फ़ैयाज़ ख़ाँ
फ़ैयाज़ ख़ाँ
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पूरा नाम | फ़ैयाज़ ख़ाँ |
जन्म | 1886 |
जन्म भूमि | सिकन्दरा, आगरा |
मृत्यु | 5 नवम्बर, 1950 |
मृत्यु स्थान | बड़ौदा |
अभिभावक | सफ़दर हुसैन ख़ाँ |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | संगीत |
पुरस्कार-उपाधि | 'ज्ञानरत्न', 'आफताब-ए-मौसिकी' |
प्रसिद्धि | ध्रुपद, ख़याल और ठुमरी गायन |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | फ़ैयाज़ ख़ाँ को 1938 में मैसूर दरबार में 'आफताब-ए-मौसिकी' (संगीत के सूर्य) की उपाधि से नवाजा गया था। |
फ़ैयाज़ ख़ाँ (अंग्रेज़ी:Faiyaz Khan; जन्म- 1886, सिकन्दरा, आगरा; मृत्यु- 5 नवम्बर, 1950, बड़ौदा) ध्रुपद तथा ख़याल गायन शैली के श्रेष्ठतम गायक थे। पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध के जिन संगीतज्ञों की गणना शिखर पुरुष के रूप में की जाती है, उनमें फ़ैयाज़ ख़ाँ का नाम भी शामिल है। ध्रुपद, धमार, ख़याल, तराना और ठुमरी आदि, इन सभी शैलियों की गायकी पर उन्हें कुशलता प्राप्त थी। प्रकृति ने उन्हें गम्भीर कण्ठ का उपहार तो दिया ही था, इसके साथ ही वह अपने मधुर स्वरों से श्रोताओं पर रस वर्षा कर देते थे।
जीवन परिचय
फ़ैयाज़ ख़ाँ का जन्म सन 1886 में 'आगरा रंगीला घराना' के नाम से विख्यात ध्रुपद गायकों के परिवार में हुआ था। इनके जन्म से लगभग तीन माह पूर्व ही इनके पिता सफ़दर हुसैन ख़ाँ का निधन हो गया था। जन्म से ही पितृविहीन बालक को उनके नाना ग़ुलाम अब्बास ख़ाँ ने अपना दत्तक पुत्र बना लिया था।
शिक्षा
इनके नाना ने पालन-पोषण के साथ-साथ संगीत की शिक्षा भी इन्हें दिलाई। फ़ैयाज़ ख़ाँ की विधिवत संगीत शिक्षा उस्ताद ग़ुलाम अब्बास ख़ाँ से आरम्भ हुई थी। ये इनके गुरु और नाना तो थे ही, गोद लेने के कारण पिता के पद पर भी प्रतिष्ठित हो चुके थे। फ़ैयाज़ ख़ाँ के पिता का घराना ध्रुपदियों का था। अतः ध्रुपद अंग की गायकी इन्हें संस्कारगत प्राप्त हुई थी। आगे चल कर फ़ैयाज़ ख़ाँ ध्रुपद के 'नोम-तोम' के आलाप में इतने दक्ष हो गए कि संगीत समारोहों में उनके समृद्ध आलाप की फरमाइश हुआ करती थी।[1]
व्यक्तित्व
फ़ैयाज़ ख़ाँ का व्यक्तित्व भी बहुत ख़ास था। छ: फीट ऊँचे, छल्लेदार मूँछें, हष्ट-पुष्ट शरीर, शेरवानी और साफे की पोशाक में उनकी शख्सियत अपना अलग ही मुकाम रखती थी। उनकी आवाज़ सुरीली, बुलंद और भरावदार थी। स्वरों पर स्थिर हो जाना फ़ैयाज़ ख़ाँ के गायन की प्रमुख विशेषता थी।
संगीत साधना
फ़ैयाज़ ख़ाँ के नाना का घराना ख़याल गायकों का था। नाना ने बचपन से ही इन्हें कठोर रियाज़ कराया। संगीत के घरानों में संगीत शिक्षा के लिए एक कठोर व्रत का पालन शिष्य से कराया जाता है, जिसे 'चिल्ला' कहा जाता है। इस व्रत के अनुसार शिष्य को निरन्तर बारह वर्षों तक प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक संगीत का अभ्यास करना होता है। प्रशिक्षण की इस अवधि में फ़ैयाज़ ख़ाँ ने स्वर साधना, ध्रुपद और होरी गायन का कठिन अभ्यास किया। 25 वर्ष की आयु तक वे लोकप्रिय होने लगे थे। उनकी गायकी पर अपने नाना ग़ुलाम अब्बास ख़ाँ के अतिरिक्त तत्कालीन महान् गायक नत्थन ख़ाँ, जयपुर के अब्दुल ख़ाँ और सेनिया घराने के अमीर ख़ाँ का भी प्रभाव था।[1]
