"सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन की सेवा": अवतरणों में अंतर
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) No edit summary |
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{सनातन गोस्वामी विषय सूची}} | {{सनातन गोस्वामी विषय सूची}} | ||
[[सनातन गोस्वामी]] [[चैतन्य महाप्रभु]] के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी ने अपनी [[कुटिया]] के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते। साथ में निवेदन करते जंगली पत्तियों का बना अलोना साग। कुछ दन बीते ठाकुर को इस आटे के पिंड और अलोने साग को किसी प्रकार निगलते। संकोच में पड़कर वे अपने प्रेमी भक्त से कुछ न कह सके। पर अन्त में उनसे न रहा गया। स्वप्न में दर्शन देकर कहा- "सनातन, अलोने साग के साथ तुम्हारी अंगाकड़ी मेरे गले के नीचे नहीं उतरतीं और कब तक उसे जबरदस्ती ठेलता रहूँगा। उसके साथ थोड़ा नमक दिया करो न।" | |||
सनातन के नेत्रों से बह चली प्रेमाश्रु की धारा। | सनातन के नेत्रों से बह चली प्रेमाश्रु की धारा। | ||
==सनातन की | ==सनातन की निष्ठुरता== | ||
कातर स्वर से उन्होंने कहा- "प्रभु मैं ठहरा आपका एक तुच्छ सेवक, जिसका डोर-कौपीन के सिवा कोई सम्बल नहीं। आप आज नमक की कह रहे हैं, कल गुड़ की कहेंगे, रसों राजभोग की, तो मैं कहाँ से लाऊँगा? यदि आपकी राजभोग की इच्छा है, तो स्वयं ही उसकी व्यवस्था कर लें।" यह कैसी सनातन की निष्टुरता अपने ही प्राणप्रिय मदनगोपाल के प्रति! जिनकी सेवा की तीव्र आकाँक्षा ने उन्हें पागल कर रखा था, उन्हीं की सेवा में ऐसी कृपणता और उदासीनता! ऐसी कौन सी वस्तु थी, जिसे विरक्त होते हुए भी मदनगोपाल की सेवा के लिए वे संग्रह नहीं कर सकते थे, जब उन जैसे महात्मा की इच्छापूर्ति करने के किसी भी अवसर के लिए बड़े-बड़े धनी व्यक्ति लालायित रहते थे? बात कुछ गूढ़ है। थोड़ा गहराई में उतरे बिना समझ में आने की नहीं। सनातन मदनगोपाल की सेवा के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर सकते थे, पर उस भजन-पथ को नहीं त्याग सकते थे, जो उनकी सर्वोत्तम सेवा का अधिकार जन्माने के लिए आवश्यक था। <br /> | कातर स्वर से उन्होंने कहा- "प्रभु मैं ठहरा आपका एक तुच्छ सेवक, जिसका डोर-कौपीन के सिवा कोई सम्बल नहीं। आप आज नमक की कह रहे हैं, कल गुड़ की कहेंगे, रसों राजभोग की, तो मैं कहाँ से लाऊँगा? यदि आपकी राजभोग की इच्छा है, तो स्वयं ही उसकी व्यवस्था कर लें।" यह कैसी सनातन की निष्टुरता अपने ही प्राणप्रिय मदनगोपाल के प्रति! जिनकी सेवा की तीव्र आकाँक्षा ने उन्हें पागल कर रखा था, उन्हीं की सेवा में ऐसी कृपणता और उदासीनता! ऐसी कौन सी वस्तु थी, जिसे विरक्त होते हुए भी मदनगोपाल की सेवा के लिए वे संग्रह नहीं कर सकते थे, जब उन जैसे महात्मा की इच्छापूर्ति करने के किसी भी अवसर के लिए बड़े-बड़े धनी व्यक्ति लालायित रहते थे? बात कुछ गूढ़ है। थोड़ा गहराई में उतरे बिना समझ में आने की नहीं। सनातन मदनगोपाल की सेवा के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर सकते थे, पर उस भजन-पथ को नहीं त्याग सकते थे, जो उनकी सर्वोत्तम सेवा का अधिकार जन्माने के लिए आवश्यक था। <br /> | ||
