुओं के मिश्रण से बनता था इसलिए इसे भ्रष्ट धातु कहा जाता था। कहीं-कहीं लोहे के सिक्के भी प्रचलन में थे। इसके अलावा मुद्रा के रूप में कौड़ियों का प्रचलन भी व्यापक क्षेत्र में था।[4]

मुद्रा निर्माण विधि

प्राचीन भारत में तीन प्रकार से मुद्राओं का निर्माण किया जाता था:-

1. आहत अथवा छापा विधि

इस विधि से मुद्रा तैयार करने के लिए पहले विभिन्न प्रकार की धातुओं की पतली चादर तैयार की जाती थी। फिर उनके मानक तौल के अनुसार कई चौकोर टुकड़े किये जाते थे। उन टुकड़ों पर कुछ चिह्नों, नामों या शब्दों को अंकित किया जाता था। इसके लिए उन पर या तो आहत किया जाता था या फिर किसी मुहर से ठप्पा लगाया जाता था। आहत मुद्राओं की सबसे बड़ी विशेषता थी कि ये विभिन्न आकार के मिलते थे। इनका कोई एक समरूप आकार नहीं था। इसका सबसे बड़ा कारण था भारानुसार इनकी कटाई-छंटाई। विभिन्न भारों के अनुसार इनका भारक भी भिन्न बन जाता था।

2. ढलाई विधि

यह दूसरी विधि ज्यादा परिष्कृत थी। इसमें एक बार में कई सिक्कों का निर्माण किया जाता था। जिससे समय व श्रम दोनों की ही बचत होती थी। रोहतक, तक्षशिला, मथुरा, सुनेत, अतरंजीखेड़ा, नालंदा इत्यादि स्थानों की खुदाई में मिले सिक्के इसकी प्रमाणिकता को सिद्ध करते हैं। ढलाई विधि में सिक्के सांचे की मदद से बनाये जाते थे। सर्वप्रथम सांचे तैयार करके भट्ठी में रख दिए जाते थे। पकने के उपरान्त इनके मध्य छिद्र से धातु को ढाला जाता था। धातु नलिका से उचित स्थल पर पहुंचकर प्रस्तावित आकार में फैल जाती थी। भट्ठी के शीतल होने पर सांचे को विनष्ट कर दिया जाता था। उसी सांचे में चिह्न तथा लेख भी लिखे होते थे जो धातु पर अंकित हो जाते थे। यही पद्धति सिक्के के दोनों सतहों पर अंकन हेतु प्रयोग में लाई जाती थी।

3. ठप्पा-प्रहार-विधि

ईस्वी संवत् आते-आते मुद्रा निर्माण में ठप्पा प्रहार विधि काफी लोकप्रिय हो गई। इस विधि में गर्म धातु के टुकड़े पर ठप्पे के दबाव से लेख तथा प्रतीक चिह्न अंकित किए जाते थे। इस विधि के प्रमाण हमें केवल साहित्यिक संदर्भों में ही मिलते हैं। क्योंकि अभी तक एक भी डाई प्राप्त नहीं हुई है।[4]

मुद्रा निर्माण केंद्र

प्राचीन भारत के राज्यों को जब मुद्रा का महत्व ज्ञात हुआ और विनिमय एवं व्यापार के लिए मुद्रा की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने व्यापक पैमाने पर मुद्रा निर्माण हेतु टकसाल का निर्माण करवाया। ये टकसाल अधिकतर राजधानी में होते थे। परन्तु कुछ राज्यों में इनका निर्माण प्रमुख व्यापारिक शहरों में भी होता था। यकीन के साथ तो नहीं लेकिन रोहतक, तक्षशिला, मथुरा, सुनेत, अतरंजीखेड़ा, नालंदा, काशी, कौशवी, कोण्डपुर, शिशुपालगढ़ इत्यादि जगहों पर टकसाल होने की संभावना व्यक्त की जाती है।[4]

मुद्राओं पर अंकित लिपि

प्राचीन भारत के सिक्कों पर मुख्यतया ब्राह्मी, खरोष्ठी एवं ग्रीक लिपि का प्रयोग किया जाता था। वहीं भाषाओं में यूनानी, प्राकृत, संस्कृत, द्रविण भाषाओं का प्रयोग किया जाता था। सिक्कों पर इनके अलावा अनेक चिह्नों का भी प्रयोग किया जाता था जिससे इनके स्थान, समय और विशेषता का विभाजन किया जाता था। कई सिक्कों पर राजकीय चिह्न होते थे तो कुछ पर शासकाकृति का अंकन मिलता था। कुछ सिक्कों पर किसी विशिष्ट देवता या पशु के चिह्न भी अंकित होते थे।[4]

वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. खाड़ी देश
  2. खाड़ी रुपया
  3. Qatar (अंग्रेज़ी)। । अभिगमन तिथि: 9 सितम्बर, 2010।
  4. 4.0 4.1 4.2 4.3 4.4 सिंह, शुभ्रा। भारतीय मुद्रा के निर्माण की कहानी (हिंदी) भारतीय पक्ष।

बाहरी कड़ियाँ

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