प्रसिद्धि
पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक के चार दशकों तक उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ देश में आयोजित होने वाले संगीत समारोहों के प्राण हुआ करते थे। संगीत-प्रेमियों को सम्मोहित कर लेने की अद्भुत क्षमता उनकी गायकी में थी। उस दौर में उन्हें जन-सामान्य की ओर से 'महफिल के बादशाह' के नाम से पुकारा जाता था। वर्ष 1930 के आस-पास फ़ैयाज़ ख़ाँ ने कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के निवास स्थान 'जोरासांकों ठाकुरबाड़ी' में आयोजित संगीत समारोह में भाग लिया। समारोह के दौरान वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्हें हिंदुस्तान का सबसे बड़ा शायर की उपाधि दी।
सम्मान
अपने प्रभावशाली संगीत से फ़ैयाज़ ख़ाँ ने देश के सभी संगीत केन्द्रों में खूब यश अर्जित किया। उनकी ख्याति के कारण बड़ौदा राजदरबार में संगीतज्ञ के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। यहाँ पर इन्हें 'ज्ञानरत्न' की उपाधि से सम्मानित किया गया। 1938 में उन्हें मैसूर दरबार से 'आफताब-ए-मौसिकी' (संगीत के सूर्य) की उपाधि से नवाजा गया था।[1]
गायन कुशलता
उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ की गायकी में जवारीदार स्वर, राग दरबारी का गान्धार, राग श्री का ऋषभ और अनूठी लयकारी श्रोताओं को सम्मोहित करती थी। बोलतान में गीत की पंक्तियों का चमत्कारिक प्रदर्शन वे किया करते थे। वे स्वर, भाषा, अर्थ, भाव, लय सभी का भरपूर आनन्द लेकर गाते थे। ध्रुपद और ख़याल गायकी में दक्ष होने के साथ-साथ ठुमरी गायन में भी वे अत्यन्त कुशल थे। फ़ैयाज़ ख़ाँ ने कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में भैया गनपत राव और मौजुद्दीन ख़ाँ से ठुमरी-दादरा सुना था और संगीत की इस विधा से अत्यन्त प्रभावित हुए थे।
प्रसिद्ध रचनाएँ
ठुमरी के दोनों दिग्गजों से प्रेरणा पाकर फ़ैयाज़ ख़ाँ ने इस विधा में भी दक्षता प्राप्त कर ली थी। वे ठुमरी और दादरा के बीच उर्दू के शेर जोड़कर उसे और भी प्रभावशाली बना देते थे।[1] इसके साथ ही टप्पे की तानों को भी वे ठुमरी गाते समय जोड़ लिया करते थे। उनके द्वारा गायी गई उपशास्त्रीय रचनाओं में निम्नलिखित रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं-
- 'बनाओ बतियाँ चलो काहे को झूठी....'
- 'पानी भरे री कौन अलबेली...'
शिष्य
फ़ैयाज़ ख़ाँ की गायकी के कुछ रिकॉर्ड भी बने। उनकी शिष्य-परम्परा बहुत विशाल थी। उसके कुछ नाम इस प्रकार हैं-
- दिलीप चन्द वेदी
- उस्ताद जिया हुसैन
- अज़मत हुसैन
- श्रीक़ृष्ण नारायण रातांजन्कर
निधन
'रंगीले घराना' के नाम से फ़ैयाज़ ख़ाँ का घराना प्रसिद्ध था। गायन के क्षेत्र में कई ऊँचाईयाँ प्राप्त करने वाले फ़ैयाज़ ख़ाँ का 5 नवम्बर, 1950 को बड़ोदा में निधन हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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