घाघ

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घाघ का हिन्दी के लोक कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। कृषि सम्बन्धी कहावतों के लिए घाघ बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। ये अकबर के शासनकाल में थे। ऐसा माना जाता है कि घाघ का जन्म कन्नौज (उत्तर प्रदेश) के पास 'चौधरी सराय' नामक एक गाँव में हुआ था। घाघ उत्तर भारत में किसानों के बीच कृषि सम्बन्धी कहावतों के लिए काफ़ी प्रसिद्ध थे। इनका जन्म एक दूबे ब्राह्मण परिवार में हुआ था। घाघ की लिखी कोई भी पुस्तक अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। भारत में कृषि, पशु-धन, वर्षा आदि के सम्बन्ध में इनकी कहावतें अत्यधकि प्रचलित हैं। संग्रहकर्ताओं ने इनकी कहावतों को संकलित किया है। इन कहावतों से घाघ के व्यावहारिक ज्ञान की गहराई का पता चलता है।[1]

जीवन परिचय

मध्यकालीन अन्य कवियों की भांति घाघ का जीवनवृत्त भी अज्ञात है। विभिन्न विद्वानों ने उन्हें अपने-अपने क्षेत्र का निवासी सिद्ध करने की चेष्टा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में घाघ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम ‘शिवसिंह सरोज’ में उल्लेख मिलता है। इसमें “कान्यकुब्ज अंतर्वेद वाले” कवि के रूप में उनकी चर्चा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने घाघ का केवल नामोल्लेख किया है। ‘हिन्दी शब्द सागर’ के अनुसार “घाघ गोंडे के रहने वाले एक बड़े चतुर और अनुभवी व्यक्ति का नाम है जिसकी कही हुई बहुत सी कहावतें उत्तरी भारत में प्रसिद्ध हैं। खेती-बारी, ऋतु-काल तथा लग्न-मुहूर्त आदि के सम्बन्ध में इनकी विलक्षण उक्तियाँ किसान तथा साधारण लोग बहुत कहते हैं।” श्रीयुत पीर मुहम्मद यूनिस ने घाघ की कहावतों की भाषा के आधार पर उन्हें चम्पारन (बिहार) और मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले की उत्तरी सीमा पर स्थित औरेयागढ़ अथवा बैरगनिया अथवा कुड़वा चैनपुर के समीप के किसी गाँव में उत्पन्न माना है। राय बहादुर मुकुन्द लाल गुप्त ‘विशारद’ ने ‘कृषि रत्नावली’ में उन्हें कानपुर ज़िला अन्तर्गत किसी ग्राम का निवासी ठहराया है। दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह ने घाघ का जन्म छपरा में माना है। पं. राम नरेश त्रिपाठी ने ‘कविता कौमुदी’ भाग एक और ‘घाघ और घाघ और भड्डरी’ नामक पुस्तक में उन्हें कन्नौज का निवासी माना है। घाघ की अधिकांश कहावतों की भाषा भोजपुरी है। डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन ने भी ‘पीजेन्ट लाइफ आफ बिहार’ में घाघ की कविताओं का भोजपुरी पाठ प्रस्तुत किया है। इस आधार पर इस धारणा को बल मिलता है कि घाघ का जन्म स्थान बिहार का छपरा था। वहां से ये कन्नौज गये। इस सम्बन्ध में जनश्रुति मिलती है कि घाघ की उनकी पतोहू (पुत्रवधू) से अनबन रहती थी। घाघ जो उक्तियाँ कहते थे लोग उन्हें उनकी पतोहू के पास पहुँचा देते थे और वह उसके विपरीत कहावत कहती थी जिसे लोग घाघ के पास लाते थे। कहा जाता है कि अपनी पतोहू से खिन्न होकर वे छपरा छोड़कर कन्नौज चले गये। किन्तु यह मत अधिक विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता क्योंकि ऐसी सामान्य बात पर कोई अपना जन्म स्थान छोड़कर अन्यत्र क्यों जायेगा? कहा जाता है कि कन्नौज में घाघ की ससुराल थी। ऐसा अनुमान है कि घाघ जीविकोपार्जन के लिए छपरा छोड़कर अपनी ससुराल कन्नौज गये होंगे और वहीं बस गये होंगे। रीतिकालीन कवि बिहारी लाल से सम्बन्धित भी ऐसी घटना है। वे अपना जन्म स्थान ग्वालियर छोड़कर अपनी ससुराल मथुरा में रहने लगे थे।[2]

