समय के समर्थ अश्व मान लो आज बन्धु! चार पाँव ही चलो। छोड़ दो पहाड़ियाँ, उजाड़ियाँ तुम उठो कि गाँव-गाँव ही चलो।। रूप फूल का कि रंग पत्र का बढ़ चले कि धूप-छाँव ही चलो।। समय के समर्थ उश्व मान लो आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।। वह खगोल के निराश स्वप्न-सा तीर आज आर-पार हो गया आँधियों भरे अ-नाथ बोल तो आज प्यार! क्यों उदार हो गया? इस मनुष्य का ज़रा मज़ा चखो किन्तु यार एक दाँव ही चलो।। समय के समर्थ अश्व मान लो आज बन्धु ! चार पाँव ही चलो।।