समूहगीत

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समूहगीत भारत में जन्म, विवाह आदि के शुभ अवसरों पर गाए जाते हैं। लोक जीवन प्रारम्भ से ही सामूहिक रहा है, अत: उत्सव, उल्लास, कार्य-व्यापार में सामूहिकता सदा से स्पष्ट रही है। साम-गान समूहपरक था। स्तुतियाँ सामूहिक थीं। जिस संस्कृति काल में व्यक्ति एक अलग इकाई न होकर समाज का अविच्छिन्न अंग और अंशमात्र था, उस समय ही समूहगीत का उद्भव और विकास हुआ।

गायन

संस्कारों के अवसर सामूहिक जीवन की चेतना को ही स्पष्ट करते हैं। जन्म, विवाह आदि के अवसरों पर ऐसे गीत गाये जाते हैं। सामाजिक जीवन की विच्छिन्नता के कारण इन गीतों की प्रथा क्रमश: कम होती जा रही है। कर्मकरों का समूह अपने श्रम को भुलावा देने के लिए सामूहिक रूप से गायन करता है, जैसे रोपनी के गीत, बंजारों के तीन, नाविकों के गीत आदि। इन गीतों में से कुछ में वर्गगीत भी आ जाते हैं, क्योंकि वर्गगत भावनाओं और धारणाओं की अभिव्यक्ति रहती है। समृहगीत में सामूहिक गायन, अर्थात् गायन पद्धति पर विचार किया जाता है और वर्गगीत में अभिव्यक्ति और विचारधारा पर। सामूहिक रूप से गाये जाने-वाले गीत वर्ग-भावना से मुक्त रह सकते हैं और वर्गगीत का गायक अकेला व्यक्ति भी हो सकता है।[1]

विभाजन

लोकगीतों की परम्परा को सीमित साहित्यिक रूप देने का प्रयास प्रगतिवादियों ने किया, क्योंकि मार्क्स के अनुसार दर्शन का प्रयोजन जीवन-पद्धति का परिवर्तन है। अत: इन कवियों ने वर्गगीतों की रचना के द्वारा भारतीय जनता की वर्गचेतना को उभारने की चेष्टा की। इस दृष्टि से वर्गगीत दो वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं-

  1. वर्ग विशेष की धारणा को व्यक्त करने वाले गीत।
  2. वर्ग चेतना को उभारने के लिए लिखे गये गीत।

प्रथम कोटि के गीत अनायास और अचेतन भाव से धारणा और भावना को अभिव्यक्त करते हैं और दूसरे प्रकार के गीत सायास एवं बौद्धिकतामूलक सिद्धांतवादी हैं। प्रथम प्रकार के गीतों के रचयिता अज्ञात-कुल-शील व्यक्ति थे और दूसरे प्रकार के गीतकार मार्क्सवाद और वर्गसिद्धांत के सचेष्ट उपदेशक और व्याख्याता है। 'चर्चरी' का अर्थ चौराहा है, अत: चौराहों पर गाये जाने वाले सामूहिक गीत का नाम चर्चरी हुआ। होली, फाग आदि उत्सव सम्बन्धी गीत भी समवेत रूप में गाये जाते हैं और वे समूहगीत हैं।[1]

समाजगीत

समाजगीत भी सामूहिक गीत का एक अंश है। समूह में सामूहिक गायन की पद्धति पर बल है तो समाजगीत में समूह की सामाजिक परिणति की साकांक्ष अभिव्यक्ति। भारतीय समाज विभिन्न स्तरों, जातियों और सम्प्रदायों में विभक्त है। प्रभाती, वैवाहिक गीत आदि शुद्ध सामूहिक गीत हैं, किंतु कृषि सम्बन्धी गीतों में अधिक समाजगीत है, क्योंकि इनमें कृषक समाज की समस्याओं, आशाओं, निराशाओं की अभिव्यंजना रहती है।

विभिन्न जातियों के सम्बंध वाले गीत भी समाजगीत के अंतर्गत आते हैं। इनके अतिरिक्त एक प्रकार के समाजगीत हैं, जो विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में प्रचलित हैं। 'निर्गुन' नामक गीत इसी परम्परा का द्योतक है। 'जोगीड़ा' इसी प्रकार का एक गीत-भेद है, जो बाद में चलकर विकृत हो गया। समूहगीतों का एक विभेद उत्सवगीत है, जिनका सम्बंध विशेष उत्सवों और पर्वों से है। सामूहिक जीवन और लोकमानस का परिचय इनके द्वारा मिलता है। होली इसका अन्यतम उदाहरण है, जिसे 'फाग' भी कहते हैं। संत साहित्य में इसका नाम बसंत भी है। कबीर ने अपनी होली में आत्मा-परमात्मा की मिलनोत्कण्ठा और आनंद का वर्णन किया है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 733 |

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