दीपगीत -महादेवी वर्मा
दीपगीत -महादेवी वर्मा
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कवि | महादेवी वर्मा |
मूल शीर्षक | दीपगीत |
प्रकाशक | राजपाल एंड संस, नई दिल्ली |
प्रकाशन तिथि | 10 मार्च 1983 (पहला संस्करण) |
ISBN | 81-7028-494-5 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 103 |
भाषा | हिंदी |
शैली | गीत |
प्रकार | काव्य संग्रह |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
दीपगीत महादेवी वर्मा की दीपक संबंधी कविताओं का संग्रह है। दीप महादेवी वर्मा का प्रिय प्रतीक है। डॉ शुभदा वांजपे के विचार से दीप महादेवी वर्मा का महत्त्वपूर्ण प्रतीक है। प्रो श्याम मिश्र महादेवी की कविता में दीपक को साधनारत आत्मा का प्रतीक मानते हैं और प्रकाशक का कहना है कि अंधेरे में आलोक को नए नए अर्थ देती दीपगीत की कविताएँ मानवीय करुणा को रेखांकित करती हैं। निःसंदेह इन कविताओं के दीपकों में आशा की किरन और तिमिर से जूझने का साहस दिखाई देता है।
काव्य संग्रह
संग्रह में महादेवी वर्मा के 46 गीत है जिसमें उनके कुछ अत्यंत लोकप्रिय गीत भी शामिल हैं जैसे
- दीप मेरे जल अकंपित घुल अचंचल
- सब बुझे दीपक जला लूँ
- किसी का दीप निष्ठुर हूँ
- मधुर मधुर मेरे दीपक जल
- क्यों न तुमने दीप बाला
- जब यह दीप थके तब आना
- धूप सा तन दीप सी मैं
- यह मंदिर का दीप
इन सारे दीपगीतों को एक जगह देखना निश्चय ही आनंददायक है।
भूमिका
भूमिका यद्यपि केवल तीन पृष्ठों की है लेकिन इसको 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' शीर्षक देकर उन्होंने संग्रह का उद्देश्य भी स्पष्ट कर दिया है। उनकी अन्य पुस्तकों की तरह इस संग्रह की भूमिका भी अत्यंत रोचक और सारगर्भित है। जिससे उनके दीपक प्रेम को समझने में तो सहायता मिलती ही है, दीपक के सांस्कृतिक महत्व के विषय में भी प्रमाणिक जानकारी मिलती है।
पुस्तकांश
भारत की संस्कृति आलोकवाहिनी है और उसके मूल कारणों में एक ऋग्वैदिक ऋषियों की वह देव-सृष्टि भी है जिसने कविता को विशेष महत्त्व दिया। सम्पूर्ण देव सृष्टि में वरुण, मरुत, इन्द्र आदि भौगोलिक रूप में इतने प्रत्यक्ष नहीं हैं जितना सूर्य। चन्द्रमा प्रत्यक्ष है, परन्तु घटने-बढ़ने के कारण तथा जीवन को ऊष्मा न देने के कारण वह इतना महत्त्व नहीं पा सका। शेष सभी की कार्य-कारण के आधार पर रूप-कल्पना की गई है, अतः वे प्रतीकात्मक अधिक हैं। प्रतीक प्रत्येक युग की आवश्यकता, सौन्दर्य-बोध तथा समस्या के साथ परिवर्तित होता रह सकता है, परिणामतः धीरे-धीरे देवसृष्टि में अनेकों का महत्त्व घटता गया और कालान्तर में उनकी पूजा-स्तुति विस्मृत हो गई। उदाहरण के लिए इन्द्र जैसे देवताओं का आधिपत्य को ले सकते हैं, जिसकी पूजा-अर्चना द्वापर में समाप्त हो गई और जिस पर पुराण-कथाओं में लांछन भी लगाए गए हैं। वैसे वह मेघों का स्वामी आज भी है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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