सूफ़ी मत

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सूफ़ी मत इस्लामी जगत से जुड़ा हुआ एक रहस्यवादी पंथ है। सूफ़ी ईश्वर की आराधना प्रेमी और प्रेमिका के रूप में करते हैं। सूफ़ी लोग अपने उद्गम के आरम्भ से ही मूलधारा इस्लाम से प्राय: पृथक् थे। प्रारम्भ से ही इनका उद्देश्य मानवता की सेवा और आध्यात्मिकता की प्रगति रहा है। सूफ़ी मत के मानने वालों को 'सूफ़ीगर' या 'सूफ़ी' कहा जाता है। रहस्यवादियों का जन्म इस्लाम के अंतर्गत बहुत पहले ही हो गया था। यही बाद में सूफ़ी कहलाये थे। इनमें से अधिकांश ऐसे थे, जो महान् भक्त थे और समृद्धि के भोंड़े प्रदर्शन और इस्लामी साम्राज्य की स्थापना के बाद उत्पन्न नैतिक-पतन के कारण दु:खी थे। अतः इन सूफ़ियों को राज्य से कोई सरोकार नहीं था। बाद के दिनों में भी उनमे यह परम्परा जारी रही।

इतिहास

इस्लामी इतिहास में दसवीं शताब्दी अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसी समय अब्बासी ख़िलाफ़त के अवशेषों से तुर्कों का उदय हुआ और इसी काल में दर्शन और विश्वासों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। दर्शन के क्षेत्र में इस समय मुताजिल अथवा तर्क-बुद्धिवादी दर्शन का आधिपत्य समाप्त हुआ, जो क़ुरान और हदीस, हज़रत मुहम्मद और उनके सहयोगियों की परम्परा, पर आधारित थी। इसी समय सूफ़ी रहस्यवाद का जन्म हुआ। तर्क-बुद्धिवादियों पर संशयवाद और नास्तिकता फैलाने का आरोप लगाया गया। विशेष रूप से तर्क दिया गया कि अद्धैतवादी दर्शन, जो ईश्वर और उसकी सृष्टि के मूल रूप से एक होने की बात करता है, इसलिए धर्मद्रोही है, क्योंकि इससे स्रष्टा और सृष्टि में भेद समाप्त हो जाता है।

सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति

'अबू नस्र अल सिराज' की पुस्तक 'किताब-उल-लुमा' में किये गये उल्लेख के आधार पर माना जाता है कि सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द 'सूफ़' (ऊन) से हुई, जो एक प्रकार से ऊनी वस्त्र का सूचक है, जिसे प्रारम्भिक सूफ़ी लोग पहना करते थे। 'सफ़ा' से भी उत्पत्ति मानी जाती है। सफ़ा का अर्थ 'पवित्रता' या 'विशुद्धता' से है। इस प्रकार आचार-व्यवहार से पवित्र लोग सूफ़ी कहे जाते थे। एक अन्य मत के अनुसार- हजरत मुहम्मद साहब द्वारा मदीना में निर्मित मस्जिद के बाहर सफ़ा अर्थात 'मक्का की पहाड़ी' पर कुछ लोगों ने शरण लेकर अपने को ख़ुदा की अराधना में लीन कर लिया, इसलिए वे सूफ़ी कहलाये। सूफ़ी चिन्तक इस्लाम का अनुसरण करते थे, परन्तु वे कर्मकाण्ड का विरोध करते थे। इनके प्रादुर्भाव का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि उस समय (सल्तनत काल) उलेमा[1] वर्ग में लोगों के कट्टरपंथी दृष्टिकोण की प्रधानता थी। सल्तनत कालीन सुल्तान सुन्नी मुसलमान होने के कारण सुन्नी धर्मवेत्ताओं के आदेशों का पालन करते थे और साथ ही शिया सम्प्रदाय के लोगों को महत्व नहीं देते थे। सूफ़ियों ने इनकी प्रधानता को चुनौती दी तथा उलेमाओं के महत्व को नकार दिया।

शिक्षा

विभिन्न सूफ़ी सम्प्रदाय तथा उनके संस्थापक
सम्प्रदाय संस्थापक समय
चिश्ती सम्प्रदाय ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती 12 वीं शताब्दी
सुहरावर्दी सम्प्रदाय शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी 12वीं शताब्दी
कादिरी सम्प्रदाय शेख़ अब्दुल कादिर जिलानी 16वीं शताब्दी
शत्तारी सम्प्रदाय शाह अब्दुल शत्तारी 15वीं शताब्दी
फ़िरदौसी सम्प्रदाय बदरुद्दीन -
नक़्शबन्दी सम्प्रदाय ख़्वाजा बाकी विल्लाह 16वीं शताब्दी

