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यह पूरे [[दक्षिण भारत]] के इतिहास का स्वर्ण युग था। इसी दौर में पुरंदरदास, कनकदास, सर्वज्ञ तथा [[भक्ति आंदोलन]] से जुड़ी अन्य विभूतियाँ सक्रिय रहीं। वर्ष 1565 में [[तालीकोट का युद्ध|तलीकोट के युद्ध]] में [[विजयनगर साम्राज्य]] के पतन के बाद वाडेयार राजघराने के आठवें शासक राजा वाडेयार ने मैसूर का प्रशासनिक ढाँचा बदला। अब यह एक स्वतंत्र राज्य बन गया। [[श्रीरंगपट्टनम]] के प्रशासक श्रीरंगराय की महत्तवाकांक्षा कुछ समय के लिए राजा वाडेयार के लिए चुनौती बनी रही, लेकिन वर्ष 1610 में उन्होंने श्रीरंगपटना पर भी अपना नियंत्रण बना लिया। यहीं से उन्हें [[सोना|सोने]] का वह सिंहासन प्राप्त हुआ, जो कथित तौर पर विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक [[हरिहर प्रथम|हरिहर]] को उनके गुरु विद्यारण्य द्वारा दिया गया था। राजा वाडेयार [[23 मार्च]], 1610 को इस सिंहासन पर आसीन हुए और उन्होंने 'कर्नाटक रत्नसिंहासनाधीश्वर' की उपाधि ग्रहण की। उन्होंने श्रीरंगपट्टनम को अपनी राजधानी बनाया और विजयनगर की पारंपरिक दशहरा महोत्सव की परंपरा को भी जीवित रखा। राजा वाडेयार की इच्छा थी कि इस उत्सव को भावी पीढ़ियाँ उसी प्रकार से मनाएँ, जिस प्रकार विजयनगर के शासक मनाया करते थे। इसके लिए उन्होंने निर्देशिका भी तैयार की थी, जिसमें स्पष्ट लिखा था कि किसी भी कारण से अर्थात राजघराने में किसी की मृत्यु भी हो जाए तो भी दशहरा मनाने की परंपरा क़ायम रहनी चाहिए। राजा अपने द्वारा बनाए गए निर्देश पर स्वयं भी क़ायम रहे। कहा जाता है कि [[7 सितम्बर]], 1610 में दशहरे से ठीक एक दिन पहले जब राजा के पुत्र नंजाराजा की मृत्यु हो गई, तब भी राजा वाडेयार ने बिना किसी अवरोध के 'दशहरा उत्सव' की परंपरा को क़ायम रखते हुए इसका उद्धाटन किया। राजा वाडेयार द्वारा बनाई गई परंपरा को उनके बाद वाडेयार राजघराने के वंशजों ने भी जीवित रखने की कोशिश की।<ref name="ab"/>
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यह पूरे [[दक्षिण भारत]] के इतिहास का स्वर्ण युग था। इसी दौर में पुरंदरदास, कनकदास, सर्वज्ञ तथा [[भक्ति आंदोलन]] से जुड़ी अन्य विभूतियाँ सक्रिय रहीं। वर्ष 1565 में [[तालीकोट का युद्ध|तलीकोट के युद्ध]] में [[विजयनगर साम्राज्य]] के पतन के बाद वाडेयार राजघराने के आठवें शासक राजा वाडेयार ने मैसूर का प्रशासनिक ढाँचा बदला। अब यह एक स्वतंत्र राज्य बन गया। [[श्रीरंगपट्टनम]] के प्रशासक श्रीरंगराय की महत्तवाकांक्षा कुछ समय के लिए राजा वाडेयार के लिए चुनौती बनी रही, लेकिन वर्ष 1610 में उन्होंने श्रीरंगपटना पर भी अपना नियंत्रण बना लिया। यहीं से उन्हें [[सोना|सोने]] का वह सिंहासन प्राप्त हुआ, जो कथित तौर पर विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक [[हरिहर प्रथम|हरिहर]] को उनके गुरु विद्यारण्य द्वारा दिया गया था। राजा वाडेयार [[23 मार्च]], 1610 को इस सिंहासन पर आसीन हुए और उन्होंने 'कर्नाटक रत्नसिंहासनाधीश्वर' की उपाधि ग्रहण की। उन्होंने श्रीरंगपट्टनम को अपनी राजधानी बनाया और विजयनगर की पारंपरिक दशहरा महोत्सव की परंपरा को भी जीवित रखा। राजा वाडेयार की इच्छा थी कि इस उत्सव को भावी पीढ़ियाँ उसी प्रकार से मनाएँ, जिस प्रकार विजयनगर के शासक मनाया करते थे। इसके लिए उन्होंने निर्देशिका भी तैयार की थी, जिसमें स्पष्ट लिखा था कि किसी भी कारण से अर्थात राजघराने में किसी की मृत्यु भी हो जाए तो भी दशहरा मनाने की परंपरा क़ायम रहनी चाहिए। राजा अपने द्वारा बनाए गए निर्देश पर स्वयं भी क़ायम रहे। कहा जाता है कि [[7 सितम्बर]], 1610 में दशहरे से ठीक एक दिन पहले जब राजा के पुत्र नंजाराजा की मृत्यु हो गई, तब भी राजा वाडेयार ने बिना किसी अवरोध के 'दशहरा उत्सव' की परंपरा को क़ायम रखते हुए इसका उद्घाटन किया। राजा वाडेयार द्वारा बनाई गई परंपरा को उनके बाद वाडेयार राजघराने के वंशजों ने भी जीवित रखने की कोशिश की।<ref name="ab"/>
  
