लोक और लोक का स्वर -विद्यानिवास मिश्र

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लोक और लोक का स्वर -विद्यानिवास मिश्र
'लोक और लोक का स्वर' का आवरण पृष्ठ
'लोक और लोक का स्वर' का आवरण पृष्ठ
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक लोक और लोक का स्वर
प्रकाशक प्रभात प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 4 मार्च, 2000
ISBN 81-7315-308-6
देश भारत
पृष्ठ: 124
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

लोक और लोक का स्वर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

लोक-विज्ञान को ‘फोकलोरिस्टिक्स’ का तजुर्मा बना लेने के कारण लेख-संस्कृति के प्रति हमारी अवधारणा ही वह नहीं जो होनी चाहिए थी, या जो थी। हमारे यहाँ ‘लोक’ का अभिप्राय सामने वर्तमान है, दृश्यमान है, अनुभाव्यमान है। ‘फोक’ शब्द में ध्वनि व्यतीत, ग्राम्य, अर्द्धविस्मित और परिरक्षणीय की है। लोक में ऐसा कुछ नहीं है। इसलिए फोकलोरिस्टिक्स के संस्पर्श से लोक-वार्ता के अध्ययन में कुछ पूर्व ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो गयी हैं और इनमें मुख्य दृष्टि परिरक्षण की है, परिवर्द्धन की नहीं। इसलिए लोक-वार्ता का अध्ययन या तो शवच्छेदन होकर रह जाता है या फिर विस्मयावेश बनकर। मैं बचपन से ही लोक के सजीव क्षेत्र में रहता हूँ। उस क्षेत्र के प्रति दया-दृष्टि मुझे बहुत चुभती है। मैंने अपने जीवन के आस-पास उसे छंदोमय गति से थिरकते पाया है।

पुस्तक का 'नामकरण'

‘लोक और लोक का स्वर’ लिखने की आवश्यकता मुझे इसलिए प्रतीत हुई कि लोक विज्ञान को ‘फोकलोरिस्टिक्स’ का तर्जुमा बना लेने के कारण लोक संस्कृति के प्रति हमारी अवधारणा ही वह नहीं रही जो होनी चाहिए थी, या जो थी। हमारे यहाँ ‘लोक’ का अभिप्राय सामने वर्तमान है, दृश्यमान है, अनुभाव्यमान है। लोक व्यतीत नहीं है। ‘फोक’ शब्द में ध्वनि व्यतीत, ग्राम्य अर्द्धविस्मृत और परिरक्षणीय की है। लोक में ऐसा कुछ नहीं है। इसीलिए फोकलोरिस्टिक्स के संस्पर्श से लोक-वार्त्ता के अध्ययन में कुछ पूर्व ग्रंथियाँ उत्पन्न हो गई हैं और उनमें मुख्य दृष्टि परिरक्षण की है, परिवर्द्धन की नहीं। इसलिए लोक वार्त्ता का अध्ययन या तो शवच्छेदन होकर रह जाता है या फिर विस्मया वेश बनकर। मैं बचपन से ही लोक के सजीव क्षेत्र में रहता हूँ। उस क्षेत्र के प्रति दया दृष्टि मुझे बहुत चुभती है। मैंने अपने जीवन के आसपास उसे छंदोमय गति से थिरकते पाया है। इस पुस्तक में मैंने लोक की भारतीय जीवनसम्मत परिभाषा और उसकी अभिव्याप्ति देने का प्रयत्न किया है। उदाहरणों के चयन में कोशिश की है कि ऐसे ही उदाहरण चुने जाएँ जो भारतीय काव्य-यात्रा के वाचिक पक्ष को उजागर कर सकें। इसीलिए इसका नाम रखा है ‘लोक और लोक का स्वर’।
लोक-वार्ता के अध्ययन में सहायता जितनी भीतर से मिलती है उतनी बाहर से नहीं। इसी भीतर वाले मन के पुनर्जागरण का समय आ गया है। इसमें अधिकांश निबंध तो भिन्न-भिन्न प्रकार की शंकाओं के समाधान के रूप में हैं, कुछ निबंध व्याख्यात्मक भी हैं। इन दोनों प्रकार के निबंधों के योग से यह पुस्तक बनी है और इसका लोकार्पण भी द्वितीय विश्व भोजपुरी सम्मेलन के अवसर पर हो रहा है। यह ध्यातव्य है कि यह पुस्तक प्रश्नों के उत्थापन के लिए ज्यादा है, शिष्टाचार के लिए कम। -विद्यानिवास मिश्र[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लोक और लोक का स्वर (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 9 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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