रियासत
रियासत ब्रिटिशकालीन भारत में हिन्दू राजा-महाराजाओं व मुस्लिम शासकों के स्वामित्व में स्वतन्त्र इकाइयों को कहा जाता था। भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व यहाँ 565 रियासतें थीं।
- ब्रिटिश राज के दौरान अविभाजित भारत में नाममात्र के स्वायत्त राज्य थे। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में 'रियासत', 'रजवाड़े' या व्यापक अर्थ में देशी रियासत कहते थे। ये ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा सीधे शासित नहीं थे बल्कि भारतीय शासकों द्वारा शासित थे; परन्तु उन भारतीय शासकों पर परोक्ष रूप से ब्रिटिश शासन का ही नियन्त्रण रहता था।
- 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं।
- 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरीसिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया।
- पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से जूनागढ़ में विद्रोह हो गया, जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब पाकिस्तान भाग गया।
- 1948 में पुलिस कार्रवाई द्वारा हैदराबाद भी भारत में मिल गया। इस प्रकार रियासतों का अन्त हुआ और पूरे देश में लोकतन्त्रात्मक शासन चालू हुआ। इसके एवज़ में रियासतों के शासकों व नवाबों को भारत सरकार की ओर से उनकी क्षतिपूर्ति हेतु निजी कोष (प्रिवी पर्स) दिया गया।
अंग्रेज़ियत से भरपूर
भारत का जिक्र होते ही जेहन में राजाओं, रानियों, बादशाहों और बेगमों की कहानियां तैरने लगती हैं। एक तरफ जहां कुछ राजा अपनी सदाशयता के लिए मशहूर थे, तो वहीं कुछ अपनी क्रूरता के लिए लोगों के बीच दहशत का पर्याय थे। एक तरफ जहां कुछ राजा हीरे, जवाहरातों से जुड़ी गाड़ियों में घूमा करते थे, वहीं कुछ ऐसी भी शख्सियतें थीं जिनके पास एक ग्राम सोना भी नहीं था। देश की आजादी के समय भारत में छोटी-बड़ी कुल 565 रियासतें थीं। सभी रियासतों के मुखिया अपने अंदाज़में अपनी रियासत को आगे बढ़ा रहे थे। लेकिन आजादी मिलने के बाद रियासतों के ऊपर संकट उठ खड़ा हुआ। ज्यादातर रियासतें भारतीय संघ का हिस्सा बनने के लिए तैयार हो गईं। लेकिन कुछ ऐसे भी राजा और महाराजा थे जो अपने लिए एक अलग देश का सपना देखा करते थे। रियासतों के राजा आर्थिक तौर पर भले ही संपन्न या गरीब रहे हों, लेकिन उनका चाल-चलन अंग्रेज़ियत से भरपूर था। वह ब्रिटिश सरकार के वफादार थे। अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफादारी के बदले में वायसराय भी भारतीय राजाओं को सम्मानित किया करते थे। उदाहरण के तौर पर सरकार के प्रति पूरी तरह से वफादार रहने वालों राजाओं को 21 बंदूकों की सलामी दी जाती थी, वहीं सामान्य संबंध रखने वाले शासकों को 19 बंदूकों की सलामी दी जाती थी। बंदूकों की सलामी से भारतीय राजाओं की कद काठी के बारे में जानकारी मिलती थी।[1]
पांच बड़ी रियासतें
1947 में सिर्फ पांच भारतीय राजाओं को 21 बंदूकों की सलामी का रुतबा हासिल था। इनमें द निजाम ऑफ हैदराबाद, बड़ौदा के महाराजा, मैसूर के महाराजा, ग्वालियर के महाराजा और जम्मू-कश्मीर के महाराजा शामिल थे। इसके अलावा भोपाल के नवाब, इंदौर के महाराजा, उदयपुर के महाराजा, त्रावनकोर के राजा और कोल्हापुर के राजा शामिल थे। इन सभी राजाओं की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि ये न केवल अंग्रेज़ी बोला करते थे, बल्कि अंग्रेजियत का भरपूर प्रदर्शन भी करते थे। उदाहरण के तौर पर हैदराबाद के निजाम अपने सभी टेलीग्राम का समापन रूल ब्रिटैनिया से करते थे। कुछ शासकों के दिलों दिमाग में 1857 के विद्रोह की स्मृतियां शेष थीं। लेकिन समय के साथ वो धूमिल होती गईं। कुछ ऐसे भी राजा थे जो अपनी रानियों से अपेक्षा करते थे कि वो अंग्रेज़ी चाल ढाल को पूरी तरह अपना लें। कुछ रानियों ने अपने राजाओं की इच्छा का सम्मान किया। लेकिन बहुत सी रानियों ने इन इच्छाओं को दरकिनार कर भारतीय रीति रिवाजों का पालन किया।
