गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय
विवरण 'गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय' उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय है। यहाँ प्रत्येक प्रकार की और हर स्तर की शिक्षा का माध्यम हिन्दी है।
राज्य उत्तराखण्ड
ज़िला हरिद्वार
स्थापना 1902
संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द
शिक्षण माध्यम हिन्दी
संबंधित लेख उत्तराखण्ड, हरिद्वार, स्वामी श्रद्धानन्द
अन्य जानकारी 4 मार्च, 1902 ई. को गुरुकुल पंजाब के गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। गुरुकुल का आरंभ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ घास-फूस की झोपड़ियों में किया गया था।

  गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय (अंग्रेज़ी: Gurukul Kangri Vishwavidyalaya) भारत के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में से एक है। यह हरिद्वार, उत्तराखण्ड में स्थित है। इसकी स्थापना 1902 में स्वामी श्रद्धानन्द ने की थी। लॉर्ड मैकाले द्वारा भारत में प्रतिपादित अंग्रेज़ी माध्यम की पाश्चात्य शिक्षा नीति के स्थान पर राष्ट्रीय विकल्प के रूप में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से वैदिक साहित्य, भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के साथ-साथ आधुनिक विषयों की उच्च शिक्षा के अध्ययन तथा अनुसंधान के लिए यह विश्वविद्यालय स्थापित किया गया था।

स्थिति तथा उद्देश्य

गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार रेलवे स्टेशन से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण में स्थित है। इस विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य जाति और छुआछूत के भेदभाव के बिना गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के मध्य निरन्तर घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर छात्र-छात्राओं को प्राचीन एवं आधुनिक विषयों की शिक्षा देकर उनका मानसिक और शारीरिक विकास कर चरित्रवान आदर्श नागरिक बनाना है।

इतिहास

भारत में 19वीं शताब्दी में दो प्रकार की शिक्षा पद्धतियाँ प्रचलित थीं-

  1. पहली पद्धति ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने शासन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विकसित की गई सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों की प्रणाली थी।
  2. दूसरी संस्कृत, व्याकरण, दर्शन आदि भारतीय वाङ्‌मय की विभिन्न विद्याओं को प्राचीन परंपरागत विधि से अध्ययन करने की पाठशाला पद्धति थी।

  दोनों पद्धतियों में कुछ गंभीर दोष थे। पहली पद्धति में पूर्वी ज्ञान-विज्ञान की घोर अपेक्षा थी और यह सर्वथा अराष्ट्रीय थी। इसके प्रबल समर्थक तथा 1835 ई. में अपने सुप्रसिद्ध स्मरणपत्र द्वारा इसका प्रवर्तन कराने वाले लॉर्ड मैकाले (1800-1859 ई.) के मतानुसार- 'किसी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की आलमारी के एक खाने में पड़ी पुस्तकों का महत्व भारत और अरब के समूचे साहित्य के बराबर था। अत: सरकारी शिक्षा पद्धति में भारतीय वाङ्‌मय की घोर उपेक्षा करते हुए अंग्रेज़ी तथा पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन पर बल दिया गया। इस शिक्षा पद्धति का प्रधान उद्देश्य मेकाले के शब्दों में 'भारतीयों का एक ऐसा समूह पैदा करना था, जो रंग तथा रक्त की दृष्टि से तो भारतीय हो, परंतु रुचि, मति और अचार-विचार की दृष्टि से अंग्रेज़ हो।' इसलिए यह शिक्षा पद्धति भारत के राष्ट्रीय और धार्मिक आदर्शों के प्रतिकूल थी।   दूसरी शिक्षा प्रणाली, पंडित मंडली में प्रचलित पाठशाला पद्धति थी। इसमें यद्यपि भारतीय वाङ्‌मय का अध्ययन कराया जाता था, तथापि उसमें नवीन तथा वर्तमान समय के लिए आवश्यक ज्ञान-विज्ञान की घोर उपेक्षा थी। उस समय देश की बड़ी आवश्यकता पौरस्त्य एवं पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का समन्वयय करते हुए दोनों शिक्षा पद्धतियों के उत्कृष्ठ तत्वों के सामंजस्य द्वारा एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना था। इस महत्वपूर्ण कार्य को संपन्न करने में गुरुकुल काँगड़ी ने बड़ा सहयोग दिया।

