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{{श्रावस्ती विषय सूची}}{{चयनित लेख}}
{{ब्रज सूचना बक्सा}}
{{सूचना बक्सा पर्यटन
'''ब्रज''' शब्द के अर्थ का काल-क्रमानुसार ही विकास हुआ है। [[वेद|वेदों]] और [[रामायण]]-[[महाभारत]] के काल में जहाँ इसका प्रयोग ‘गोष्ठ’-'गो-स्थान’ जैसे लघु स्थल के लिये होता था। वहाँ पौराणिक काल में ‘गोप-बस्ती’ जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये किया जाने लगा। उस समय तक यह शब्द एक प्रदेश के लिए प्रयुक्त न होकर क्षेत्र विशेष का ही प्रयोजन स्पष्ट करता था। भागवत में ‘ब्रज’ क्षेत्र विशेष को इंगित करते हुए ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है। 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेश के अर्थ में होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तब उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था। उस समय [[मथुरा]] नगर ‘ब्रज’ में सम्मिलित नहीं माना जाता था। [[सूरदास]] तथा अन्य [[ब्रजभाषा]] कवियों ने ‘ब्रज’ और मथुरा का पृथक रूप में ही कथन किया है।
|चित्र=Jain-Temple-Sravasti.jpg
 
|चित्र का नाम=प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती
[[कृष्ण]] उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी सुविस्तृत हो गया था। उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज [[संस्कृति]] और [[ब्रजभाषा|ब्रज-भाषा]] से प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे। वर्तमान काल में मथुरा नगर सहित मथुरा ज़िले का अधिकांश भाग तथा [[राजस्थान]] के [[डीग भरतपुर|डीग]] और कामवन का कुछ भाग, जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है। ब्रज संस्कृति और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है। उक्त समस्त भू-भाग के प्राचीन नाम, मधुबन, [[शूरसेन]], मधुरा, मधुपुरी, मथुरा और मथुरा मंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या ब्रजमंडल हैं। यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में समय-समय पर अन्तर होता रहा है। इस भू-भाग की धार्मिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपरा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है।
|विवरण=[[भारत]] के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के [[गोंडा ज़िला|गोंडा]]-[[बहराइच ज़िला|बहराइच]] ज़िलों की सीमा पर [[श्रावस्ती ज़िला|श्रावस्ती ज़िले]] में यह [[बौद्ध]] एवं [[जैन]] [[तीर्थ स्थान]] स्थित है।  
=='व्रज' शब्द की परिभाषा==
|राज्य=[[उत्तर प्रदेश]]
श्री शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोश में 'व्रज' शब्द की परिभाषा-
|केन्द्र शासित प्रदेश=
प्रस्तुति <ref>डॉ.चन्द्रकान्ता चौधरी</ref>
|ज़िला=[[श्रावस्ती ज़िला|श्रावस्ती]]
{| class="bharattable-green"
|निर्माता=
|-
|स्वामित्व=
! व्रज्- (भ्वादिगण परस्मैपद व्रजति)
|प्रबंधक=
! व्रजः-(व्रज्+क)
|निर्माण काल=प्राचीन काल से ही रामायण, महाभारत, जैन, बौद्ध आदि अनेक उल्लेख
|-
|स्थापना=
| style="width:50%" valign="top"|
|भौगोलिक स्थिति=[http://maps.google.co.in/maps?q=27.517073%C2%B082.050619%C2%B0&hl=en&ie=UTF8&sll=27.504226,82.040203&sspn=0.006538,0.011362&vpsrc=0&t=m&z=17 उत्तर- 27.517073°; पूर्व- 82.050619°]
*1.जाना, चलना, प्रगति करना-नाविनीतर्व्रजद् धुर्यैः<ref>मनुस्मृति 4।67</ref>
|मार्ग स्थिति=श्रावस्ती [[बलरामपुर]] से 17 कि.मी., [[लखनऊ]] से 176 कि.मी., [[कानपुर]] से 249 कि.मी., [[इलाहाबाद]] से 262 कि.मी., [[दिल्ली]] से 562 कि.मी. की दूरी पर है।  
*2.पधारना, पहुँचना, दर्शन करना-मामेकं शरणं ब्रज-भगवद्गीता<ref>भगवद्गीता 18।66</ref>
|प्रसिद्धि=पुरावशेष। ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल।
*3.विदा होना, सेवा से निवृत्त होना, पीछे हटना
|कब जाएँ=[[अक्टूबर]] से [[मार्च]]
*4.(समय का) बीतना-इयं व्रजति यामिनी त्यज नरेन्द्र निद्रारसम् विक्रमांकदेवचरित।<ref>11।74, (यह धातु प्रायः गम् या धातु की भाँति प्रयुक्त होती है</ref>
|कैसे पहुँचें=हवाई जहाज़, रेल, बस आदि से पहुँचा जा सकता है।
*अनु-
|हवाई अड्डा=लखनऊ हवाई अड्डा
**1.बाद में जाना, अनुगमन करना<ref>मनुस्मृति 11।111  कु.7।38</ref>
|रेलवे स्टेशन=बलरामपुर रेलवे स्टेशन
**2.अभ्यास करना, सम्पन्न करना
|बस अड्डा=मेगा टर्मिनस गोंडा, श्रावस्ती शहर से 50 किलोमीटर की दूरी पर है
**3.सहारा लेना,
|यातायात=टैक्सी और बस
*आ-आना, पहुँचना,
|क्या देखें=[[पुरावशेष]]
*परि-भिक्षु या साधु के रूप में इधर उधर घूमना, सन्न्यासी या परिव्राजक हो जाना,  
|कहाँ ठहरें=
**1.निर्वासित होना,  
|क्या खायें=
**2.संसारिक वासनाओं को छोड़ देना, चौथे आश्रम में प्रविष्ट होना, अर्थात् सन्न्यासी हो जाना<ref>मनु.6।38,8।363</ref>
|क्या ख़रीदें=
| style="width:50%" valign="top"|
|एस.टी.डी. कोड=
*1.समुच्चय, संग्रह, रेवड़, समूह, नेत्रव्रजाःपौरजनस्य तस्मिन् विहाय सर्वान्नृपतीन्निपेतुः<ref>रघुवंश 6।7, 7।67, शिशुपालवध 6।6,14।33</ref>
|ए.टी.एम=
*2.ग्वालों के रहने का स्थान
|सावधानी=
*3.गोष्ठ, गौशाला-शिशुपालवध 2।64
|मानचित्र लिंक=[http://maps.google.co.in/maps?q=Shravasti&hl=en&ll=27.599586,82.09259&spn=0.536701,1.352692&client=firefox-a&hq=Shravasti&t=m&z=10&vpsrc=6&iwloc=A गूगल मानचित्र]
*4.आवास, विश्रामस्थल
|संबंधित लेख=[[जेतवन श्रावस्ती|जेतवन]], [[शोभनाथ मन्दिर श्रावस्ती|शोभनाथ मन्दिर]], [[कौशल महाजनपद]] आदि
*5.सड़क, मार्ग
|शीर्षक 1=[[भाषा]]
*6.बादल,
|पाठ 1=[[हिन्दी]], [[अंग्रेज़ी]] और [[उर्दू भाषा|उर्दू]]
*7.मथुरा के निकट एक ज़िला।
|शीर्षक 2=
**सम.-अग्ङना,
|पाठ 2=
**युवति:-(स्त्री.) व्रज में रहने वाली स्त्री, ग्वालन-भामी. 2|165,
|अन्य जानकारी='श्रावस्ती' न केवल [[बौद्ध]] और [[जैन]] धर्मों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था अपितु यह ब्राह्मण धर्म एवं [[वेद|वेद विद्या]] का भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था।
**अजिरम-गोशाला,
|बाहरी कड़ियाँ=[http://shravasti.nic.in/ आधिकारिक वेबसाइट]
**किशोर:-नाथ:, मोहन:, वर:, वल्ल्भ: कृष्ण के विशेषण।
|अद्यतन=
|}
 
{| class="bharattable-green"
|-
! व्रजनम् (व्रज+ल्युट्)
! व्रज्या (व्रज्+क्यप्+टाप्)
|-
| style="width:50%" valign="top" |
*1.घूमना, फिरना, यात्रा करना
*2.निर्वासन, देश निकाला
| style="width:50%" valign="top" |
*1.साधु या भिक्षु के रूप में इधर उधर घूमना,
*2.आक्रमण, हमला, प्रस्थान,
*3.खेड़, समुदाय, जनजाति या क़बीला, संम्प्रदाय,
*4.रंगभूमि, नाट्यशाला।
|}
 
==भौगोलिक स्थिति==
* आज जिसे हम ब्रज क्षेत्र मानते हैं उसकी दिशाऐं, उत्तर दिशा में पलवल ([[हरियाणा]]), दक्षिण में [[ग्वालियर]] ([[मध्य प्रदेश]]), पश्चिम में [[भरतपुर]] ([[राजस्थान]]) और पूर्व में [[एटा]] ([[उत्तर प्रदेश]]) को छूती हैं।
* ब्रज भाषा, रीति-रिवाज, पहनावा और ऐतिहासिक तथ्य इस सीमा के सहज आधार हैं।
* [[मथुरा]]-[[वृन्दावन]] ब्रज के केन्द्र हैं।
* मथुरा-वृन्दावन की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार है- [[एशिया]] > [[भारत]] > [[उत्तर प्रदेश]] > मथुरा
* उत्तर- 27° 41' - पूर्व -77° 41'
* मार्ग स्थिति- राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 2
* [[दिल्ली]]-[[आगरा]] मार्ग पर दिल्ली से 146 किमी
 
==ब्रज क्षेत्र==
[[चित्र:Kedarnath-Temple-Kamyavan-Kama-1.jpg|केदारनाथ मंदिर, [[काम्यवन]]|thumb|250px]]
ब्रज को यदि ब्रज-भाषा बोलने वाले क्षेत्र से परिभाषित करें तो यह बहुत विस्तृत क्षेत्र हो जाता है। इसमें [[पंजाब]] से [[महाराष्ट्र]] तक और राजस्थान से [[बिहार]] तक के लोग भी ब्रज भाषा के शब्दों का प्रयोग बोलचाल में प्रतिदिन करते हैं। कृष्ण से तो पूरा विश्व परिचित है। ऐसा लगता है कि ब्रज की सीमाऐं निर्धारित करने का कार्य आसान नहीं है, फिर भी ब्रज की सीमाऐं तो हैं ही और उनका निर्धारण भी किया गया है। पहले यह पता लगाऐं कि ब्रज शब्द आया कहाँ से और कितना पुराना है?
वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में [[शूरसेन]] जनपद के नाम से प्रसिद्ध था। ई. सातवीं शती में जब चीनी यात्री [[हुएन-सांग]] यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था। दक्षिण-पूर्व में [[मथुरा]] राज्य की सीमा [[जेजाकभुक्ति]] (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी। वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है। प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है। शूरसेन जनपद की सीमाऐं समय-समय पर बदलती रहीं। इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी। कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ।
 
वैदिक साहित्य में इसका प्रयोग प्राय: पशुओं के समूह, उनके चरने के स्थान (गोचर भूमि) या उनके बाड़े के अर्थ में मिलता है। [[रामायण]], [[महाभारत]] तथा परवर्ती [[संस्कृत साहित्य]] में भी प्राय: इन्हीं अर्थों में ब्रज का शब्द मिलता है। [[पुराण|पुराणों]] में कहीं-कहीं स्थान के अर्थ में ब्रज का प्रयोग आया है, और वह भी संभवत: [[गोकुल]] के लिये। ऐसा प्रतीत होता है कि जनपद या प्रदेश के अर्थ में ब्रज का व्यापक प्रयोग ईस्वी चौदहवीं शती के बाद से प्रारम्भ हुआ। उस समय मथुरा प्रदेश में कृष्ण-भक्ति की एक नई लहर उठी, जिसे जनसाधारण तक पहुँचाने के लिये यहाँ की शौरसेनी प्राकृत से एक कोमल-कांत भाषा का आविर्भाव हुआ। इसी समय के लगभग [[मथुरा]] जनपद की, जिसमें अनेक वन उपवन एवं पशुओं के लिये बड़े ब्रज या चरागाह थे, ब्रज (भाषा में ब्रज) संज्ञा प्रचलित हुई होगी।
[[चित्र:Banke-Bihari-Temple.jpg|[[बांके बिहारी मन्दिर वृन्दावन|बांके बिहारी मन्दिर]], [[वृन्दावन]]|thumb|left|250px]]
ब्रज प्रदेश में आविर्भूत नई भाषा का नाम भी स्वभावत: ब्रजभाषा रखा गया। इस कोमल भाषा के माध्यम द्वारा ब्रज ने उस साहित्य की सृष्टि की जिसने अपने माधुर्य-रस से [[भारत]] के एक बड़े भाग को आप्लावित कर दिया। इस वर्णन से पता चलता है कि सातवीं शती में मथुरा राज्य के अन्तर्गत वर्तमान मथुरा-[[आगरा]] ज़िलों के अतिरिक्त आधुनिक [[भरतपुर]] तथा [[धौलपुर]] ज़िले और ऊपर मध्यभारत का उत्तरी लगभग आधा भाग रहा होगा। प्राचीन [[शूरसेन]] या मथुरा जनपद का प्रारम्भ में जितना विस्तार था उसमें [[हुएन-सांग]] के समय तक क्या हेर-फेर होते गये, इसके संबंध में हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते, क्योंकि हमें प्राचीन साहित्य आदि में ऐसे प्रमाण नहीं मिलते जिनके आधार पर विभिन्न कालों में इस जनपद की लम्बाई-चौड़ाई का ठीक पता लग सके।
 
====आधुनिक सीमाऐं====
सातवीं शती के बाद से मथुरा राज्य की सीमाऐं घटती गईं। इसका प्रधान कारण समीप के [[कन्नौज]] राज्य की उन्नति थी, जिसमें मथुरा तथा अन्य पड़ोसी राज्यों के बढ़े भू-भाग सम्मिलित हो गये। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से जो कुछ पता चलता है वह यह कि शूरसेन या [[शौरसेन]] अथवा मथुरा प्रदेश के उत्तर में [[कुरुदेश]] (आधुनिक दिल्ली और उसके आस-पास का प्रदेश) था, जिसकी राजधानी [[इन्द्रप्रस्थ]] तथा [[हस्तिनापुर]] थी। दक्षिण में [[चेदि|चेदि राज्य]] (आधुनिक [[बुंदेलखंड]] तथा उसके समीप का कुछ भाग) था, जिसकी राजधानी का नाम था सूक्तिमती नगर। पूर्व में [[पंचाल]] राज्य (आधुनिक रुहेलखंड) था, जो दो भागों में बँटा हुआ था - उत्तर पंचाल तथा दक्षिण पंचाल। उत्तर वाले राज्य की राजधानी [[अहिच्छत्र]] (बरेली ज़िले में वर्तमान रामनगर) और दक्षिण वाले की [[कांपिल्य]] (आधुनिक कंपिल, ज़िला फर्रूख़ाबाद) थी। शूरसेन के पश्चिम वाला जनपद [[मत्स्य]] (आधुनिक [[अलवर]] रियासत तथा [[जयपुर]] का पूर्वी भाग) था। इसकी राजधानी [[विराट नगर]] (आधुनिक वैराट, जयपुर में) थी।
 
