मंझौली
मंझौली
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विवरण | 'मंझौली' एक प्रकार की पालकी है, जो रथ से छोटी होती है। इसका प्रयोग विवाह आदि के अवसर पर भारतीय राज्य हरियाणा में किया जाता है। |
राज्य | हरियाणा |
संबंधित लेख | हरियाणा, हरियाणा की संस्कृति |
अन्य जानकारी | हरियाणवी लोक जीवन में आदिकाल से ही परिवहन के साधनों का प्रयोग निरंतर रूप से चला आ रहा है। इन्हीं साधनों में रथ, मंझौली, बैलगाड़ी, ठोकर, टमटम, घोड़ागाड़ी, रेहड़ा, बहल, रेहड़ू, फिरक, पहियों वाली पालकी आदि हमारे लोक सांस्कृतिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। |
मंझौली रथ से छोटे आकार की एक प्रकार की पालकी होती है। इसका आकार मंझला होने के कारण ही इसे मंझौली कहा जाता है। अमीर घरानों के लोग जहां रथ का प्रयोग करते रहे हैं, वहीं पर हरियाणा का मध्यवर्गीय समाज मंझौली का प्रयोग परिवहन के साधन के रूप में सदियों से करता आ रहा है। वर्तमान दौर में मंझौली अतीत का हिस्सा बन चुका है। हरियाणा में अब इसका प्रयोग लगभग समाप्त हो चुका है। पहले जिसकी बारात में जितनी अधिक रथ-मंझौली आती थीं, उस घर को उतना ही अधिक साधन सम्पन्न माना जाता था। हरियाणा की वर्तमान पीढ़ी सम्भवत: मंझौली के महत्ता को अब नहीं समझती।
परिचय
हरियाणवी लोक जीवन में आदिकाल से ही परिवहन के साधनों का प्रयोग निरंतर रूप से चला आ रहा है। इन्हीं साधनों में रथ, मंझौली, बैलगाड़ी, ठोकर, टमटम, घोड़ागाड़ी, रेहड़ा, बहल, रेहड़ू, फिरक, पहियों वाली पालकी आदि हमारे लोक सांस्कृतिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। हरियाणवी लोक जीवन में मंझौली एक ऐसा ही महत्वपूर्ण साधन रहा है, जिसको मध्यवर्गीय लोग निरंतर प्रयोग करते रहे हैं। मंझौली वास्तव में रथ से छोटे आकार की होती है। इसका आकार मंझला होने की बदौलत ही इसे मंझौली कहा गया है। अमीर घरानों के लोग जहां रथ का प्रयोग करते रहे हैं, वहीं पर हरियाणा का मध्यवर्गीय समाज मंझौली का प्रयोग परिवहन के साधन के रूप में सदियों से करता आ रहा है।[1]
निर्माण
मंझौली के निर्माण में बढ़ई, चर्मकार, सुनार तथा दर्जी का विशेष योगदान होता है। मंझौली के निर्माण में पकी हुई लकड़ी का प्रयोग बढ़ई करता है। कई बार तो लकड़ी को महीनों तक भिगोया भी जाता है। इसके निर्माण में लाल कीकर, शीशम तथा शहतूत की लरजदार लकड़ी प्रयोग में लाई जाती है। चर्मकार चमड़े को मंडने के कार्य को पूरी दक्षता के साथ सम्पन्न करता है। सुनार मंझौली को अष्टधातु की कढ़ाई के साथ मंडकर उसे धातुगत सौंदर्य प्रदान करता है। दर्जी अपनी कुशलता के आधार पर मंझौली को पारम्परिक लोक-परिधानों से सजाने का काम करता है। झाल्लर तथा पर्दे कढ़ाईदार होते हैं, जिनके बीच में दूल्हा एवं दुल्हन बैठते हैं। विवाह के अवसर पर विशेष रूप से मंझौली को बारात में ले जाने की परम्परा हरियाणवी लोकजीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। वर्तमान में लगभग 60 वर्ष के आसपास के पुरुष एवं महिलाओं की बारात मंझौलियों में आती-जाती रही है। मंझौली मूलत: दो प्रकार की होती है- एक बड़े आकार की होती है, जिसका स्वरूप रथ से छोटा होता है। मंझौली में एक ही गुम्बद होता है, जबकि रथ में दो गुम्बद होते हैं। छोटे आकार की मंझौली में दो ही पहियों का प्रयोग किया जाता है। लड़की की विदाई के समय इसके पहियों पर पानी डालने की परम्परा आज भी हमारे लोक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मंझौली को नीचे टिकाने के लिए जुए के बीच के भाग को ऊंटड़ा तथा मुथापड़ा कहा जाता है।
