खानवा का युद्ध
खानवा का युद्ध 'भारतीय इतिहास' में काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। यह युद्ध 17 मार्च, 1527 ई. में राजपूत नरेश राणा साँगा और मुग़ल बादशाह बाबर के मध्य लड़ा गया था। इस युद्ध में साँगा की हार हुई और सम्पूर्ण भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना करने का उसका सपना टूट गया। इस युद्ध के कारणों के विषय में इतिहासकारों के अनेक मत हैं। राजस्थान के ऐतिहासिक काव्य 'वीर विनोद' में साँगा और बाबर के इस युद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। 'खानवा की लड़ाई' से दिल्ली-आगरा में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई थी। आगरा के पूर्व में ग्वालियर और धौलपुर जैसे क़िलों की श्रृंखला जीत कर बाबर ने अपनी स्थिति और भी मज़बूत कर ली थी।
राणा साँगा की सोच
'खानवा' नामक स्थान राजस्थान में भरतपुर के निकट एक ग्राम है, जो फतेहपुर सीकरी से 10 मील (लगभग 16 कि.मी.) उत्तर-पश्चिम में स्थित है। उत्तरी भारत में दिल्ली के सुल्तान के बाद सबसे अधिक शक्तिशाली शासक चित्तौड़ का राजपूत नरेश राणा साँगा (संग्राम सिंह) था। उसने दो मुस्लिमों- इब्राहीम लोदी और बाबर के युद्ध में तटस्थता की नीति अपनायी। साँगा का विचार था कि बाबर लूट-मार करके वापस चला जायेगा, तब लोदी शासन को हटा दिल्ली में हिन्दू राज्य का उसे सुयोग प्राप्त हो जायेगा। किंतु जब साँगा ने देखा कि बाबर अब भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का आयोजन कर रहा है, तब वह उससे युद्ध करने के लिए तैयार हुआ। राणा साँगा वीर और कुशल सेनानी था। वह अनेक युद्ध कर चुका था। अधिकांश युद्धों में उसे विजय प्राप्त हुई थी। उधर बाबर ने भी समझ लिया था कि राणा साँगा के रहते हुए भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना करना सम्भव नहीं हैं। अत: उसने भी अपनी सेना के साथ राणा से युद्ध करने का निश्चय किया।
युद्ध के सम्भावित कारण
17 मार्च, 1527 ई. में 'खानवा का युद्ध' बाबर और राणा साँगा के बीच लड़ा गया। इस युद्ध के कारणों के विषय में इतिहासकारों के अनेक मत हैं-
- चूँकि पानीपत के युद्ध के पूर्व बाबर एवं राणा साँगा में हुए समझौते के तहत इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ साँगा को बाबर के सैन्य अभियान में सहायता करनी थी, जिससे राणा साँगा बाद में मुकर गया था।
- राणा साँगा बाबर को दिल्ली का बादशाह नहीं मानता था।
साँगा के सहयोगी
उपर्युक्त दोनों कारणों से अलग कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह युद्ध बाबर एवं राणा साँगा की महत्वाकांक्षी योजनाओं का परिणाम था। बाबर सम्पूर्ण भारत को रौंदना चाहता था तथा राणा साँगा तुर्क-अफ़ग़ान राज्य के खण्डहरों के अवशेष पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहता था| परिणामस्वरूप दोनों सेनाओं के मध्य 17 मार्च, 1527 ई. को युद्ध आरम्भ हुआ। इस युद्ध में राणा साँगा का साथ मारवाड़, अम्बर, ग्वालियर, अजमेर, हसन ख़ाँ मेवाती, बसीन चंदेरी एवं इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी दे रहे थे।
बाबर द्वारा सैनिकों का उत्साहवर्धन
इस युद्ध से पहले राणा साँगा के संयुक्त मोर्चे की ख़बर से बाबर के सैनिकों का मनोबल गिरने लगा। तब बाबर ने अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली। उसने मुस्लिमों से "तमगा कर" न लेने की घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था, जिसे राज्य द्वारा लगाया जाता था। इस तरह 'खानवा के युद्ध' में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने राणा साँगा के विरुद्ध एक सफल युद्ध की रणनीति तय की।
मुग़लों की विजय
राजस्थान के ऐतिहासिक काव्य 'वीर विनोद' में राणा साँगा और बाबर के इस युद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है कि बाबर 20,0000 मुग़ल सैनिकों को लेकर साँगा से युद्ध करने आया था। उसने साँगा की सेना के लोदी सेनापति को प्रलोभन दिया, जिससे वह साँगा को धोखा देकर सेना सहित बाबर से जा मिला। बाबर और साँगा की पहली मुठभेड़ बयाना में और दूसरी उसके पास खानवा नामक स्थान पर हुई। राजपूतों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया। लेकिन अंत में साँगा की हार हुई और बाबर की विजय। इस विजय का सबसे बड़ा कारण बाबर के सैनिकों की वीरता नहीं, बल्कि उनका आधुनिक तोपख़ाना था।
बाबर का कथन
राजपूतों से युद्ध करते हुए तुर्कों के पैर उखड़ गये, जिससे राजपूतों की विजय और तुर्कों की पराजय दिखाई देने लगी थी, किंतु जब बाबर के तोपख़ाने ने आग बरसायी, तब साँगा की जीती बाज़ी हार में बदल गई। फिर भी साँगा और उसके वीर मरते दम तक लड़ते रहे। बाबर ने राजपूतों के बारे में लिखा है−
वे मरना−मारना तो जानते है, किंतु युद्ध करना नहीं जानते।
राणा साँगा की मृत्यु
'खानवा के युद्ध' में राणा साँगा बुरी तरह घायल हुआ, लेकिन किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिया गया। कालान्तर में अपने किसी सामन्त द्वारा ही ज़हर दिये जाने के कारण राणा साँगा की मृत्यु हो गई। 'खानवा के युद्ध' को जीतने के बाद बाबर ने "ग़ाज़ी" की उपाधि धारण की। 'खानवा की लड़ाई' से दिल्ली-आगरा में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई। आगरा के पूर्व में ग्वालियर और धौलपुर जैसे क़िलों की श्रृंखला जीत कर बाबर ने अपनी स्थिति और भी मज़बूत कर ली। उसने हसन ख़ाँ मेवाती से अलवर का बहुत बड़ा भाग भी छीन लिया। फिर उसने मालवा स्थित चन्देरी के मेदिनी राय के विरुद्ध अभियान छेड़ा। राजपूत सैनिकों द्वारा रक्त की अंतिम बूँद तक लड़कर जौहर करने के बाद चन्देरी पर बाबर का राज्य हो गया। बाबर को इस क्षेत्र में अपने अभियान को सीमित करना पड़ा, क्योंकि उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में अफ़ग़ानों की हलचल की ख़बर मिली।
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