==ब्रज नामकरण और उसका अभिप्राय==
[[चित्र:gokul-ghat.jpg|गोकुल घाट, [[गोकुल]]|thumb|250px]]
कोशकारों ने ब्रज के तीन अर्थ बतलाये हैं - (गायों का खिरक), मार्ग और वृंद (झुंड) - गोष्ठाध्वनिवहा व्रज:<ref>अमर कोश) 3-3-30</ref>
इससे भी गायों से संबंधित स्थान का ही बोध होता है। [[सायण]] ने सामान्यत: 'व्रज' का अर्थ गोष्ठ किया है। गोष्ठ के दो प्रकार हैं :-
'खिरक`- वह स्थान जहाँ गायें, बैल, बछड़े आदि को बाँधा जाता है।
 
गोचर भूमि- जहाँ गायें चरती हैं।
इन सब से भी गायों के स्थान का ही बोध होता है। इस संस्कृत शब्द `व्रज` से ब्रज भाषा का शब्द `ब्रज' बना है।
 
पौराणिक साहित्य में ब्रज (व्रज) शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर- भूमि के अर्थों में प्रयुक्त हुआ, अथवा गायों के खिरक (बाड़ा) के अर्थ में आया है। `यं त्वां जनासो भूमि अथसंचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ।' (10 - 4 - 2) अर्थात- शीत से पीड़ित गायें उष्णता प्राप्ति के लिए इन गोष्ठों में प्रवेश करती हैं।`व्यू व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीरव्रञ्छुचय: पावका।(4 - 51 - 2) अर्थात - प्रज्वलित अग्नि 'व्रज' के द्वारों को खोलती है।
[[यजुर्वेद]] में गायों के चरने के स्थान को `व्रज' और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है - `व्रजं गच्छ गोष्ठान्`<ref>यजुर्वेद 1 - 25</ref> शुक्ल यजुर्वेद में सुन्दर सींगो वाली गायों के विचरण-स्थान से `व्रज' का संकेत मिलता है। [[अथर्ववेद]]' में एक स्थान पर `व्रज' स्पष्टत: गोष्ठ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। `अयं घासों अयं व्रज इह वत्सा निवध्नीय:'<ref>अथर्ववेद (4 - 38 - 7</ref> अर्थात यह घास है और यह व्रज है जहाँ हम बछडी को बाँधते हैं। उसी वेद में एक संपूर्ण सूक्त<ref>अथर्ववेद(2 - 26 - 1</ref> ही गोशालाओं से संबंधित है।
[[चित्र:Vima Taktu.jpg|[[विम तक्षम]], [[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]|thumb|left|200px]]
श्रीमद् भागवत और [[हरिवंश पुराण]] में `व्रज' शब्द का प्रयोग गोप-बस्ती के अर्थ में ही हुआ है, - `व्रजे वसन् किमकसेन् मधुपर्या च केशव:'<ref>भागवत् 10 -1-10</ref> तद व्रजस्थानमधिकम् शुभे काननावृतम्<ref>हरिवंश, विष्णु पर्व 6 - 30</ref> [[स्कंद पुराण]] में महर्षि शांडिल्य ने `व्रज' शब्द का अर्थ `व्याप्ति' करते हुए उसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है,<ref>वैष्णव खंड भागवत माहात्म्य, 1 -16 - 20</ref> किंतु यह, अर्थ व्रज की आध्यात्मिकता से संबंधित है।
कुछ विद्वानों ने निम्न संभावनाएं भी प्रकट की हैं -
[[बौद्ध]] काल में [[मथुरा]] के निकट `वेरंज' नामक एक स्थान था। कुछ विद्वानों की प्रार्थना पर [[गौतम बुद्ध]] वहाँ पधारे थे। वह स्थान वेरंज ही कदाचित कालांतर में `विरज' या `व्रज' के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
[[यमुना नदी|यमुना]] को `विरजा' भी कहते हैं। विरजा का क्षेत्र होने से मथुरा मंडल `विरज' या `व्रज` कहा जाने लगा।
[[मथुरा]] के युद्धोपरांत जब [[द्वारिका]] नष्ट हो गई, तब श्री[[कृष्ण]] के प्रपौत्र वज्र ([[वज्रनाभ]]) मथुरा के राजा हुए थे। उनके नाम पर मथुरा मंडल भी 'वज्र प्रदेश` या `व्रज प्रदेश' कहा जाने लगा।
नामकरण से संबंधित उक्त संभावनाओं का भाषा विज्ञान आदि की दृष्टि से कोई प्रमाणिक आधार नहीं है, अत: उनमें से किसी को भी स्वीकार करना संभव नहीं है। [[वेद|वेदों]] से लेकर [[पुराण|पुराणों]] तक ब्रज का संबंध गायों से रहा है; चाहे वह गायों के बाँधने का बाड़ा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर- भूमि हो और चाहे गोप- बस्ती हो। भागवत कार की दृष्टि में गोष्ठ, [[गोकुल]] और ब्रज समानार्थक शब्द हैं।
 
[[भागवत]] के आधार पर [[सूरदास]] आदि कवियों की रचनाओं में भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है; इसलिए `वेरज', `विरजा' और `वज्र` से ब्रज का संबंध जोड़ना समीचीन नहीं है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्रागैतिहासिक काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चरागाहों, सुंदर गोष्ठों ओर दुधारू गायों के लिए प्रसिद्ध रहा है। भगवान् श्री [[कृष्ण]] का जन्म यद्यपि मथुरा में हुआ था, तथापि राजनीतिक कारणों से उन्हें गुप्त रीति से [[यमुना नदी|यमुना]] पार की गोप-बस्ती (गोकुल) में भेज दिया गया था। उनका शैशव एवं बाल्यकाल गोपराज [[नंद]] और उनकी पत्नी [[यशोदा]] के लालन-पालन में बीता था। उनका सान्निध्य गोपों, गोपियों एवं गो-धन के साथ रहा था। वस्तुत: वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध अधिकतर गायों से रहा है; चाहे वह गायों के चरने की `गोचर भूमि' हो चाहे उन्हें बाँधने का खिरक (बाड़ा) हो, चाहे गोशाला हो, और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवत्कार की दृष्टि में व्रज, गोष्ठ ओर गोकुल समानार्थक शब्द हैं।
{{Panorama
|image= चित्र:Mathura-Yamuna.jpg
|height= 200
|alt= यमुना
|caption= मथुरा नगर का [[यमुना नदी]] पार से विहंगम दृश्य <br /> Panoramic View of Mathura Across The Yamuna
}}
}}
[[भारत]] के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के [[गोंडा ज़िला|गोंडा]]-[[बहराइच ज़िला|बहराइच]] ज़िलों की सीमा पर स्थित यह [[जैन]] और [[बौद्ध]] का [[तीर्थ|तीर्थ स्थान]] है। गोंडा - [[बलरामपुर]] से 12 मील पश्चिम में आधुनिक 'सहेत-महेत' गाँव ही श्रावस्ती है। पहले यह [[कौशल]] देश की दूसरी राजधानी थी। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान [[राम]] के पुत्र [[लव कुश]] ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। श्रावस्ती [[बौद्ध]] [[जैन]] दोनों का [[तीर्थ]] स्थान है, [[तथागत]] (बुद्ध) श्रावस्ती में रहे थे, यहाँ के श्रेष्ठी '[[अनाथपिंडक]]' ने भगवान [[गौतम बुद्ध|बुद्ध]] के लिये 'जेतवन विहार' बनवाया था, आजकल यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर है।
==प्राचीन नगर==
यह [[कौशल|कोसल-जनपद]] का एक प्रमुख नगर था। यहाँ का दूसरा प्रसिद्ध नगर [[अयोध्या]] था। श्रावस्ती नगर [[अचिरावती नदी]] के [[तट]] पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक [[राप्ती नदी]] से की जाती है। इस सरिता के तट पर स्थित आज का सहेत-महेत प्राचीन श्रावस्ती का प्रतिनिधि है। इस नगर का यह नाम क्यों पड़ा, इस संबंध में कई तरह के वर्णन मिलते हैं। '''[[बौद्ध धर्म]]-ग्रन्थों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन में काम आने वाली सभी छोटी-बड़ी चीज़ें बहुतायत में बड़ी सुविधा से मिल जाती थीं। यहाँ मनुष्यों के उपभोग-परिभोग की सभी वस्तुएँ सुलभ थीं; अत: इसे सावत्थी (सब्ब अत्थि) कहा जाता था।'''<ref>'''यं किं च मनुस्सान उपभोग-परिभोगं सब्बं एत्थ अत्थीति सावत्थो।''' पपंचसूदनी , भाग-1, पृष्ठ संख्या- 59-60</ref>
==स्थिति==
प्राचीन श्रावस्ती के अवशेष आधुनिक ‘सहेत’-‘महेत’ नामक स्थानों पर प्राप्त हुए हैं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्टस, भाग 1, पृष्ठ 330; एवं भाग 11, पृष्ठ 78 </ref> यह नगर 27°51’ उत्तरी अक्षांश और 82°05’ पूर्वी देशांतर पर स्थिर था।<ref>एम. वेंक्टरम्मैया, श्रावस्ती, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, दिल्ली 1981, पृष्ठ 1</ref> ‘सहेत’ का समीकरण ‘जेतवन’ से तथा ‘महेत’ का प्राचीन 'श्रावस्ती नगर' से किया गया है। प्राचीन टीला एवं [[भग्नावशेष]] गोंडा एवं बहराइच ज़िलों की सीमा पर बिखरे पड़े हैं, जहाँ बलरामपुर स्टेशन से पहुँचा जा सकता है। बहराइच एवं बलरामपुर से इसकी दूरी क्रमश: 26 एवं 10 मील है।<ref>विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, 1972, पृष्ठ 210</ref> आजकल ‘सहेत’<ref>जेतवन</ref> का भाग बहराइच ज़िले में और ‘महेत’ गोंडा ज़िले में पड़ता है। बलरामपुर - बहराइच मार्ग पर सड़क से 800 फुट की दूरी पर ‘सहेत’ स्थित है जबकि ‘महेत’ 1/3 मील की दूरी पर स्थित है।<ref>दि मेमायर्स ऑफ द आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, भाग 50, [[दिल्ली]] 1935 में उद्धृत विमलचरण लाहा का लेख ‘श्रावस्ती इन इंडियन लिटरेचर’, पृष्ठ 1</ref> विंसेंट स्मिथ ने सर्वप्रथम श्रावस्ती का समीकरण '''चरदा''' से किया था जो ‘सहेत-महेत’ से 40 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है।<ref>जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, 1900, पृष्ठ 9</ref> लेकिन जेतवन के [[उत्खनन]] से गोविंद चंद गहड़वाल के 1128 ई. के एक [[अभिलेख]] की प्राप्ति से इसका समीकरण ‘सहेत-महेत’ से निश्चित हो गया है।<ref>आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस 1907-08, पृष्ठ 131-132; विशुद्धनन्द पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, [[वाराणसी]], 1963 ई., पृष्ठ 63</ref>