प्रारम्भिक सूफ़ियों में 'रबिया' (8वीं सदी) एवं 'मंसूर हल्लाज' (10 वीं सदी) का नाम महत्त्वपूर्ण है। मंसूर हल्लाज ऐसे पहले सूफ़ी साधक थे, जो स्वयं को 'अनलहक' घोषित कर सूफ़ी विचारधारा के प्रतीक बने। सूफ़ी संसार में सबसे पहले इब्नुल अरबी द्वारा दिये गये सिद्धान्त 'वहदत-उल-वुजूद' का उलेमाओं ने जमकर विरोध किया। वहदत-उल-वुजूद का अर्थ है- 'ईश्वर एक है और वह संसार की सभी वस्तुओं का निमित्त है।' इस प्रकार वहदत-उल-वुजूद एकेश्वरवाद का समनार्थी है। उलेमा वर्ग के लोगों ने ब्रह्मा तथा जीव के मध्य मालिक एवं ग़ुलाम के रिश्ते की कल्पना की, दूसरी ओर सूफ़ियों ने ईश्वर को अदृश्य, सम्पूर्ण वास्तविकता और शाश्वत सौंदर्य के रूप में माना। सूफ़ी सन्त ईश्वर को 'प्रियतमा' एवं स्वयं को 'प्रियतम' मानते थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर की प्राप्ति प्रेम-संगीत से की जा सकती है। अतः सूफ़ियों ने सौन्दर्य एवं संगीत को अधिक महत्व दिया। सूफ़ी गुरु को अधिक महत्व देते थे, क्योंकि वे गुरु को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग का पथ प्रदर्शक मानते थे। सूफ़ी सन्त भौतिक एवं भोग विलास से युक्त जीवन से दूर सरल, सादे, संयमपूर्ण जीवन में आस्था रखते थे। प्रारम्भ में सूफ़ी आन्दोलन ख़ुरासान प्रांत के आस-पास विशेषकर बल्ख शहर एवं इराक तथा मिस्र में केन्द्रित रहा। भारत में इस आन्दोलनों का आरम्भ दिल्ली सल्तनत से पूर्व ही हो चुका था।

भारत में प्रवेश

'परम्परावादियों' की रचनाएँ इस्लामी काल की चार विचारधाराओं में बंट गई। इनमें से हनफ़ी विचारधारा सबसे अधिक उदारवादी थी। इसे ही पूर्वी तुर्कों ने अपनाया और ये पूर्वी तुर्क ही कालान्तर में भारत आये। रहस्यवादियों का जन्म इस्लाम के अंतर्गत बहुत पहले ही हो गया था। इन लोगों को ही बाद के समय में 'सूफ़ी' कहा जाने लगा। इनमें से अधिकांश ऐसे थे, जो महान् भक्त थे और समृद्धि के भोंडे प्रदर्शन और इस्लामी साम्राज्य की स्थापना के बाद उत्पन्न नैतिक-पतन के कारण दुखी थे। अतः इन सूफ़ियों को राज्य से कोई सरोकार नहीं था। ये लोग बादशाहों, राजा और महाराजाओं द्वारा प्रदान किये जाने वाले दान-उपहार आदि को स्वीकार नहीं करते थे। बाद के आने वाले समय में भी उनमे यह परम्परा जारी रही। महिला रहस्यवादी 'रबिया' (मृत्यु आठवीं शताब्दी) और 'मंसूर-बिन-हलाज' (मृत्यु दसवीं शताब्दी) जैसे प्रारम्भिक सूफ़ियों ने ईश्वर और व्यक्ति के बीच प्रेम सम्बन्ध पर बहुत बल दिया। किन्तु उनकी सर्वेश्वरवादी दृष्टि के कारण उनमें और परम्परावादी तत्वों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। इन परम्परावादियों ने अफ़वाहों के बल पर मंसूर को फाँसी लगवा दी। इसके बावजूद मुस्लिम जनता में सूफ़ीवादी विचार जड़ जमाते गये।

अलग़ज़ाली

सूफ़ी सन्त एवं उनकी उपाधियाँ
सूफ़ी सन्त उपाधि
शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया महबूबे इलाही
शेख़ नासिरुद्दीन महमूद चिराग-ए-दिल्ली
सैय्यद मुहम्मद गेसूदराज बन्दा नवाज
शेख़ अहमद सरहिन्दी मुजदिह आलिफसानी

