निरंजनी सम्प्रदाय
निरंजनी सम्प्रदाय का नामकरण उसके संस्थापक स्वामी निरंजन भगवान के नाम पर हुआ। निरंजन भगवान के जन्म और परिचय के विषय में कुछ भी नहीं ज्ञात है। हिन्दी के विद्वानों में पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल तथा परशुराम चतुर्वेदी का मत है कि निरंजनी सम्प्रदाय 'नाथ सम्प्रदाय' और 'निर्गुण सम्प्रदाय' की एक लड़ी है। इस सम्प्रदाय का सर्वप्रथम प्रचार उड़ीसा में हुआ और प्रसार क्षेत्र पूर्ण दिशा बनी।
प्रमुख प्रचारक
राघोदास ने अपने 'भक्तमाल' में लिखा है कि जैसै मध्वाचार्य, विष्णुस्वामी, रामानुजाचार्य तथा निम्बार्क महंत चक्कवे के रूप में चार सगुणोपासक प्रसिद्ध हुए, उसी प्रकार कबीर, नानक, दादू और जगन निर्गुण साधना के क्षेत्र में ख्याति के अधिकारी बने और इन चारों का सम्बन्ध निरंजन से है। निरंजनी सम्प्रदाय के बारह प्रमुख प्रचारक हुए हैं, जिनके नाम निम्नलिखित हैं[1]-
- लपट्यौ जगन्नाथदास
- स्यामदास
- कान्हडदास
- ध्यानदास
- षेमदास
- नाथ
- जगजीवन
- तुरसीदास
- आनन्ददास
- पूरणदास
- मोहनदास
- हरिदास
राघोदास के अनुसार जगन्नाथदास थरोली के निवासी थे। स्यामदास दत्तवास के, कान्हडदास चाडूस के रहने वाले थे। आनन्ददास का निवास स्थान लिवाली था। मोहनदास का स्थान देवपुर, तुरसीदास का स्थन शेरपुर, पूरणदास का भम्भोर, षेमदास का सिवहाड, नाथ का टोडा, ध्यानदास का झारि तथा हरिदास का डीडवाणे में था। निरंजनी सम्प्रदाय के इन सभी साधकों में हरिदास का स्थान श्रेष्ठ है। हरिदासजी बड़े अनुभवी थे। इनका निधन-समय संवत 1700 है। दादू ने भी हरिदास की बड़ी प्रशंसा की थी। गोरखनाथ और कबीरदास पर इनकी बड़ी श्रद्धा थी। भर्तृहरि और गोपीचन्द के प्रति भी हरिदास बड़े श्रद्धालु थे।
साधना रीति
निरंजनी सम्प्रदाय की साधना में उलटी रीति को प्रधानता दी गयी है। साधक को बहिर्मुखी करके मन को निरंजन ब्रह्य में नियोजित करना चाहिये। उलटी डुबकी लगाकर अलख की पहिचान कर लेना चाहिये, तभी गुण, इन्द्रिय, मन तथा वाणी स्ववश होती है। इडा और पिंगला नाड़ियों की मध्यवर्तिनी सुषुम्ना को जाग्रत करके अनहदनाद श्रवण करता हुआ बंकनालि के माध्यम से शून्यमण्डल में प्रवेश करके अमृतपान करने-वाला सच्चा योगी है। नाम वह धागा है, जो निरंजन के साथ सम्पर्क या सम्बन्ध स्थापित करता है। परमतत्त्व या निरंजन न उत्पन्न होता है, न नष्ट। वह एक भाव और निर्लिप्त होकर अखिल चराचर में व्याप्त है। निरंजन अगम, अगोचर है। वह निराकार है। वह नित्य और अचल है। घट-घट में उसकी माया का प्रसार है। वह अप्रत्यक्ष रूप से समस्त सृष्टि का संचालन करता है। निरंजन अवतार के बन्धन में नहीं बौधता है। इस सम्बन्ध में हरिदास की निम्नलिखित पंक्तियाँ पठनीय हैं[1]-
"दस औतार कहो क्यूँ भाया, हरि औतार अनंत करि आया। जल थल जीव जिता अवतारा। जलससि ज्यूँ देखो ततसारा॥'[2]
वेदांत से विकसित
निरंजनी सम्प्रदाय वेदांत से प्रभावित नाथ सम्प्रदाय का विकसित रूप है। इसका दृष्टिकोण उदारता से पूर्ण है। इसमें सहनशीलता और अविरोध की प्रचुरता मिलती है।
कवि तथा रचनाएँ
हरिदास निरंजनी सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनकी कविताओं का संग्रह 'श्री हरिपुरुषजी की वाणी' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। निपट निरंजन महान् सिद्ध थे और इनके नाम पर दो ग्रंथ 'शांत सरसी' तथा 'निरंजन संग्रह' प्रसिद्ध हैं। भगवानदास निरंजनी ने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें से 'अमृतधारा'[3], 'प्रेमपदार्थ', 'गीता माहात्म्य'[4] उल्लेखनीय हैं। इन्होंने 'भर्तृहरिशतक' का हिन्दी अनुवाद भी किया था। तुरसीदास निरंजनी सम्प्रदाय के बड़े समर्थ कवि थे। इनकी 4202 साखियों, 461 पदों और 4 छोटी-छोटी रचनाओं का संग्रह पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल द्वारा किया गया था। सेवादास की 3561 साखियों, 802 पदों, 399 कुण्डलियों और 10 ग्रंथों का उल्लेख बड़थ्वाल ने किया है। निरंजनी सप्रदाय में कई अच्छे और समर्थ कवि हुए हैं। इनकी रचनाएँ अच्छी कवित्त्व-शक्ति की परिचायक हैं।[5][1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 348 |
- ↑ श्री हरिपुरुष की वाणी, पृ. 235
- ↑ रचनाकाल कार्तिक कृष्ण 3, संवत 1928
- ↑ रचनाकाल संवत 1740
- ↑ सहायक ग्रंथ- 'उत्तरी भारत की संत-परम्परा': परशुराम चतुर्वेदी।