रश्मि -महादेवी वर्मा

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रश्मि -महादेवी वर्मा
रश्मि का आवरण पृष्ठ
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कवि महादेवी वर्मा
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1932
देश भारत
भाषा हिंदी
प्रकार काव्य संग्रह
मुखपृष्ठ रचना अजिल्द

रश्मि महादेवी वर्मा का दूसरा कविता संग्रह है। इसका प्रकाशन 1932 में हुआ। इसमें 1927 से 1931 देवी जी का चिंतन और दर्शन पक्ष मुखर होता प्रतीत होता है। 'रश्मि' काव्य में महादेवी जी ने जीवन -मृत्यु ,सुख -दुःख आदि पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया है।

महादेवी का समस्त काव्य वेदनामय है। यह वेदना लौकिक वेदना से भिन्न आध्यात्मिक जगत् की है, जो उसी के लिए सहज संवेद्य हो सकती है, जिनसे उस अनुभूति-क्षेत्र में प्रवेश किया हो। वैसे महादेवी इस वेदना को उस दु:ख की भी संज्ञा देती हैं, "जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँधे रखने की क्षमता रखता है"[1] किन्तु विश्व को एक सूत्र में बाँधने वाला दु:ख सामान्यतया लौकिक दु:ख ही होता है, जो भारतीय साहित्य की परम्परा में करुण रस का स्थायी भाव होता है। महादेवी ने इस दु:ख को नहीं अपनाया है। कहती तो हैं कि "मुझे दु:ख के दोनों ही रूप प्रिय हैं, एक वह, जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बन्धनों में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और सीमा के बन्धन में पड़े हुए असीम चेतन का क्रन्दन है"[2] किन्तु उनके काव्य में पहले प्रकार का नहीं, दूसरे प्रकार का 'क्रन्दन' ही अभिव्यक्त हुआ है। यह वेदना सामान्य लोक हृदय की वस्तु नहीं है। सम्भवत: इसीलिए रामचन्द्र शुक्ल ने उसकी सच्चाई में ही सन्देह व्यक्त करते हुए लिखा है, "इस वेदना को लेकर उन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता"[3]


मीरा ने जिस प्रकार उस परमपुरुष की उपासना सगुण रूप में की थी, उसी प्रकार महादेवीजी ने अपनी भावनाओं में उसकी आराधना निर्गुण रूप में की है। उसी एक का स्मरण, चिन्तन एवं उसके तादात्म्य होने की उत्कंठा महादेवीजी की कविताओं में उपादान है। ‘रश्मि’ में इस भाव के साथ ही हमें उनके उपास्य का दार्शनिक ‘दर्शन’ भी मिलता है। 

रश्मि (कविता)

चुभते ही तेरा अरुण बान!
बहते कन कन से फूट फूट,
मधु के निर्झर से सजल गान।

        इन कनक रश्मियों में अथाह,
        लेता हिलोर तम-सिन्धु जाग;
        बुदबुद से बह चलते अपार,
        उसमें विहगों के मधुर राग;

बनती प्रवाल का मृदुल कूल,
जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान।

        नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,
        बन गए इन्द्रधनुषी वितान;
        दे मृदु कलियों की चटक, ताल,
        हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण;

धो स्वर्णप्रात में तिमिरगात,
दुहराते अलि निशि-मूक तान।

        सौरभ का फैला केश-जाल,
        करतीं समीरपरियां विहार;
        गीलीकेसर-मद झूम झूम,
        पीते तितली के नव कुमार;

मर्मर का मधु-संगीत छेड़,
देते हैं हिल पल्लव अजान!

        फैला अपने मृदु स्वप्न पंख,
        उड़ गई नींदनिशि क्षितिज-पार;
        अधखुले दृगों के कंजकोष--
        पर छाया विस्मृति का खुमार;

रंग रहा हृदय ले अश्रु हास,
यह चतुर चितेरा सुधि विहान!


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रश्मि भूमिका, पृष्ठ 7
  2. रश्मि भूमिका, पृष्ठ 7
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 719

बाहरी कड़ियाँ

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