मुथापड़ा के ऊपर अष्टधातु से मंडा हुआ जुआ लगा हुआ होता है, जो मंझौली में जुडऩे वाले दोनों बैलों की कांध पर रखा जाता है। कांध के ऊपर के जुए को चमड़े से मंड दिया जाता है, ताकि जुए की लकड़ी से रगड़ खाने से बैलों की कांध (गर्दन का ऊपरी हिस्सा) न आ जाए। मुथापड़े एवं पंजाले के बीच के भाग को फअ्ड़ कहा जाता है। फअ्ड़ के नीचे अष्टधातु से बना चोंचदार गोलाकार घंटा लगा हुआ होता है, जिसको जंग कहा जाता है। जंग व मंझौली में लगी घंटियों की आवाज़ वास्तव में बैलों की चाल को और अधिक तेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और उन्हें थकने भी नहीं देती। फअ्ड़ के अंतिम भाग को ही आड्डर कहा जाता हैं, जिस पर गढ़वाला बैठता है। पहिए की धुरी के चारों तरफ गोल मोटे बेलन को नेहा तथा पहिए में लगी लकडिय़ों को आरे कहा जाता है। पहियों पर लगी फ़ालतू मिट्टी को छाड़ते रहने के लिए पीतल की बेल या सांकल बंधी हुई होती है। लकड़ी के पहिए को टूटने से बचाने के लिए लोहे की पत्ती का घेरा लगा होता है। मंझौली के ऊपरी छज्जानुमा भाग जो ठीक गढ़वाले के ऊपर होता है, को छज्जी कहते हैं तथा डोमनुमा भाग जो दूल्हा एवं दुल्हन के ठीक ऊपर होता है, उसे गुम्बद कहते हैं। दोनों पहियों के बीच में बकरे की खाल की जाली बनी होती है, जिसमें खान-पान की वस्तुएं तथा बैलों का रातिब (खाणा) रखा जाता है। अमीर घरों की औरतें बाहर घूमने-फिरने, मेलों तथा रिश्तेदारियों में जाने के लिए अकसर मंझौलियों का प्रयोग करती रही हैं। बारात में सुरक्षा की दृष्टि से मध्य भाग में दूल्हा एवं दुल्हन की मंझौली चलाने की परम्परा रही है। मंझौली को हांकने वाले व्यक्ति को गढ़वाला कहा जाता है।[1]
हरियाणवी लोकगीतों में स्थान
हरियाणवी लोकगीतों में अनेक स्थानों पर मंझौली का जिक्र आता है। मंझौली गीत का एक उदाहरण निम्न प्रकार है, जिसमें एक बहन अपने भाई को रथ-मंझौली लाने के लिए कहती है[1]-
जै बीरा तेरे लेजाणे कै मन मैं, लआया क्यूंना रै रथ मंझोलिया, घालो घालो री मौसी म्हारी री बाहण नै, ……., रथ-मंझौली का ओडा लेरी, रोण लाग्या रे, वो तै लेले सुबङ्क्षकया, घालो घालो री मौसी म्हारी री बाहण नै, ……., रथ जुड़ा दूं बहल मंगा दूं, सुबक मटामण का ना, कोई बैदीया, घालो घालो री मौसी म्हारी री बाहण नै, ……..,। इसी प्रकार एक अन्य लोकगीत देखिये, जिसमें पति अपनी पत्नी को मंझौली में ले जाने की बात कुछ इस प्रकार करता है – तड़के, चालण लागी हे, हे दस दिन तांही खंदाई, दस दिन भी पूरे ना होये हे, हे मेरी मंझोली आई …..,। एक अन्य गीत देखिये, जिसमे पत्नी अपने पति के लिए रथ-मंझौली बनने की बात कुछ इस प्रकार करती है – अर्थ मंझौली भंवर जी मैं बणूजी, हांजी कोय बन सूरही के बैल हार जाओ …..। एक अन्य उदाहरण देखिये, जिसमें मंझौली में चढ़कर आने की बात की गई है – मै तो खेलूंगी भैया जी की गाल़ सजन कैसे देखैंगे, स्त्रिया- लाड़ो गिरद गई असमान मंझोली चढ़ आवैंगे। लाड़ो सरवर की ऊँ ची नीची पाल ओढै़ चढ़ देखैगे ….।
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