फागुन दुइ रे दिना -विद्यानिवास मिश्र

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फागुन दुइ रे दिना -विद्यानिवास मिश्र
'फागुन दुइ रे दिना' का आवरण पृष्ठ
'फागुन दुइ रे दिना' का आवरण पृष्ठ
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक फागुन दुइ रे दिना
प्रकाशक प्रभात प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 5 मार्च, 1994
ISBN 81-7315-080-x
देश भारत
पृष्ठ: 160
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

फागुन दुइ रे दिना हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

फागुन तो बस दो-दिन का है। चैत के बारे में तो कवि ने ‘दिन चारिक चैत के’ कहा। चैत को चार दिन दिये, पर फागुन को बस दो दिन। कुछ बात होगी। फिर सोचता हूँ क्या इतनी उदासी, इतना उजड़ापन और इतना दुर्निवार सामूहिक उल्लास दो दिन से ज़्यादा झेला ही नहीं जा सकता ? माताएँ अपने बच्चों को उबटन लगाती हैं, पूरे शरीर का मैल छड़ाती हैं और मैल की गोलियाँ भी ईंधन बन जाती हैं। कभी शाम, कभी रात में, कभी बहुत सुबह, सूर्योदय से पूर्व संवत्सर की चिता जल उठती है। पूरा बीता साल कुछ क्षणों में राख हो जाता है। उस राख की चुटकी हर घर में जाती है, उसे लगाये बिना पर्व पूरा नहीं होता। इस धुलहड़ी के साथ ही होते हैं गीत और दोपहर तक जाने क्या-क्या वेष बनता रहता है। अपराह्ण में नहा धो लेने के बाद एकदम सब बदल जाते हैं, नये बसन, नये पकवान, नयी सुगन्धि, नयी धजा, नया शिष्टाचार, नया मंगल ये सब उतर आते हैं। दो दिन से ज़्यादा फागुन कहाँ रहता है! मिश्रजी के इन ललित निबन्धों में भारतीय संस्कृति को एक नितान्त नूतन रूप में प्रकट किया गया है। भारत ऋतुओं का देश है। प्रत्येक ऋतु कुछ नया देकर भविष्य के प्रति आस्था जगाती है और भारतीय जनमानस उससे प्रेरणा पाकर, अमृत खींचकर आगे बढ़ाता रहता है।[1]

पुस्तक के कुछ अंश

निबन्धों का देशकाल

‘फागुन दुई रे दिना’ का देशकाल साल-सवा साल का दिल्ली प्रवास है। प्रवास दो अर्थों में, एक तो बनारस से (अपनाव-भरे बनारस से) दिल्ली आना (अजनबीपन के उपनिवेश में आना) हुआ इस अर्थ में, दूसरे इस अर्थ में कि भिन्न प्रकार के प्रकाशकीय अनुभव के बाद नये ख़ुशनुमा चाकरी में और लेखकीय कालनिरेपक्षता से पत्रकारीय कालसापेक्षता में नौसिखुआ जैसे राह निकालना पड़ा। इस संग्रह के निबन्धों का यही देशकाल है। और चूँकि ऐसे देशकाल में भी ऋतुएँ आती हैं; ऋतुओं के साथ, मनुष्य की ऋतुओं के साथ पुरानी मिताई आती है, इसलिए रचनात्मक लिखने का कोई अवकाश न होते हुए भी कुछ लिख जाता है। कितना वह मेरा है, कितना ऋतुओं का, कितना ऋतुओं की झारों से गुज़रे देश का, मैं क्या जानूँ। मेरे बारे में यह प्रसिद्धि है कि बहुत कुछ ऐसा लिखते हैं, जो सबके पल्ले नहीं पड़ता, आम आदमी के लिए नहीं लिखते।
वास्तविकता यह है कि आम आदमी ही मेरे भीतर पैठ के लिखाता है, क्या वह केवल लिखाता है, उससे और कोई सरोकार नहीं रखता ? मैं कोशिश करके सहज नहीं होना चाहता। बरसों से अपने को शब्द से, अर्थ से और शब्द-अर्थ के प्रयोक्ता और ज्ञानी से जोड़ता रहा, उसीसे, जितना कुछ बन जाता है, वह सामने परस देता हूँ। ‘फागुन दुई रे दिना’ (फागुन के दो दिन) भी इसी भाव से अर्पित है अपने अनाम अदृश्य पाठक को।- विद्यानिवास मिश्र



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. फागुन दुइ रे दिना (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 8 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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