माटी मलनि कुँभार की -कबीर
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माटी मलनि कुँभार की, घनी सहै सिरि लात। |
अर्थ सहित व्याख्या
कबीरदास कहते हैं कि हे मानव! जिस प्रकार मिट्टी को आकार गृहण में कुम्हार द्वारा रौंदने की क्रिया में अनेक लातें सहनी पड़ती हैं, उसी प्रकार जीव को संसार में रूप ग्रहण करने में काल और कर्मों की अनेक यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। मानव-जीवन ही एक ऐसा अवसर है जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। यदि वह इस अवसर में नहीं चेतता तो अपना दाँव हमेशा के लिए चूक जाता है और मुक्ति की प्राप्ति कठिन हो जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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