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+ | चूंकि भगवान दादा खुद विपरीत परिस्थितियों को झेल चुके थे। उन्होंने कई चुनौतियां व ज़िंदगी की कठिन परिस्थितियों में पहचान पाई थी, लेकिन जाहिर है वह अपनी जमीन या जड़ को नहीं भूल सकते थे। ऐसे में उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्माण किया, जिसमें कामकाजी वर्ग व मील मज़दूरों को फोकस किया गया। 1934 में प्रदर्शित 'हिम्मत ए मर्दा' ऐसी ही फ़िल्मों में से एक थी। यह उनकी पहली बोलती फ़िल्म थी। भगवान दादा से कभी मीलों के मज़दूरों के साथ अपने सरोकार नहीं बदले। उन्होंने मीलों के कई होनहार व प्रतिभावान लोगों को यथासंभव अपने फ़िल्म निर्माण में अवसर दिलाये। सुपरस्टार बनने के बाद भी जब भी वे चॉल आते। यहां के लोगों के साथ मजलिस जमाते व जम कर मस्ती किया करते थे। गौरतलब है कि उनकी फ़िल्मों के गीत 'शाम ढले खिड़की तले तुम सिटी बजाना, शोला जो भड़के आज की पीढ़ी भी गुनगुना पसंद करती हैं। | ||
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+ | भगवान दादा को 'ला' शब्द से बेहद लगाव रहा। इसलिए उन्होंने अपनी हर फ़िल्म में 'ला' शब्द का इस्तेमाल ज़रूर किया। यहां तक कि फ़िल्म के गीत लिखते समय भी उन्होंने गीतकार से आग्रह किया कि वह इन बातों को ध्यान में रखें। 'शोला जो भड़के' उसी आधार पर लिखी गयी। 'अलबेला' के बाद 'झमेला' व 'लाबेला' जैसी फ़िल्मों का निर्माण किया। अलबेला उस दौर की सुपरहिट फ़िल्म रही थी। इस फ़िल्म ने जुबली मनाई थी।<ref>{{cite web |url=http://anukhyaan.blogspot.in/2011/02/blog-post_5633.html |title=गलियों के अमिताभ बच्चन भगवान दादा |accessmonthday=4 फ़रवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=अनुख्यान (ब्लॉग)|language=हिंदी }}</ref> | ||
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भगवान दादा
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पूरा नाम | भगवान आभाजी पालव |
प्रसिद्ध नाम | भगवान दादा |
जन्म | 1 अगस्त, 1913 |
जन्म भूमि | मुम्बई, महाराष्ट्र |
मृत्यु | 4 फ़रवरी, 2002 |
मृत्यु स्थान | मुम्बई, महाराष्ट्र |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | सिनेमा |
मुख्य फ़िल्में | 'अलबेला', 'मतलबी', 'लालच', 'मतवाले', 'बदला' आदि |
नागरिकता | भारतीय |
अद्यतन | 18:53, 1 अगस्त 2012 (IST)
|
भगवान दादा (जन्म:1 अगस्त 1913 मुम्बई - मृत्यु:4 फ़रवरी 2002 मुम्बई) भारतीय अभिनेता और फ़िल्म निर्देशक थे। भगवान दादा अपनी प्रसिद्ध सामाजिक और हास्य फ़िल्म 'अलबेला' के लिए जाने जाते हैं। हिन्दी फ़िल्मों में नृत्य की एक विशेष शैली की शुरूआत करने वाले भगवान दादा ऐसे 'अलबेला' सितारे थे, जिनसे महानायक अमिताभ बच्चन सहित आज की पीढ़ी तक के कई कलाकार प्रभावित और प्रेरित हुए। भगवान दादा का वास्तविक नाम 'भगवान आभाजी पालव' था। भगवान दादा का जीवन और फ़िल्मी कैरियर जबरदस्त उतार चढ़ाव से भरा रहा लेकिन यह कलाकार सिनेमा के इतिहास में अपनी ख़ास जगह रखता है।
जीवन परिचय