उनकी सर्वोत्तम सेवा है मानसी-सेवा। मानसी-सेवा में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता। सेवा के जो उपकरण वैकुण्ठ में भी प्राप्त न होते हो उन्हें साधक मानसी-सेवा में स्वेच्छा से जुटा सकता है। देश, काल, समाज और प्रकृति के नियमों की सीमा से बाहर रहकर इष्ट की प्राणभर मनचाही सेवा कर उन्हें सुखी कर सकता है। मानसी-सेवा का अधिकार प्राप्त उसे होता है, जिसका अन्त:करण शुद्ध होता है। अन्त:करण की शुद्धि के लिये त्याग-वैराग्ययुक्त एकांतिक भजन-पथ का अनुशीलन आवश्यक है। यदि सनातन मदनगोपाल के राजभोग के लिए तरह-तरह की सामग्री जुटाने में लग जाते, तो उनकी परापेक्षा बढ़ जाती और वे एकांतिक भजन-पथ से च्युत हो जाते। इष्ट की सर्वोत्तम मानसी-सेवा की योग्यता प्राप्त करने के लिए उनकी व्यावहारिक सेवा की सीमा बाँधना आवश्यक था।<ref>व्यावहारिक सेवा की सीमा वैरागियों और मानसी सेवा के अधिकारी साधकों के लिए ही है, साधारण लोगों के लिए नहीं। साधारण लोगों के लिए सामर्थ्यानुसार उत्तम से उत्तम ठाकुर-सेवा का शास्त्र-विधान है। </ref> | उनकी सर्वोत्तम सेवा है मानसी-सेवा। मानसी-सेवा में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता। सेवा के जो उपकरण वैकुण्ठ में भी प्राप्त न होते हो उन्हें साधक मानसी-सेवा में स्वेच्छा से जुटा सकता है। देश, काल, समाज और प्रकृति के नियमों की सीमा से बाहर रहकर इष्ट की प्राणभर मनचाही सेवा कर उन्हें सुखी कर सकता है। मानसी-सेवा का अधिकार प्राप्त उसे होता है, जिसका अन्त:करण शुद्ध होता है। अन्त:करण की शुद्धि के लिये त्याग-वैराग्ययुक्त एकांतिक भजन-पथ का अनुशीलन आवश्यक है। यदि सनातन मदनगोपाल के राजभोग के लिए तरह-तरह की सामग्री जुटाने में लग जाते, तो उनकी परापेक्षा बढ़ जाती और वे एकांतिक भजन-पथ से च्युत हो जाते। इष्ट की सर्वोत्तम मानसी-सेवा की योग्यता प्राप्त करने के लिए उनकी व्यावहारिक सेवा की सीमा बाँधना आवश्यक था।<ref>व्यावहारिक सेवा की सीमा वैरागियों और मानसी सेवा के अधिकारी साधकों के लिए ही है, साधारण लोगों के लिए नहीं। साधारण लोगों के लिए सामर्थ्यानुसार उत्तम से उत्तम ठाकुर-सेवा का शास्त्र-विधान है। </ref> | ||
==जगदगुरु का दायित्व== | ==जगदगुरु का दायित्व== | ||
इसके अतिरिक्त स्वयं उनके इष्ट ने महाप्रभु में जगद्गुरु का दायित्व ओटते हुए उन्हें आज्ञा दी थी। वैराग्यमय जीवन का चरम आदर्श स्थापित करने की। गुरु-आज्ञा ईश्वराज्ञा से भी अधिक बलवती है। तब वे गुरुरूपी इष्ट की आज्ञा का पालन करते या उपास्यरूपी इष्ट की इच्छा की पूर्ति करते? इसीलिए उन्हें दो टूक कह देना पड़ा मदनगोपालजी से-अपने उत्तम भोग की व्यवस्था आप स्वयं कर लें। यदि कहा जाय कि ऐसा कह सनातन गोस्वामी ने उनकी मर्यादा की हानि की, तो इसके लिए भी मूल रूप से दोषी मदनगोपाल ही हैं। वे क्या जानते नहीं थे कि सनातन एक निष्किञ्चन साधक हैं, जिनका डोर-कौपीन के सिवा दूसरा कोई सम्बल नहीं? उनकी सेवा अंगीकार करने के पहले उन्हें नहीं समझ लेना चाहिए था कि उन्हें भी उन्हीं की तरह रूखी-सूखी खाकर