दुलारी का फ़िल्मी कॅरियर
दुलारी का फ़िल्मी कॅरियर
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पूरा नाम | दुलारी |
अन्य नाम | अम्बिका (मूल नाम) |
जन्म | 18 अप्रॅल, 1928 |
जन्म भूमि | नागपुर, महाराष्ट्र |
मृत्यु | 18 जनवरी, 2013 |
मृत्यु स्थान | मुम्बई, महाराष्ट्र |
अभिभावक | विट्ठलराव गौतम डाकतार |
पति/पत्नी | जगन्नाथ भीखाजी जगताप |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | हिन्दी सिनेमा |
मुख्य फ़िल्में | ‘रोटी’, 'शहनाई', ‘अलबेला’, 'पापी, ‘जीवन ज्योति’, देवदास, ‘आए दिन बहार के’, ‘पड़ोसन’, ‘आराधना’, ‘आया सावन झूम के’, ‘आन मिलो सजना’, ‘कारवां’, ‘सीता और गीता’, ‘हाथ की सफ़ाई’, ‘दीवार’, ‘प्रेम रोग’, ‘अगर तुम न होते’ आदि। |
प्रसिद्धि | अभिनेत्री |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की मशहूर फ़िल्म ‘झूला’ (1941) दुलारी जी की पहली फ़िल्म थी, जिसमें वे आश्रम में रहने वाली लड़की की महज़ एक सीन की एक छोटी से भूमिका में नज़र आयी थीं। |
अद्यतन | 15:33, 15 जून 2017 (IST)
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‘नेशनल स्टूडियो’ को सोहराब मोदी की कंपनी ‘मिनर्वा मूवीटोन’ ने ख़रीदा तो उन्होंने दुलारी जी को 7 साल के लिए नौकरी पर रखना चाहा। लेकिन कांट्रेक्ट की कुछ शर्तें मंज़ूर न होने की वजह से दुलारी जी ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की फ़िल्म ‘हमारी बात’ में उन्होंने हीरो जयराज की छोटी बहन की भूमिका की तो ‘अमर पिक्चर्स’ की ‘आदाब अर्ज़’ में वे बतौर सहनायिका नज़र आयीं, जिसमें उनके हीरो गायक मुकेश थे। ये दोनों ही फ़िल्में साल 1943 में बनी थीं।
प्रमुख फ़िल्में
‘घर’, ‘कुलकलंक’ (दोनों 1945), ‘अहिंसा’, ‘ब्लैक मार्केट’, ‘नमक’, ‘पति सेवा’, ‘रंगीन कहानी’ (सभी 1947) जैसी फ़िल्मों में दुलारी जी ने छोटी-बड़ी भूमिकाएं कीं, लेकिन ये तमाम फ़िल्में कोई ख़ास करिश्मा नहीं दिखा पायीं। उस दौरान कुछ गुजराती फ़िल्में भी उन्होंने कीं। दुलारी जी को सही मायनों में पहचान मिली साल 1947 में बनी ‘फ़िल्मिस्तान’ की हिट फ़िल्म ‘शहनाई’ से। इस फ़िल्म में उन्होंने हिरोईन ‘रेहाना’ की बड़ी बहन की भूमिका की थी और इसमें उनके नायक अभिनेता महमूद के पिता मुमताज़ अली थे। हिंदी सिनेमा में पाश्चात्य संगीत का इस्तेमाल भी पहली बार फ़िल्म ‘शहनाई’ में ही किया गया था।[1]
दुलारी जी के मुताबिक़़, "सी.रामचन्द्र द्वारा संगीतबद्ध फ़िल्म ‘शहनाई’ के, ‘आना मेरी जान मेरी जान संडे के संडे’ और ‘जवानी की रेल चली जाए’ जैसे ज़बर्दस्त हिट गीतों पर डांस करना मेरे लिए इतना तकलीफ़देह साबित हुआ कि मुझे कसम खानी पड़ी कि मैं अब कभी भी डांस वाली भूमिकाएं नहीं करूंगी।" ‘गुणसुंदरी’, ‘मिट्टी के खिलौने’, ‘नाव’ (सभी 1948), ‘ननद भौजाई’, ‘शायर’ (दोनों 1949), ‘अपनी छाया’, ‘मन का मीत’ (दोनों 1950), ‘अलबेला’ (1951), ‘अंजाम’, ‘भूलेभटके’, ‘वीर अर्जुन’ (सभी 1952) जैसी फ़िल्में करने के बाद दुलारी जी साल 1953 में बनी फ़िल्म ‘पापी’ में एक अहम भूमिका में नज़र आयीं। ‘रणजीत मूवीटोन’ के बैनर में बनी ‘पापी’ राजकपूर की दोहरी भूमिका वाली अकेली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म की दो हिरोईनों में से एक नरगिस थीं तो दूसरी दुलारी। साल 1953 में ही रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘जीवन ज्योति’ में भी दुलारी जी के अभिनय को काफ़ी पसंद किया गया था।