भारतीय राजाओं का एक दूसरा पक्ष ये भी था कि एक तरफ वह अंग्रेजियत का झंडा बुलंद करते थे, लेकिन उनमें से ज्यादातर राजा दूरदर्शी भी थे। महाराजाओं ने अपनी रियासतों में स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, नहरें और सड़कें बनवाईं। उदाहरण के तौर पर ग्वालियर के महाराजा ने आगरा से लेकर ग्वालियर (द ग्रेट इंडियन पेनिंसुलर रेलवे का हिस्सा) तक रेल लाइन बिछाने के लिए 1872 में 7.5 मिलियन रुपये का कर्ज लिया था। 1947 में देश को जब अंग्रेजों से आजादी मिली तो बहुत से भारतीय राजा ऐसे भी थे, जो फूट-फूट कर रोये। वह कहा करते थे कि अंग्रेज़ उनको बेसहारा करके क्यों जा रहे हैं। स्वतंत्र भारत में अब कौन उनकी बात सुनेगा। ग्वालियर और पटियाला के राजाओं ने भारतीय संघ में शामिल होने की इच्छा जताई। लेकिन बहुत से ऐसे राजा थे जो स्वतंत्र राष्ट्र का सपना देखा करते थे। ये बात अलग है कि सरदार पटेल के कुशल नेतृत्व में ज्यादातर रियासतें थोड़े बहुत संघर्ष के बाद भारतीय संघ में शामिल हो गईं।[1]
भारतीय राजा इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि उनका राजपाट खत्म हो चुका है। इतिहासकारों का कहना है कि कुछ राजाओं ने अंतिम वायसराय लॉर्ड लुई माउंटबेटन से अपना दुखड़ा रोया। कुछ राजाओं ने अपनी नियति समझकर भारत की आजादी को स्वीकार कर लिया। लेकिन बहुत से राजा भूली बिसरी यादों से बाहर निकलना नहीं चाहते थे। ये बात अलग थी कि रियासतों के मुखिया को उनके राजमहल शानो-शौकत से मरहूम नहीं किया गया था। राजाओं को गिरफ्तारी से छूट भी हासिल थी। लेकिन कोई भी राजा उस थपेड़े का सामना करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं था, जब इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स और टाइटल को खत्म कर दिया। यही नहीं राजाओं की जमीनें छिन गईं। राजपरिवारों से जुड़े ज्यादातर लोगों को ये लगने लगा कि वह सामान्य व्यक्ति की तरह कैसे रह सकते हैं। लेकिन कुछ लोगों ने वास्तविकता को समझा और अपने चाल-ढाल में बदलाव किया। कुछ लोग राजनीति का हिस्सा बन गए और अपनी प्रजा के सहयोग से राजनीति में स्थापित हो गए। कुछ राजा जहां खेलों में रुचि लेने लगे, वहीं कुछ राजाओं ने अपने आपको गीत संगीत के विकास के लिए समर्पित कर दिया। कुछ राजाओं ने अपने महलों के कुछ हिस्सों को होटल में बदल दिया और अपनी आय के रास्ते को सुनिश्चित किया।
समृद्धि, ताकत और रुतबा जिन राजाओं के लिए इतिहास के पन्नों में हकीकत के तौर पर दर्ज थे, उनके वंशज आज सामान्य भारतीयों की तरह बसर कर रहे हैं। बहुत से राजाओं के वंशज आम भारतीयों की तरह नौकरी कर अपनी जिंदगी की गाड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन आज भी उन राजाओं के वंशज सामान्य भारतीयों से शादी-विवाह करना पसंद नहीं करते हैं।[1]
गुर्जर-प्रतिहार रियासतें
गुर्जर प्रतिहारों की केवल तीन ही रियासतें बचीं हुई हैं-
- लंधौरा रियासत
- समथर रियासत
- झबरेडा रियासत
लंधौरा रियासत के महाराजा कुँवर प्रणव सिंह जी परमार हैं (पँवार वंश), समथर रियासत के वर्तमान महाराजा रणजीत सिंह जी जूदेव (खटाणा) और झबरेडा रियासत के यशवीर व कुलवीर सिंह। इन तीनों गुर्जर प्रतिहार रियासतों के महल और किले बहुत ही खूबसूरत हैं जो आज भी ऐसी शान से खडे हैं जिन्हें देखते ही हर वीर का सीना गर्व से चौड़ा हो जाए। राजा हरिसिंह गुर्जर गुर्जरगढ़ (सहारनपुर) रियासत के आखिरी राजा थे। 19वीं सदी तक सहारनपुर का नाम गुर्जरगढ़ था। 1857 के गुर्जर विद्रोह में राजा हरिसिंह का राजपाठ अंग्रेजों द्वारा समाप्त कर दिया गया था, जिसमें गद्दार रजवाड़ों कि मदद से 1858 तक सब देश प्रेमी गुर्जरोंं और उनके राजाओंं को खत्म कर दिया गया था,[2] जहाँ आज सिर्फ किले के कुछ कोने ही बचे हुए हैं।