 
इस परंपरा को वर्ष 1805 में तत्कालीन वाडेयार शासक मुम्मदि कृष्णराज ने नया मोड़ दिया। उन्हें [[टीपू सुल्तान]] की मृत्यु के बाद [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] की सहायता से राजगद्दी प्राप्त हुई थी, इसलिए [[दशहरा]] उत्सव में राजा ने अंग्रेज़ों के लिए अलग 'दरबार' की व्यवस्था की। यह एक नई परंपरा बन गई और दशहरा राजघराने की बजाय आम जनता का उत्सव बन गया। इस उत्सव को दोबारा राजघराने से जोड़ने की कोशिश कृष्णराज वाडेयार चतुर्थ ने की, जो अपनी [[माँ]] महारानी केंपन्ना अम्मानी के संरक्षण में राजा बने और जिन्हें वर्ष [[1902]] में शासन संबंधी पूरे अधिकार सौंप दिए गए। उन्होंने [[मैसूर महल|मैसूर राजमहल]] के निर्माण के बाद दशहरे को दोबारा राजमहल से जोड़ा, लेकिन आम जनता इससे दूर नहीं हुई।
 
इस परंपरा को वर्ष 1805 में तत्कालीन वाडेयार शासक मुम्मदि कृष्णराज ने नया मोड़ दिया। उन्हें [[टीपू सुल्तान]] की मृत्यु के बाद [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] की सहायता से राजगद्दी प्राप्त हुई थी, इसलिए [[दशहरा]] उत्सव में राजा ने अंग्रेज़ों के लिए अलग 'दरबार' की व्यवस्था की। यह एक नई परंपरा बन गई और दशहरा राजघराने की बजाय आम जनता का उत्सव बन गया। इस उत्सव को दोबारा राजघराने से जोड़ने की कोशिश कृष्णराज वाडेयार चतुर्थ ने की, जो अपनी [[माँ]] महारानी केंपन्ना अम्मानी के संरक्षण में राजा बने और जिन्हें वर्ष [[1902]] में शासन संबंधी पूरे अधिकार सौंप दिए गए। उन्होंने [[मैसूर महल|मैसूर राजमहल]] के निर्माण के बाद दशहरे को दोबारा राजमहल से जोड़ा, लेकिन आम जनता इससे दूर नहीं हुई।

07:59, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

विद्युत रोशनी से जगमगाता 'मैसूर महल'

मैसूर का दशहरा सिर्फ़ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। मैसूर में छ: सौ सालों से अधिक पुरानी परंपरा वाला यह पर्व ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही यह कला, संस्कृति और आनंद का भी अद्भुत सामंजस्य है। महालया से दशहरे तक इस नगर की फूलों, दीपों एवं विद्युत बल्बों से सुसज्जित शोभा देखने लायक़ होती है। मैसूर में 'दशहरा उत्सव' का प्रारंभ चामुंडी पहाड़ियों पर विराजने वाली देवी चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना और दीप प्रज्ज्वलन के साथ होता है। इस उत्सव में मैसूर महल को 97 हज़ार विद्युत बल्बों तथा 1.63 लाख विद्युत बल्बों से चामुंडी पहाड़ियों को सजाया जाता है। पूरा शहर भी रोशनी से जगमगा उठता है। जगनमोहन पैलेस, जयलक्ष्मी विलास एवं ललिता महल का अद्भुत सौंदर्य देखते ही बनता है।

सत्कर्मों की जीत का पर्व

पारंपरिक उत्साह एवं धूमधाम के साथ दस दिनों तक मनाया जाने वाला मैसूर का 'दशहरा उत्सव' देवी दुर्गा (चामुंडेश्वरी) द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है। अर्थात यह बुराई पर अच्छाई, तमोगुण पर सत्गुण, दुराचार पर सदाचार या दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की जीत का पर्व है। इस उत्सव के द्वारा सभी को माँ की भक्ति में सराबोर किया जाता है। शहर की अद्भुत सजावट एवं माहौल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो स्वर्ग से सभी देवी-देवता मैसूर की ओर प्रस्थान कर आये हैं।[1]

इतिहास

मैसूर के दशहरे का इतिहास मैसूर नगर के इतिहास से जुड़ा है, जो मध्य काल के दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है। हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों द्वारा चौदहवीं शताब्दी में स्थापित इस साम्राज्य में नवरात्रि उत्सव मनाया जाता था। लगभग छह शताब्दी पुराने इस पर्व को 'वाडेयार राजवंश' के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार ने दशहरे का नाम दिया। समय के साथ इस उत्सव की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि वर्ष 2008 में कर्नाटक राज्य की सरकार ने इसे 'राज्योत्सव' (नाद हब्बा) का स्तर दे दिया।

यात्री विवरण

कई मध्यकालीन पर्यटकों तथा लेखकों ने अपने यात्रा वृत्तान्तों में विजयनगर की राजधानी 'हम्पी' में भी दशहरा मनाए जाने का उल्लेख किया है। इनमें डोमिंगोज पेज, फर्नाओ नूनिज और रॉबर्ट सीवेल जैसे पर्यटक भी शामिल हैं। इन लेखकों ने हम्पी में मनाए जाने वाले दशहरा उत्सव के विस्तृत वर्णन किये हैं। विजयनगर शासकों की यही परंपरा वर्ष 1399 में मैसूर पहुँची, जब [गुजरात]] के द्वारका से 'पुरगेरे' (मैसूर का प्राचीन नाम) पहुँचे दो भाइयों यदुराय और कृष्णराय ने वाडेयार राजघराने की नींव डाली। यदुराय इस राजघराने के पहले शासक बने। उनके पुत्र चामराज वाडेयार प्रथम ने पुरगेरे का नाम बदलकर 'मैसूर' कर दिया और विजयनगर साम्राज्य की अधीनता स्वीकार कर ली। विजयनगर के प्रतापी शासकों के राज में वर्ष 1336 से 1565 तक मैसूर शहर सांस्कृतिक और सामाजिक ऊँचाई की शिखर की ओर बढ़ता गया। साथ ही दशहरे की परंपरा दिन प्रतिदिन सुदृढ और बेहतर होती गई।[1]

दशहरा महोत्सव की परंपरा

मैसूर दशहरे में जम्बू सवारी

यह पूरे दक्षिण भारत के इतिहास का स्वर्ण युग था। इसी दौर में पुरंदरदास, कनकदास, सर्वज्ञ तथा भक्ति आंदोलन से जुड़ी अन्य विभूतियाँ सक्रिय रहीं। वर्ष 1565 में तलीकोट के युद्ध में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद वाडेयार राजघराने के आठवें शासक राजा वाडेयार ने मैसूर का प्रशासनिक ढाँचा बदला। अब यह एक स्वतंत्र राज्य बन गया। श्रीरंगपट्टनम के प्रशासक श्रीरंगराय की महत्तवाकांक्षा कुछ समय के लिए राजा वाडेयार के लिए चुनौती बनी रही, लेकिन वर्ष 1610 में उन्होंने श्रीरंगपटना पर भी अपना नियंत्रण बना लिया। यहीं से उन्हें सोने का वह सिंहासन प्राप्त हुआ, जो कथित तौर पर विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर को उनके गुरु विद्यारण्य द्वारा दिया गया था। राजा वाडेयार 23 मार्च, 1610 को इस सिंहासन पर आसीन हुए और उन्होंने 'कर्नाटक रत्नसिंहासनाधीश्वर' की उपाधि ग्रहण की। उन्होंने श्रीरंगपट्टनम को अपनी राजधानी बनाया और विजयनगर की पारंपरिक दशहरा महोत्सव की परंपरा को भी जीवित रखा। राजा वाडेयार की इच्छा थी कि इस उत्सव को भावी पीढ़ियाँ उसी प्रकार से मनाएँ, जिस प्रकार विजयनगर के शासक मनाया करते थे। इसके लिए उन्होंने निर्देशिका भी तैयार की थी, जिसमें स्पष्ट लिखा था कि किसी भी कारण से अर्थात राजघराने में किसी की मृत्यु भी हो जाए तो भी दशहरा मनाने की परंपरा क़ायम रहनी चाहिए। राजा अपने द्वारा बनाए गए निर्देश पर स्वयं भी क़ायम रहे। कहा जाता है कि 7 सितम्बर, 1610 में दशहरे से ठीक एक दिन पहले जब राजा के पुत्र नंजाराजा की मृत्यु हो गई, तब भी राजा वाडेयार ने बिना किसी अवरोध के 'दशहरा उत्सव' की परंपरा को क़ायम रखते हुए इसका उद्घाटन किया। राजा वाडेयार द्वारा बनाई गई परंपरा को उनके बाद वाडेयार राजघराने के वंशजों ने भी जीवित रखने की कोशिश की।[1]

इस परंपरा को वर्ष 1805 में तत्कालीन वाडेयार शासक मुम्मदि कृष्णराज ने नया मोड़ दिया। उन्हें टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों की सहायता से राजगद्दी प्राप्त हुई थी, इसलिए दशहरा उत्सव में राजा ने अंग्रेज़ों के लिए अलग 'दरबार' की व्यवस्था की। यह एक नई परंपरा बन गई और दशहरा राजघराने की बजाय आम जनता का उत्सव बन गया। इस उत्सव को दोबारा राजघराने से जोड़ने की कोशिश कृष्णराज वाडेयार चतुर्थ ने की, जो अपनी माँ महारानी केंपन्ना अम्मानी के संरक्षण में राजा बने और जिन्हें वर्ष 1902 में शासन संबंधी पूरे अधिकार सौंप दिए गए। उन्होंने मैसूर राजमहल के निर्माण के बाद दशहरे को दोबारा राजमहल से जोड़ा, लेकिन आम जनता इससे दूर नहीं हुई।