भगवान दादा का जन्म एक मिल के श्रमिक के घर 1 अगस्त, 1913 को हुआ। बचपन से ही उन्हें फ़िल्मों के प्रति आकर्षण था और पढ़ाई के प्रति उन्हें विशेष रुचि नहीं थी। इस कारण उन्हें पिता के कोप का शिकार भी होना पड़ा, लेकिन धुन के पक्के दादा ने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद हार नहीं मानी और हिंदी सिनेमा के रोमांटिक नायक की पारंपरिक छवि को नया आयाम मिला। शुरू में उन्होंने अपने शरीर पर काफ़ी ध्यान दिया और बदन कसरती बना लिया। इसका फायदा उन्हें आगे मिला। फ़िल्मों में प्रवेश के लिए उन्हें काफ़ी मशक्कत करना पड़ी और अंतत: उन्हें 1930 में ब्रेक मिला, जब निर्माता सिराज अली हकीम ने अपनी मूक फ़िल्म 'बेवफा आशिक' में एक कॉमेडियन की भूमिका दी। इसके बाद उन्होंने कई मूक फ़िल्मों में अभिनय किया।[1]
फ़िल्मी कैरियर
भगवान दादा यानी भगवान आभाजी पालव की आंखों में बचपन से फ़िल्मों के रूपहले परदे का सम्मोहन था। उन्होंने अपने जीवन की शुरूआत श्रमिक के रूप में की लेकिन फ़िल्मों के आकर्षण ने उन्हें उनके पसंदीदा स्थल तक पहुंचा दिया। भगवान मूक फ़िल्मों के दौर में ही सिनेमा की दुनिया में आ गए। उन्होंने शुरूआत में छोटी-छोटी भूमिकाएँ की। बोलती फ़िल्मों का दौर शुरू होने के साथ उनके करियर में नया मोड़ आया। भगवान दादा के लिए 1940 का दशक काफ़ी अच्छा रहा। इस दशक में उन्होंने कई फ़िल्मों में यादगार भूमिकाएँ की। इन फ़िल्मों में 'बेवफा आशिक', 'दोस्ती', 'तुम्हारी कसम', 'शौकीन' आदि शामिल हैं। अभिनय के साथ ही उन्हें फ़िल्मों के निर्माण निर्देशन में भी दिलचस्पी थी। उन्होंने जागृति मिक्स और भगवान आर्ट्स प्रोडक्शन के बैनर तले कई फ़िल्में बनाई जो समाज के एक वर्ग में विशेष रूप से लोकप्रिय हुई। इन फ़िल्मों में 'मतलबी', 'लालच', 'मतवाले', 'बदला' आदि प्रमुख हैं। दिलचस्प बात यह है कि उनकी अधिकतर फ़िल्में कम बजट की तथा एक्शन फ़िल्में होती थी।[2]
फ़िल्म निर्माण और निर्देशन
इस दौरान भगवान दादा ने अपनी लगन से फ़िल्म निर्माण से जुड़ी अन्य विधाओं का भी अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया। 1934 में प्रदर्शित 'हिम्मत-ए-मर्दां' उनकी पहली बोलती फ़िल्म थी। 1938 से 1949 के बीच उन्होंने कम बजट वाली कई स्टंट फ़िल्मों एवं एक्शन फ़िल्मों का निर्देशन किया। उन फ़िल्मों को समाज के कामकाजी वर्ग के बीच अच्छी लोकप्रियता मिली। उन फ़िल्मों में दोस्ती, जालान, क्रिमिनल, भेदी बंगला आदि प्रमुख हैं।[1]
फ़िल्म अलबेला
भगवान दादा की फ़िल्मों में गहरी समझ तथा प्रतिभा को देखते हुए राजकपूर ने उन्हें सामाजिक फ़िल्में बनाने की राय दी। भगवान ने उनकी सलाह को ध्यान में रखते हुए 'अलबेला' फ़िल्म बनाई। इसमें भगवान के अलावा गीता बाली की प्रमुख भूमिका थी। इस फ़िल्म के संगीतकार सी. रामचंद्र थे और उन्होंने ही इसमें चितलकर के नाम से पार्श्व गायन भी किया। अलबेला फ़िल्म अपने दौर में सुपर हिट रही और कई स्थानों पर इसने जुबली मनाई। इस फ़िल्म के गीत-संगीत का जादू सिने प्रेमियों के सर चढ़ कर बोला। इसका एक गीत 'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के..' आज भी खूब पसंद किया जाता है। अलबेला के बाद भगवान दादा ने 'झमेला' और 'लाबेला' बनाई लेकिन दोनों ही फ़िल्में नाकाम रहीं और उनके बुरे दिन शुरू हो गए।[2]