प्राचीन श्रावस्ती नगर [[अचिरावती नदी]], जिसका आधुनिक नाम [[राप्ती नदी|राप्ती]] है, के तट पर स्थित था।<ref>विनय महावग्ग, पृष्ठ 191-192; परमत्थजोतिका, पृष्ठ 511</ref> यह नदी नगर के समीप ही बहती थी। बौद्ध युग में यह नदी नगर को घेर कर बहती थी।<ref>[[राहुल सांकृत्यायन]], पुरातत्त्व निबंधावली, [[इलाहाबाद]], 1958), पृष्ठ 24</ref> [[बौद्ध साहित्य]] में श्रावस्ती का वर्णन [[कोशल जनपद]] की राजधानी और [[राजगृह]] से दक्षिण-पश्चिम में कालक और [[अस्सक]] तक जाने वाले राजमार्ग पर [[सावत्थी]] नामक दो महत्त्वपूर्ण पड़ावों के रूप में मिलता है।<ref>विमलचरण लाहा, प्राचीन [[भारत]] का ऐतिहासिक भूगोल, [[उत्तर प्रदेश]] हिन्दी ग्रंथ अकादमी, [[लखनऊ]], प्रथम संस्करण, 1972, पृष्ठ 211</ref><ref name= "उत्तर प्रदेश">{{cite book | last = सिंह| first =डॉ. अशोक कुमार  | title =उत्तर प्रदेश के प्राचीनतम नगर  | edition = | publisher = वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली | location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय  | language =[[हिन्दी]] | pages =98-124  | chapter =}}</ref>
==पौराणिक इतिहास==
==नाम की उत्पत्ति==
{| class="bharattable" align="right" style="margin:10px; text-align:center"
'''श्रावस्ती [[कोशल]] का एक प्रमुख नगर''' था। भगवान [[बुद्ध]] के जीवन काल में यह कोशल देश की राजधानी थी।<ref>भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् 2018, पृष्ठ 236, दीधनिकाय, पृष्ठ 152; राखिल, द लाइफ ऑफ द बुद्ध लीजेंड एंड हिस्ट्री पृष्ठ 136</ref> इसे बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों, [[चंपा]], [[राजगृह]], श्रावस्ती, [[साकेत]], [[कोशांबी]] और [[वाराणसी]] में से एक माना जाता था।<ref>दीधनिकाय, पृष्ठ 152; राखिल, द लाइफ ऑफ द बुद्ध लीजेंड एंड हिस्ट्री, पृष्ठ 136</ref> इसके नाम की व्युत्पत्ति के संबंध में कई मत प्रतिपादित है।
|+ <small>ब्रज</small>
*सावत्थी, [[संस्कृत]] श्रावस्ती का [[पालि]] और अर्द्धमागधी रूप है।<ref name= "उत्तर प्रदेश"/> बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक [[ऋषि]] यहाँ पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था।
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[[चित्र:Jetavana-Sravasti.jpg|thumb|250px|left|[[खत्ती]], श्रावस्ती]]
| [[चित्र:mathura-map.jpg|शूरसेन जनपद का नक्शा|250px|center]]
*[[पाणिनि]] (लगभग 500 ई.पूर्व) ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ ''''[[अष्टाध्यायी]]' में साफ़ लिखा है कि स्थानों के नाम वहाँ रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे।'''
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*[[महाभारत]] के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। श्रावस्त नामक एक राजा हुये जो कि पृथु की छठीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामाणिक मानना उचित बात होगी। बाद में चल कर [[कोसल]] की राजधानी, [[अयोध्या]] से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया।
|<small>[[शूरसेन महाजनपद|शूरसेन जनपद का नक्शा]]</small>
*[[ब्राह्मण साहित्य]], [[महाकाव्य|महाकाव्यों]] एवं [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार श्रावस्ती का नामकरण श्रावस्त या श्रावस्तक के नाम के आधार पर हुआ था। श्रावस्तक युवनाश्व का पुत्र था और पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था।<ref>विश्वगश्वा पृथो: पुत्र पुत्रस्तस्मादार्दश्चजज्ञिवान्।
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आर्द्रात्तु युवनाश्वस्तु श्रावस्तस्य तु चात्मज:॥
| [[चित्र:Krishna Birth Place Mathura-13.jpg|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]|250px|center]]
तस्य श्रावस्तको ज्ञेय श्रावस्ती येन निर्मित:
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श्रावतस्य तु दायादो वृहदाश्वो महाबल: ॥[[आदिपर्व महाभारत|महाभारत, आदिपर्व]], अध्याय 201, [[श्लोक]] 3-4;</ref><ref name= "उत्तर प्रदेश"/> वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था।
|<small>[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]</small>
*[[पुराण|पुराणों]] में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है।
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*महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामणिक मानना उचित बात होगी।
| [[चित्र:cows-mathura.jpg|ब्रज की गौ (गायें)|250px|center]]
*[[मत्स्य पुराण|मत्स्य]] एवं [[ब्रह्मपुराण|ब्रह्मपुराणों]] में इस नगर के संस्थापक का नाम श्रावस्तक के स्थान पर श्रावस्त मिलता है।<ref>श्रावस्तश्च महातेजा वत्सकस्तत्सुतोऽभवत्
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निर्मिता येन श्रावस्ती गौडदेशे द्विजोत्तम्॥ [[मत्स्यपुराण]], अध्याय 12, श्लोक 29 ;</ref><ref name= "उत्तर प्रदेश"/> बाद में चल कर कोसल की राजधानी, [[अयोध्या]] से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया।
|<small>ब्रज की गौ (गायें)</small>
*'''एक [[बौद्ध]] [[ग्रन्थ]] के अनुसार वहाँ 57 हज़ार कुल रहते थे और कोसल-नरेशों की आमदनी सबसे ज़्यादा इसी नगर से हुआ करती थी। [[बुद्ध|गौतम बुद्ध]] के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना हुआ करती थी।''' यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा हुआ था। इसके अतिरिक्त इसके इर्द-गिर्द एक सुरक्षा-दीवार भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाज़े बने हुये थे। हमारी प्राचीन [[कला]] में श्रावस्ती के दरवाज़ों का अंकन हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि वे काफ़ी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियाँ एक ही साथ बाहर निकल सकती थीं। कोसल के नरेश बहुत सज-धज कर बड़े [[हाथी|हाथियों]] की पीठ पर कसे हुये [[चाँदी]] या [[सोना|सोने]] के हौदों में बैठ कर बड़े ही शान के साथ बाहर निकला करते थे।<ref name="sravasti">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हमारे पुराने नगर |लेखक=डॉ. उदय नारायण राय  |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=हिन्दुस्तान एकेडेमी, इलाहाबाद  |पृष्ठ संख्या=43-46 |url=}}</ref>  
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*चीनी यात्री [[फ़ाह्यान|फाहियान]] और [[हुएन-सांग|हुयेनसांग]] ने भी श्रावस्ती के दरवाज़ों का उल्लेख किया है। श्रावस्ती एक समृद्ध, जनाकीर्ण और व्यापारिक महत्त्व वाली नगरी भी। यहाँ मनुष्यों के उपभोग-परिभोग की सभी वस्तुएँ सुलभी थीं अत: इसे [[सावत्थी]]<ref>सब्ब अत्थि</ref> कहा जाता था।
| [[चित्र:Govindev-temple-1.jpg|[[गोविन्द देव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्द देव मन्दिर]], [[वृन्दावन]]|250px|center]]
*पहले यह केवल एक धार्मिक स्थान था, किंतु कालांतर में इस नगर का समुत्कर्ष हुआ। [[जैन साहित्य]] में इसके लिए 'चंद्रपुरी'<ref>जैन [[हरिवंश पुराण]], पृष्ठ 717; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल पृष्ठ 61</ref> तथा 'चंद्रिकापुरी' नाम भी मिलते हैं।
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*[[महाकाव्य|महाकाव्यों]] एवं [[पुराण|पुराणों]] में श्रावस्ती को [[राम]] के पुत्र [[लव कुश|लव]] की राजधानी बताया गया है।
|<small>[[गोविन्द देव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्द देव मन्दिर]], [[वृन्दावन]]</small>
*[[कालिदास]]<ref>कालिदास, [[रघुवंश महाकाव्य|रघुवंश]], अध्याय 15, श्लोक 97; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोलीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 59 </ref> ने इसे ‘शरावती’ नाम से अभिहित किया है। उच्चारण संबंधी समानता के आधार पर ‘श्रावस्ती’ और ‘शरावती’ दोनों एक ही प्रतीत होते हैं और एक निश्चित स्थान की तरफ इंगित भी करते हैं।
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| [[चित्र:Yamuna-Mathura-2.jpg|[[यमुना नदी]]|250px|center]]
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|<small>[[यमुना नदी]]</small>
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| [[चित्र:Jain-Tirthankar-Neminath-Mathura-Museum-36.jpg|नेमिनाथ तीर्थंकर|250px|center]]
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|<small>नेमिनाथ तीर्थंकर</small>
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| [[चित्र:Radha-Krishna-Janmbhumi-Mathura-1.jpg|[[राधा]]-[[कृष्ण]]|250px|center]]
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|<small>[[राधा]]-[[कृष्ण]]</small>
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| [[चित्र:maurya-dynasty-terracottas-mathura-museum.jpg|मौर्य कालीन मृण्मूर्ति|250px|center]]
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|<small>[[मौर्य काल|मौर्य कालीन]] मृण्मूर्ति</small>
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| [[चित्र:sunga-dynasty-terracottas-2.jpg|शुंग कालीन मृण्मूर्ति|250px|center]]
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|<small>[[शुंग वंश|शुंग कालीन]] मृण्मूर्ति</small>
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| [[चित्र:kanishk.jpg|[[कनिष्क]]|250px|center]]
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|<small>[[कनिष्क]]</small>
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| [[चित्र:Seated-Rishabhanath-Jain-Museum-Mathura-38.jpg|[[ॠषभनाथ तीर्थंकर|ऋषभनाथ]]|250px|center]]
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|<small>|[[ॠषभनाथ तीर्थंकर|ऋषभनाथ]]</small>
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| [[चित्र:Seated-Jain-Tirthankara-Jain-Museum-Mathura-11.jpg|[[तीर्थंकर|जैन तीर्थंकर]]|250px|center]]
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|<small>[[तीर्थंकर|जैन तीर्थंकर]]</small>
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| [[चित्र:Ganesha-Mathura-Museum-80.jpg|[[गणेश]]|250px|center]]
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|<small>[[गणेश]]</small>
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| [[File:Buland-Darwaja-Fatehpur-Sikri-Agra.jpg|[[बुलंद दरवाज़ा]], [[फ़तेहपुर सीकरी]]|250px|center]]
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|<small>[[बुलंद दरवाज़ा]], [[फ़तेहपुर सीकरी]]</small>
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| [[चित्र:kusum-sarovar-01.jpg|[[कुसुम सरोवर गोवर्धन|कुसुम सरोवर]]|250px|center]]
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|<small>[[कुसुम सरोवर गोवर्धन|कुसुम सरोवर]]</small>
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| [[चित्र:Peacock-Mathura-3.jpg|[[मोर]]|250px|center]]
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|<small>[[मोर]]</small>
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| [[चित्र:Ahoi-Astami-1.jpg|[[अहोई अष्टमी]]|250px|center]]
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|<small>[[अहोई अष्टमी]]</small>
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| [[चित्र:Akbar-Tansen-Haridas.jpg|[[अकबर]], [[तानसेन]] और [[हरिदास]]|250px|center]]
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|<small>[[अकबर]], [[तानसेन]] और [[हरिदास]]</small>
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| [[चित्र:Bansuri.jpg|[[बाँसुरी]]|250px|center]]
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|<small>[[बाँसुरी]]</small>
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| [[चित्र:Jain-Museum-Mathura-2.jpg|[[जैन संग्रहालय मथुरा|राजकीय जैन संग्रहालय]], मथुरा|250px|center]]
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|<small>[[जैन संग्रहालय मथुरा|राजकीय जैन संग्रहालय]], [[मथुरा]]</small>
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{{main|ब्रज का पौराणिक इतिहास}}


श्रावस्ती न केवल [[बौद्ध]] और [[जैन]] धर्मों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था अपितु यह [[ब्राह्मण|ब्राह्मण धर्म]] एवं [[वेद|वेद विद्या]] का भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ वैदिक शिक्षा केंद्र के कुलपति के रूप में 'जानुस्सोणि' का नामोल्लेख मिलता है।<ref>दीघनिकाय, (पालि टेक्स्ट सोसायटी, लंदन), भाग 1, पृष्ठ 235; सुमंगलविलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 399; मच्झिमनिकाय, भाग 1, पृष्ठ 16</ref> कालांतर में बुद्ध के जीवन-काल से संबंधित तथा प्रमुख व्यापारिक मार्गों से जुड़े होने के कारण श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि में वृद्धि हुई।<ref name= "उत्तर प्रदेश"/>
====आर्य और उनका प्रारंभिक निवास====
[[आर्य]] और उनका प्रारंभिक निवास (वैदिक संस्कृति)- जिसे `[[सप्त सिंघव]]' देश कहा गया है, वह भाग भारतवर्ष का उत्तर पश्चिमी भाग था। मान्यताओं के अनुसार यही सृष्टि का आरंभिक स्थल और आर्यों का आदि देश है। सप्त सिंघव देश का फैलाव [[कश्मीर]], [[पाकिस्तान]] और [[पंजाब]] के अधिकांश भाग में था। आर्य, उत्तरी ध्रुव, मध्य एशिया अथवा किसी अन्य स्थान से भारत आये हों, भारतीय मान्यता में पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है। भारत में ही नहीं विश्व भर में संख्या 'सात' का आश्चर्यजनक मह्त्व है जैसे सात सुर, सात रंग, [[सप्तर्षि|सप्त-ॠषि]], सात सागर, आदि इसी तरह सात नदियों के कारण सप्त सिंघव देश के नामकरण हुआ था।
====आदिम काल (पूर्व कृष्ण काल)====
{{main|ब्रज का आदिम काल}}
राजा [[कुरु]] के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य [[कुरुक्षेत्र]] कहा गया। प्राचीन समय के राजाओं की वंशावली का अध्ययन करने से पता चलता है कि पंचाल राजा [[सुदास]] के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा रहा होगा। इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। अंधक अपने पिता भीम के समान वीर न था। इस युद्ध से ज्ञात होता है कि वह भी सुदास से हार गया था।  
====कृष्ण काल में ब्रज====
{{main|ब्रज का कृष्ण काल}}
श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है। अनेक इतिहासकार कृष्ण को ऐतिहासिक चरित्र नहीं मानते। यूँ भी आस्था के प्रश्नों का हल इतिहास में तलाशने का कोई अर्थ नहीं है। आपने जो इतिहास की सामग्री अक्सर खंगाली होगी वह संभवतया कृष्ण की ऐतिहासिता पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाती होगी। हमारा प्रयास है कि जो जैसा उपलब्ध है। आप तक पहुँचायें। कई विद्वान श्री कृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार [[कृष्ण]] का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है। इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है।  
====मौर्य काल में ब्रज====
{{Main|ब्रज का मौर्य काल}}
मौर्य शासकों ने यातायात की सुविधा तथा व्यापारिक उन्नति के लिए अनेक बडी़ सड़कों का निर्माण करवाया। सबसे बड़ी सड़क [[पाटलिपुत्र]] से पुरुषपुर (पेशावर) तक जाती थी जिसकी लंबाई लगभग 1,850 मील थी। यह सड़क राजगृह, [[काशी]], [[प्रयाग]], [[साकेत (अयोध्या)|साकेत]], [[कौशाम्बी]], [[कन्नौज]], [[मथुरा]], [[हस्तिनापुर]], [[शाकल]], [[तक्षशिला]] और पुष्कलावती होती हुई [[पेशावर]] जाती थी। [[मैगस्थनीज़]] के अनुसार इस सड़क पर आध-आध कोस के अंतर पर पत्थर लगे हुए थे। मेगस्थनीज संभवत: इसी मार्ग से होकर पाटलिपुत्र पहुँचा था। इस बडी़ सड़क के अतिरिक्त मौर्यों के द्वारा अन्य अनेक मार्गों का निर्माण भी कराया गया।
{{बाँयाबक्सा|पाठ=प्राचीन साहित्य में मधुरा या मथुरा का नाम तो बहुत मिलता है पर कृष्णापुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं नहीं प्राप्त होता है। अतः ठीक यही जान पड़ता है कि यूनानी लेखकों ने भूल से मथुरा और कृष्णपुर [केशवपुर] को, जो वास्तव में एक ही थे, अलग-अलग लिख दिया है।--- '''श्री कृष्णदत्त वाजपेयी'''|विचारक=}}
अलउत्वी के अनुसार [[महमूद ग़ज़नवी]] के समय में यमुना पार आजकल के [[महावन]] के पास एक राज्य की राजधानी थी, जहाँ एक सुदृढ़ दुर्ग भी था। वहाँ के राजा कुलचंद ने मथुरा की रक्षा के लिए महमूद से महासंग्राम किया था। संभवतः यह कोई पृथक् नगर नहीं था, वरन वह मथुरा का ही एक भाग था। उस समय में [[यमुना नदी]] के दोनों ही ओर बने हुए मथुरा नगर की बस्ती थी [यह मत अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है]। चीनी यात्री [[फ़ाह्यान]] और [[हुएन-सांग]] ने भी यमुना नदी के दोनों ही ओर बने हुए बौद्ध संघारामों का विवरण किया है। इस प्रकार मैगस्थनीज का [[क्लीसोबोरा]] (कृष्णपुरा) कोई प्रथक नगर नहीं वरन उस समय के विशाल मथुरा नगर का ही एक भाग था, जिसे अब [[गोकुल]]-महावन के नाम से जाना जाता है। इस संबंध में श्री कृष्णदत्त वाजपेयी के मत तर्कसंगत लगता है– प्राचीन साहित्य में मधुरा या मथुरा का नाम तो बहुत मिलता है पर कृष्णापुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं नहीं प्राप्त होता है। अतः ठीक यही जान पड़ता है कि यूनानी लेखकों ने भूल से मथुरा और कृष्णपुर [केशवपुर] को, जो वास्तव में एक ही थे, अलग-अलग लिख दिया है। भारतीय लोगों ने मैगस्थनीज को बताया होगा कि [[शूरसेन]] जनपद की राजधानी मथुरा केशवपुरी है। उसने उन दोनों नामों को एक दूसरे से पृथक् समझ कर उनका उल्लेख अलग-अलग नगर के रूप में किया होगा। यदि शूरसेन जनपद में मथुरा और कृष्णपुर नाम के दो प्रसिद्ध नगर होते, तो मेगस्थनीज के कुछ समय पहले उत्तर [[भारत]] के जनपदों के जो वर्णन भारतीय साहित्य [विशेष कर बौद्ध एवं जैन ग्रंथो] में मिलते हैं, उनमें मथुरा नगर के साथ कृष्णापुर या केशवपुर का भी नाम मिलता है।


