मुनि जिनविजय
मुनि जिनविजय
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पूरा नाम | मुनि जिनविजय |
जन्म | 27 जनवरी, 1889 |
जन्म भूमि | रूपाहेली गांव, ज़िला भीलवाड़ा |
मृत्यु | 3 जून, 1976 |
कर्म भूमि | भारत |
पुरस्कार-उपाधि | पद्म श्री, 1961 |
प्रसिद्धि | प्राचीन भारतीय साहित्य अन्वेषी, संपादक और पाठालोचक। |
नागरिकता | भारतीय |
धर्म | जैन |
अन्य जानकारी | मुनि जिनविजय ने प्राचीन ग्रंथागारों में बंद 200 से अधिक ग्रंथों का संपादन, पाठालोचन और प्रकाशन किया। ये ग्रथ उनकी सिंघी जैनग्रंथमाला, राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला आदि में प्रकाशित हुए और इनसे भारतीय साहित्य के नयी और समृद्ध पहचान बनी। |
अद्यतन | 15:52, 18 अक्टूबर 2022 (IST)
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मुनि जिनविजय (अंग्रेज़ी: Muni Jinvijay, जन्म- 27 जनवरी, 1889; मृत्यु- 3 जून, 1976) प्राचीन भारतीय साहित्य के अन्वेषी, संपादक और पाठालोचक थे। वह आज़ादी के आंदोलन की एक प्रवृत्ति के रूप में भारतीय ज्ञान और साहित्य की पहचान और पुनरुत्थान की महात्मा गाँधी की मुहिम में जुटे प्रकांड विद्वानों में से एक थे। मुनि जिनविजय ने अपने जीवन काल में अनेक अमूल्य ग्रंथों का अध्ययन, संपादन तथा प्रकाशन किया। उन्होंने साहित्य तथा संस्कृति के प्रोत्साहन हेतु कई शोध संस्थानों का संस्थापन तथा संचालन किया। भारत सरकार ने उनको पद्म श्री (1961) से सम्मानित किया था।
परिचय
27 जनवरी, 1889 को भीलवाड़ा ज़िले के रूपाहेली गांव में किशन सिंह नाम से इनका जन्म हुआ और बाद में 'मुनि जिनविजय' के रूप में जाने गए। इस विद्वान की जीवन गाथा जितनी रोमांचक और रोचक है, उतना ही वैविध्यपूर्ण है। महात्मा गांधी के आग्रह पर साधु जीवन की बंधी हुई दिनचर्या को त्याग कर भारतीय ज्ञान और साहित्य के अन्वेषण, संशोधन-संपादन और प्रकाशन में रत हो जाने वाले मुनि जिनविजय ने अपने जीवन में जितना काम कर लिया, उसे देखकर सहज विश्वास कर पाना कठिन है कि एक व्यक्ति यह सब कर सका होगा।
अफ़सोस की बात यह कि भारतीय साहित्य के इस मनीषी के बारे में बहुत कम जानकारियां उपलब्ध हैं। अपनी दो आत्मकथाओं 'जिनविजय जीवन-कथा' और 'मेरी जीवन प्रपंच कथा' में उन्होंने अपने जीवन के प्रारंभिक 21 वर्षों के जीवन का वृत्तांत लिखा है। 'जिनविजय जीवन कथा' की भूमिका में बाद की जीवन यात्रा का संक्षिप्त और सांकेतिक वर्णन है।[1]
अनुसंधान और अनुवादक
प्राचीन भारतीय साहित्य के अन्वेषी और संपादक-पाठालोचक मुनि जिनविजय आज़ादी के आंदोलन की एक प्रवृत्ति के रूप में भारतीय ज्ञान और साहित्य की पहचान और पुनरुत्थान की महात्मा गाँधी की मुहिम में जुटे प्रकांड विद्वानों मे से एक थे। ज्ञानार्जन के लिए अपने आरंभिक जीवन में उन्होंने कई रूप की और वेश धारण किए। महात्मा गाँधी के आग्रह पर अपने साधु जीवन की बँधी हुई दिनचर्या छोड़ दी और प्राचीन साहित्य के अनुसंधान और संपादन-पाठालोचन के काम में जुट गए।
उन्होंने प्राचीन ग्रंथागारों में बंद 200 से अधिक ग्रंथों का संपादन, पाठालोचन और प्रकाशन किया। ये ग्रथ उनकी सिंघी जैनग्रंथमाला, राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला आदि में प्रकाशित हुए और इनसे भारतीय साहित्य के नयी और समृद्ध पहचान बनी। उनका अन्वेषित साहित्य हिंदी भाषा और साहित्य की प्रवृत्तियों की बुनियाद की तरह था। इससे प्राचीन भारतीय इतिहास के भी नए पहलू सामने आए। काशी प्रसाद जायसवाल, हीरानंद शास्त्री, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, राहुल सांकृत्यायन आदि कई विद्वानों ने उनके अन्वेषित साहित्य का उपयोग किया।
गुजरात पुरातत्त्व विद्यामंदिर, भारतीय विद्या भवन, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शांतिनिकेतन की जैन विद्यापीठ, भांडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट आदि कई शीर्ष सांस्कृतिक संस्थाओं से उनका जुड़ाव रहा। देशसेवा के लिए उन्होंने राजस्थान के चंदेरिया (जिला चित्तौड़गढ़) में 'सर्वोदय साधना आश्रम' स्थापित किया।[1]
सम्पादन कार्य
मुनि जिनविजय ने राजस्थान पुरातत्व मंदिर के निर्देशक रूप में 86 ग्रन्थ प्रकाशित किये थे। मुनिजी ने स्वयं जिन ग्रंथों का संपादन किया, वे निम्न प्रकार हैं-
- हम्मीर महाकाव्य
- शकुन-प्रदीप
- कर्णामृतप्रपा
- बालशिक्षा व्याकरण
- प्राकृतानन्द
- गोरा-बादल चरित्र
- मधुमालती सचित्र कथा
- उक्तिरत्नाकर
- पदार्थरत्नमंजूषा
पुरस्कार व सम्मान
जर्मन ओरियंटल रिसर्च सोसायटी ने में मुनि जिनविजय को उनकी प्राच्यज्ञान संबंधी विद्वता और कार्यों के लिए अपनी मानद सदस्यता प्रदान की और भारत सरकार ने उनको पद्म श्री, 1961 से सम्मानित किया।[1]
मृत्यु
मुनि जिनविजय की मृत्यु 3 जून, 1976 को हुई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 मुनि जिनविजय (हिंदी) madhavhada.com। अभिगमन तिथि: 18 अक्टूबर, 2022।
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