दुलारी जी का कहना था, "मेरी उम्र शादी के लायक हो चुकी थी, लेकिन हमारे कान्यकुब्ज ब्राह्मण समाज में दहेज की ज़बर्दस्त मांग थी और घर के माली हालात अभी भी कोई बहुत अच्छे नहीं थे। ऐसे में मेरे माता-पिता को मेरे लिए अपने समाज से बाहर का रिश्ता स्वीकारना पड़ा। मराठा ख़ानदान के मेरे पति जगन्नाथ भीखाजी जगताप फ़िल्मोद्योग के जाने-माने साऊंड रेकॉर्डिस्ट थे। साल 1951 में शादी होने के बाद क़रीब 10 दस सालों तक मैंने बहुत कम काम किया। उस दौरान ‘देवदास’ (1955), ‘ज़िंदगी के मेले’ (1956), ‘एक गांव की कहानी’, ‘जॉनी वॉकर’, ‘पेईंग गेस्ट’ (तीनों 1957), ‘कवि कालीदास’, ‘संतान’ (1959) जैसी मेरी सिर्फ़ 13-14 फ़िल्में ही रिलीज़ हुईं। और फिर साल 1961 में बनी गुजराती फ़िल्म ‘चुंडड़ी अणे चोखा’ से मैंने अपने कॅरियर की दूसरी पारी शुरू की’।[1]
फ़िल्मी दुनिया से अलविदा
अगले क़रीब 35 सालों में दुलारी जी ‘जब प्यार किसी से होता है’, ‘मुझे जीने दो’ ‘अपने हुए पराए’ ‘आए दिन बहार के’, ‘अनुपमा’, ‘तीसरी क़सम’, ‘पड़ोसन’, ‘आराधना’, ‘आया सावन झूम के’, ‘चिराग़’, ‘इंतक़ाम’, ‘आन मिलो सजना’, ‘हीर रांझा’, ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘कारवां’, ‘लाल पत्थर’, ‘बेईमान’, ‘सीता और गीता’, ‘राजा रानी’, ‘अमीर ग़रीब’, ‘हाथ की सफ़ाई’, ‘दीवार’, ‘दो जासूस’, ‘आहुती’, ‘गंगा की सौगंध’, ‘बीवी ओ बीवी’, ‘नसीब’, ‘रॉकी’, ‘प्रेम रोग’, ‘अगर तुम न होते’ और धर्माधिकारी जैसी क़रीब 135 फ़िल्मों में छोटी-बड़ी चरित्र भूमिकाओं में नज़र आयीं। और फिर एक रोज़ उन्होंने ख़ामोशी से फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया।
दुलारी जी का कहना था, "बढ़ती उम्र के साथ बिगड़ती सेहत का असर मेरे काम पर भी पड़ने लगा था। साल 1989 में बनी फ़िल्म ‘सूर्या’ के एक सीन में मुझे 200 जूनियर आर्टिस्टों की भीड़ के साथ दौड़ना था। निर्देशक इस्माईल श्रॉफ़ के एक्शन कहते ही मैंने दौड़ना शुरू किया। लेकिन गठिया की बीमारी की वजह से मैं कुछ ही दूर जाकर गिर पड़ी। जूनियर आर्टिस्टों की भीड़ मेरे पीछे दौड़ी चली आ रही थी। अभिनेता सलीम ग़ौस ने, जो मेरे बेटे की भूमिका में थे, बहुत मुश्किल से मुझे कुचले जाने से बचाया, और इस प्रयास में उन्हें भी हल्की चोटें आयीं। ऐसे में मैंने रिटायरमेंट ले लेना ही बेहतर समझा। फिर कई साल बाद निर्देशक गुड्डू धनोवा के आग्रह पर उनकी फ़िल्म ‘ज़िद्दी’ में एक भूमिका की। इस तरह साल 1997 में रिलीज़ हुई ‘ज़िद्दी’ मेरी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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