दिखाई जब तेरे मुखड़े ने आ झलक पै झलक ।
लगी न फिर मेरी उस रोज़ से पलक पै पलक ।
क़दम-क़दम पै मेरा जी पड़ा निकलता है,
गजब है यह तेरे रुख़सार[1] की थलक पै थलक ।
गया जो नाला[2] मेरा आज आसमाँ के क़रीब,
तो उसके ख़ौफ़[3] से थर्रा गए फलक[4] पै फलक ।
पियाला उससे ज़्यादा तू भर के दे साक़ी,
कि तुझको आती है ख़ुश जाम की झलक पै झलक ।
’नज़ीर’ कह कि तू अब किसके ग़म में बैठा है,
कि आँसुओं की चली आती है ढलक पै ढलक ।।