स्थापना

गुरुकुल के संस्थापक महात्मा मुंशीराम पिछली शताब्दी के भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण में असाधारण महत्व रखने वाले आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने 1897 में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आंदोलन आरंभ किया। 30 अक्टूबर, 1898 को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, 1898 ई. में पंजाब के आर्य समाजों के केंद्रीय संगठन 'आर्य प्रतिनिधि सभा' ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया और महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक 30,000 रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और अविचल निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। 16 मई, 1900 को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई।

स्थान परिवर्तन

गुरुकुल की स्थापना भले ही हो गई थी, परंतु महात्मा मुंशीराम को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र (26.15) 'उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां। धिया विप्रो अजायत' के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे। इसी समय नजीबाबाद के धर्मनिष्ठ रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम को 1,200 बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए और होली के दिन सोमवार, 4 मार्च, 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। गुरुकुल का आरंभ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूस की झोपड़ियों में किया गया।

विकास

पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तीव्र गति से होने लगा। 1907 ई. में इसका महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 ई. में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षांत समारोह हुआ। इस समय सरकार के प्रभाव से सर्वथा स्वतंत्र होने के कारण इसे चिरकाल तक ब्रिटिश सरकार राजद्रोही संस्था समझती रही। 1917 ई. में वायसराय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड के गुरुकुल आगमन के बाद इस संदेह का निवारण हुआ। 1921 ई. में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्‌स) महाविद्यालयों को बनाने का निश्चय किया। 1923 में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया। देश के विभिन्न भागों में इससे प्ररेणा ग्रहण करके, इसके आदर्शों और पाठविधि का अनुसरण करने वाले अनेक गुरुकुल स्थापित हुए।

बाढ़ से क्षति

24 सितंबर, 1924 को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए 1 मई, 1930 को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान पर लाया गया। 1935 में इसका प्रबंध करने के लिए 'आर्य प्रतिनिधि सभा', पंजाब के अंतर्गत एक पृथक् विद्यासभा का संगठन हुआ।

शिक्षा का माध्यम

प्रारम्भ से ही गुरुकुल में सब विषयों की शिक्षा राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम द्वारा दी जाती थी। विज्ञान, गणित, पाश्चात्य दर्शन आदि विषय भी हिन्दी में ही पढ़ाए जाते थे। जब सन 1907 में महाविद्यालय विभाग खुला तो उसमें भी हिन्दी को ही माध्यम रखा गया। उस समय हिन्दी में उच्च शिक्षा देना एक असम्भव बात समझी जाती थी। गुरुकुल ने इसे कार्यरूप में परिणत करके दिखा दिया। उस समय आधुनिक विद्वानों की पुस्तकें हिन्दी में नहीं थी। गुरुकुल के उपाध्यायों ने पहले-पहल इस क्षेत्र में काम किया और गुरुकुल के अनेक उच्चकोटि के ग्रन्थ प्रकाशित हुए। प्रो. महेशचरण सिंह की 'हिन्दी कैमिस्ट्री', प्रो. साठे का 'विकासवाद', श्रीयुत गोवर्धन की 'भौतिकी' और 'रसायन', प्रो. रामशरणदास सक्सेना का 'गुणात्मक विश्लेषण', प्रो. सिन्हा का 'वनस्पतिशास्त्र', प्रो. प्राणनाथ का 'अर्थशास्त्र', 'राष्ट्रीय आय-व्यय शास्त्र' और 'राजनीतिशास्त्र', प्रो. बालकृष्ण का 'अर्थशास्त्र' और 'राजनीतिशास्त्र' और प्रो. सुधाकर का 'मनोविज्ञान' हिन्दी में अपने-अपने विषय के पहले ग्रन्थ हैं। हिन्दी में वैज्ञानिक ग्रन्थों की रचना ही गुरुकुल द्वारा प्रारम्भ हुई। इन वैज्ञानिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य भी बहुत से उच्चकोटि के ग्रन्थ गुरुकुल द्वारा प्रकाशित हुए। प्रो. रामदेव ने भारतीय इतिहास के संबंध में मौलिक अनुसंधान कर अपना प्रसिद्ध 'भारतवर्ष का इतिहास' प्रकाशित किया।

गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएँ

गुरुकुल शिक्षा की कतिपय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-  

  1. इन्द्र विद्यावाचस्पति ने गुरुकुल शिक्षा की विशेषता बताते हुए लिखा है कि, "गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता जो उसे अन्य प्रणालियों से भिन्न करती है, यह है कि जहाँ अन्य शिक्षा-पद्धतियों में अध्ययन पर अधिक बल दिया जाता है, वहाँ गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में अध्ययन को केवल साधन मानकर चरित्र निर्माण को प्रमुखता दी जाती है। निःसन्देह यह प्रमुख विशेषता है।
  2. प्रत्येक प्रकार की और हर स्तर की शिक्षा का माध्यम हिन्दी है।
  3. बालक गुरु के कुल का अंग बनकर रहता है। बालक अपने घर या परिवार से केवल हटकर दूसरे परिवार में पहुँचता है। जन्म देने वाले अपने पिता के छोटे परिवार से हटकर आचार की शिक्षा देने वाले आचार्य के बड़े परिवार का सदस्य बन जाता है।
  4. बालक को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है।
  5. बालक के पिता का सामाजिक-आर्थिक स्तर क्या है, इसका कोई लिहाज गुरुकुल में नहीं रखा जाता है। अत: धनी-निर्धन, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव गुरुकुल में नहीं बरता जाता।
  6. बालकों में तपस्यापूर्ण जीवन का अभ्यास कराया जाता है।
  7. आश्रम का जीवन विद्यार्थियों को अस्वस्थकारी प्रभावों से बचाता है। व्रताभ्यास द्वारा उनका शतक प्रशिक्षण भी होता है।
  8. कठोर परिवीक्षण तथा निश्चित दैनिक कार्यक्रम द्वारा विद्यार्थियों में समय का सदुपयोग करने की प्रवृत्ति विकसित की जाती है।
  9. विद्यार्थियों को विभिन्न विषयों पर प्राचीन भारतीय तथा आधुनिक पश्चिमी विचारों का तुलनात्मक ज्ञान मिलता है।
  10. परीक्षाओं का आतंक नहीं रहता।
  11. कक्षा उत्तीर्ण करने के लिए केवल परीक्षा भवन में सम्पन्न हुई परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं, दैनिक जीवन के कार्यक्रमों को नियमित रूप से करना भी आवश्यक है।
  12. शिक्षा का स्तर अत्यन्त उच्च है।
  13. पुस्तकालय के प्रयोग पर बल दिया जाता है। पुस्तकालय में विभिन्न विषयों के अच्छेस्तर की लगभग एक लाख पुस्तकें हैं। भाषा की दृष्टि से हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, उर्दू तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त रूसी भाषा की भी पुस्तकें वहाँ है।
  14. समन्वित विकास पर ध्यान दिया जाता है। इसी का परिणाम है कि गुरुकुल के हर तीन स्नातकों में से एक प्रतिष्ठित लेखक है।
  15. गुरुकुल के छात्र-छात्राओं ने शारीरिक व्यायाम के नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। छाती पर पत्थर तोड़ना बहुत से आदमियों से भरी गाड़ी छाती पर से निकालना, चलती मोटर को कमर में रस्सा बांध कर रोक देना आदि व्यायाम एक ओर हैं तो दूसरी ओर है हॉकी, वालीबॉल आदि की उनकी टीम जिन्होंने कोलकाता, मेरठ, दिल्ली आदि में पुरस्कार प्राप्त किए है।

भारत सरकार द्वारा मान्यता

जून, 1962 में भारत सरकार ने इस शिक्षण संस्था के राष्ट्रीय स्वरूप तथा शिक्षा के क्षेत्र में इसके अप्रतिम योगदान को दृष्टि में रखते हुए 'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' के एक्ट 1956 की धारा 3 के अन्तर्गत समविश्वविद्यालय की मान्यता प्रदान की और वैदिक साहित्य, संस्कृत साहित्य, दर्शन, हिन्दी साहित्य, अंग्रेज़ी, मनोविज्ञान, गणित तथा प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विषयों में स्नातकोत्तर अध्ययन की व्यवस्था की गई। उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त वर्तमान में विश्वविद्यालय में भौतिकी, रसायन विज्ञान, कम्प्यूटर विज्ञान, अभियांत्रिकी, आयुर्विज्ञान व प्रबन्धन के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्थापित स्वायत्तशासी संस्थान ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद’ मई, 2002 में विश्वविद्यालय को चार सितारों से अलंकृत किया गया था। परिषद के सदस्यों ने विश्वविद्यालय की संस्तुति यहां के परिवेश, शैक्षिक वातावरण, शुद्ध पर्यावरण, बृहत पुस्तकालय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के संग्रहालय आदि से प्रभावित होकर की थी। विश्वविद्यालय की सभी उपाधियां 'भारत सरकार'/'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' द्वारा मान्य हैं। यह विश्वविद्यालय 'भारतीय विश्वविद्यालय संघ तथा कामनवैल्थ विश्वविद्यालय संघ का सदस्य है।  

पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख