शोभा गुर्टू
शोभा गुर्टू
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प्रसिद्ध नाम | शोभा गुर्टू |
अन्य नाम | भानुमति शिरोडकर |
जन्म | 8 फ़रवरी, 1925 |
जन्म भूमि | कर्नाटक |
मृत्यु | 27 सितम्बर, 2004 |
मृत्यु स्थान | मुंबई |
अभिभावक | मेनेकाबाई शिरोडकर |
पति/पत्नी | विश्वनाथ गुर्टू |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | शास्त्रीय गायन |
मुख्य फ़िल्में | 'पाक़ीज़ा', 'फागुन', 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' |
पुरस्कार-उपाधि | 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' (1978), 'पद्मभूषण' (2002), 'महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार', 'लता मंगेशकर पुरस्कार', 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' |
प्रसिद्धि | ठुमरी गायिका |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | 1978 में फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' में शोभा जी ने एक ठुमरी 'सैय्याँ रूठ गए मैं मनाऊँ कैसे' गायी, जो कि बहुत प्रसिद्ध हुई। |
शोभा गुर्टू (अंग्रेज़ी: Shobha Gurtu; जन्म- 8 फ़रवरी, 1925, कर्नाटक; मृत्यु- 27 सितम्बर, 2004, मुंबई) भारतीय शास्त्रीय शैली की एक प्रसिद्ध गायिका थीं। उनका मूल नाम 'भानुमति शिरोडकर' था। वे एक ऐसी शास्त्रीय शिल्पी थीं, जिन्होंने गायन की ठुमरी शैली को विश्व भर में ख्याति दिलाई। शोभा गुर्टू को 'ठुमरियों की रानी' कहा जाता है। उन्होंने ठुमरी के अतिरिक्त कजरी, होरी और दादरा आदि उप-शास्त्रीय शैलियों के अस्तित्व को भी बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
जन्म तथा शिक्षा
शोभा गुर्टू का जन्म 8 फ़रवरी, 1925 को कर्नाटक के बेलगाँव ज़िले में हुआ था। उनकी माताजी मेनेकाबाई शिरोडकर स्वयं भी एक नृत्यांगना थीं तथा जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया ख़ाँ से गायकी सीखती थीं। शोभा गुर्टू को शास्त्रीय संगीत सीखने की प्रेरणा अपनी माँ से ही मिली थी। उन्होंने संगीत की प्राथमिक शिक्षा उस्ताद अल्लादिया ख़ाँ के सुपुत्र उस्ताद भुर्जी ख़ाँ साहब से प्राप्त की। इसके बाद उस्ताद अल्लादिया ख़ाँ के भतीजे उस्ताद नत्थन ख़ाँ से मिली तालीम ने उनके सुरों में जयपुर-अतरौली घराने की नींव को सुदृढ़ किया। किंतु उनकी गायकी को एक नयी दिशा और पहचान मिली उस्ताद घाममन ख़ाँ की छत्रछाया में, जो उनकी माँ को ठुमरी और दादरा व अन्य शास्त्रीय शैलियाँ सिखाने मुंबई में उनके परिवार के साथ रहने आये थे।[1]
विवाह
शोभा जी का विवाह बेलगाँव के विश्वनाथ गुर्टू से हुआ था, जिनके पिता पंडित नारायणनाथ गुर्टू बेलगाँव पुलीस के एक वरिष्ठ अधिकारी थे। इसके साथ ही वह स्वयं भी एक संगीत विद्वान तथा सितार वादक थे। गुर्टू दंपत्ति के तीन सुपुत्रों में सबसे छोटे त्रिलोक गुर्टू एक प्रसिद्ध तालवाद्य शिल्पी हैं।
प्रसिद्धि
शुद्ध शास्त्रीय संगीत में शोभा जी की अच्छी पकड़ तो थी ही, किन्तु उन्हें देश-विदेश में ख्याति प्राप्त हुई ठुमरी, कजरी, होरी, दादरा आदि उप-शास्त्रीय शैलियों से, जिनके अस्तित्व को बचाने में उन्होंने विशेष भूमिका निभाई थी। आगे चलकर अपने मनमोहक ठुमरी गायन के लिए वे 'ठुमरी क्वीन' कहलाईं। वे न केवल अपने गले की आवाज़ से बल्कि अपनी आँखों से भी गाती थीं। एक गीत से दूसरे में जैसे किसी कविता के चरित्रों की भांति वे भाव बदलती थीं, चाहे वह रयात्मक हो या प्रेमी द्वारा ठुकराया हुआ हो अथवा नख़रेबाज़ या इश्कज़ हो। उनकी गायकी बेगम अख़्तर तथा उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब से ख़ासा प्रभावित थी। उन्होंने अपने कई कार्यक्रम कथक नृत्याचार्य पंडित बिरजू महाराज के साथ प्रस्तुत किए थे, जिनमें विशेष रूप से उनके गायन के 'अभिनय' अंग का प्रयोग किया जाता था।[1]
फ़िल्मों में योगदान
शोभा गुर्टू ने कई हिन्दी और मराठी फ़िल्मों में भी गीत गाए। सन 1972 में आई कमल अमरोही की फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' में उन्हें पहली बार पार्श्वगायन का मौका मिला था। इसमें उन्होंने एक भोपाली 'बंधन बांधो' गाया था। इसके बाद 1973 में फ़िल्म 'फागुन' में 'मोरे सैय्याँ बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ' गाया। फिर सन 1978 में असित सेन द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' में शोभा जी ने एक ठुमरी 'सैय्याँ रूठ गए मैं मनाऊँ कैसे' गाया, जो कि बहुत प्रसिद्ध हुई।
पुरस्कार व सम्मान
अपनी विशिष्ट गायिका के लिए शोभा गुर्टू को कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' की ठुमरी के लिए उन्हें "फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार" के लिए नामांकित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें निम्न पुरस्कार भी प्राप्त हुए-
- 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' - (1978)
- 'पद्मभूषण' - (2002)
- महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार
- लता मंगेशकर पुरस्कार
निधन
लगभग पाँच दशकों तक 'ठुमरियों की रानी' के रूप में शोभा जी प्रसिद्ध रहीं। 27 सितम्बर, 2004 को शोभा गुर्टू नामक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का यह नक्षत्र अस्त हो गया।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 शोभा गुर्टू (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
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