हिमालय -महादेवी वर्मा
हिमालय -महादेवी वर्मा
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कवि | महादेवी वर्मा |
मूल शीर्षक | हिमालय |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 2004 (नया संस्करण) |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 105 |
भाषा | हिंदी |
प्रकार | संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह |
हिमालय महादेवी वर्मा का संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह है। इसका पहला संस्करण 1963 में प्रकाशित हुआ। हमारे राष्ट्र के उन्नत शुभ मस्तक हिमालय पर जब संघर्ष की नीललोहित आग्नेय घटाएँ छा गई, तब देश की चेतना-केन्द्र ने आसन्न संकट की तीव्रानुभूति देश के कोने में पहुँचा दी। धरती की आत्मा के शिल्पी होने के कारण साहित्यकारों और चिन्तकों पर विशेष दायित्व आ जाना स्वाभाविक ही था। इतिहास ने अनेक बार प्रमाणित किया है कि जो मानव समूह अपनी धरती से जिस सीमा तक तादात्म्य कर सका है, वह उसी सीमा तक अपनी धरती पर अपराजेय रहा है।
पुस्तकांश
जड़ जगत अपने आदमि रूप में चाहे जल का अनन्त विस्तार रहा हो, चाहे अग्नि का ज्वलित विराट पिण्ड, उसमें जैवी प्रकृति को उत्पन्न करने की क्षमता रहना निश्चित है। अणु परमाणुओं ने किस अज्ञात ऋत से आकर्षित विकर्षित होकर जीवसृष्टि में अपने आपको आविष्कृत होने दिया, यह तो अनुमान का विषय है, परन्तु प्रत्यक्ष यही है कि प्रकृति की किसी ऊर्जा से उत्पन्न जीवन फिर उसी से संघर्षरत रहता हुआ, स्वयं परिष्कृत होता चला आ रहा है। यह परिष्कार-क्रम मानव जीवन के समान ही वनस्पति और शेष जीव-जगत में भी व्यक्त होता रहता है। मरुभूमि में उत्पन्न होने वाली वनस्पति, अपनी रक्षा के लिए, विशेष प्रकार के कांटे-फूल और रंग-रेखा में अपनी जीवन-ऊष्मा को व्यक्त करती है और पर्वत, जल आदि की वनस्पतियां भी अपने अनेक प्राकृतिक परिवेश की अनुरूपता ग्रहण करके ही विकास कर पाती हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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