अलग़ज़ाली, जिनकी मृत्यु 1127 ई. के लगभग हुई और जिन्हें परम्परावादी तत्व और सूफ़ी दोनों ही सम्मान की दृष्टि से देखते थे, रहस्यवाद और इस्लामी परम्परावाद के बीच मेल कराने का प्रयत्न किया। इसमें वह काफ़ी सफल भी हुए। उन्होंने यह कहकर कि ईश्वर और उसके गुणों का ज्ञान तर्क से न होकर आत्मज्ञान से ही हो सकता है, तर्कबुद्धिवादी दर्शन को एक और धक्का पहुँचाया। इस प्रकार दैवी पुस्तक 'क़ुरान' रहस्यवादियों के लिए महत्त्वपूर्ण थी।

बौद्ध तथा हिन्दू रीति-रिवाजों का प्रभाव

सूफ़ियों की आश्रम व्यवस्था, पश्चाताप, व्रत और प्राणायाम जैसी क्रियाओं के स्रोत, कुछ विद्वान कभी-कभी बौद्ध और हिन्दू यौगिक पद्धति में ढूँढते हैं। इस्लाम के उदय से पूर्व बौद्ध धर्म मध्य एशिया में फैला हुआ था और बुद्ध के संत होने कि कथाएँ इस्लामी कथाओं में भी सम्मिलित हो गयी थी। इस्लाम के उदय के पश्चात् भी योगी पश्चिमी एशिया में जाते रहे। संस्कृत की योग पर पुस्तक 'अमृत कुण्ड' का फ़ारसी में अनुवाद भी हुआ। अतः यह स्पष्ट है कि हिन्दू और बौद्ध कर्मकाण्डों और रीतियों को सूफ़ियों ने भारत आने से पहले ही आत्मसात कर लिया था। लेकिन यह विवाद का विषय ही है कि क्या बौद्ध कर्मकाण्डों और विशेष रूप से वेदान्त दर्शन ने सूफ़ी मत को बहुत अधिक प्रभावित किया है। दर्शन की उत्पत्ति का मूल बिन्दु खोजना बहुत कठिन होता है। सूफ़ी संत और कई आधुनिक विचारक सूफ़ी दर्शन का मूल 'क़ुरान' में ही ढूँढते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह नहीं है कि दर्शनों का मूल कहाँ है, बल्कि यह कि सूफ़ियों तथा हिन्दू योगियों और रहस्यवादियों के बीच प्रकृति, ईश्वर, आत्मा और पदार्थ के सम्बन्ध में विचारों में काफ़ी समानता है और यही बात पारस्परिक सहनशीलता और एक दूसरे के सिद्धातों को समझ सकने की बात को स्थापित करती है। सूफ़ी मत के मानवतावाद को तत्कालीन प्रसिद्ध फ़ारसी शायर, सानाइ ने बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है-

'आस्तिकता और नास्तिकता दोनों उसकी ओर दौड़ रहे हैं,
और उदघोषणा करते हैं एक साथ-'वह एक है, कोई नहीं बाँटता उसका राजय।'

विभाजन

इसी समय के आसपास सूफ़ी बारह वर्गों अथवा सिलसिलों में विभाजित हो गये। प्रत्येक 'सिलसिला' का एक नेता होता था, जो प्रमुख रहस्यवादी होता था और अपने शिष्यों के साथ 'ख़ानक़ाह' अर्थात आश्रम में रहता था। सूफ़ी विचारधारा में 'गुरु' अर्थात 'पीर' और 'शिष्य' अर्थात 'मुरीद' के बीच सम्बन्ध का महत्व बहुत अधिक था। प्रत्येक पीर अपना उत्तराधिकारी अर्थात 'बली' नियुक्त करता था, जो उसके बाद काम को आगे बढ़ाता था। सूफ़ी सिलसिले मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित हो गए। पहला है 'बा-शर', अर्थात वे जो इस्लामी विधान (शर) को मानकर चलते हैं, और दूसरा 'बे-शर', अर्थात् वे जो 'शर' से बंधे हुए नहीं हैं। भारत में दोनों सिलसिले मिलते हैं। यद्यपि इन सूफ़ी संतों ने अपने मत नहीं चलाये, किन्तु उनमें कुछ जनता में प्रसिद्ध हो गये और जिनका हिन्दू और मुस्लिम दोनों समान रूप से आदर देते हैं।