रहना पड़ेगा? असल बात यह है कि उनसे अपने प्रेमी भक्तों के साथ चुहल किये बिना भी तो नहीं रहा जाता। वे उनके साथ जानबूझ कर अटपटा व्यवहार कर, उन्हें झूठा-सच्चा उलहना देकर या किसी न किसी प्रकार उन्हें उपहासास्पद स्थिति में डालकर और उनकी खरी-खोटी सुनकर प्रसन्न होते हैं। उन रसिक-शेखर को उनकी खरी-खोटी जितनी अच्छी लगती है, उतनी वेद-स्तुति भी अच्छी नहीं लगती। | इसके अतिरिक्त स्वयं उनके इष्ट ने महाप्रभु में जगद्गुरु का दायित्व ओटते हुए उन्हें आज्ञा दी थी। वैराग्यमय जीवन का चरम आदर्श स्थापित करने की। गुरु-आज्ञा ईश्वराज्ञा से भी अधिक बलवती है। तब वे गुरुरूपी इष्ट की आज्ञा का पालन करते या उपास्यरूपी इष्ट की इच्छा की पूर्ति करते? इसीलिए उन्हें दो टूक कह देना पड़ा मदनगोपालजी से-अपने उत्तम भोग की व्यवस्था आप स्वयं कर लें। यदि कहा जाय कि ऐसा कह सनातन गोस्वामी ने उनकी मर्यादा की हानि की, तो इसके लिए भी मूल रूप से दोषी मदनगोपाल ही हैं। वे क्या जानते नहीं थे कि सनातन एक निष्किञ्चन साधक हैं, जिनका डोर-कौपीन के सिवा दूसरा कोई सम्बल नहीं? उनकी सेवा अंगीकार करने के पहले उन्हें नहीं समझ लेना चाहिए था कि उन्हें भी उन्हीं की तरह रूखी-सूखी खाकर रहना पड़ेगा? असल बात यह है कि उनसे अपने प्रेमी भक्तों के साथ चुहल किये बिना भी तो नहीं रहा जाता। वे उनके साथ जानबूझ कर अटपटा व्यवहार कर, उन्हें झूठा-सच्चा उलहना देकर या किसी न किसी प्रकार उन्हें उपहासास्पद स्थिति में डालकर और उनकी खरी-खोटी सुनकर प्रसन्न होते हैं। उन रसिक-शेखर को उनकी खरी-खोटी जितनी अच्छी लगती है, उतनी वेद-स्तुति भी अच्छी नहीं लगती। | ||
{{लेख क्रम2 |पिछला=सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन मन्दिर का निर्माण|पिछला शीर्षक=सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन मन्दिर का निर्माण|अगला शीर्षक=सनातन गोस्वामी का भक्ति सिद्धान्त|अगला=सनातन गोस्वामी का भक्ति सिद्धान्त}} | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}} |
05:27, 16 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण
सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी ने अपनी कुटिया के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते। साथ में निवेदन करते जंगली पत्तियों का बना अलोना साग। कुछ दन बीते ठाकुर को इस आटे के पिंड और अलोने साग को किसी प्रकार निगलते। संकोच में पड़कर वे अपने प्रेमी भक्त से कुछ न कह सके। पर अन्त में उनसे न रहा गया। स्वप्न में दर्शन देकर कहा- "सनातन, अलोने साग के साथ तुम्हारी अंगाकड़ी मेरे गले के नीचे नहीं उतरतीं और कब तक उसे जबरदस्ती ठेलता रहूँगा। उसके साथ थोड़ा नमक दिया करो न।"
सनातन के नेत्रों से बह चली प्रेमाश्रु की धारा।
सनातन की निष्ठुरता