बुरा दौर
कभी सितारों से अपने इशारों पर काम कराने वाले भगवान दादा का करियर एक बार जो फिसला तो फिर फिसलता ही गया। आर्थिक तंगी का यह हाल था कि उन्हें आजीविका के लिए चरित्र भूमिकाएँ और बाद में छोटी-मोटी भूमिकाएँ करनी पड़ी। बदलते समय के साथ उनके मायानगरी के अधिकतर सहयोगी उनसे दूर होने लगे। सी. रामचंद्र, ओम प्रकाश, राजिन्दर किशन जैसे कुछ ही मित्र थे जो उनके बुरे वक्त में उनसे मिलने जाया करते थे।[2]
गलियों के अमिताभ बच्चन
'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के' गीत में अपने अदभुत, अनोखी व अद्वितीय डांसिंग स्टेप देने वाले भगवान दादा को आज भी उनकी गलियों में लोग अमिताभ बच्चन ही मानते हैं। भगवान दादा हिंदी सिनेमा जगत के पहले डांसिंग मास्टर थे। अलबेले भगवान दादा शुरू से ही फ़िल्म बनाने का सपना देखते थे। वे मिल में एक लेबर के रूप में काम करते, लेकिन ख्वाब फ़िल्म बनाने के देखते। वे चॉल में भी कुछ न कुछ इंतजाम करके फ़िल्में देख ही लेते थे। थियेटर में स्टॉल में भी फ़िल्म देखने के लिए पैसों की जुगाड़ कर ही लिया करते थे। शुरुआती दौर में मूक फ़िल्मों से मौका मिला। अभिनय के बाद वे ज्यादा से ज्यादा समय सेट पर देते, ताकि बारीकियां समझ पायें। उन्होंने सीखी भी। उन्होंने तय किया कि वह कम बजट की फ़िल्म बनायेंगे। किसी तरह उन्होंने उस वक्त 65 हजार रुपये इकट्ठे किये। उनके डांसिंग स्टेप्स में प्रॉप्स का भी ख़ास ध्यान रखा जाता था। उन्होंने ही पहली बार सिर पर बड़े आकार की टोपी रख कर डांस करने की संस्कृति शुरू की। गीता बाली के साथ उन्होंने कई फ़िल्मों में अभिनय किया। अपने निर्देशन के दौर में उन्होंने 1938 से 1949 तक लगातार लो बजट की फ़िल्मों का निर्माण किया। उनमें स्टंट व एक्शन फ़िल्में भी थीं। वे अपनी फ़िल्मों को अपनी गलियों में भी सभी लोगों को एकत्रित करके दिखाया करते थे। धीरे धीरे उन्होंने चैंबूर में जागृति पिक्स व भगवान आर्ट्स प्रोडक्शन के रूप में हाउस शुरू किया। राज कपूर ने उनकी काबिलियत को देखते हुए कहा कि भगवान तुम अच्छी और बड़ी फ़िल्म बनाओ। राज कपूर की राय पर भगवान दादा ने गीता बाली अभिनीत फ़िल्म 'अलबेला' का निर्देशन किया। फ़िल्म का गीत 'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के' बेहद लोकप्रिय हुआ। आज भी डांसिंग पार्टी में इस गीत पर युवा थिरकना ज़रूर पसंद करते हैं।
चॉल में जमती रहती थी मजलिस
चूंकि भगवान दादा खुद विपरीत परिस्थितियों को झेल चुके थे। उन्होंने कई चुनौतियां व ज़िंदगी की कठिन परिस्थितियों में पहचान पाई थी, लेकिन जाहिर है वह अपनी जमीन या जड़ को नहीं भूल सकते थे। ऐसे में उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्माण किया, जिसमें कामकाजी वर्ग व मील मज़दूरों को फोकस किया गया। 1934 में प्रदर्शित 'हिम्मत ए मर्दा' ऐसी ही फ़िल्मों में से एक थी। यह उनकी पहली बोलती फ़िल्म थी। भगवान दादा से कभी मीलों के मज़दूरों के साथ अपने सरोकार नहीं बदले। उन्होंने मीलों के कई होनहार व प्रतिभावान लोगों को यथासंभव अपने फ़िल्म निर्माण में अवसर दिलाये। सुपरस्टार बनने के बाद भी जब भी वे चॉल आते। यहां के लोगों के साथ मजलिस जमाते व जम कर मस्ती किया करते थे। गौरतलब है कि उनकी फ़िल्मों के गीत 'शाम ढले खिड़की तले तुम सिटी बजाना, शोला जो भड़के आज की पीढ़ी भी गुनगुना पसंद करती हैं।