==नगर का विकास==  
====शुंग काल में ब्रज====
[[चित्र:Stupas-Jetavana.jpg|thumb|250px|जेतवन स्तूप के अवशेष, श्रावस्ती]]
{{Main|ब्रज का शुंग काल}}
हमारे कुछ प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार कोसल का यह प्रधान नगर सर्वदा रमणीक, दर्शनीय, मनोरम और धनधान्य से संपन्न था। इसमें सभी तरह के उपकरण मौजूद थे। इसको देखने से लगता था, मानो देवपुरी अलकनन्दा ही साक्षात धरातल पर उतर आई हो। नगर की सड़कें चौड़ी थीं और इन पर बड़ी सवारियाँ भली भाँति आ सकती थीं। नागरिक शृंगार-प्रेमी थे। वे [[हाथी]], घोड़े और पालकी पर सवार होकर राजमार्गों पर निकला करते थे। इसमें राजकीय कोष्ठागार<ref>कोठार</ref> बने हुये थे जिनमें [[घी]], तेल और खाने-पीने की चीज़ें प्रभूत मात्रा में एकत्र कर ली गई थीं।<ref name="sravasti"/>
शुंगवशीय शासक वैदिक धर्म को मानते थे<ref>पुष्यमित्र के द्वारा दो [[अश्वमेध यज्ञ]] करने का उल्लेख [[अयोध्या]] से प्राप्त एक लेख में मिलता है (एवीग्राफिया इंडिका, जि0 20, पृ0 54-8)। पतंजलि के महाभाष्य में पुष्यमित्र के यज्ञ का जो उल्लेख है उससे पता चलता है कि स्वयं पतंजलि ने इस यज्ञ में भाग लिया था।</ref> फिर भी शुंग शासन-काल में बौद्ध धर्म की काफ़ी उन्नति हुई। बोधगया मंदिर की वेदिका का निर्माण भी इनके शासन-काल में ही हुआ। अहिच्छत्र के राजा इन्द्रमित्र तथा मथुरा के शासक ब्रह्ममित्र और उसकी रानी नागदेवी, इन सब के नाम बोधगया की वेदिका में उत्कीर्ण है। <ref> राय चौधरी - वही, पृ0 392-93। ब्रह्ममित्र मथुरा का प्रतापी शासक प्रतीत होता है। इसके सिक्के बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। 1954 के प्रारंभ में ब्रह्ममित्र के लगभग 700 तांबे के सिक्कों का घड़ा, ढेर मथुरा में मिला है।</ref> इससे ज्ञात होता है कि सुदूर पंचाल और शूरसेन जनपद में इस काल में बौद्ध धर्म के प्रति भी आस्था थी। महाभाष्य में [[पतंजलि]] ने मथुरा का विवरण देते हुए लिखा है, यहाँ के लोग [[पाटलिपुत्र]] के नागरिकों की अपेक्षा अधिक सपंन्न थे। <ref>सांकाश्यकेभ्यश्च पाटलिपुत्र केभ्यश्चमाथुरा अभिरूपतरा इति (महाभाष्य, 5,3,57)। संकाश्य का आधुनिक नाम संकिसा है, जो [[उत्तर प्रदेश]] के फ़र्रु्ख़ाबाद ज़िले में काली नदी के तट पर स्थित है।</ref> शुंग काल में उत्तरी भारत के मुख्य नगरों में मथुरा की भी गिनती होती थी।'''
;बौद्ध धर्म अनुयायी
वहाँ के नागरिक [[गौतम बुद्ध]] के बहुत बड़े भक्त थे। '[[मिलिन्दपन्ह|मिलिन्दप्रश्न]]' नामक ग्रन्थ में चढ़ाव-बढ़ाव के साथ कहा गया है कि इसमें भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख सत्तावन हज़ार गृहस्थ [[बौद्ध धर्म]] को मानते थे। इस नगर में 'जेतवन' नाम का एक उद्यान था जिसे वहाँ के जेत नामक राजकुमार ने आरोपित किया था। इस नगर का [[अनाथपिंडक]] नामक सेठ जो [[बुद्ध]] का प्रिय शिष्य था, इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर बौद्ध संघ को दान कर दिया था।<ref name="sravasti"/>  
;जेतवन और मठ का निर्माण
[[बौद्ध साहित्य|बौद्ध ग्रन्थों]] में कथा आती है कि इस पूँजीपति ने '''जेतवन''' को उतनी मुद्राओं में ख़रीदा था जितनी कि बिछाने पर इसके पूरे फ़र्श को भली प्रकार ढक देती थीं। उसने इसके भीतर एक मठ भी बनवा दिया जो कि श्रावस्ती आने पर बुद्ध का विश्रामगृह हुआ करता था। इसे लोग 'कोसल मन्दिर' भी कहते थे। अनाथपिंडक ने जेतवन के भीतर कुछ और भी मठ बनवा दिये जिनमें भिक्षु लोग रहते थे। इनमें प्रत्येक के निर्माण में एक लाख मुद्रायें ख़र्च हुई थीं। इसके अतिरिक्त उसने [[कुआँ|कुएँ]], तालाब और चबूतरे आदि का भी वहाँ निर्माण करा दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि जेतवन में रहने वाले भिक्षु सुबह और शाम [[राप्ती नदी]] में नहाने के लिये आते थे। लगता है कि यह उद्यान इसके तट के समीप ही कहीं स्थित था। अनाथपिंडक ने अपने जीवन की सारी कमाई बौद्ध संघ के हित में लगा दी थी। उसके घर पर श्रमणों को बहुसंख्या में प्रति दिन यथेष्ट भोजन कराया जाता था। [[गौतम बुद्ध]] के प्रति श्रद्धा के कारण श्रावस्ती नरेशों ने इस नगर में दानगृह बनवा रखा था, जहाँ पर भिक्षुओं को भोजन मिलता था।<ref name="sravasti"/>  
[[चित्र:Jetavana-Sravasti-2.jpg|thumb|250px|left|जेतवन, श्रावस्ती<br />Jetavana, Sravasti]]


==महाकाव्यों तथा पुराणों में वर्णित श्रावस्ती==
====शक कुषाण काल में ब्रज====
[[महाकाव्य|महाकाव्यों]] में श्रावस्ती का विशद वर्णन मिलता है।
{{Main|ब्रज का शक कुषाण काल}}
*[[वायु पुराण]]<ref>कुशस्य कोशलो राज्यं पुरी वापि कुशस्थली। रम्या निर्मिता तेन विंध्यपर्वत सानुषु॥ उत्तर कोशले राज्ये लवस्य च महात्मन: श्रावस्ती लोकविख्याता कुशवशं निबोधत॥ [[वायु पुराण]], अध्याय 88, 197-98</ref> और [[रामायण|वाल्मीकि रामायण]]<ref>वाल्मीकि रामायण उत्तर0 107, 17</ref>में वर्णन है कि रामचंद्र जी ने (दक्षिण कोसल का अपने पुत्र कुश को और उत्तर कोसल का लव को राजा बनाया था।<ref>कोसलेषुकुशं वीरमुत्तरेषुतथा लवम्, अभिषिच्य महात्मानावुभौराम: कुशीलवौ' उत्तरकांड, सर्ग 1, 107, 17</ref>रामायण<ref>  रामायण उत्तरकांड 108,5</ref> के अनुसार लव की राजधानी श्रावस्ती में थी<ref> 'श्रावस्तीति पुरीरम्या श्राविता च लवस्यह अयोध्यां विजनां कृत्वा राघवोभरतस्तथा'</ref>, [[मधुपुरी]] में [[शत्रुघ्न]] को सूचना मिली कि लव के लिए श्रावस्ती नामक नगरी [[राम]] ने बसाई है और [[अयोध्या]] को जनहीन करके उन्होंने स्वर्ग जाने का विचार किया है। इस वर्णन से प्रतीत होता है कि श्रीराम के स्वर्गारोहण के पश्चात अयोध्या उजड़ गई थी और कोसल की नई राजधानी श्रावस्ती में बनाई गई थीं। [[रामायण]] में दो [[कोशल]] नगरों की चर्चा है:-
कुषाणों के एक सरदार का नाम [[कुजुल कडफाइसिस]] था। उसने क़ाबुल और कन्दहार पर अधिकार कर लिया। पूर्व में यूनानी शासकों की शक्ति कमज़ोर हो गई थी, कुजुल ने इस का लाभ उठा कर अपना प्रभाव यहाँ बढ़ाना शुरू कर दिया। पह्लवों को पराजित कर उसने अपने शासन का विस्तार पंजाब के पश्चिम तक स्थापित कर लिया। मथुरा में इस शासक के तांबे के कुछ सिक्के प्राप्त हुए है।
*उत्तर कोशल जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी,
मथुरा में कुषाणों के देवकुल होने तथा विम की मूर्ति प्राप्त होने से यह अनुमान किया जा सकता है कि मथुरा में विम का निवास कुछ समय तक अवश्य रहा होगा और यह नगर कुषाण साम्राज्य के मुख्य केन्द्रों में से एक रहा होगा। विम ने राज्य की पूर्वी सीमा बनारस तक बढा ली। इस विस्तृत राज्य का प्रमुख केन्द्र मथुरा नगर बना। चीनियों की पौराणिक मान्यता के अनुसार विम के उत्तरी साम्राज्य की प्रमुख राजधानी हिंदुकुश‎ के उत्तर तुखार देश में थी। भारतीय राज्यों का शासन 'क्षत्रपों' से कराया जाता था। विम का विशाल साम्राज्य एक तरफ [[चीन]] के साम्राज्य को लगभग छूता था तो दूसरी तरफ उसकी सीमाऐं दक्षिण के सातवाहन राज्य को छूती हुई थी। इतने विशाल एवं विस्तृत राज्य के लिए प्रादेशिक शासकों का होना भी आवश्यक था।
*दक्षिण कोशल जिसकी राजधानी कुशावती थी।  
====गुप्त काल में ब्रज====
[[राम]] के शासन काल में इन दोनों राजधानियों का वर्णन मिलता है। राम ने अपने पुत्र [[लव]] को श्रावस्ती का और [[कुश]] को कुशावती का राजा बनाया था।<ref>मेमायर्स ऑफ़् दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, भाग 50, पृष्ठ 7</ref> वर्तमान समय में श्रावस्ती [[बलरामपुर]] से 10 मील, [[अयोध्या]] से 58 मील तथा [[राजगीर]] से 720 मील दूर स्थित है।<ref>रामायण, उत्तरकांड, अध्याय 121; नंदूलाल डे, दि ज्योग्राफिकल डिक्शनरी आफ ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 197</ref>
{{Main|ब्रज का गुप्त काल}}
*[[मत्स्य पुराण|मत्स्य]], [[लिंग पुराण|लिंग]] और [[कूर्म पुराण|कूर्म पुराणों]] में श्रावस्ती को [[गोंडा ज़िला|गोंडा]] में स्थित बतलाया गया है, जिसका समीकरण [[कनिंघम]] ने आधुनिक गोंडा से किया है।<ref>ए. कनिंघम, दि ऐंश्येंट ज्योग्राफी ऑफ़ इंडिया, पृष्ठ 343</ref> श्रावस्ती की संस्थापना श्रावस्तक ने की थी।
[[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य]] के समय के तीन लेख मथुरा नगर से मिले हैं। पहला लेख ([[मथुरा संग्रहालय]] सं. 1931) गुप्त संवत 61 (380 ई.) का है यह मथुरा नगर में [[रंगेश्वर महादेव मथुरा|रंगेश्वर महादेव]] के समीप एक बगीची से प्राप्त हुआ है। शिलालेख लाल पत्थर के एक खंभे पर है। यह सम्भवतः चंद्रगुप्त के पाँचवे राज्यवर्ष में लिखा गया था। इस शिलालेख़ में उदिताचार्य द्वारा उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नामक शिव-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना का वर्णन है। खंभे पर ऊपर त्रिशूल तथा नीचे दण्डधारी रुद्र (लकुलीश) की मूर्ति है।
*[[वायु पुराण]] के अनुसार श्रावस्तक के पिता का नाम अंध था।<ref>[[वायुपुराण]], अध्याय 88, पृष्ठ 24-26; द्रष्टव्य, [[विष्णुपुराण]], अध्याय 4, पृष्ठ 2-12</ref> [[मत्स्य पुराण|मत्स्य]]<ref> [[मत्स्यपुराण]], अध्याय 12, पृष्ठ 29-30</ref> और [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म पुराणों]]<ref>[[ब्रह्मपुराण]], अध्याय 7, पृष्ठ 53;  द्रष्टव्य, मेमायर्स ऑफ़ आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, संख्या 50. पृष्ठ 6</ref> में श्रावस्त या श्रावस्तक को युवनाश्व का पुत्र और अद्र का पौत्र कहा गया है।<ref> [[वायु पुराण]] के अनुसार यह अंध्र तथा [[भागवत पुराण]] के अनुसार चंद्र था</ref><ref>भागवतपुराण, अध्याय 9, पृष्ठ 20-21</ref>
*[[महाभारत]] में इनसे अलग सूचना मिलती है। इसमें श्रावस्तक को श्राव का पुत्र तथा युवनाश्व का पौत्र कहा गया है।<ref>[[वनपर्व महाभारत|महाभारत, वनपर्व]], 20/3-4; 11/21-22</ref> कुछ [[पुराण|पुराणों]] में श्रवस्तक या श्रावस्तक को युवनाश्व का पुत्र और अद्र का पौत्र कहा गया है।<ref>[[ब्रह्मपुराण]], 6, 53; [[मत्स्यपुराण]], 12 29-30  26- मत्स्यपुराण, अध्याय 12, पृष्ठ 29-30</ref>
*[[कालिदास]] ने [[रघुवंश]] में लव को 'शरावती' नामक नगरी का राजा बनाया जाना लिखा है।<ref> 'स निवेश्यकुशावत्यां रिपुनागांकुशं कुशम् शरावत्यां सतांसूक्तैर्जनिताश्रुलवंलवम्, रघुवंश 15, 97 </ref> इस उल्लेख में 'शरावती', निश्चय रूप से श्रावस्ती का ही उच्चारण भेद है। श्रावस्ती की स्थापना [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार, 'श्रवस्त' नाम के सूर्यवंशी राजा ने की थी<ref>  'युग-युग में उत्तर प्रदेश' पृ0 40</ref> लव ने यहाँ कोसल की नई राजधानी बनाई और श्रावस्ती धीरे-धीरे उत्तर कोसल की वैभवशालिनी नगरी बन गई।<ref name="sthanavali">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक=विजयेन्द्र कुमार माथुर |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर  |पृष्ठ संख्या=915-918 |url=}}</ref>