कातर स्वर से उन्होंने कहा- "प्रभु मैं ठहरा आपका एक तुच्छ सेवक, जिसका डोर-कौपीन के सिवा कोई सम्बल नहीं। आप आज नमक की कह रहे हैं, कल गुड़ की कहेंगे, रसों राजभोग की, तो मैं कहाँ से लाऊँगा? यदि आपकी राजभोग की इच्छा है, तो स्वयं ही उसकी व्यवस्था कर लें।" यह कैसी सनातन की निष्टुरता अपने ही प्राणप्रिय मदनगोपाल के प्रति! जिनकी सेवा की तीव्र आकाँक्षा ने उन्हें पागल कर रखा था, उन्हीं की सेवा में ऐसी कृपणता और उदासीनता! ऐसी कौन सी वस्तु थी, जिसे विरक्त होते हुए भी मदनगोपाल की सेवा के लिए वे संग्रह नहीं कर सकते थे, जब उन जैसे महात्मा की इच्छापूर्ति करने के किसी भी अवसर के लिए बड़े-बड़े धनी व्यक्ति लालायित रहते थे? बात कुछ गूढ़ है। थोड़ा गहराई में उतरे बिना समझ में आने की नहीं। सनातन मदनगोपाल की सेवा के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर सकते थे, पर उस भजन-पथ को नहीं त्याग सकते थे, जो उनकी सर्वोत्तम सेवा का अधिकार जन्माने के लिए आवश्यक था।
उनकी सर्वोत्तम सेवा है मानसी-सेवा। मानसी-सेवा में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता। सेवा के जो उपकरण वैकुण्ठ में भी प्राप्त न होते हो उन्हें साधक मानसी-सेवा में स्वेच्छा से जुटा सकता है। देश, काल, समाज और प्रकृति के नियमों की सीमा से बाहर रहकर इष्ट की प्राणभर मनचाही सेवा कर उन्हें सुखी कर सकता है। मानसी-सेवा का अधिकार प्राप्त उसे होता है, जिसका अन्त:करण शुद्ध होता है। अन्त:करण की शुद्धि के लिये त्याग-वैराग्ययुक्त एकांतिक भजन-पथ का अनुशीलन आवश्यक है। यदि सनातन मदनगोपाल के राजभोग के लिए तरह-तरह की सामग्री जुटाने में लग जाते, तो उनकी परापेक्षा बढ़ जाती और वे एकांतिक भजन-पथ से च्युत हो जाते। इष्ट की सर्वोत्तम मानसी-सेवा की योग्यता प्राप्त करने के लिए उनकी व्यावहारिक सेवा की सीमा बाँधना आवश्यक था।[1]
जगदगुरु का दायित्व
इसके अतिरिक्त स्वयं उनके इष्ट ने महाप्रभु में जगद्गुरु का दायित्व ओटते हुए उन्हें आज्ञा दी थी। वैराग्यमय जीवन का चरम आदर्श स्थापित करने की। गुरु-आज्ञा ईश्वराज्ञा से भी अधिक बलवती है। तब वे गुरुरूपी इष्ट की आज्ञा का पालन करते या उपास्यरूपी इष्ट की इच्छा की पूर्ति करते? इसीलिए उन्हें दो टूक कह देना पड़ा मदनगोपालजी से-अपने उत्तम भोग की व्यवस्था आप स्वयं कर लें। यदि कहा जाय कि ऐसा कह सनातन गोस्वामी ने उनकी मर्यादा की हानि की, तो इसके लिए भी मूल रूप से दोषी मदनगोपाल ही हैं। वे क्या जानते नहीं थे कि सनातन एक निष्किञ्चन साधक हैं, जिनका डोर-कौपीन के सिवा दूसरा कोई सम्बल नहीं? उनकी सेवा अंगीकार करने के पहले उन्हें नहीं समझ लेना चाहिए था कि उन्हें भी उन्हीं की तरह रूखी-सूखी खाकर रहना पड़ेगा? असल बात यह है कि उनसे अपने प्रेमी भक्तों के साथ चुहल किये बिना भी तो नहीं रहा जाता। वे उनके साथ जानबूझ कर अटपटा व्यवहार कर, उन्हें झूठा-सच्चा उलहना देकर या किसी न किसी प्रकार उन्हें उपहासास्पद स्थिति में डालकर और उनकी खरी-खोटी सुनकर प्रसन्न होते हैं। उन रसिक-शेखर को उनकी खरी-खोटी जितनी अच्छी लगती है, उतनी वेद-स्तुति भी अच्छी नहीं लगती।
सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन की सेवा |
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ व्यावहारिक सेवा की सीमा वैरागियों और मानसी सेवा के अधिकारी साधकों के लिए ही है, साधारण लोगों के लिए नहीं। साधारण लोगों के लिए सामर्थ्यानुसार उत्तम से उत्तम ठाकुर-सेवा का शास्त्र-विधान है।