सपने कहाँ गए -विद्यानिवास मिश्र
सपने कहाँ गए -विद्यानिवास मिश्र
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लेखक | विद्यानिवास मिश्र |
मूल शीर्षक | सपने कहाँ गए |
प्रकाशक | प्रभात प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 2 मार्च, 2001 |
ISBN | 81-7315-229-2 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 128 |
भाषा | हिंदी |
विधा | निबंध संग्रह |
विशेष | विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था। |
सपने कहाँ गए हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।
सारांश
हर राष्ट्र के इतिहास में एक ऐसा समय आता है, जब विवेक का स्तर क्षीण हो जाता है। तत्कालिक दबाव में आदर्श धूमिल हो जाते हैं। स्वाधीनता की उतावली तो आई, पर स्वाधीन भारत की कमान सँभालने की दक्षता भी आई, पर स्वाधीन भारत को अपने स्वरूप की, एक निर्माण की कोई विशेष चिन्ता नहीं। राजसी ठाट-बाट भारतीय गणतंत्र में भी रहे, यह हमारे जैसे लोगों को बहुत खटकता था। आज भी खटकता है। सबसे अधिक एक चीज खटकती थी, वह यह थी कि राष्ट्रपति भवन से यूनियन जैक तो हटा, पर लगभग डेढ़ साल तक गवर्नर जनरल बना रहा।
पहला गवर्नर जनरल था एक ऐसा आदमी, जो भारत का मित्र बनकर एक के बाद दूसरे गड्ढे में ढकेलता रहा। और कहने के लिए ढकेलता रहा। भीतर से भारत की जड़ खोदता रहा। उसका और उसके परिवार का जाने क्या जादू था कि भावुक नेहरू देश के इतने प्रिय होते हुए भी देश की भावना से काफ़ी दूर होते गये। उनके मन में विशालता का संकल्प तो जगा, पर इस देश का निर्माण जिन लघु शक्ति-पुंजों से हुआ, उसकी उन्होंने उतनी सुधि नहीं रखी। इसलिए ऐसे नेता, जो ठेठ देशी थे, उपेक्षित होते गये और ऐसे भी नेता, जिनका जनाधार नहीं था, देश के कर्णधार बने। -विद्यानिवास मिश्र
पुस्तक के कुछ अंश
स्वाधीनता का अर्थ
विगत पचास वर्षों का लेखा-जोखा लेने बैठते हैं, तो सबसे पहले यह लगता है कि अपना तंत्र या शासन होते हुए भी हम स्वाधीन नहीं हैं। इसे हम स्थूल धरातल पर देखें तो हमारी अर्थ नीति कर्ज की ऐसी बैसाखियों पर टिकी हुई है कि जिसका सूद अदा करने में ही देश की लगभग एक-तिहाई आमदनी चली आती है। राजनीतिक धरातल पर देखें तो हमने जाने किन-किन से मित्रता की बात चलाई और सही मायने मे हमारा कोई मित्र इस समय नहीं है। हम मित्रता के लिए हाथ जोड़ रहे हैं और कम विकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों से जुड़ रहे हैं। और उनके अध्यक्षों को न्यौतकर ही कुछ भारी-भरकम होने का ढोंग पाल रहे हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि राजनीतिक शक्ति सैन्य शक्ति पर बहुत कुछ निर्भर है। आज की सैन्य शक्ति सैन्य की तकनीक पर निर्भर है।
उस तकनीक के लिए हम प्रयत्न तो कर रहे हैं, पर अभी इस स्तर तक नहीं पहुँचे हैं कि विशाल सैन्य शक्तिवाले देशों के ऊपर हमारी निर्भरता एकदम समाप्त हो जाए। वैचारिक धरातल पर देखें तो और गहरा शून्य दिखाई पड़ता है। कितनी लज्जा की बात है कि अपने ही देश के प्रतिभाशाली लोग विदेश में अपनी प्रतिभा का परिचय देकर अंतरिक्ष उपक्रम, संगणक उपक्रम और चिकित्सा जैसे विशेषज्ञता के क्षेत्रों में शीर्ष स्थान पर पहुँच रहे हैं। अपना देश स्वयं अंतरिक्ष विज्ञान में बहुत समुन्नत हो चुका है। परंतु हमारी मानसिक स्थिति यह है कि हम आत्मगौरव के भाव से एकदम रिक्त हो गए हैं। जिन विषयों में हमारी जानकारी बहुत विकसित है, उन विषयों में भी हम आत्मविश्वास तक नहीं करते कि हमारा अनुशीलन उच्च स्तर का है, हमारी सर्जनात्मक उपलब्धि उच्च स्तर की है। [1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सपने कहाँ गए (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 9 अगस्त, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
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