आपस्तंब

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आपस्तंब ये सूत्रकार हैं; ऋषि नहीं। वैदिक संहिताओं में इनका उल्लेख नहीं पाया जाता। आपस्तंबधर्मसूत्र में सूत्रकार ने स्वयं अपने को 'अवर' (परवर्ती) कहा है।[1] इनके नाम से कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का आपस्तंबकल्पसूत्र पाया जाता है। यह ग्रंथ 30 प्रश्नों में विभाजित है। इसके प्रथम 24 प्रश्नों को आपस्तंबश्रौतसूत्र कहते हैं जिनमें वैदिक यज्ञों का विधान है। 25 वें प्रश्न में परिभाषा, प्रवरखंड तथा हौत्रक मंत्र है, इसके 26 वें और 27 वें प्रश्न को मिलाकर आपस्तंबगृह्मसूत्र कहा जाता है जिनमें गृह्मसंस्कारों और धार्मिक क्रियाओं का वर्णन है। कल्पूसत्र के 28वें ओर 29वें प्रश्न आपस्तंबधर्मसूत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं। 30वाँ प्रश्न शुल्वसूत्र शुल्वसूत्र कहलाता है। इसमें यज्ञकुंड और वेदिका की माप का वर्णन है। रेखागणित और वास्तुशास्त्र का प्रारंभिक रूप इनमें मिलता है।

समाजशास्त्र, शासन और विधि की दृष्टि से आपस्तंबधर्मसूत्र विशेष महत्व का है। यह दो प्रश्नों में और प्रत्येक प्रश्न 11 पटलों में विभक्त है। प्रथम प्रश्न में निन्मलिखित विषयों का वर्णन है:धर्म के मूल-वेद तथा वेदविदों का शील; चार वर्ण और उनका वरीयताक्रम; आचार्य; उपनयन का समय और उसकी अवहेलना के लिए प्रायश्चित; ब्रह्मचारी की कर्त्तव्य; ब्रह्मचर्यकाल-48,36,25 अथवा 12 वर्ष; ब्रह्मचारी की जीवनचर्या, दंड, मेखला, अजिन, भिक्षा, समिधाहरण, अग्न्याधान; ब्रह्मचारी के व्रात, तप; आचार्य तथा विभिन्न वर्णो को प्रणाम करने की विधि; ब्रह्मचर्य के व्रात, तप; आचार्य तथा विभिन्न वर्णो को प्रणाम करने की विधि; ब्रह्मचर्य समाप्त होने पर गुरुदक्षिणा; स्नान और स्नातक; वेदाध्ययन तथा अनध्याय; पंचममहायज्ञ-भूतयज्ञ, नृयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ; तथा ऋषियज्ञ; सभी वर्णो के साथ शिष्टाचार; यज्ञोपवीत; आचमन; भोजन तथा पेय, निषेध; ब्राह्मण के लिए आपद्धर्म-वणिक्कर्म, कुछ पदार्थो का विक्रय वर्जित; पतनीय-चौर्य, ब्रह्महत्या अथवा हत्या; भ्रूणहत्या; निषिद्ध संबंध में योनिसंबंध, सुरापान आदि; आध्यात्मिक प्रश्न-आत्म,ब्रह्म, नैतिक साधन और दोष; क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ही हत्या की क्षतिपूर्ति; ब्राह्मण, गुरु एवं श्रोत्रिय के वध के लिए प्रायश्चित; गुरु-तल्प-गमन, सुरापान तथा सुवर्णचौर्य के लिए प्रायश्चित्त; पक्षी, गाय तथा सांड़ के वध के लिए प्रायश्चित; गुरुजनों को अपशब्द कहने के लिए प्रायश्चित्त; शूद्रा के साथ मैथुन तथा निषिद्ध भोजन के लिए प्रायश्चित्त; कृच्छ्रवत; चौर्य; पतित गुरु तथा माता के साथ व्यवहार; गुरु-तल्प-गमन के लिए प्रायश्चित; पर विविध मत; पति पत्नी के व्यभिचार के लिए प्रायश्चित; भ्रूण (विद्वान ब्राह्मण) हत्या के लिए प्रायश्चित; आत्मरक्षा के अतिरिक्त शस्त्रग्रहण ब्राह्मण के लिए निषिद्ध; अभिशस्त के लिए प्रायश्चित; छोटे पापों के लिए प्रायश्चित; विद्यास्नातक, व्रातस्नातक तथा विद्य्व्राातस्नातक के संबंध में विविध मत और स्नातकों के व्रात तथा आचार।

