शांत रस
शान्त रस साहित्य में प्रसिद्ध नौ रसों में अन्तिम रस माना जाता है - "शान्तोऽपि नवमो रस:।"[1] इसका कारण यह है कि भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ [2] में, जो रस विवेचन का आदि स्रोत है, नाट्य रसों के रूप में केवल आठ रसों का ही वर्णन मिलता है। शान्त के उस रूप में भरतमुनि ने मान्यता प्रदान नहीं की, जिस रूप में श्रृंगार, वीर आदि रसों की, और न उसके विभाव, अनुभाव और संचारी भावों का ही वैसा स्पष्ट निरूपण किया।
- ‘नवरस'
अष्टनाट्यरसों का स्वरूप निरूपित करने के पश्चात् ‘नाट्यशास्त्र’ में शान्त रस की सम्भावना का निर्देश निम्नलिखित शब्दों में किया गया है और ‘नवरस’ शब्द का भी उल्लेख सर्वप्रथम यहीं हुआ है -
"अत: शान्तो नाम.....।
मोक्षध्यात्मसमुत्थ.....शान्तरसो नाम सम्भवति।
......एवं नव रसा द्रष्टानाट्यशैर्लक्षणान्विता:"[3],
अर्थात मोक्ष और आध्यात्म की भावना से जिस रस की उत्पत्ति होती है, उसको शान्त रस नाम देना सम्भाव्य है।[4] नाट्यज्ञ लोगों की दृष्टि में इस प्रकार विविध लक्षणों से युक्त नौ रस होते हैं। उक्त अंश के अतिरिक्त ‘नाट्यशास्त्र’ में ही एक स्थान पर यह भी प्रतिपादित किया गया है कि शान्त रस में ही रति आदि आठ स्थायी भावों की उत्पत्ति होती है और शान्त में ही उनका विलय हो जाता है -
"स्वं स्वं निमित्तमासाथ शान्ताद्भाव: प्रवर्तते।
पुनर्निमित्तापाये च शान्त एवोपलीयते।"[5]
शान्त रस का महत्व
इस प्रतिपत्ति से शान्त रस का महत्व अन्य रसों की तुलना में सर्वोपरी सिद्ध होता है। कुछ विचारकों ने इसी आधार पर कि शान्त भावशून्य स्थिति का द्योतक है, उसकी अनभिनेयता सिद्ध की और उसका खण्डन किया, जिसका विरोध ‘अभिनवभारती’ और ‘रसगंगाधर’ आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है। इनमें कहा गया है कि ‘भाव-शून्यता’ शान्त को रस मानने में बाधक नहीं हो सकती, क्योंकि किसी रस के अभिनय में अभिनेता भाव लिप्त नहीं माना गया है।
- अभिनवगुप्त ने शान्त रस और उसके स्थायी भाव की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया और अपने पूर्व के सभी मतों का खण्डन करते हुए स्वतंत्र मत की स्थापना की। जिन मतों का उल्लेख ‘अभिनवभारती’ में हुआ है, उनमें से एक शम को स्थायी, तपस्या तथा योगियों के सम्पर्क को विभाव, काम, क्रोध आदि के अभाव को अनुभाव और धृति, मति आदि को संचारी मानता हुआ शान्त रस की कल्पना सम्पूर्ण रसांगों के साथ करता है।
- परन्तु दूसरा मत शम और शान्त को पर्यायवाची बताकर अन्य अनेक तर्कों द्वारा शान्त रस की पृथक् सत्ता का निषेध करता है। कुछ के अनुसार निर्वेद शान्त रस का स्थायी भाव है, पर कुछ अन्य विचारक पानक रस की तरह रति, उत्साह आदि आठों स्थायियों को सम्मिलित रूप से शान्त का स्थायी मानने के पक्ष में हैं।
- अभिनवगुप्त ने उक्त सभी मतों का खण्डन पाण्डित्यपूर्ण रीतियों से करते हुए अन्त में ‘तत्त्वज्ञान’ को शान्त रस का स्थायी भाव माना। उनके मत से जिस प्रकार ‘काम’ रति आदि से अभिहित होकर कवि और नट द्वारा रसस्वरूप में आस्वाद्य होकर प्रकट होता है, उसी प्रकार ‘मोक्ष’ नामक पुरुषार्थ अपने योग्य भी विशेष चित्तवृत्ति के योग से रस अवस्था को प्राप्त कर सकता है। शान्त रस यही है। निर्वेद को आचार्य ने शोक के प्रवाह को फैलाने वाली विशेष चित्तवृत्ति माना, जिसकी उत्पत्ति दो प्रकार से होती है -
- एक तो दारिद्रय आदि से,
- दूसरे तत्त्वज्ञान से।