==जातकों में वर्णित श्रावस्ती==
चंद्रगुप्त के शासन-काल के उपलब्ध लेखों में यह लेख सब से प्राचीन है। इससे तत्कालीन मथुरा में शैव धर्म के होने की पुष्टि के होती है। अन्य दोनों शिलालेख मथुरा के [[कटरा केशवदेव मन्दिर मथुरा|कटरा केशवदेव]] से मिले हैं। इनमें से एक शिलालेख (मथुरा संग्रहालय सं. क्यू. 5) में महाराज गुप्त से लेकर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य तक की वंशावली अंकित है। लेख में अन्त में चंद्रगुप्त द्वारा कोई बड़ा धार्मिक कार्य किये जाने का अनुमान होता है। लेख का अंतिम भाग खंडित है इस कारण यह निश्चित रूप से कहना कठिन है। बहुत संभव है कि महाराजाधिराज चंद्रगुप्त के द्वारा श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया हो, जिसका विवरण इस शिलालेख़ में रहा होगे।<ref>लेख के प्राप्ति-स्थान कटरा केशवदेव से गुप्तकालीन कलाकृतियाँ बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि इस समय में यहाँ विभिन्न सुन्दर प्रतिमाओं सहित एक वैष्णव मंन्दिर था।</ref> तीसरा शिलालेख़ (मथुरा संग्रहालय सं. 3835) [[कृष्ण जन्मस्थान]] की सफ़ाई कराते समय 1954 ई.. में मिला है। यह लेख बहुत खंडित है। इसमें गुप्त-वंशावली के प्रारंभिक अंश के अतिरिक्त शेष भाग खंड़ित है।
[[चित्र:Gandhakuti-Jetavana-Vihara.jpg|गंधकुटी जेतवन विहार, श्रावस्ती|250px|thumb]]
जातकों में श्रावस्ती का विशद वर्णन मिलता है। इनके अनुसार श्रावस्ती का धार्मिक वायुमंडल [[बौद्ध धर्म]] से अधिक प्रभावित था। इस नगर में गौतम बुद्ध के अनेक व्याख्यान हुए थे, जिनसे प्रभावित होकर समस्त वर्गों के अनेक व्यक्तियों ने इस धर्म को अपना लिया था। नगर-श्रेष्ठी [[अनाथपिंडक]] बुद्ध का परम भक्त था। उसके घर में पाँच सौ भिक्षुओं के निमित्त प्रतिदिन भोजन तैयार कराया जाता था।<ref>जातक, भाग 4, पृष्ठ 91 (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण</ref> कहा जाता है कि अनाथपिंडक ने अपने द्वारा बनवाए हुए सभी भवनों को बौद्ध संघ को समर्पित कर दिया था। समर्पण की यह क्रिया बड़े समारोह के साथ संपादित हुई थी। इसमें उसने 18 करोड़ मुद्राएँ व्यय की थीं।<ref>तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 92</ref> इन निवास गृहों में गंधकुटी, करेरिकुटी तथा कोसंबकुटी उल्लेखनीय हैं। कोसंबकुटी एवं करेरिकुटी का नामकरण उसके समीप करेरि और कोसंब वृक्षों के नाम के आधार पर हुआ।<ref>‘करेरिमंडपो तस्सा कुटिकाय द्वारेथितो तस्मा करेरिकुटिकाय द्वारेथितो तस्म करेरिकुटिका ति वुच्चति’ ‘कोसंबरुक्खस्स द्वारे थित्तता कोसंबकुटिका ति’ सुगंलबिलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 407</ref> गंधकुटी जेतवन के मध्य बनी हुई थी।<ref>तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 92 (सो मज्झे गंधकुटीं कारेसि</ref> पाटिकाराम नामक एक अन्य विहार भी श्रावस्ती के ही समीप था। जब सुनक्षत्र लिच्छवि पुत्र भिक्षु संघ को छोड़कर गया, तब भगवान् इस विहार में ही निवास कर रहे थे।<ref>तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 389</ref> एक अन्य विहार राजकाराम था जो पसेनादि (प्रसेनजित) द्वारा बनवाया गया था। यह नगर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित था।<ref>तत्रैव, भाग 2, पृष्ठ 15</ref> यहीं पर आम्रवनों के बीच एक बड़ा तालाब था जिसे 'जेतवन पोक्खरणि' के नाम से जाना जाता था। इसके चारों तरफ उपवन इतने घने थे कि यह एक जंगल के समान प्रतीत होता था।<ref>जातक, भाग 4, पृष्ठ 228</ref> श्रावस्तीवासियों ने बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को आतिथ्य सत्कार की इच्छा से दान दिया। उन्होंने विहार में एक धर्मघोष<ref>वह भिक्षु जो धर्मोपदेश की घोषणा किया करता था।</ref> नामक भिक्षु को नियुक्त किया।<ref>जातक, (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण), खंड तृतीय, पृष्ठ 15</ref> श्रावस्ती से व्यापार का भी उल्लेख जातकों में आया है। व्यापारियों द्वारा एक पुराने जलाशय को खोदने से [[लोहा]], [[जस्ता]], शीशा, [[रत्न]], [[सोना]], मुक्ता और बिल्लौर आदि [[धातु|धातुएँ]] प्राप्त हुई थीं।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 24 जरुदपानं खणमाना, वाणिजा उदकत्थका  अजझगंसू अयोलोहं, तिपुसीसन्ची वाणिजा।  रतनं जातरूपंच मुक्ता बेकुरिया बाहु॥</ref> कुंभ जातक में श्रावस्ती में सामूहिक सुरा-उत्सव मनाने का उल्लेख मिलता है।<ref>तत्रैव, भाग 5, पृष्ठ 98</ref>


==बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती==
====मध्य काल में ब्रज====
{{दाँयाबक्सा|पाठ='''श्रावस्ती [[कोशल]] का एक प्रमुख नगर''' था। भगवान [[बुद्ध]] के जीवन काल में यह कोशल देश की राजधानी थी।<ref>भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् 2018, पृष्ठ 236, दीधनिकाय, पृष्ठ 152; राखिल, द लाइफ ऑफ़ द बुद्ध लीजेंड एंड हिस्ट्री पृष्ठ 136</ref> इसे बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों, [[चंपा]], [[राजगृह]], श्रावस्ती, [[साकेत]], [[कोशांबी]] और [[वाराणसी]] में से एक माना जाता था।<ref>दीधनिकाय, पृष्ठ 152; राखिल,  द लाइफ ऑफ़ द बुद्ध लीजेंड एंड हिस्ट्री, पृष्ठ 136</ref> इसके नाम की व्युत्पत्ति के संबंध में कई मत प्रतिपादित है।|विचारक=}}  
{{Main|ब्रज का मध्य काल}}
बुद्ध काल में कौशल जैसे समृद्धशाली जनपद की राजधानी होने के कारण श्रावस्ती का ऊँचा स्थान था। साथ ही [[बौद्ध धर्म]] के प्रचार का प्रमुख केंद्र होने के कारण [[बौद्ध साहित्य]] में इस नगर का विशद वर्णन मिलता है।
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग आधी शताब्दी तक उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति अस्थिर रही। छोटे-बड़े राजा अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। सम्राट् [[हर्षवर्धन]] के शासन में आने तक कोई ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता न थी जो छोटे-छोटे राज्यों को सुसंगठित करके शासित करती। छठी शती के मध्य में मौखरी, [[वर्धन वंश|वर्धन]], गुर्जन, मैत्रक कलचुरि आदि राजवंशों का अभ्युदय प्रारम्भ हुआ। मथुरा प्रदेश पर अनेक वंशों का राज्य मध्यकाल में रहा। यहाँ अनेक छोटे बड़े राज्य स्थापित हो गये थे और उनके शासक अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रयास में आपस लड़ रहे थे। उस समय देश में दो राजवंशों का उदय हुआ, [[मौखरि वंश|मौखरि राजवंश]] और [[वर्धन राजवंश]]
*[[ललितविस्तर]]<ref>[[ललितविस्तर]] अध्याय 1</ref> के अनुसार श्रावस्ती [[कोशल जनपद]] की राजधानी थी। यह राजाओं, राजकुमारों, मंत्रियों, सभासदों तथा उनके समर्थकों-[[क्षत्रिय|क्षत्रियों]], [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] एवं गृहस्वामियों से भरी हुई थी।<ref>विमलचरण लाहा, श्रावस्ती इन इंडियन लिटरेचर, दि मेमायर्स आफ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया भाग 50, पृष्ठ 20</ref> इस नगर के नागरिक [[तथागत]] के बड़े प्रशंसक थे।  
*बौद्ध धर्म के प्रचार की ओर संकेत करते हुए [[मिलिंदपन्ह|मिलिंदपन्हों]] में भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ बतलायी गई है।<ref>‘नगरे महाराज पंचकोटिमत्ता अरियसावका भगवती उपासक-उपासिकायो सत्तण्णा सहसानि तोझि सतहससानि अनागामि फले पतित्थिता ने सब्बेऽपि गिही न पच्चजिता।’ मिलिंदपन्हो, पृष्ठ 349</ref>, जो निश्चय ही अतिरंजना है।
*[[बुद्धघोष]] के अनुसार उस समय श्रावस्ती में 57 हज़ार परिवार निवास करते थे।<ref>परमत्थजोतिका, भाग 1, पृष्ठ 371; सामंतपासादिका, भाग 3, पृष्ठ 636</ref> इसी ग्रंथ में यहाँ की जनसंख्या 18 करोड़ बताई गई है, जो स्पष्टत: अतिरंजित है।<ref>46- भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् 2018), पृष्ठ 237</ref>


====व्यापार का केंद्र====
मौखरी वंश का प्रथम राजा [[ईशानवर्मा|ईशानवर्मन]] था, वह बड़ा शाक्तिशाली राजा था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग 554 ई. में मौखरी शासक ईशानवर्मन ने 'महाराजाधिराज' उपाधि धारण की। ईशानवर्मन के समय में मौखरी राज्य की सीमाऐं पूर्व में [[मगध]] तक, दक्षिण में मध्य प्रांत और आंध्र तक, पश्चिम में [[मालवा]] तथा उत्तर-पश्चिम में थानेश्वर राज्य तक थी। उसके राज्य की दो राजधानियाँ थीं,
श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि का प्रमुख कारण यह था कि यहाँ पर तीन प्रमुख व्यापारिक पथ मिलते थे जिससे यह व्यापार का एक महान केंद्र बन गया था। यह नगर पूर्व में [[राजगृह]] से, उत्तर-पश्चिम में [[तक्षशिला]] से और दक्षिण में प्रतिष्ठान से जुड़ा हुआ था।<ref>विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963), पृष्ठ 59</ref> राजगृह से 45 योजन दूर आकर [[बुद्ध]] (शास्ता) ने श्रावस्ती में विहार किया था।<ref>‘राजगंह कपिलवस्थुतो दूरं सट्ठि योजनानि, सावत्थि पन पंचदश।  सत्था राजगहतो पंचतालीसयोजनं आगन्त्या सावत्थियं विहरति।’ मच्झिमनिकाय, [[अट्ठकथा]], 1/3/4</ref> श्रावस्ती से राजगृह का रास्ता [[वैशाली]] से होकर गुजरता था। यह मार्ग सेतव्य, [[कपिलवस्तु]], कुशीनारा<ref>कुशीनगर</ref>, [[पावापुरी|पावा]], भोगनगर और [[वैशाली]] से होकर जाता था।<ref>पावामोतीचंद्र, सार्थवाह, [[बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना]], 1953), पृष्ठ 17</ref> प्रतिष्ठान को जाने वाला मार्ग [[साकेत]], [[कोशांबी]], [[विदिशा]], गोनधा और [[उज्जैन]] से होकर गुजरता था। इस नगर का संबंध [[वाराणसी]] से भी था।<ref> सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13</ref> इन दोनों के मध्य कोटागिरी नामक स्थान पड़ता था।<ref>मच्झिमनिकाय, पालि टेक्स्ट् सोसायटी, लंदन, भाग 1, पृष्ठ 473; मोतीचंद्र, सार्थवाह, पृष्ठ 17</ref> श्रावस्ती से [[तक्षशिला]] का मार्ग [[सोरेय्य]] आधुनिक [[सोरों]] होते हुए जाता था। इस मार्ग में सार्थ निरंतर चलते रहते थे।<ref>भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 239</ref> इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रावस्ती का बौद्ध काल में [[भारत]] के सभी प्रमुख नगरों से घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था।
#[[कन्नौज]]  
[[चित्र:Jetavan-Monastery-2.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती|left|250px|thumb]]
#मथुरा।


====पालि साहित्य में श्रावस्ती====  
====उत्तर मध्य काल में ब्रज====
पालि साहित्य में विभिन्न नगरों से श्रावस्ती की दूरी दी हुई है, जिससे उसका व्यापारिक महत्त्व प्रकट होता है। श्रावस्ती से तक्षशिला 192 योजन<ref>‘वुक्कसाति नाम कुलपुत्रो (तक्कसलातो) अट्ठ हि उनकानि योजनसतानि गतो जेतवनद्वारकोठकस्थ पर समीपे गच्छत्तो’ मच्झिमनिकाय, अट्ककथा, 3/4/10</ref>, [[सांकाश्य|संकाश्य]] (संकीसा) से 30 [[योजन]]<ref>‘सावत्थितो संकस्य नगरं तिसयोजनानि’ धम्मपद अट्ठकथा, 14/2</ref>, [[साकेत]] 6 योजन, [[राजगृह]] 60 योजन, मच्छिकासंड 30 योजन<ref>राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्त्व निबंधावली, पृष्ठ 20</ref> उग्रनगर 120 योजन तथा [[चंद्रभागा नदी]]<ref> चेनाव</ref> 120 योजन<ref>‘वीसं योजनसतं पच्चुग्गत्वा चंद्रभागाय नदियातोरे’ धम्मपद अट्ठकथा 6/4</ref> पर थी। प्राचीन भारत में ‘योजन’ की माप निश्चित न होने के कारण श्रावस्ती से इन स्थानों की वास्तविक दूरी निश्चित करना कठिन है।
{{Main|ब्रज का उत्तर मध्य काल}}
;बुद्ध के उपदेश
[[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] और [[जयचंद्र]] को सन् 1191 एवं सन् 1194 वि. में हराने के बाद [[मुहम्मद ग़ोरी‎]] ने [[भारत]] में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डाली और अपने जीते गये राज्य की व्यवस्था अपने सेनापति क़ुतुबुद्दीन को सौंपकर ख़ुद वापस चला गया। मोहम्मद ग़ोरी के जीवन काल तक क़ुतुबुद्दीन उसके अधीनस्थ शासक बन कर मुस्लिम साम्राज्य को व्यवस्थित करता रहा। सन् 1206 में ग़ोरी की मृत्यु के बाद क़ुतुबुद्दीन भारत के मुस्लिम साम्राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक बना; उसने [[दिल्ली]] को राजधानी बनाया। शुरू से ही दिल्ली मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी रही; और बाद तक बनी रही। [[मुग़ल काल]] में [[अकबर]] ने [[आगरा]] को राजधानी बनाया ; फिर उसके पौत्र [[शाहजहाँ]] ने दोबारा दिल्ली को राजधानी बना दिया।
श्रावस्ती से भगवान बुद्ध के जीवन और कार्यों का विशेष संबंध था। '''उल्लेख्य है कि [[बुद्ध]] ने अपने जीवन के अंतिम पच्चीस वर्षों के वर्षावास श्रावस्ती में ही व्यतीत किए थे।''' [[बौद्ध धर्म]] के प्रचार की दृष्टि से भी श्रावस्ती का महत्त्वपूर्ण स्थान था। भगवान बुद्ध ने प्रथम निकायों के 871 सुत्तों का उपदेश श्रावस्ती में दिया था, जिनमें 844 जेतवन में, 23 पुब्बाराम में और 4 श्रावस्ती के आस-पास के अन्य स्थानों में उपदिष्ट किए गए।<ref>भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 237</ref> बौद्ध धर्म प्रचार केंद्र के रूप में श्रावस्ती की ख्याति का ज्ञान यहाँ उपदिष्ट सूत्रों के आधार पर निश्चित हो जाता है।
====जेतवन====
{{Main|जेतवन श्रावस्ती}}
बुद्ध के जीवन-काल में श्रावस्ती के दक्षिण में स्थित जेतवन एवं पुब्बाराम दो प्रसिद्ध वैहारिक अधिष्ठान एवं बौद्धमत के प्रभावशाली केंद्र थे। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार जेतवन का आरोपण, संवर्धन तथा परिपालन जेत नामक एक राजकुमार द्वारा किया गया था।<ref>तंहि जेतेन राजकुमारेन रोपितं संवर्द्धिंत परिपालित। सो च तस्सि सामी अहोसि, तस्मा, जेतवने ति वुच्चति॥ पपंचसूदनी, भाग 1, पृष्ठ 60</ref> [[राजगृह]] में [[वेणुवन]] और [[वैशाली]] के महावन के ही भाँति जेतवन का भी विशेष महत्त्व था।<ref>उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृष्ठ 118</ref> इस नगर में निवास करने वाले अनाथपिंडक ने जेतवन में विहार<ref> भिक्षु विश्राम स्थल</ref>, परिवेण<ref> आँगनयुक्त घर</ref>, उपस्थान शालाएँ<ref> सभागृह</ref>, कापिय कुटी<ref> भंडार</ref>, चंक्रम<ref> टहलने के स्थान</ref>, पुष्करणियाँ और मंडप बनवाए।<ref>विनयपिटक (हिन्दी अनुवाद), पृष्ठ 462; बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 240; तुल. विशुद्धानन्द पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 61</ref> अनाथपिंडक के निमंत्रण पर भगवान बुद्ध श्रावस्ती स्थित जेतवन पहुँचे। अनाथापिण्डक ने उन्हें खाद्य भोज्य अपने हाथों से अर्पित कर जेतवन को बौद्ध संघ को दान कर दिया। इसमें अनाथ पिंडक को 18 करोड़ मुद्राओं को व्यय करना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि इस घटना का अंकन '''भरहुत कला''' में भी हुआ है।<ref>बरुआ, भरहुत, भाग 2, पृष्ठ 31</ref> [[तथागत]] ने जेतवन में प्रथम वर्षावास बोधि के चौदहवें वर्ष में किया था। इससे यह निश्चित होता है कि जेतवन का निर्माण इसी [[वर्ष]] (514-513 ई. वर्ष पूर्व) में हुआ होगा। उल्लेखनीय है कि जेतवन के निर्माण के पश्चात अनाथपिण्डक ने तथागत को निमंत्रित किया था।


