स्वरूप-विमर्श -विद्यानिवास मिश्र

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स्वरूप-विमर्श -विद्यानिवास मिश्र
'स्वरूप-विमर्श' का आवरण पृष्ठ
'स्वरूप-विमर्श' का आवरण पृष्ठ
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक स्वरूप-विमर्श
प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2001
ISBN 81-263-0585-1
देश भारत
पृष्ठ: 160
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

स्वरूप-विमर्श हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

कवि-नमन

नारायण पैदा होते रहे सदा नर में
कुछ महा-मानवों ने निश्चय युग की पूजा स्वीकारी है
अपने चिन्तन से, कर्मों से, आचरणों से अवतारी बन, भवतारी बन, पैग़म्बर बन,
नर उन सबका आभारी है।
उन महर्षियों, युग-पुरुषों को मेरे कवि के शत-शत प्रमाण! -बशीर अहमद ‘मयूख’

पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

बांग्ला देश के मुक्ति-संघर्ष ने एक तथ्य बड़े ज़ोर से उजागर किया है कि संस्कृति कौम (राष्ट) की होती है, सम्प्रदाय की नहीं। मेरे विचार से संस्कृति की जन्मपत्री में लिखा होना चाहिए कि एक भूखण्ड के निवासियों को युग-पुरुष (समाज और राजनेता, सन्त साहित्यकार आदि) हज़ारों साल तक प्रभावित करते हैं, तब कहीं जाकर इतिहास के गर्भ से उस कौम की संस्कृति का जन्म होता है। हमारी भारतीय कौम की संस्कृति को जिन युग-पुरुषों कौम ने हजारों साल में ढाला हमारे पूर्वज हैं, हमारे साझे है। हमारे इतिहास-रथ की वल्गा कभी विश्वामित्र और अगस्त्य, युग-पुरुष राम और गीताकार कृष्ण ने थामी है तो कभी इस रथ पर आकार बैठ गये हैं राजपुरुष अशोक और अकबर। इस इतिहास-पथ पर खींच गये हैं सुनहरी लकीर कभी बुद्ध और महावीर नानक और कबीर, रसखान और जायसी, रहीम और तुलसी, ग़ालिब और रवीन्द्र, अरविन्द्र और विवेकानन्द, दयानंद, तुकाराम और चिश्ती एकनाथ और ज्ञानेश्वर और दक्षिण भारत के बहुत से सन्तों-साहित्यकारों सहित महामानव गाँधी। इन सारे युग-पुरुषों का सामाजिकों, राजनेताओं, सन्तों और साहित्यकारों का इतिहास हमारा इतिहास है। ये सब मिलकर हम यानी भारत राष्ट्र। और यहीं पर राष्ट्र और देश का अन्तर हो जाता है। हमारे भारत देश की भौगोलिक सीमा भले ही हिमालय से कन्याकुमारी तक रही हो, पर हमारे सांस्कृतिक राष्ट्र की सीमाएं और भी दूर-दूर तक फैली हुई है।
ऋग्वेद देखने पर कुछ बढ़िया बातों पर नज़र जाती है। आर्य-अनार्य (सुर-असुर) समाज का एक-दूसरे से बिलकुल विपरीत जीवन-दर्शन। इस भिन्नताओं की टकराहट जहाँ देवासुर-संग्रामों ‘दाशराज्ञ’ युद्धों में प्रकट हुई, वहाँ सांस्कृतिक समन्वयन के प्रयास भी इस सीमा तक चले कि दोनों समाज के विद्वान एक-दूसरे के पुरोहित तक बन गये। ऐसा लगता है कि शम्बर के पतन के पश्चात् विश्वामित्र इस समन्वयन के मुख्य उद्घोषक रहे। आर्य-अनार्य समाज में न केवल रोटी-व्यवहार बल्कि बेटी-व्यवहार तक चला। साथ ही तत्कालीन आर्य-अनार्य समाज ने एक-दूसरे के देवताओं (युग-पुरुषों) तक को मान्यता देकर स्वीकारा। तब से आज तक कितने ही ‘शंकर’ ज़हर पी गये, कितने ही चर्वाकों ने बग़ावत की हद तक समन्वय-स्वर मुखर किये-मनु की कट्टरता से पाराशर की उदारता तक का इतिहास इसका साक्षी है। आगे चलकर यह इतिहास कभी गांधी के सीने पर लिखा गया तो कभी बंगदेश के मस्तक पर।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्वरूप-विमर्श (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 9 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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