दतिया रियासत

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दतिया रियासत भारत की देशी रियासत थी। दतिया का इतिहास वीरसिंह देव के शासन काल से प्रारम्भ होता है। वीरसिंह देव बुंदेला ने सन 1618 में प्रतापगढ़ का निर्माण कराया था, जिसमें पुराने महल से लेकर भरतगढ़ तक की अनेकों भव्य इमारतें शामिल थीं। उसके परकोटे के अवशेष आज भी दतिया नगर के बीचों-बीच मौजूद हैं। इसके अलावा क़िले के बाहर कई तालाब तथा कई भवनों का निर्माण कराया गया था। इन सबके निर्माण के लिए हजारों की संख्या में मजदूर, कारीगर, इंजीनियर, चित्रकार अस्थाई रूप से क़िले में बस गए थे। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए यहाँ बाजार लगने लगा था, जिसे कटरा कहते थे। अब्दुल हमीद लाहौरी के 'बादशाहनामा' में एक हाथ का बना चित्र शामिल है। यह चित्र उस समय का है, जब शाहजहां बुंदेलखंड में आया था। उसकी पृष्ठभूमि में एक क़िला दर्शाया गया है, वह क़िला प्रतापगढ़ ही है। चित्र के शीर्षक में ओरछा लिखा है, लेकिन वह ओरछा के क़िले से बिलकुल नहीं मिलता, इसके विपरीत दतिया नगर में पुराने क़िले के जो भवन और अवशेष हैं वह उनसे मिलता है।[1]

वीरसिंह देव की मृत्यु सन 1627 में हो गयी। उनकी मृत्यु के कारण सारा निर्माण कार्य रुक गया। पुराने महल का मुख्य द्वार, सामने के कोने की दो मीनारें तथा भित्तिचित्र कुछ ही कमरों में हो पाये शेष अधूरे रह गए। आसपास की कुछ इमारतें भी अधूरी रह गईं। बाद में घटनाक्रम कुछ इस तरह घटा कि बचाखुचा निर्माण कार्य पूरा नहीं हो पाया। निर्माण कार्य में लगे मजदूर, कारीगर, इंजीनियर, चित्रकार आदि जो किले में अस्थाई रूप से रह रहे थे, स्थाई रूप से बस गए। आज भी उनके वंशज बसे हुये हैं और उनके नाम से गली, मोहल्ले मौजूद हैं- जैसे कमनीगर की गली, बेलदारों का मुहल्ला, भटियारा पुरा आदि। वीरसिंह देव के बाद जुझारसिंह ओरछा की गद्दी पर बैठा। इसके कुछ समय बाद मुग़ल बादशाह जहांगीर का निधन हो गया। शाहजहां ने गद्दी पर बैठते ही बुंदेलखंड पर दो आक्रमण किये। पहला आक्रमण 1628 ई. में हुआ, जिसमें करैरा का परगना बुंदेलों के हाथ से निकल गया। दूसरा आक्रमण 1635 ई. में हुआ, जिसमें जुझारसिंह अपने परिवार सहित मारा गया और ओरछा पर शाहजहाँ का क़ब्ज़ा हो गया। उसने सिंध नदी से लगा हुआ भाग ओरछा से अलग कर मुग़ल सम्पत्ति घोषित कर दिया, जिसमें बड़ौनी, कटरा (प्रतापगढ़ का क़िला) तथा भाण्डेर शामिल था। उसने कटरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया तथा इसमें एरच, भाण्डेर तथा नरवर का इलाका मिलाकर इसे आगरा सूबा के अंतर्गत सरकार (संभाग) का दर्जा देकर बाक़ी खान को इसका फौजदार नियुक्त कर दिया।

झाँसी का गवर्नर राजा विठ्ठलदास गौर के छोटे भाई गिरधरदास को बनाया। सन 1636 में चम्पतराव ने ओरछा पर अधिकार कर लिया, ऐसी स्थिति में कटरा असुरक्षित हो गया। तब अब्दुल्ला खां फिरोज़जंग को दीवान, बहादुर खान रुहेला को किलेदार नियुक्त कर बाक़ी खान को फौजदार यथावत बनाऐ रखा। (इन तीनों के वंशज आज भी दतिया में निवास करते हैं।) अब्दुल्ला खां चम्पतराय के आक्रमण को रोक नहीं सका, इसीलिये शाहजहाँ ने सन 1631 में उसे हटाकर बहादुर खान रुहेला को दीवान बनाया। लेकिन बाद में बुंदेलखंड से सरोकार रखने वालों ने बादशाह को इस बात से सहमत कर लिया कि बुंदेलखंड को रुहेलखण्ड में बदलना उचित नहीं है। बादशाह ने उनकी सलाह मानकर बहादुर खान रुहेला को हटाकर भगवानदास बुंदेला को दीवान नियुक्त कर दिया।[1]