====पुब्बाराम====
'''ख़िलजी वंश में ब्रज'''<br />
[[चित्र:Jetavana.jpg|जेतवन, श्रावस्ती|250px|thumb]]
जेतवन के पश्चात दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान पुब्बाराम ([[पूर्वाराम]]) था। इसका निर्माण नगर के एक प्रमुख धनिक सेठ मिगार (मृगधर) की पुत्रवधू विशाखा ने कराया था। यह नगर के पूर्वी द्वार के पास स्थित था।<ref>धम्मपदटीका, भाग 1, पृष्ठ 384; अंगुत्तरनिकाय, प्रथम भाग (हिन्दी अनुवाद, भदंत आनंद कौसल्यायन, महाबोधि सभा, कलकत्ता 1957, पृष्ठ 212 मेमायर्स आदि दि आर्कियोलाजिक सर्वे आफ इंडिया भाग 50, पृष्ठ 25</ref> संभवत: इसीलिए इसका नाम पूर्वाराम पड़ा। इसके निर्माण तथा समर्पण में लगभग 27 करोड़ मुद्राओं का व्यय करना पड़ा था। यह लकड़ी (रुक्ख) तथा पत्थर द्वारा निर्मित था, जिसमें दो मंजिलें थीं।<ref>[[राहुल सांकृत्यायन]], पुरातत्त्व निबंधावली, पृष्ठ 79</ref> पूर्वाराम विहार की आधुनिक स्थिति सहेत-महेत के पास उनके पूर्व का हनुमनवा स्थान है।
====नगर का वर्णन====
इसके अतिरिक्त [[बौद्ध साहित्य]] में मल्लिकाराम का निर्माण प्रसेनजित की महारानी मल्लिका द्वारा किया गया था। यह एक परिब्राजकाराम था; जहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य शास्त्रार्थ होता था। तीर्थकाराम एक बड़ा आराम था जिसमें 700 से 3000 तक परिव्राजक निवास कर सकते थे। इस नगर की परिखा, प्राकार एवं नगर द्वार के विषय में प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं। उस समय भवन निर्माण में मुख्यत: लकड़ी का उपयोग होता था। नगर के चारों ओर मिट्टी के प्राकार बने थे। नगर के द्वार एवं राजमार्ग पर्याप्त चौड़े थे। संयुक्त-निकाय में उल्लेख है कि यहाँ के नागरिक [[हाथी]]<ref>हत्थिखंडम् भारोहेय्य</ref> राजमार्गों पर निकलते थे।<ref>मज्झिमनिकाय, भाग 2, पृष्ठ 22</ref> श्रावस्ती में मूख्यत: चार दरवाज़े थे, जिनमें तीन तो उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण दरवाज़ों के नाम से प्रसिद्ध थे। इनमें से जेतवन से नगर में आने का प्रवेश द्वार दक्षिण द्वार था। [[पूर्वाराम]] पूर्व दरवाज़े के सामने था। इनके अतिरिक्त पश्चिम दरवाज़े का होना भी स्वाभाविक है तथापि इसका वर्णन [[त्रिपिटक]] या अट्ठकथा में नहीं मिलता। उल्लेखनीय है इन प्रवेश-द्वारों के अतिरिक्त [[उत्खनन]] से कई अन्य प्रवेश द्वारों का भी पता चला है लेकिन ये दरवाज़े वास्तविक नहीं थे। बल्कि समय-समय पर प्राकारों के गिर जाने के कारण सुविधानुसार प्रयोग में लाए गए स्थानापन्न दरवाज़े थे।<ref>देखें, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 84</ref>
====अन्य प्रसिद्ध स्थान====
इस नगर के अन्य प्रसिद्ध स्थानों में 'पूर्वाराम और मल्लिकाराम' उल्लेखनीय हैं। पूर्वाराम का निर्माण नगर के धनिक सेठ मृगधर की पुत्रवधु विशाखा के द्वारा कराया गया था। यह नगर के पूर्वी दरवाज़े के पास बना था। संभवत: इसीलिये इसका नाम पूर्वाराम<ref>अर्थात पूरबी मठ</ref> पड़ा। यह दो मंज़िला भवन था, जिसमें मज़बूती लाने के लिये पत्थरों की चिनाई की गई थी। लगता है कि मल्लिकाराम इससे बड़ा विश्राम-भवन था, जिसमें ऊपर और नीचे कई कमरे थे। इसका निर्माण श्रावस्ती की मल्लिका नाम की साम्राज्ञी के द्वारा कराया गया था। नगरों में आने वाले [[बौद्ध]] परिब्राजक, निर्ग्रन्थ, [[जैन]] साधु-सन्न्यासी और नाना धर्मों के अनुयायियों के विश्राम तथा भोजन-वस्त्र की पूरी सुख-सुविधा थी। [[गौतम बुद्ध]] के प्रिय शिष्य [[आनन्द]], सारिपुत्र, मौद्गल्यायन तथा [[महाकाच्यायन|महाकाश्यप]] आदि ने भी वहाँ के नागरिकों को अपने सदुपदेशों से प्रभावित किया था। उनकी अस्थियों के ऊपर यहाँ [[स्तूप]] बने हुये थे। [[अशोक]] धर्म-यात्रा के प्रसंग में श्रावस्ती आया हुआ था। उसने इन [[स्तूप|स्तूपों]] पर भी पूजा चढ़ाई थी।<ref name="sravasti"/>


==जैन धर्म==
[[अलाउद्दीन ख़िलजी]] वंश का सबसे मशहूर सुल्तान था। अपने चाचा की हत्या करा कर वह शासक बना और पूरे अपने जीवन काल में वह युद्ध कर राज्य का विस्तार करता रहा। वह कुटिल क्रूर और हिंसक प्रवृति का बहुत ही महत्त्वाकांक्षी और होशियार सेना प्रधान था 20 वर्ष के अपने शासन काल में उसने लगभग सारे भारत को अपने शासन में कर लिया था। उसने ही देवगिरि, [[गुजरात]], [[राजस्थान]], [[मालवा]] और दक्षिण के अधिकतर राज्यों पर सबसे पहले मुस्लिम शासन स्थापित किया। [[चित्तौड़]] की [[पद्मिनी (रानी)|रानी पद्मिनी]] के लिए राजपूतों से युद्ध किया, इस युद्ध में बहुत से राजपूत नर−नारियों ने बलिदान दिया। शासक बनते ही उसकी कुदृष्टि [[मथुरा]] की तरफ हुई। उसने सन् 1297 में मथुरा के [[असिकुण्ड तीर्थ मथुरा|असिकुण्डा घाट]] के पास के पुराने मंदिर को तोड़ कर एक मस्जिद बनवाई, कालान्तर में [[यमुना नदी|यमुना]] की बाढ़ से यह मस्जिद नष्ट हो गई।
इस नगर में [[जैन]] मतावलंबी भी रहते थे। इस धर्म के प्रवर्तक [[महावीर|महावीर स्वामी]] वहाँ कई बार आ चुके थे। नागरिकों ने उनका दिल खोल कर स्वागत किया और अनेक उनके अनुयायी बन गये। वहाँ पर [[ब्राह्मण]] मतावलंबी भी मौजूद थे। [[वेद|वेदों]] का पाठ और [[यज्ञ|यज्ञों]] का अनुष्ठान आदि इस नगर में चलता रहता था। मल्लिकाराम में सैकड़ों [[ब्राह्मण]] साधु धार्मिक विषयों पर वादविवाद में संलग्न रहा करते थे। विशेषता यह थी कि वहाँ के विभिन्न धर्मानुयायियों में किसी तरह के सांप्रदायिक झगड़े नहीं थे।


लगता है कि जैसे-जैसे कोसल-साम्राज्य का अध:पतन होने लगा, वैसे-वैसे श्रावस्ती की भी समृद्धि घटने लगी। जिस समय चीनी यात्री [[फ़ाह्यान|फाहियान]] वहाँ पहुँचा, उस समय वहाँ के नागरिकों की संख्या पहले की समता में कम रह गई थी। अब कुल मिला कर केवल दो सौ परिवार ही वहाँ रह गये थे। पूर्वाराम, मल्लिकाराम और जेतवन के मठ खंडहर को प्राप्त होने लगे थे। उनकी दशा को देखकर वह दु:खी हो गया। उसने लिखा है कि श्रावस्ती में जो नागरिक रह गये थे, वे बड़े ही अतिथि-परायण और दानी थे। [[हुएन-सांग|हुयेनसांग]] के आगमन के समय यह नगर उजड़ चुका था। चारों ओर खंडहर ही दिखाई दे रहे थे। वह लिखता है कि यह नगर समृद्धिकाल में तीन मील के घेरे में बसा हुआ था। आज भी अगर आप को गोंडा ज़िले में स्थित सहेट-महेट जाने का अवसर मिले, तो वहाँ श्रावस्ती के विशाल खंडहरों को देख कर इसके पूर्वकालीन ऐश्वर्य का अनुमान आप लगा सकते हैं।<ref name="sravasti"/>
====मुग़ल काल में ब्रज====
{{Main|ब्रज का मुग़ल काल}}
मुग़लों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी। सुल्तान सिंकदर लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय [[आगरा]] हो गया था। यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी। मुग़ल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया। [[बाबर]] के बाद [[हुमायूँ]] और [[शेरशाह सूरी]] और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया। मुग़ल सम्राट [[अकबर]] ने पूर्व व्यवस्था को क़ायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया। इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था। कुछ समय बाद अकबर ने [[फ़तेहपुर सीकरी]] को राजधानी बनाया।


==जैन ग्रंथों में वर्णित श्रावस्ती==
मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में [[वैष्णव धर्म]] के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुराने का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्माबलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था। गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे। सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूवर्क सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था। वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे।
[[चित्र:Jetavan-Monastery-Temple-2.jpg|thumb|250px|जेतवन मठ, श्रावस्ती]]
[[बौद्ध]] मतावलंबियों की भाँति जैन धर्मानुयायी भी इस नगर को इस प्रमुख धार्मिक स्थान मानते थे। वे इसे 'चंद्रपुरी' या 'चंद्रिकापुरी' के नाम से अभिहित करते थे। [[जैन धर्म]] के प्रचार केंद्र के रूप में भी यह विख्यात था। श्रावस्ती जैन धर्म के तीसरे [[तीर्थंकर]] [[संभवनाथ]]<ref>जैन [[हरिवंश पुराण]], पृष्ठ 717</ref> व आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभानाथ<ref>एस. स्टीवेंसन, हार्ट आफ जैनिज्म, (दिल्ली, 1970) पृष्ठ 42</ref> की जन्मस्थली थी। [[महावीर]] ने भी यहाँ एक वर्षावास व्यतीत किया था।<ref>सी. जे. शाह, जैनिज्म इन नार्थ इंडिया, पृष्ठ 26</ref> जैन साहित्य में '''सावत्थि अथवा सावत्थिपुर''' के प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। तृतीय तीर्थंकर संभवनाथ के गर्भ, जनम, तप और केवल ज्ञान कल्याणक यहीं संपन्न हुए थे। एक मत के मतानुसार श्रीवास्त द्वारा इस नगर की स्थापना की गई और इन्हीं के नाम पर इसका श्रावस्ती नाम पड़ा।<ref>कोशल, रिसर्च आफ दि इंडियन रिसर्च सोसायटी आफ अवध, भाग 3, पृष्ठ 23</ref> श्रावस्ती के महाश्रेष्ठि नंदिनीप्रिय, नागदत्त आदि से जैन धर्म के अध्ययनार्थ श्रावस्ती में लोग दूर-दूर से आते थे। इसमें [[कश्यप]] के पुत्र कपिल एवं जैन विद्वान केशी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 24</ref>


जैन ग्रंथ भगवती सूत्र (320 ई.पू. से 600 ई. से मध्य) के अनुसार श्रावस्ती नगर आर्थिक क्षेत्र में भौतिक समृद्धि के चरमोत्कर्ष पर थी। यहाँ के व्यापारियों में शंख और मक्खलि मुख्य थे जिन्होंने यहाँ के नागरिकों के भौतिक समृद्धि के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था।<ref>योगेन्द्र चंद्र शिकदार, स्टडीज इन भगवती सूत्राज, (रिसर्च इंस्टीट्यूट आफ प्राकृत जैनोलाजी एंड अहिंसा, मुजफ्फरपुर, 1964), पृष्ठ 307</ref>
====जाट मराठा काल में ब्रज====
{{Main|ब्रज का जाट मराठा काल}}
मुग़ल सल्तनत के आख़री समय में जो शक्तियाँ उभरी; जिन्होंने ब्रजमंडल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन [[जाट]] और मराठा सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं। [[जाटों का इतिहास]] पुराना है। जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन [[औरंगज़ेब]] के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया। उधर मराठों ने [[शिवाजी|छत्रपति शिवाजी]] के नेतृत्व में औरगंज़ब को भीषण चुनौती दी और सफलता भी प्राप्त की जिससे मराठा भी उत्तर भारत में मशहूर हुए।