'ला' से रहा विशेष लगाव
भगवान दादा को 'ला' शब्द से बेहद लगाव रहा। इसलिए उन्होंने अपनी हर फ़िल्म में 'ला' शब्द का इस्तेमाल ज़रूर किया। यहां तक कि फ़िल्म के गीत लिखते समय भी उन्होंने गीतकार से आग्रह किया कि वह इन बातों को ध्यान में रखें। 'शोला जो भड़के' उसी आधार पर लिखी गयी। 'अलबेला' के बाद 'झमेला' व 'लाबेला' जैसी फ़िल्मों का निर्माण किया। अलबेला उस दौर की सुपरहिट फ़िल्म रही थी। इस फ़िल्म ने जुबली मनाई थी।[3]
कॉमेडी को दी नई परिभाषा
हिंदी सिनेमा के पहले डांसिंग स्टार भगवान दादा ने अभिनय एवं नृत्य की अनोखी शैली से कॉमेडी को नई परिभाषा दी और उनकी अदाओं को बाद की कई पीढ़ियों के अभिनेताओं ने अपनाया। भगवान दादा ने मूक फ़िल्मों के दौर से अपने अभिनय जीवन की शुरुआत की थी, लेकिन उनके हास्य अभिनय और नृत्य शैली ने अपने दौर में जबरदस्त धूम मचाई। आज के दौर के महानायक अमिताभ बच्चन ने भी उनकी नृत्य शैली का अनुसरण किया। फ़िल्मों में प्रवेश के लिए उन्हें काफ़ी मशक्कत करना पड़ी और अंतत: उन्हें 1930 में ब्रेक मिला, जब निर्माता सिराज अली हकीम ने अपनी मूक फ़िल्म बेवफा आशिक में एक कॉमेडियन की भूमिका दी।[4]
निधन
करीब छह दशक लंबे अपने फ़िल्मी जीवन में भगवान दादा ने क़रीब 48 फ़िल्मों का निर्माण या निर्देशन किया, लेकिन बॉम्बे लैबोरेट्रीज में लगी आग के कारण 'अलबेला' और 'भागमभाग' छोड़कर सभी फ़िल्मों का निगेटिव जल गया और नई पीढ़ी बेहतरीन कृतियों से वंचित रह गई। एक समय बंगला और कई कारों के मालिक भगवान अपनी मित्रमंडली से घिरे रहते थे, पर नाकामी के साथ ही धीरे-धीरे सब छूटने लगा। जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें चॉल में रहना पड़ा। अभिनय और नृत्य की नई इबारत लिखने वाला यह कलाकार 4 फ़रवरी 2002 को 89 साल की उम्र में अपना दर्द समेटे हुए बेहद खामोशी से इस दुनिया को विदा कह गया।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 हास्य की बहार लेकर आए थे भगवान दादा (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया हिन्दी। अभिगमन तिथि: 1 अगस्त, 2012।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 अलबेले कलाकार थे भगवान दादा (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) जागरण याहू इण्डिया। अभिगमन तिथि: 1 अगस्त, 2012।
- ↑ गलियों के अमिताभ बच्चन भगवान दादा (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) अनुख्यान (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 4 फ़रवरी, 2013।
- ↑ 4.0 4.1 हास्य की बहार लेकर आए थे भगवान दादा (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 4 फ़रवरी, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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