सहारनपुर के किले को 1858 मे तोड़ डाला था। 1857 की क्रान्ति की शूरुआत कोतवाल धनसिंह गुर्जर द्वारा हो चुकी थी, जिसकी चिंगारी आसपास के सभी गुर्जर बहूल क्षेत्रों में पहुच गई और वीरों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, जिसमें सैकढ़ों-हजारों वीर गुर्जर शहीद हो गए और आग पूरे उत्तर प्रदेश में फैल गई। बाकी राज्य के क्रान्ति में हिस्सा ना लेने के कारण इनका मनोबल टूट गया और मिशन असफल रह गया। 1857 के गुर्जर विद्रोह का बदला लेने के लिए अंग्रेजों ने गुर्जरों के गाँवों को उजाड़ना शुरू कर दिया। राजपूताना के रजवाड़ों की सैना की मदद से सहारनपुर की गुर्जर रियासत जप्त कर ली गई और राजा हरिसिंह गुर्जर को तोप के मुहँ से बांधकर मार डाला गया। अंग्रेजोंं ने हर 16 से अधिक उम्र के गुर्जर लड़के को भून डाला। हर पेड़ पर 10-15 लाशें लटकी रहीं।
राजा हरिसिंह के बेटे चौधरी आशाराम को गुर्जर ग्रामीणों ने बचा भगाया और वंश को समाप्त होने से बचाया। बड़े होकर चौ. आशाराम को राय साहेब की पडाती और औनरी मजिस्ट्रेट का खिताब दिया गया था और सहारनपुर जिले के पहले मजिस्ट्रेट बने और उनके बेटे गुर्जर संगत सिंह पंवार गुर्जर समाज के पहले आई.पी.एस बने। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें कश्मीर का गवर्नर बनने का ऑफर भी मिला। संगत सिंह जी की पत्नी पीरनगर रियासत से थीं और उनका नाम पीतमकौर प्रधान था। इनकी बुआ लढ़ौरा रियासत की राजगद्दी पर बैठने वाली आखिरी रानी थीं। समथर रियासत भी एक गुर्जर रियासत थी जो इनके ही सबंध में आती थी। समथर रियासत झांसी के पास पड़ती है जो गुर्जरों की सबसे बडी रियासत है। रनजीत सिंह खटाणा समथर के राजा हैं। भारतीय इतिहास लेखन में बहुत से राजवंशों और समुदायों को अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाया है। ऐसे राजवंशों का उल्लेख यदाकदा इतिहास के संदर्भ ग्रन्थों में मिल जाता है, परन्तु इनके संगठित एवं क्रमबद्ध इतिहास का प्राय: अभाव है।
उत्तर प्रदेश में विलीन रियासतें
उत्तर प्रदेश के छह जिलों झांसी, महोबा, जालौन, चित्रकूट, वाराणसी और हमीरपुर की रियासतों का प्रदेश में विलय हुआ है। प्रदेश सरकार इन तत्कालीन रियासतों के मंदिरों के पुजारियों को अनुदान देती है। यह राशि 16504 रुपये प्रतिवर्ष होती है। उत्तर प्रदेश में धर्मार्थ संस्थाओं को अनुदान देने के लिए कोई धनराशि की व्यवस्था नहीं की गई है, लेकिन विलीनीकृत रियासतों के पुजारियों के लिए सामान्य प्रशासन के बजट के जरिए अनुदान की व्यवस्था की जाती है। धर्मार्थ संस्था के लिए शासन की ओर से पीसीएस संवर्ग का एक अधिकारी मुख्य कार्यपालक अधिकारी के पद पर नियुक्त किया जाता है। तहसीलदार स्तर का एक अधिकारी अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी होता है। वित्त एवं लेखा सेवा का एक अधिकारी सहायक लेखधिकारी के पद पर मंदिर में कार्यरत होता है। निम्न जिलों में मंदिर के पुजारियों को अनुदान मिलता है[3]-
- हमीरपुर - 810 रुपये
- झांसी - 3545 रुपये
- चित्रकूट - 3650 रुपये
- जालौन - 828 रुपये
- वाराणसी - 360 रुपये
- महोबा - 120 रुपये
श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों और कर्मचारियों को भी प्रदेश सरकार की तरफ से वेतन मिलता है। श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर में होने वाली वार्षिक आय के सापेक्ष वहां के कर्मचारियों, पुजारियों के वेतन, रखरखाव और अन्य खर्चे शासन द्वारा दिए जाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 राजा,रानी और कहानी: कहां हैं वो रियासतें, इतिहास के पन्नों में दर्ज दिलचस्प गाथा (हिंदी) jagran.com। अभिगमन तिथि: 25 मार्च, 2020।
- ↑ सहारनपुर, परिक्षितगढ, दादरी, इत्यादि गुर्जर रियासत
- ↑ कभी यूपी में विलीन हुई थीं रियासतें, सरकार देती है इनके पुजारियों को अनुदान (हिन्दी) hindi.newstrack.com। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2018।
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