द्वितीय प्रश्न के विषय निम्नांकित हैं: पाणिग्रहण के उपरांत गृहस्थ के व्रात; भोजन, उपवास तथा मैथुन; सभी वर्ण के लोग अपने कर्त्तव्यपालन से उपयुक्त तथा न पालन से निम्न योनियों में जन्म लेते हैं; प्रथम तीन वर्णों को नित्य स्नान कर विश्वेदव यज्ञ करना चाहिए; शुद्र किसी आर्य के निरीक्षण में अन्य वर्र्णाेें के लिए भोजन पकावे; पक्वान्न की बलि; प्रथम अतिथि तथा पुन: बाल, वृद्ध, रुग्ण तथा गर्भिणी को भोजन; वैश्वदेव के अंत में आए किसी आगंतुक को भोजन के लिए प्रत्याख्यान नहीं; अविद्वान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र अतिथि का स्वागत; गृहस्थ के लिए उत्तरीय अथवा यज्ञोपवीत; ब्राह्मण के अभाव में क्षत्रिय अथवा वैश्य आचार्य; गुरु के आगमन में गृहस्थ का कर्तव्य; गृहस्थ के लिए अध्यापन तथा अन्य कर्तव्य; अज्ञात वर्ण और शील के अतिथि का स्वागत्‌; अतिथि; मधुपर्क; षड्वेदांग; वैश्वदेव के पश्चात्‌ श्वान तथा चांडाल को भी भोजन; दान, भृत्य और दास को कष्ट देकर नहीं; स्वयं, स्त्री तथा पुत्र को कष्ट देकर दान; ब्रह्मचारी, गृहस्थ, पर्व्राािजक आदि को भोजन; आचार्य, विवाह, यज्ञ, माता-पिता का पोषण, व्रातपालन आदि भिक्षा के अवसर; ब्राह्मण आदि वर्णों के कर्तव्य; युद्ध के नियम; पुरोहित की नियुक्ति; दंड; ब्राह्मण की अदंडयता और अवध्यता; मार्ग के नियम; वर्ण का उत्कर्ष और अपकर्ष पहली पत्नी (संतानवती एवं सुशीला) के रहते दूसरा विवाह निषिद्ध; विवाह के नियम; विवाह के छह प्रकार-ब्राह्म, आर्ष, दैव, गांधर्व, आसुर, और राक्षस; विवाहित दंपती के कर्तव्य; विविध प्रकार के पुत्र; संतान की अदेयता और अविक्रेयता; दाय तथा विभाजन; पति पत्नी में विभाजन निषिद्ध; वेदविरुद्ध देशाचार और कुलाचार अनुकरणीय नहीं; मरणाशौच; दान; श्राद्ध; चार आश्रम; पर्व्राािजकधर्म; राजधर्म; राजधानीसभा; अपराधनिर्मूलन; दान; प्रजारक्षण; कर तथा कर से मुक्ति; व्यभिचारदंड; अपशब्द तथा नरहत्या; विविध प्रकार के दंड; वाद (अभियोग); संदेहावस्था में अनुमान तथा दिव्य प्रमाण; स्त्रियों तथा सामान्य जनता से विविध धर्मो का ज्ञान।[2]

प्राचीनता में आपस्तंबधर्मसूत्र गौतमधर्मसूत्र और बौधायनधर्मसूत्र से पीछे का तथा हिरण्यकेशी और वसिष्ठधर्मसूत्र के पहले का है। इसके संग्रह का समय 500 ई.पू. के पहले रखा जा सकता है। आपस्तंबधर्मसूत्र[3] में औदीच्यों (उत्तरवालों) के आचार का विशेष रूप से उल्लेख है। इसपर कई विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आपस्तंब दक्षिणात्य (संभवत: आंध्र) थे। परंतु सरस्वती नदी के उत्तर का प्रदेश उदीची होने से यह अनुमान केवल दक्षिण पर ही लागू नहीं होता। यह सच है कि आपस्तंबीय शाखा के ब्राह्मण नर्मदा के दक्षिण में पाए जाते हैं, परंतु उनका यह प्रसार परवर्ती काल का है। आपस्तंबधर्मसूत्र पर हरदत्त का उज्वलावृत्ति नामक भाष्य प्रसिद्ध है।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.2.5.4
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 382-83 |
  3. 2.7.17.17.
  4. सं.ग्रं.-आपस्तंबीयधर्मसूत्रम्‌, डां. जॉर्ज ब्यूहलर द्वारा संपादित, तृतीय संस्करण, 1932, बांबे संस्कृत सीरीज़ सं. 44 तथा 50; पी.वी. काणे: हिस्ट्री ऑव धर्मशास्त्र जिल्द 1, पृ.32-46।

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