- तत्त्वज्ञान से उत्पन्न निर्वेद अन्य सब स्थायियों को दबा लेने वाला है और उनकी अपेक्षा अधिक स्थायित्व वाला भी है। पर यदि इस निर्वेद को शान्त रस का स्थायी भाव माना जायेगा, तो तत्त्वज्ञान को विभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि उसी से यह उत्पन्न होता है। परन्तु इसे उचित नहीं माना गया। वास्तव में तत्त्वज्ञान से निर्वेद उत्पन्न नहीं होता, तत्त्वज्ञान ही निर्वेद या वैराग्य से उपजता है। शम और निर्वेद को समान स्वीकार करके शम और शान्त में ह्रास और हास्य की तरह सिद्ध और साध्य, साधारण और असाधारण का भेद भी उन्होंने बताया। इस प्रकार बहुत तर्क-वितर्क के बाद तत्त्वज्ञान को ही अन्तिम मान्यता प्रदान की।
- आगे के शास्त्रकारों ने शान्त रस के स्थायी भाव-विषयक उनके मत को स्वीकार नहीं किया। इसके मूल में कदाचित् दो कारण मुख्य थे। एक तो यह कि ‘तत्त्वज्ञान’ को स्थायी भाव कहना ज्ञान को भाव का स्थान देना है, जो सहज ग्राह्य नहीं हो सका और न वह उचित ही प्रतीत होता है। दूसरे, जब शम को शान्त में वही भेद है, जो हास और हास्य में, तो फिर जिस प्रकार हास्य का स्थायी हास हो सकता है, उसी प्रकार शान्त का स्थायी भी शम हो सकता है। इस पर आपत्ति करना समीचनी नहीं है, क्योंकि भरत ने ही उसे निर्धारित किया है।
- शान्त रस के स्थायी भाव सम्बन्धी वाद-विवाद का यहीं अन्त नहीं हुआ, साहित्य में और भी मत व्यक्त किये गए हैं।
- ‘अग्निपुराण’ [6] में ‘रति’ के अभाव से शान्त रस की उत्पत्ति मानी गई है।
- रुद्रट[7] ने ‘सम्यक ज्ञान’ को आनन्दवर्धन[8] ने ‘तृष्णाक्षयसुख’ को तथा आगे कुछ अन्य विद्वानों ने ‘सर्वचित्तवृत्तिप्रशम्’, ‘निर्विशेषचित्तवृत्ति’, ‘धृति’, ‘उत्साह’ आदि को भी शान्त रस का स्थायी निर्धारित किया। श्रृंगारादि की तरह शान्त रस के भेद-प्रभेद करने की ओर आचार्यों का ध्यान प्राय: नहीं गया है। केवल ‘रस-कलिका’ में रुद्रभट्ट द्वारा चार भेद किये गए हैं -
- वैराग्य,
- दोष-विग्रह,
- सन्तोष,
- तत्त्व-साक्षात्कार, जो कि मान्य नहीं हुए।
- शान्त के समानान्तर कुछ नये रसों की कल्पना भी की गई, जिसमें ‘संगीतसुधाकर’ के रचयिता हरिपाल द्वारा कल्पित ब्रह्मरस[9] तथा ‘रसमंजरी’ के प्रणेता भानुदत्त [10] द्वारा कल्पित कार्पण्य रस[11] विशेष उल्लेखनीय हैं।
- जैन ‘अनुयोगद्वारसूत्र’ में ‘प्रशान्त’ नामक रस की चर्चा मिलती है।
- भोज (11शताब्दी ईस्वी पूर्वा.) के ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में धीरोदात्त आदि चतुर्विध नायकों के आधार पर कुछ रसों की सिद्धि मानी गई है, जिनमें धीरप्रशान्त के अनुरूप ‘प्रशान्त’ या ‘शान्त’ रस[12] धृति की स्थिति सिद्ध होती है।
- धनंजय[13], मम्मट [14] और विश्वनाथ[15] प्रभूति *संस्कृत के प्रसिद्ध परवर्ती आचार्यों ने शान्त रस का लक्षण निम्नलिखित रूप में दिया है। धनंजय - "शमप्रकर्षों निर्वाच्यो मुदितादेस्तदात्मता" [16], अर्थात् शान्त रस अनिर्वाच्य और शम का प्रकर्ष है तथा मोद उसका स्वरूप है। इस पर व्याख्याकार धनिक का कथन है - "मुनिराजों ने उस रस को शान्त कहा है, जिसमें सुख, दु:ख, चिन्ता, द्वेष, राग, इच्छादि कुछ नहीं रहते और जिसमें सब भावों का शम प्रधान रहता है।"
- मम्मट - "निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति नवमो रस:"[17], अर्थात् निर्वेद स्थायीवाला शान्त रस नवाँ रस होता है।
- विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण’ में इस प्रकार की व्याख्या की है - "शान्त रस की प्रकृति उत्तम, स्थायी भाव शम, कुन्देन्दु वर्ण तथा देवता श्री नारायण हैं। संसार की अनित्यता, वस्तुजगत की नित्सारता और परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान इसके आलम्बन हैं। भगवान के पवित्र आश्रय, तीर्थस्थान, रम्य एकान्त वन तथा महापुरुषों का सत्संग उद्दीपन है। अनुभाव रोमांचादि और संचारियों में निर्वेद, हर्ष, स्मरण, गति, उन्माद तथा प्राणियों पर दया आदि की गणना की जा सकती है।"[18]
- संस्कृत साहित्य में, विशेषकर धनंजय द्वारा निर्वेद को स्थायी मानने का विरोध किया गया है, पर कुछ रीतिकालीन हिन्दी काव्याचार्यों ने मम्मट का मत मानते हुए ‘शम’ के स्थान पर ‘निर्वेद’ को ही शान्त रस का स्थायी भाव बताया है।
- कुलपति मिश्र -
"तत्त्व शानते कबित में, जहँ प्रगटै निर्वेद।
कहै सान्त रस जासुको, सो है नौमो भेद।"[19]
- नन्दराम -
"जाको थाई भाव सुकवि हमिरदेव बखानत।"[20]
- पद्माकर -
"सुरस सान्त निर्वेद है जाको थाई भाव।"[21]
- कुलपति मिश्र[22]
कुलपति मिश्र के उपर्युक्त लक्षण पर अभिनवगुप्त के मत की छाया है। अन्य प्रमुख काव्याचार्यों में चिन्तामणि[23], भिखारीदास[24] और केशवदास[25] ने ‘शम’ को ही मान्यता प्रदान की। बेनी प्रवीन[26] ने ‘नवसतरंग’ में ‘थाई जासु बिराग’ लिखकर विराग को और ‘साहित्यसागर’ के रचयिता बिहारीलाल भट्ट ने ‘शान्ती स्थायी भाव है’ लिखकर शान्ति को शान्त रस का स्थायी माना है। चिन्तामणि ने भी ‘सम कहियत वैराग्यते’ के द्वारा शम और वैराग्य को समानार्थी माना है।
- केशवदास ने तो ‘शम’ के कारण शान्त रस को ही ‘शम रस’ नाम दे दिया है -
"सबते होय उदास मन बसै एक ही ठौर।
ताहीसों सम रस कहत केसब कबि सिरमौर।"[27]
- पण्डितराज जगन्नाथ [28] ने महाभारतादि प्रबन्धों में शान्त रस की प्रधानता बतायी है और उसे ‘अखिल लोकानुभवसिद्ध’ भी घोषित किया है। जैन कवि बनारसीदास ने अपने ‘समयसार’ नाटक में शान्त रस को रसराज मानते हुए लिखा है - ‘नवमो सान्त रसनिको नायक’। संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं का ज्ञान-भक्तिपरक सम्पूर्ण साहित्य मूलत: शान्त रस के अन्तर्गत आता है, यद्यपि उसमें शेष आठ रसों का पर्याप्त परिविस्तार मिलता है।
- वैराग्य भारतीय विचारधारा का महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशालिनी प्रवृत्ति रही है और उसका प्रभाव भारतीय साहित्य पर निरन्तर बना रहा है। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में शान्त रस को महत्व प्राप्त हुआ है। विनय सम्बन्धी भक्तिभावना में इसी रस का प्रसार है। सूर के विनय के पदों में तथा तुलसी की ‘विनयपत्रिका’ में इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। सन्त कवियों में निर्वेद, शम, वैराग्य की व्यापक भावना पाई जाती है। प्रेममार्गी सूफ़ी कवियों के प्रबन्ध काव्यों में यत्र-तत्र इसकी अवतारणा है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मम्मट : काव्य प्रकाश, 4:35
- ↑ 3 शताब्दी ईस्वी
- ↑ नाट्यशास्त्र पृष्ठ 324-33 गा. सं.
- ↑ कन्हैयालाल पोद्दार : स. सा. इ., द्वि. भा0
- ↑ नाट्यशास्त्र, 6:108
- ↑ 9 10 शताब्दी ईस्वी
- ↑ 9 शताब्दी ईस्वी
- ↑ 9 शताब्दी ईस्वी उत्तरार्ध
- ↑ स्थायी भाव आनन्द
- ↑ 13 शताब्दी ईस्वी
- ↑ स्थायी भाव स्पृहा
- ↑ स्थायी भाव
- ↑ 10 शताब्दी ईस्वी
- ↑ 12 शताब्दी ईस्वी पूर्वार्ध
- ↑ 15 शताब्दी ईस्वी पूर्वार्ध
- ↑ दशरूपक, 4:45
- ↑ काव्यप्रकाश, 4:35
- ↑ साहित्यदर्पण3: 245, 46, 47, 49
- ↑ रसरहस्य, पृष्ठ 28
- ↑ श्रृंगार दर्पण, पृष्ठ 148
- ↑ जगद्विनोद, 720
- ↑ 17शताब्दी ईस्वी उत्त.
- ↑ 17 शताब्दी ईस्वी पूर्वा.
- ↑ 17 शताब्दी ईस्वी पूर्वा.
- ↑ 17 शताब्दी ईस्वी पूर्वा.
- ↑ 19 शताब्दी ईस्वी पूर्वा.
- ↑ रसिकप्रिया, 14:37
- ↑ 17 शताब्दी ईस्वी पूर्वा.
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