इस नगर में एक बहुत ही धनी श्रेष्ठी मिगार था जो जैन धर्म का प्रबल समर्थक था जबकि उसकी पुत्रवधू विशाखा<ref>बौद्ध धर्म</ref> की अनुयायी थी।<ref>के.सी.जैन, लार्ड महावीर एंड हिज टाइंस, पृष्ठ 63</ref> भगवती सूत्र से पता चलता है कि आजीवक संप्रदाय का प्रधान मक्खलिपुत्र गोशाल [[महावीर]] का शिष्य था। जैने स्रोतों से पता चलता है कि कालांतर में श्रावस्ती आजीवक संप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र बन गया। हरमन जैकोबी<ref>हरमन याकोबी, से.बु.ई. (जैन सूत्राज), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1964, पुनर्मुद्रित), भाग 45, पृष्ठ 30</ref> और बी.एम. बरुआ<ref>बेनी माधव बरुआ, एक हिस्ट्री आफ बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी, पृष्ठ 300</ref> का मत है कि कुछ दिनों तक महावीर, मक्खलिपुत्र गोशाल के शिष्य थे। मक्खलिपुत्र गोशाल का जन्म श्रावस्ती में हुआ था। गोशाल महावीर से उम्र में बड़ा था। बाद में सिद्धांतीय मतभेदों के कारण गोशाल ने महावीर का साथ छोड़ दिया और आजीवक संप्रदाय के प्रमुख के रूप में श्रावस्ती में 16 वर्ष व्यतीत किए।<ref>के.सी. जैन, लार्ड महावीर एंड हिज टाइंस, पृष्ठ 165</ref>
'''सूरजमल का मूल्यांकन'''
====संभवनाथ का मंदिर====
{{Main|सूरजमल}}
ईसा के पूर्व ही यहाँ [[संभवनाथ]] का एक मंदिर निर्मित हुआ था। [[फ़ाह्यान]] ने जब श्रावस्ती की यात्रा की थी उस समय इस मंदिर का अवशेष मात्र शेष था। इस स्थल पर [[उत्खनन]] से एक नवीन जैन-मंदिर (शोभनाथ) के अवशेष मिले हैं, जिसकी ऊपरी बनावट से यह मध्य युग का प्रतीत होता था। साथ ही बहुत सी [[जैन]] प्रतिमाएँ भी मिली हैं।<ref>जर्नल ऑफ़ दि रायल एशियाटिक सोसायटी, 1908, पृष्ठ 102</ref> यह नगर अधिक समय तक श्वेतांबर जैन श्रमणों की केंद्र-स्थली था, किन्तु बाद में यह दिगंबर संप्रदाय का केंद्र बन गया।<ref>वृहत्कथाकोश (ए. एन. उपाध्याय द्वारा संपादित), पृष्ठ8, 348</ref>
ब्रज के जाट राजाओं में [[सूरजमल]] सबसे प्रसिद्ध शासक, कुशल सेनानी, साहसी योद्धा और सफल राजनीतिज्ञ था। उसने जाटों में सब से पहले राजा की पदवी धारण की थी; और एक शक्तिशाली हिन्दू राज्य का संचालन किया था। उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें [[डीग भरतपुर|डीग]]−[[भरतपुर]] के अतिरिक्त मथुरा, आगरा, [[धौलपुर]], [[हाथरस]], [[अलीगढ़]], [[एटा]], मैनपुरी, [[गुड़गाँव]], रोहतक, रेवाड़ी, फर्रूखनगर और मेरठ के ज़िले थे। एक ओर यमुना में [[गंगा]] तक और दूसरी ओर [[चंबल नदी|चंबल]] तक का सारा प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित था।


{{seealso|शोभनाथ मन्दिर श्रावस्ती}}
====स्वतंत्रता संग्राम 1857 में ब्रज====
====फ़ाह्यान का इतिवृत्त====
{{Main|ब्रज का स्वतंत्रता संग्राम 1857}}
''[[फ़ाह्यान]]'' [[साकेत]] से दक्षिण दिशा की ओर आठ [[योजन]] चलकर कोशल<ref>इस नाम के दो भारतीय राज्य थे- उत्तरी एवं दक्षिणी कोशल। यह उत्तरी कोशल था जो कि [[अवध|आधुनिक अवध]] का एक भाग था।</ref> जनपद के नगर श्रावस्ती<ref>इसका आधुनिक समीकरण सहेत-महेत हैं; द्रष्टव्य, जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स् आफ फ़ाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, 1972), पृष्ठ 56</ref> में पहुँचा था। '''फ़ाह्यान लिखता है कि नगर में अधिवासियों की संख्या कम है और वे बिखरे हुए हैं। उसकी यात्रा के दौरान यहाँ पर सब मिलाकर केवल दो सौ परिवार ही रह गए थे।''' वह आगे लिखता है कि इस नगर में प्राचीन काल में राजा प्रसेनजित<ref>यह राजा [[गौतम बुद्ध]] का समकालीन था।</ref> [[राज्य]] करते थे। यहाँ पर महा प्रजापति का प्राचीन विहार विद्यमान है। नगर के दक्षिणी द्वार के बाहर 1200 क़दम की दूरी पर वह स्थान है जहाँ वैश्याधिपति अनाथपिंडक (सुदत्त) ने एक विहार बनवाया था। जेतवन विहार से उत्तर-पश्चिम चार [[ली]] की दूरी पर ‘चक्षुकरणी’ नामक एक वन है, जहाँ जन्मांध लोगों को श्री बुद्धदेव की कृपा से ज्योति प्राप्त हुई थी। जेतवन संघाराम के श्रमण भोजनांतर प्राय: इस वन में बैठकर ध्यान लगाया करते थे। फ़ाह्यान के अनुसार [[जेतवन विहार]] के पूर्वोत्तर 6.7 ली की दूरी पर माता विशाखा द्वारा निर्मित एक विहार था।<ref>जेम्स लेग्गे, दि ट्रेवल्स आफ फ़ाह्यान, पृष्ठ 59</ref>
मथुरा के शासन की लगाम भारतीय सैनिकों के हाथों में आ गयी थी। यूरोपियन बंगले और कलक्ट्री-भवन सब आग को समर्पित कर मथुरा जेल के बन्दी कारागार से मुक्त हो गये थे। विदेशी हुकूमत को मिटाकर स्वाधीनता का शंखनाद करने वाले, अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफ़र के हाथ मज़बूत करने भारत माता के विप्लवी सपूत गर्वोन्मत भाव से मचल पड़े और चल पड़े कोसी की दिशा में शेरशाह सूरी राज मार्ग से, जहाँ अंग्रेज़ी सेना दिल्ली की ओर से मथुरा की ओर आने वाले भारतीय क्रान्तिवीरों के टिड्डी दलों को रोकने के उद्देश्य से जमा थी। थाँर्नहिल स्वयं पड़ाव डाले पड़ा था। यह सनसनीखेज कहानी किसी कल्पित उपन्यास का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो ख़ुद अंग्रेज़ कलक्टर की क़लम से पश्चिमोत्तर प्रान्त के आगरा स्थित तत्कालीन गवर्नमेंट सेक्रेटरी सी0 बी0 थॉर्नहिल के नाम 5 जून 1857 को लिखा गया था।
[[चित्र:Anathapindika-Stupa.jpg|250px|thumb|left|[[अनाथपिंडिका स्तूप, श्रावस्ती|अनाथपिंडक स्तूप]], श्रावस्ती]]
====स्वतंत्रता संग्राम 1920-1947 में ब्रज====
फ़ाह्यान पुन: लिखता है कि जेतवन विहार के प्रत्येक कमरे में, जहाँ भिक्षु रहते है, दो-दो दरवाज़े हैं; एक उत्तर और दूसरा पूर्व की ओर। वाटिका उस स्थान पर बनी है जिसे सुदत्त ने [[सोना|सोने]] की मुहरें बिछाकर ख़रीदा था। बुद्धदेव इस स्थान पर बहुत समय तक रहे और उन्होंने लोगों को धर्मोपदेश दिया। [[बुद्ध]] ने जहाँ चक्रमण किया, जिस स्थान पर बैठे, सर्वत्र स्तूप बने हैं, और उनके अलग-अलग नाम है। यहीं पर सुंदरी ने एक मनुष्य का वध करके श्री बुद्धदेव पर दोषारोपण किया था।<ref>जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स आफ फ़ाह्यान, पृष्ठ 60</ref> फ़ाह्यान आगे उस स्थान को इंगित करता है जहाँ पर श्री बुद्धदेव और विधर्मियों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था। यहाँ एक 60 फुट ऊँचा विहार बना हुआ था।
{{Main|ब्रज का स्वतंत्रता संग्राम 1920-1947}}
सन् 1921 के प्रारम्भ होने पर [[असहयोग आंदोलन]] में तेजी आने लगी तथा मथुरा ज़िले के गांवों एवं कस्बों में भी इसकी लहर फैलने लगी। अड़ींग, [[गोवर्धन]], [[वृन्दावन]] एवं कोसी आदि स्थानों में भी राष्द्रीय हलचल प्रारम्भ हो गयी। गोवर्धन में राष्द्रीय चेतना को बढाने में सर्वश्री कृष्णबल्लभ शर्मा, ब्रजकिशोर, रामचन्द्र भट्ट  एवं अपंग बाबू आदि प्रमुख थे। वृदावन में सर्वश्री गोस्वामी छबीले लाल, नारायण बी.ए., पुरुषोत्तम लाल, मूलचन्द सर्राफ आदि ने प्रमुख भाग लिया। असहयोग आन्दोलन तीव्र करने के लिए 9 अगस्त सन् 1921 को [[लाला लाजपत राय]] के सभापतित्व में वृन्दावन की मिर्जापुर वाली धर्मशाला में एक विशाल सभा हुई थी। इसमें हज़ारों की संख्या में जनता उपस्थित थी।


====ह्वेनसाँग का इतिवृत्त====
==प्रजातांत्रिक व्यवस्था==
'''[[ह्वेनसांग|ह्वेनसाँग]] लिखता''' है कि विशोका ज़िले से 500 [[ली]] (100 मील) उत्तर-पूर्व श्रावस्ती देश स्थित था। यह देश 6000 ली परिधि में फैला हुआ था। इस समय यह नगर पूर्णत: विनष्ट एवं जनशून्य हो गया था। जिससे इसकी सीमा निर्धारित करना कठिन है। नगर के दीवारों की परिधि लगभग 20 ली में फैली थी।<ref>थामस् वाटर्स, आन् युवान् व्चाँग्स् टैवेल्स इन इंडिया (पुनर्मुद्रित, मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1961), भाग 1, पृष्ठ 377</ref> यहाँ की जलवायु अनुकूल थी और अन्नादि की उपज अच्छी होती थी। प्रकृति उत्तम और स्वाभावानुकूल थी तथा मनुष्य शुद्ध आचरण वाले व धर्मिष्ठ थे। यहाँ कई सौ [[संघाराम]] थे, जिनमें से अधिकांशत: विनष्ट हो गए हैं। इसके अतिरिक्त 100 देव मंदिर भी हैं, जिसमें असंख्य धर्मावलंबी उपासना करते थे। ह्वेनसाँग के अनुसार राजधानी के पूर्व थोड़ी दूरी पर एक छोटा-सा [[स्तूप]] है जो प्रसेनजित द्वारा [[बुद्ध|भगवान बुद्ध]] के लिए बनवाया गया था। इसके पार्श्व में एक अन्य स्तूप है। यह उसी स्थान पर बना है जहाँ [[अंगुलिमाल]] ने नास्तिकता का परित्याग कर [[बौद्ध धर्म]] को अंगीकृत किया था।<ref>सेमुअल बील, जाइनीज् एकाउंट्स आफ इंडिया, भाग 3 (कलकत्ता, 1958), पृष्ठ 260</ref> नगर से 5-6 ली दक्षिण जेतवन है जहाँ सुदत्त (अनाथपिंडाद)<ref>सुदत्त का नाम अनाथपिंडाद भी लिखा है, अर्थात् अनाथ और दीन पुरुषों का मित्र।</ref> द्वारा भगवान बुद्ध के लिए विहार एवं मंदिर बनवाए गए थे। प्राचीन काल में यहाँ एक [[संघाराम]] भी था जो ह्वेनसाँग के समय में पूर्णत: नष्ट हो गया था।<ref>थामस् वाटर्स, आन युवान च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 382</ref>
आश्चर्यजनक है कि कृष्ण के समय से पहले ही [[मथुरा]] में एक प्रकार की प्रजातांत्रिक व्यवस्था थी। [[अंधक]] और [[वृष्णि संघ|वृष्णि]], दो संघ परोक्ष मतदान प्रक्रिया से अपना मुखिया चुनते थे। [[उग्रसेन]] अंधक संघ के मुखिया थे, जिनका पुत्र [[कंस]] एक निरंकुश शासक बनना चाहता था। [[अक्रूर]] ने कृष्ण से कंस का वध करवा कर प्रजातंत्र की रक्षा करवाई। वृष्णि संघ के होने के कारण द्वारका के राजा, कृष्ण बने। दूसरे उदाहरण में बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार बुद्ध ने मथुरा आगमन पर अपने शिष्य [[आनन्द (बौद्ध)|आनन्द]] से मथुरा के संबंध में कहा है कि "यह आदि राज्य है, जिसने अपने लिए राजा (महासम्मत) चुना था।" <ref>{{cite web |url=http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%9C |title=…प्रजातांत्रिक व्यवस्था |accessmonthday=25 जून |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=ब्रज डिस्कवरी |language=हिन्दी }}</ref>


ह्वेनसाँग के अनुसार जेतवन मठ के पूर्वी प्रदेश-द्वार पर दो 70 फुट ऊँचे प्रस्तर स्तंभ थे। इन स्तंभों का निर्माण [[अशोक]] ने करवाया था। बाएँ खंभे में विजय प्रतीक स्वरूप [[अशोक चक्र|चक्र]] तथा दाएँ खम्भे पर बैल की आकृति बनी हुई थी।<ref>सेमुअल बील, जाइनीज् एकाउंट्स आफ इंडिया, भाग 3 (कलकत्ता, 1958), पृष्ठ 383</ref> ह्वेनसाँग आगे लिखता है कि अनाथपिंडाद विहार के उत्तर-पूर्व एक [[स्तूप]] है। यह वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने एक रोगी भिक्षु को स्नान कराकर रोग-निवृत्त किया था।<ref>सेमुअल बील, जाइनीज् एकाउंट्स आफ इंडिया, भाग 3 (कलकत्ता, 1958), पृष्ठ 387</ref> स्तूप के निकट ही एक कूप है जिसमें से [[तथागत]] अपनी आवश्यकता के लिए [[जल]] लिया करते थे। '''इसके समीप अशोक निर्मित एक स्तूप है, जिसमें बुद्ध के अस्थि अवशेष रखे गए थे।''' इसके अतिरिक्त यहाँ पर कई ऐसे स्थल हैं जहाँ पर बुद्धदेव के टहलने और धर्मोपदेश करने के स्थानों पर स्तूप बने हुए हैं।
{{see also|बुद्ध|आनन्द (बौद्ध)|कृष्ण नारद संवाद}}