1640 ई. में चम्पतराय के आक्रमण के दौरान एक राजपूत ने भगवानदास बुंदेला का क़त्ल कर दिया। उस समय औरंगज़ेब दक्षिण का सूबेदार था, उसने विपरीत परिस्थितियाँ देखकर भगवानदास के अल्पवयस्क लड़के शुभकरण को अपने पास दक्षिण में बुलवा लिया तथा अगली व्यवस्था होने तक के लिए इस्लामाबाद का प्रभार ओरछा के राजा पहाड़ सिंह को सौंप दिया। वयस्क होने पर सन 1656 में शुभकरण को इस्लामाबाद का दीवान नियुक्त किया गया। 1683 में शुभकरण की मृत्यु के बाद उनका लड़का दलपतराव दीवान बना। 1686 में मराठों से हुए युद्ध में विजय प्राप्त करने पर उन्हें 'राव' की उपाधि और इस्लामाबाद की जागीर मिली। दलपतराव ने इस्लामाबाद नाम को कभी स्वीकार नहीं किया। वे अपनी सनदों में इस्लामाबाद की जगह भांडेर नाम का उल्लेख करता था। जागीर मिल जाने के बाद उसने इस्लामाबाद का नाम बदलकर 'दलीप नगर' रख दिया, जो उनका ही नाम था। 19 जुलाई, 1707 में जाजऊ के युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद रामचन्द्र, उसके बाद सन 1736 में इंद्रजीत दलीप नगर के जागीरदार हुए। इंद्रजीत के समय में मुग़ल साम्राज्य लगभग समाप्त को चुका था। मुग़ल बादशाह शाहआलम, जिसका राज्य लाल क़िले से पालम तक था, उसको नजराना देकर इंद्रजीत ने राजा की उपाधि प्राप्त की। तब से वह और उनके उत्तराधिकारी राजा कहलाने लगे। इन्द्रजीत के शासनकाल में मराठों के आक्रमण होने लगे थे। उन्होंने और उनके बाद उनके पुत्र शत्रुजीत ने दलीप नगर का अस्तित्व बनाये रखा। सन 1801 में पारीछत राजा हुए। उन्होंने 15 मार्च, 1804 में अंग्रेज़ों से सन्धि कर अंग्रेज़ी राज्य की शुरुआत की।

1881 ई. में इम्पीरियर गज़ेटियर ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन के लिए विलियम इरविन को देशी राज्यों के इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के लिए नियुक्त किया गया। उसे जो जानकारी दी गयी, वह उसने गज़ेटियर में शामिल किया। उसने गज़ेटियर में सबसे पहले दतिया का उल्लेख किया, तब से शासकीय रिकॉर्ड में दिलीप नगर कि जगह दतिया का प्रयोग होने लगा। बाद में इम्पीरियर गजेटियर के आधार पर दतिया स्टेट गजेटियर बना, जिसमें दतिया के इतिहास का वर्णन है। उसी के आधार पर अन्य इतिहासकारों ने दतिया के इतिहास की रचना की जो वर्तमान में प्रचलित है। उसके अनुसार वीरसिंह देव ने सन 1626 में अपने लड़के भगवान राव को बडौनी तथा दतिया का राज्य दिया था, तब से वह और उसके बाद उनके उत्तराधिकारी दतिया पर राज्य कर रहे हैं। इसके विपरीत ओरछा गजेटियर के अनुसार सन 1635 में दतिया ओरछा से अलग हुआ था। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि सन 1635 में शाहजहाँ ने ओरछा पर आक्रमण कर दतिया को ओरछा से अलग कर दिया था। तमाम ऐतिहासिक तथ्य तथा स्थल साक्ष्य ओरछा गजेटियर का समर्थन करते हैं, दतिया गजेटियर का नहीं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 दतिया का मध्यकालीन इतिहास (हिन्दी) jaijakbhukati.blogspot.com। अभिगमन तिथि: 06 सितम्बर, 2018।

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