अंतर्राष्ट्रीय उत्सव

वाडेयार राजाओं के पारंपरिक दशहरा उत्सवों से आज के उत्सवों का चेहरा काफ़ी परिवर्तित हो चुका है। यह अब एक अंतर्राष्ट्रीय उत्सव बन गया है। इस उत्सव में शामिल होने के लिए देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों से मैसूर पहुँचने वाले पर्यटक दशहरा गतिविधियों की विविधताओं को देख दंग रह जाते हैं। तेज रोशनी में नहाया मैसूर महल, फूलों और पत्तियों से सजे चढ़ावे, सांस्कृतिक कार्यक्रम खेल-कूद, गोम्बे हब्बा और विदेशी मेहमानों से लेकर जम्बो सवारी तक हर बात उन्हें ख़ास तौर पर आकर्षित करती है। उल्लेखनीय है कि चार शताब्दी से लगातार चले आ रहे दशहरा उत्सव के इतिहास में सिर्फ एक बार रुकावट आई थी। वर्ष 1970 में जब भारत के राष्ट्रपति ने छोटी-छोटी रियासतों के शासकों की मान्यता समाप्त कर दी तो उस वर्ष दशहरे का उत्सव भी नहीं मनाया जा सका था। उस समय न तो मैसूर राजमहल की चकाचौंध देखी जा सकी और न ही लोगों का उत्साह कहीं दिखाई दिया। बहरहाल, इसे दोबारा शुरू करने के लिए वर्ष 1971 में कर्नाटक सरकार ने एक कमेटी गठित की और सिफारिशों के आधार पर दशहरा को राज्य उत्सव के रूप में दोबारा मनाया जाने लगा। इसके साथ ही राज्य की पर्यटन आय बढ़ाने के लिए भी दशहरा उत्सव को मुख्य भूमिका दी गई। दशहरा उत्सव का वेबकास्ट वर्ष 2004 में मैसूर राजघराने के निजी दशहरा उत्सव की झलकियाँ आम जनता को दिखाने के लिए इंटरनेट के माध्यम से वेबकास्ट करना शुरू किया गया। इसे मैसूर राजवंश के अंतिम उत्तराधिकारी श्रीकान्तदत्त नरसिंहराज वाडेयार ने वेबकास्ट किया। इसमें वाडेयार राजवंश द्वारा पुराने समय में पूजा-अर्चना के लिए काम में लाए जाने वाले देवी-देवताओं के चित्र भी देखे जा सकते हैं और साथ में राजघराने द्वारा अपनाई जाने वाली पूजा की विधियों और विभिन्न रस्मों को भी देखा जा सकता है।[1]

जम्बू सवारी

विजयादशमी के पर्व पर मैसूर का राज दरबार आम लोगों के लिए खोल दिया जाता है। भव्य जुलूस निकाला जाता है। यह दिन मैसूरवासियों के लिए बेहद ख़ास होता है। इस अवसर पर यहाँ दस दिनों तक बेहद धूमधाम से उत्सव मनाए जाते हैं। दसवें और आखिरी दिन मनाए जाने वाले उत्सव को जम्बू सवारी के नाम से जाना जाता है। इस दिन सारी निगाहें 'बलराम' नामक हाथी के सुनहरे हौदे पर टिकी होती हैं। इस हाथी के साथ ग्यारह अन्य गजराज भी रहते हैं, जिनकी विशेष साज-सज्जा की जाती है। इस उत्सव को अम्बराज भी कहा जाता है। इस मौके पर भव्य जुलूस निकाला जाता है, जिसमें बलराम के सुनहरी हौदे पर सवार हो चामुंडेश्वरी देवी मैसूर नगर भ्रमण के लिए निकलती हैं। वर्ष भर में यह एक ही मौका होता है, जब देवी की प्रतिमा यूँ नगर भ्रमण के लिए निकलती है।

यह ख़ूबसूरत सुनहरी हौदा मैसूर के वैभवशाली अतीत की सुंदर कहानी कहता है। यह हौदा कब और कैसे बना, इसे किसने बनवाया, इस बारे में सही जानकारी नहीं है। लेकिन 750 किलो वजन के इस हौदे में तकरीबन 80 किलो सोना लगा है। हौदे पर की गई नक़्क़ाशी मैसूर के कारीगरों की निपुणता की जीवंत दास्ताँ सुनाती है। इस हौदे के बाहरी स्वरूप में फूल-पत्तियों की सुंदर नक़्क़ाशी की गई है। यह हौदा मैसूर के कारीगरों की कारीगरी का अद्भुत नमूना है, जिन्हें लकड़ी और धातु की सुंदर कलाकृतियाँ बनाने में निपुणता हासिल थी। विश्वास नहीं होता कि कैसे पुरातन काल में सिर्फ छैनी-हथौड़े के दम पर इतने ख़ूबसूरत हौदे को बनाया गया होगा। पहले इस हौदे का उपयोग मैसूर के राजा अपनी शाही गज सवारी के लिए किया करते थे। अब इसे वर्ष में केवल एक बार विजयादशमी के जुलूस में माता की सवारी के लिए उपयोग में लाया जाता है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 मैसूर का दशहरा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 31 दिसम्बर, 2012।
  2. ख़ास है मैसूर का दशहरा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 31 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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