'बा-शर' सिलसिलों में से केवल दो ही उत्तर भारत में अधिक प्रचलित हुए और तेरहवीं तथा चोदहवीं शताब्दी में उनके अनुयायियों की संख्या भी बहुत बढ़ गयी। ये दो सिलसिले थे 'चिश्ती' और 'सुहरवर्दी'। चिश्ती सिलसिले की भारत में स्थापना 'ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ची' ने की थी, जो 1192 में पृथ्वीराज चौहान की पराजय और मृत्यु के कुछ समय बाद ही भारत आये थे। कुछ समय तो लाहौर और दिल्ली में रहने के बाद वे अजमेर जाकर बस गये, जो उस समय का एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक केन्द्र था और जहाँ मुसलमान भी काफ़ी संख्या में थे। इनकी गतिविधियों की कोई प्रामाणिक सामग्री नहीं है। उन्होंने कोई पुस्तक भी नहीं लिखी। किन्तु ऐसा लगता है कि उनके उत्तराधिकारियों के साथ-साथ उनकी प्रसिद्धी भी बढ़ती गयी।

सूफ़ी संतों का योगदान

शेख़ मोइनुद्दीन, जिनकी मृत्यु 1235 में हुई, उनके शिष्य थे- बख़्तयार काकी और उनके शिष्य हुए फ़रीद-उद्दीन गंज-ए-शकर। फ़रीद-उद्दीन ने 'हांसी' (आधुनिक हरियाणा) और 'अजोधन' (आधुनिक पंजाब), को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। उनका दिल्ली में भी बहुत मान था। वे जब भी दिल्ली आते थे, लोगों की बहुत बड़ी संख्या उनकी सेवा में उपस्थित होती थी। उनका दृष्टिकोण इतना विशाल और मानवीय था कि उनका कुछ काव्यवाद सिक्खों के धर्म-ग्रंथ 'आदि-ग्रंथ' में भी सम्मिलित किया गया। चिश्ची संतों में सबसे प्रसिद्ध संत हुए है 'निज़ामुद्दीन औलिया' और 'नसीरुद्दीन चिराग़-ए-दिल्ली'। ये संत हिन्दुओं सहित जनता के निम्न वर्गों के साथ मुक्त सम्बन्ध रखते थे। उनका जीवन बहुत पवित्र और सीधा-सादा था और वे लोगों से उनकी ज़ुबान हिन्दी या हिन्दवी में बातचीत करते थे। वे धर्म परिवर्तन कराने में विश्वास नहीं रखते थे, यद्यपि बाद में बहुत से परिवारों और वर्गों ने इन संतों की सदभावना के कारण धर्म-परिवर्तन कर लिया। सूफ़ी संतों ने अपने प्रवचनों मे ईश्वर की निकटता का आभास उत्पन्न करने के लिए गीत-संगीत की पद्धति अपनायी, जिसे 'समा' कहा जाता है। इससे वे और प्रसिद्ध हुए। इसके अतिरिक्त व अक्सर प्रवचन देने के लिए हिन्दी काव्य का प्रयोग करते थे, ताकि श्रोताओं पर अधिक प्रभाव पड़े। निज़ामुद्दीन औलिया ने योग की 'प्राणायाम पद्धित' अपनायी। इससे योगी उन्हें सिद्ध कहने लगे थे।

चौदहवीं शताब्दी के मध्य में 'नसीरुद्दीन चिराग़-ए-दिल्ली' की मृत्यु के पश्चात् चिश्ती दिल्ली में उतने प्रभावशाली नहीं रहे। परिणामतः चिश्ती संत इधर-उधर फैल गये और पूर्वी भारत तथा दक्षिणी भारत में अपना संदेश फैलाने लगे।

सुहरवर्दी सिलसिला

सुहरवर्दी सिलसिला भी उसी समय भारत आया, लेकिन उसका कार्यक्षेत्र मुख्यतः पंजाब और मुल्तान रहा। इस मत के सर्वाधिक प्रसिद्ध संत 'शेख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी' और 'हमीदुद्दीन नागौरी' हुए हैं। चिश्चियों की भाँति सुहरवर्दी संत फक्कड़ जीवन व्यतीत करने में विश्वास नहीं करते थे। वे राज्य की सेवा स्वीकार करते थे। उनमें से कुछ धर्म-विभाग के उच्च-पदाधिकारी भी थे। दूसरी ओर चिश्ती शासन की राजनीति से दूर रहते थे और शासकों और सरकारों की संगति से बचते थे। परन्तु इतना तय है कि दोनों ने ही जनता के विभिन्न वर्गों में जनमत बनाकर उनमें एक साथ रहने की भावना उत्पन्न करके शासकों की सहायता की।


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धर्मवेत्ता

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