कालयवन

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कालयवन वध

कालयवन एक पौराणिक चरित्र है जो यवन देश का राजा था। जन्म से ब्राह्मण, पर कर्म से म्लेच्छ (मलेच्छ) था। शल्य ने जरासंध को यह सलाह दी कि वे कृष्ण को हराने के लिए कालयवन से सहायता मांगे।

कालयवन के पिता

कालयवन ऋषि शेशिरायण का पुत्र था। ऋषि शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे। वे 'गर्ग गोत्र' के थे। एक बार वे किसी सिद्धि की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान कर रहे थे, जिसके लिए 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करना था। उन्हीं दिनों एक गोष्ठी मे किसी ने उन्हें 'नपुंसक' कह दिया जो उन्हें चुभ गया। उन्होंने निश्चय किया कि उन्हें ऐसा पुत्र होगा जो अजेय हो, कोई योद्धा उसे जीत न सके।

इसलिए वे भगवान शिव के तपस्या में लग गए। भगवान शिव प्रसन्न हो कर प्रकट हो गए -
शिव: "हे मुनि! हम प्रसन्न हैं, जो मांगना है मांगो। "
मुनि : "मुझे ऐसा पुत्र दें जो अजेय हो, जिसे कोई हरा न सके। सारे शस्त्र निस्तेज हो जायें। कोई उसका सामना न कर सके।"
शिव : "तुम्हारा पुत्र संसार मे अजेय होगा। कोई अस्त्र शस्त्र से हत्या नहीं होगी। सूर्यवंशी या चंद्रवंशी कोई योद्धा उसे परास्त नहीं कर पायेगा। यह वरदान मांगने के पीछे तुम्हारे भोग विलास की इच्छा छिपी हुई है। हमारे वरदान से तुम्हें राजसी वैभव प्राप्त होगा।"

उसके बाद ऋषि शेशिरायण का शरीर अति सुन्दर हो गया। वरदान प्राप्ति के पश्चात् ऋषि शेशिरायण एक झरने के पास से जा रहे थे कि उन्होंने एक स्त्री को जल क्रीडा करते देखा जो अप्सरा रम्भा थी। दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए और उनका पुत्र कालयवन हुआ। 'रंभा' समय समाप्ति पर स्वर्गलोक वापस चली गयी और अपना पुत्र ऋषि को सौंप गयी। रम्भा के जाते ही ऋषि का मन पुन: भक्ति में लग गया।

काल जंग

वीर प्रतापी राजा काल जंग मलीच देश पर राज करता था। समस्त राजा उससे डरते थे। उसे कोई संतान ना थी, जिसके कारण वह परेशान रहता था। उसका मंत्री उसे आनंदगिरी पर्वत के बाबा के पास ले गया। उन्होंने उसे बताया की वह ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग ले। ऋषि शेशिरायण पहले तो नहीं माने, पर जब उन्हें बाबा जी के वाणी और यह कि उन्हें शिव जी के वरदान के बारे में पता था, यह सुन उन्होंने अपने पुत्र को काल जंग को दे दिया। इस प्रकार कालयवन यवन देश का राजा बना। उसके समान वीर कोई ना था। एक बार उसने नारद जी से पूछा कि वह किससे युद्ध करे, जो उसके सामान वीर हो। नारद जी ने उसे श्री कृष्ण का नाम बताया।

शल्य ने कालयवन को मथुरा पर आक्रमण के लिए मनाया और वह मान गया। कालयवन ने मथुरा पर आक्रमण के लिए सब तैयारियां कर ली। दूसरी ओर जरासंध भी सेना ले कर निकल गया। कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम सन्देश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्री कृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूँ लड़ाएँ। कालयवन ने स्वीकार कर लिया।

यह सुन अक्रूरजी और बलरामजी चिंतित हो गए। तब श्री कृष्ण ने उन्हें कालयवन को शिव द्वारा दिये वरदान के बारे मे बताया। और यह भी बताया कि वे उसे राजा मुचुकुन्द के द्वारा मृत्यु देंगे।

मुचुकुन्द

राजा मुचुकुन्द त्रेता युग के इक्ष्वाकु वंश के राजा थे। उनके पिता मान्धाता थे। उन्होंने देवताओं का साथ देकर और दानवों का संहार किया जिसके कारण देवता युद्ध जीत गए। तब इन्द्र ने उन्हें वर मांगने को कहा। उन्होंने वापस पृथ्वीलोक जाने की इच्छा व्यक्त की। तब इन्द्र ने उन्हें बताया कि पृथ्वी पर और देवलोक में समय का बहुत अंतर है जिस कारण अब वह समय नहीं रहा ओर सब बंधू मर चुके है उनके वंश का कोई नहीं बचा। यह जान मुचुकंद दु:खी हुए और वर माँगा कि उन्हें सोना है। तब इन्द्र ने वरदान दिया कि किसी निर्जन स्थान पर सो जाये और यदि कोई उन्हें उठाएगा तो मुचुकंद की दृष्टि पड़ते ही वह भस्म हो जायेगा। इसी वरदान का प्रयोग श्री कृष्ण कालयवन को मृत्यु देने के लिए करना चाहते थे।

श्री कृष्ण और कालयवन का संघर्ष

जब कालयवन भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुंह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभु को पकडऩे के लिए कालयवन उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा। रणछोड़ भगवान लीला करते हुए भाग रहे थे, कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में घुस गए। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहां उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा "देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह-मानो इसे कुछ पता ही न हो, साधु बाबा बनकर सो रहा है।"

यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी। वह पुरुष बहुत दिनों से वहां सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले। वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्राम विजयी और महापुरुष थे। एक बार इन्द्रादि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गए थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिए राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की।

पौराणिक संदर्भ

हरिवंश और भागवत पुराण के अनुसार जब कृष्ण ने यह सुना कि एक ओर से जरासंध और दूसरी ओर से कालयवन बड़ी सेनाएँ लेकर शूरसेन जनपद आ रहे हैं, तो उन्होंने यादवों को मथुरा से द्वारका रवाना कर दिया और स्वयं बलराम के साथ गोमंत पर्वत पर चढ़ गये। जरासंध पहाड़ पर आग लगा कर तथा यह समझ कर कि दोनो जल मरे होंगे, लौट गया। दूसरी कथा के अनुसार कृष्ण सब लोगों को द्वारका भेज चुकने के बाद कालयवन को आता देख अकेले भगे। कालयवन ने इनका पीछा किया। कृष्ण उसे वहाँ तक ले गये जहाँ सूर्यवंशी मुचुकुन्द सो रहा था। मुचुकुन्द को यह वर मिला था कि जो कोई उन्हें सोते से उठायेगा वह उनकी दृष्टि पड़ते ही भस्म हो जायगा। कृष्ण ने ऐसा किया कि कालयवन मुचुकुन्द द्वारा भस्म कर दिया गया।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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