जन्म काल

घाघ का जन्मकाल भी निर्विवाद नहीं है। शिवसिंह सेंगर ने उनकी स्थिति संवत 1753 विक्रमी के उपरान्त माना है। इसी आधार पर मिश्र बन्धुओं ने उनका जन्म संवत 1753 विक्रमी और कविता काल संवत 1780 विक्रमी माना है। ‘भारतीय चरिताम्बुधि’ में इनका जन्म सन् 1696 ई. बताया जाता है। पं. राम नरेश त्रिपाठी ने घाघ का जन्म विक्रम संवत 1753 माना है। यही मत आज सर्वाधिक मान्य है। घाघ के नाम के विषय में भी निश्चित रूप से कुछ ज्ञात नहीं है। घाघ उनका मूल नाम था या उपनाम था इसका पता नहीं चलता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र-बिहार, बंगाल एवं असम प्रदेश में डाक नामक कवि की कृषि सम्बन्धी कहावतें मिलती हैं जिनके आधार पर विद्वानों का अनुमान है कि डाक और घाघ एक ही थे। घाघ की जाति के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। कतिपय विद्वानों ने इन्हें ‘ग्वाला’ माना है। किन्तु रामनरेश त्रिपाठी ने अपनी खोज के आधार पर इन्हें ब्राह्मण (देवकली दुबे) माना है। उनके अनुसार घाघ कन्नौज के चौधरी सराय के निवासी थे। कहा जाता है कि घाघ हुमायूँ के दरबार में भी गये थे। हुमायूँ के बाद उनका सम्बन्ध अकबर से भी रहा। अकबर गुणज्ञ था और विभिन्न क्षेत्रों के लब्धप्रतिष्ठि विद्वानों का सम्मान करता था। घाघ की प्रतिभा से अकबर भी प्रभावित हुआ था और उपहार स्वरूप उसने उन्हें प्रचुर धनराशि और कन्नौज के पास की भूमि दी थी, जिस पर उन्होंने गाँव बसाया था जिसका नाम रखा ‘अकबराबाद सराय घाघ’। सरकारी कागजों में आज भी उस गाँव का नाम ‘सराय घाघ’ है। यह कन्नौज स्टेशन से लगभग एक मील पश्चिम में है। अकबर ने घाघ को ‘चौधरी’ की भी उपाधि दी थी। इसीलिए घाघ के कुटुम्बी अभी तक अपने को चौधरी कहते हैं। ‘सराय घाघ’ का दूसरा नाम ‘चौधरी सराय’ भी है।5 घाघ की पत्नी का नाम किसी भी स्रोत से ज्ञात नहीं है किन्तु इनके दो पुत्र-मार्कण्डेय दुबे और धीरधर दुबे हुए। इन दोनों पुत्रों के खानदान में दुबे लोगों के बीस पच्चीस घर अब उसी बस्ती में हैं। मार्कण्डेय के खानदान में बच्चूलाल दुबे, विष्णु स्वरूप दुबे तथा धीरधर दुबे के खानदान में रामचरण दुबे और कृष्ण दुबे वर्तमान हैं। ये लोग घाघ की सातवीं-आठवीं पीढ़ी में अपने को बताते हैं। ये लोग कभी दान नहीं लेते हैं। इनका कथन है कि घाघ अपने धार्मिक विश्वासों के बड़े कट्टर थे और इसी कारण उनको अंत में मुग़ल दरबार से हटना पड़ा था तथा उनकी ज़मीनदारी का अधिकांश भाग जब्त हो गया था।[2]

प्रचलित किवदंतियाँ

प्राचीन महापुरुषों की भांति घाघ के सम्बन्ध में भी अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि घाघ बचपन से ही ‘कृषि विषयक’ समस्याओं के निदान में दक्ष थे। छोटी उम्र में ही उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गयी थी कि दूर-दूर से लोग अपनी खेती सम्बन्धी समस्याओं को लेकर उनका समाधान निकालने के लिए घाघ के पास आया करते थे। किंवदन्ती है कि एक व्यक्ति जिसके पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि थी किन्तु उसमें उपज इतनी कम होती थी कि उसका परिवार भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता था, घाघ की गुणज्ञता को सुनकर वह उनके पास आया। उस समय घाघ हमउम्र के बच्चों के साथ खेल रहे थे। जब उस व्यक्ति ने अपनी समस्या सुनाई तो घाघ सहज ही बोल उठे-

आधा खेत बटैया देके, ऊँची दीह किआरी।
जो तोर लइका भूखे मरिहें, घघवे दीह गारी।।

कहा जाता है कि घाघ के कथनानुसार कार्य करने पर वह किसान धन-धान्य से पूर्ण हो गया। घाघ के सम्बन्ध में जनश्रुति है कि उनकी अपनी पुत्रवधू से नहीं पटती थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इसी कारण घाघ अपना मूल निवास छपरा छोड़कर कन्नौज चले गये थे। घाघ जो कहावतें कहते थे उनकी पुत्रवधू उसके विपरीत दूसरी कहावत बनाकर कहती थी। पं. राम नरेश त्रिपाठी ने घाघ और उनकी पुत्रवधू की इस प्रकार नोंकझोंक से सम्बन्धित कतिपय कहावतें प्रस्तुत की हैं-

घाघ-
मुये चाम से चाम कटावै, भुइँ सँकरी माँ सोवै।
घाघ कहैं ये तीनों भकुवा उढ़रि जाइँ पै रोवै।।
पुत्र वधू-
दाम देइ के चाम कटावै, नींद लागि जब सोवै।
काम के मारे उढ़रि गई जब समुझि आइ तब रोवै।।

घाघ-
तरून तिया होइ अँगने सोवै रन में चढ़ि के छत्री रोवै।
साँझे सतुवा करै बियारी घाघ मरै उनकर महतारी।।
पुत्रवधू-
पतिव्रता होइ अँगने सोवै बिना अन्न के छत्री रोवै।
भूख लागि जब करै बियारी मरै घाघ ही कै महतारी।।

घाघ-
बिन गौने ससुरारी जाय बिना माघ घिउ खींचरि खाय।
बिन वर्षा के पहनै पउवा घाघ कहैं ये तीनों कउवा।।
पुत्रवधू-
काम परे ससुरारी जाय मन चाहे घिउ खींचरि खाय।
करै जोग तो पहिरै पउवा कहै पतोहू घाघै कउवा।। [2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक=भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 | प्रकाशक=यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 | संपादन=प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या=260
  2. 2.0 2.1 2.2 घाघ और भड्डरी (हिन्दी) इंडिया वाटर पोर्टल (हिन्दी)। अभिगमन तिथि: 18 अप्रॅल, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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