ह्वेनसाँग पुन: लिखता है कि जेतवन मठ के 60-70 क़दम की दूरी पर 60 फुट ऊँचा एक विहार है जिसमें पूर्वाभिमुख बैठी हुई भगवान् बुद्ध की एक मूर्ति है। भगवान बुद्ध ने यहाँ पर विरोधियों से शास्त्रार्थ किया था। इस विहार के 5-6 ली पूर्व दिशा में एक स्तूप है, जहाँ सारिपुत्र ने तीर्थकों से शास्त्रार्थ किया था।<ref>सेमुअल बील, जाइनीज् एकाउंट्स आफ इंडिया, भाग 3 (कलकत्ता, 1958), पृष्ठ 394</ref> इस स्तूप के पार्श्व में एक मंदिर है जिसके सामने एक बुद्ध स्तूप है। जेतवन विहार के 3-4 ली उत्तर-पूर्व आप्तनेत्रवन नामक एक जंगल था। इस स्थल पर तथागत भगवान तपस्या करने के लिए आए थे। इसके स्मृतिस्वरूप श्रद्धालुओं ने यहाँ [[शिलालेख|शिलालेखों]] एवं [[स्तूप|स्तूपों]] का निर्माण करवाया था।<ref>थामस वाटर्स, आन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 397</ref> नगर के दक्षिण एक स्तूप है, यह वन स्थान है जहाँ बुद्ध ज्ञान प्राप्त करके अपने पिता से मिले थे। '''नगर के उत्तर में भी एक स्तूप है जहाँ [[बुद्ध]] के स्मृति अवशेष संगृहीत हैं। ये दोनों स्तूप सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए थे।'''<ref>थामस वाटर्स, आन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1,, पृष्ठ 400</ref>
==संस्कृति==
ब्रज के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज़ से वातावरण गुन्जायमान रहता है। बाल्यकाल से ही भगवान कृष्ण की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप मोर को भक्ति [[साहित्य]] में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। सरकार ने [[मोर]] को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर इसे संरक्षण दिया है।
ब्रज की महत्ता प्रेरणात्मक, भावनात्मक व रचनात्मक है तथा साहित्य और [[कला|कलाओं]] के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है। [[संगीत]], नृत्य एवं अभिनय ब्रज [[संस्कृति]] के प्राण बने हैं। ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मूर्तियों, मन्दिरों, महंतो, महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है। यहाँ सभी सम्प्रदायों की आराधना स्थली है। ब्रज की रज का महात्म्य भक्तों के लिए सर्वोपरि है।  
[[चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 3.jpg|left|thumb|250px|[[दानघाटी गोवर्धन|दानघाटी मन्दिर]], [[गोवर्धन]]]]
इसीलिए [[ब्रज चौरासी कोस की यात्रा|ब्रज चौरासी कोस]] में 21 किलोमीटर की गोवर्धन–[[राधाकुण्ड गोवर्धन|राधाकुण्ड]], 27 किलोमीटर की गरुड़ गोविन्द–[[वृन्दावन]], 5–5कोस की मथुरा–वृन्दावन, 15–15 किलोमीटर की मथुरा, वृन्दावन, 6–6 किलोमीटर नन्दगांव, [[बरसाना]], [[बहुलावन]], [[भांडीरवन]], 9 किलोमीटर की [[गोकुल]], 7.5 किलोमीटर की बल्देव, 4.5–4.5 किलोमीटर की [[मधुवन]], [[लोहवन]], 2 किलोमीटर की [[तालवन]], 1.5 किलोमीटर की [[कुमुदवन]] की नंगे पांव तथा दण्डोती परिक्रमा लगाकर श्रृद्धालु धन्य होते हैं। प्रत्येक त्योहार, उत्सव, ऋतु माह एवं दिन पर परिक्रमा देने का ब्रज में विशेष प्रचलन है। देश के कोने–कोने से आकर श्रृद्धालु ब्रज परिक्रमाओं को धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान मानकर अति श्रद्धा भक्ति के साथ करते हैं। इनसे नैसर्गिक चेतना, धार्मिक परिकल्पना, संस्कृति के अनुशीलन उन्नयन, मौलिक व मंगलमयी प्रेरणा प्राप्त होती है। आषाढ़ तथा अधिक मास में गोवर्धन पर्वत परिक्रमा हेतु लाखों श्रद्धालु आते हैं। ऐसी अपार भीड़ में भी राष्ट्रीय एकता और सद्भावना के दर्शन होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण, [[बलराम|बलदाऊ]] की लीला स्थली का दर्शन तो श्रद्धालुओं के लिए प्रमुख है ही यहाँ [[अक्रूर|अक्रूर जी]], [[उद्धव|उद्धव जी]], [[नारद|नारद जी]], [[ध्रुव|ध्रुव जी]] और वज्रनाथ जी की यात्रायें भी उल्लेखनीय हैं।
====जैन संस्कृति का प्रभाव====
पौराणिक युग में ब्रज में अनेक संस्कृतियों का समन्वय होते-होते जो ब्रज संस्कृति बनी, वह ऐतिहासिक युग में और भी विकसित हुई। जैसा की प्रथम शताब्दी में [[जैन धर्म]] ने ब्रज को विशेष रूप से प्रभावित किया। जैन धर्म के 22वें [[तीर्थंकर]] [[नेमिनाथ तीर्थंकर|नेमिनाथजी]] ब्रज के शौरिपुर राज्य के राजकुमार व भगवान [[श्रीकृष्ण]] के चचेरे भाई थे। [[मथुरा]] में जब वह [[विवाह]] के लिए पधारे, तब बारात के भोजन में पकड़े गए पशुओं के विशाल समूह को देखकर उन्होंने जीव-हिंसा के विरुद्ध [[विवाह]] करना ही अस्वीकार कर दिया और तप करने चले गए। बाद में उनकी अविवाहित पत्नी राजुल ने भी उन्हीं का अनुकरण किया। इससे ब्रज में जीव-हिंसा विरोधी जो प्रतिक्रिया हुई उसने पूरे समाज को ही प्रभावित किया। आज भी ब्रजवासियों का भोजन निरामिष व सात्विक है। अभी भी अधिकांश ब्रजवासी प्याज और यहाँ तक कि कुछ तो टमाटर तक से परहेज करते हैं। मथुरा व शौरिपुर दोनों ही किसी समय जैन धर्म के गढ़ थे। बटेश्वर में तीर्थंकर की जो दिव्य प्रतिमा है, वह आल्हा द्वारा स्थापित कही जाती है। जंबू स्वामी के कारण चौरासी तीर्थ आज भी [[भारत]] प्रसिद्ध है। कंकाली टीले पर किसी युग में जैन धर्म का प्रधान केंद्र था। यहाँ का विशाल जैन स्तूप देव निर्मित माना जाता था। जैनों का एक युग में इस क्षेत्र पर भारी प्रभाव था।
====बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार====
[[बौद्ध धर्म]] का भी मथुरा में व्यापक प्रचार रहा था। जब भगवान [[गौतम बुद्ध]] प्रथम बार मथुरा आए तो उस समय यहाँ यक्षों का बड़ा आतंक था। वैंदा नामक यक्षिणी ने पहले भगवान बुद्ध को परेशान किया, परंतु बाद में वह उनकी [[भक्त]] बन गई थी। मथुरा में बौद्ध धर्म कितना फला-फूला और उसका यहाँ कितन विस्तार हुआ, यह चीनी यात्री [[फाह्यान]] व [[ह्वेनसांग]] के वर्णनों से स्पष्ट हो जाता है। बुद्ध के सौ वर्ष बाद मथुरा में ही प्रसिद्ध भिक्षु [[उपगुप्त]] का जन्म हुआ था। वे [[मौर्य]] सम्राट [[अशोक]] को अपना शिष्य बनाकर बौद्ध धर्म को भारत से बाहर पूरे [[एशिया]] में फैलाने मे सफल हुए। मथुरा के ही कुशल कलाकारों ने सर्वप्रथम भगवान बुद्ध की मूर्ति का निर्माण किया था। मथुरा में बुद्धों के जितने विहार और संघाराम थे, उनका वर्णन विदेशी यात्रियों ने बड़े विस्तार से किया है। इस प्रकार जब तक भारत स्वतंत्र रहा, ब्रज की संस्कृति समन्वय तथा उच्च आदर्शों को अनुप्रमाणित करती हुई विविध प्रभावों से नवीन ओज, तेज और संवुद्धिशाली बनी रही, परंतु देश पर [[मुस्लिम|मुस्लिमों]] के आक्रमणों के बाद स्थिति बदल गई। ब्रज की संस्कृति और संवृद्धि पर पहला आक्रमण [[महमूद गज़नवी]] के नेतृत्व में हुआ।


==पुरातत्त्व में श्रावस्ती==  
==ब्रज की जीवन शैली==
[[चित्र:Jetavana-Vihara-Sravasti.jpg|जेतवन विहार के अवशेष, श्रावस्ती|250px|thumb]]
परम्परागत रूप से ब्रजवासी सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं। नित्य स्नान, भजन, मन्दिर गमन, दर्शन–झांकी करना, दीन–दुखियों की सहायता करना, अतिथि सत्कार, लोकोपकार के कार्य, पशु–पक्षियों के प्रति प्रेम, नारियों का सम्मान व सुरक्षा, बच्चों के प्रति स्नेह , उन्हें अच्छी शिक्षा देना तथा लौकिक व्यवहार कुशलता उनकी जीवन शैली के अंग बन चुके हैं। यहाँ कन्या को देवी के समान पूज्य माना जाता है। ब्रज वनितायें पति के साथ दिन–रात कार्य करते हुए कुल की मर्यादा रखकर पति के साथ रहने में अपना जीवन सार्थक मानती है। संयुक्त परिवार प्रणाली साथ रहने, कार्य करने ,एक–दूसरे का ध्यान रखने, छोटे–बड़े के प्रति यथोचित सम्मान , यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में परिलक्षित होता है। सत्य और संयम ब्रज लोक जीवन के प्रमुख अंग हैं। यहाँ कार्य के सिद्धान्त की महत्ता है और जीवों में परमात्मा का अंश मानना ही दिव्य दृष्टि है।
'''श्रावस्ती के प्राचीन इतिहास''' को प्रकाश में लाने के लिए प्रथम प्रयास ''[[कनिंघम|जनरल कनिंघम]]'' ने किया। उन्होंने सन् 1863 ई. में उत्खनन प्रारंभ करके लगभग एक [[वर्ष]] के कार्य में जेतवन का थोड़ा भाग साफ़ कराया। इसमें उनको एक [[बोधिसत्व]] की 7 फुट 4 इंच ऊँची प्रतिमा प्राप्त हुई जिस पर अंकित लेख से इसका श्रावस्ती विहार में स्थापित होना ज्ञात होता है। यह मूर्ति भिक्षुबल द्वारा कोसंबकुट्टी के विहार में स्थापित की गई थी। इस प्रतिमा के अधिष्ठान पर अंकित लेख में [[तिथि]] नष्ट हो गई है, परंतु लिपिशास्त्र के आधार पर यह लेख [[कुषाण काल|कुषाण-काल]] का प्रतीत होता है।<ref>उल्लेखनीय है कि इसी प्रकार की [[बोधिसत्त्व]] की एक और लेखयुक्त प्रतिमा [[सारनाथ]] से मिली है जो इसी भिक्षु बल द्वारा [[कनिष्क]] के राज्यकाल के तृतीय वर्ष में स्थापित की गई थी। अत: यह प्रतिमा प्रारंभिक [[कुषाण काल|कुषाणकाल]] की प्रतीत होती है। ब्लाक, जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल, भाग 67 (1898), प्लेट 1, पृष्ठ 274 और आगे (प्लेट के साथ)। एपिग्राफिया इंडिका, भाग 8 (1905-06), पृष्ठ 179 और आगे (प्लेट के साथ)।</ref> [[कनिंघम]] ने इस आधार पर '''सहेत के क्षेत्र को जेतवन''' और '''महेत के क्षेत्र को श्रावस्ती''' से समीकृत किया था।<ref>ए. कनिंघम, आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोटर्स भाग 1, पृष्ठ 377 और आगे।</ref> कनिंघम के अनुकरण पर डब्ल्यू. सी. बेनेट ने पक्की कुटी टीले की कुछ खुदाई करवाई थी।<ref>बेनेट के उत्खनन के लिए द्रष्टव्य, गजेटियरऑफ़ दि प्राविंसऑफ़ अवध (इलाहाबाद, 1878), पृष्ठ 286</ref> '''चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों के आधार पर इस टीले का समीकरण कनिंघम ने '''अंगुलिमाल स्तूप'''<ref>पूर्ववर्ती लेखक इसे अंगुलिमालिय स्तूप कहते हैं, जबकि इसका सही प्राकृत रूप अंगुलिमाल होना चाहिए।  जातक, (फाउसबोल संस्करण), भाग 5, पृष्ठ 466</ref> से किया था।'''
महिलाओं की मांग में [[सिन्दूर]] , माथे पर [[बिन्दी]], नाक में लौंग या बाली, कानों में कुण्डल या झुमकी–झाली, गले में [[मंगल सूत्र]], हाथों में [[चूड़ी]], पैरों में बिछुआ–चुटकी, महावर और पायजेब या तोड़िया उनकी सुहाग की निशानी मानी जाती हैं। विवाहित महिलायें अपने पति परिवार और गृह की मंगल कामना हेतु [[करवा चौथ]] का व्रत करती हैं, पुत्रवती नारियां संतान के मंगलमय जीवन हेतु [[अहोई अष्टमी]] का व्रत रखती हैं। स्वर्गस्तक सतिया चिह्न यहाँ सभी मांगलिक अवसरों पर बनाया जाता है और शुभ अवसरों पर नारियल का प्रयोग किया जाता है।


सन् 1876 ई. में कनिंघम ने इन स्थानों की खुदाई पुन: आरंभ करवाई, जिसमें 16 इमारतों की नीवें प्रकाश में आईं। इनमें अधिकांश [[स्तूप]] और परवर्ती काल के मंदिर थे।<ref>ए. कनिंघम, आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोटर्स, भाग 11, पृष्ठ 78</ref> इस बार उनको यहाँ से सिक्के और मृण्मूर्तियाँ भी मिलीं। [[उत्खनन]] से यह निश्चित हुआ कि जिस स्थान पर बोधिसत्व की विशाल मूर्ति मिली थी, वहाँ कोशंब-कुट्टी नामक विहार था। उसी के उत्तर में गंधकुटी अथवा मुख्य विहार था।
देश के कोने–कोने से लोग यहाँ पर्वों पर एकत्र होते हैं। जहां विविधता में एकता के साक्षात दर्शन होते हैं। ब्रज में प्राय: सभी मन्दिरों में [[रथ का मेला वृन्दावन|रथयात्रा]] का उत्सव होता है। चैत्र मास में वृन्दावन में [[रंग नाथ जी मन्दिर वृन्दावन|रंगनाथ जी]] की सवारी विभिन्न वाहनों पर निकलती है। जिसमें देश के कोने–कोने से आकर भक्त सम्मिलित होते हैं। ज्येष्ठ मास में [[गंगा दशहरा]] के दिन प्रात: काल से ही विभिन्न अंचलों से श्रद्धालु आकर यमुना में स्नान करते हैं। इस अवसर पर भी विभिन्न प्रकार की वेशभूषा और शिल्प के साथ राष्ट्रीय एकता के दर्शन होते हैं , इस दिन छोटे–बड़े सभी कलात्मक ढंग की रंगीन [[पतंग]] उड़ाते हैं।
====डब्ल्यू. ''होवी'' का उत्खनन====
''[[कनिंघम]]'' के सहेत में उत्खनन के समय (1875-76) ''डब्ल्यू. होवी'' ने महेत में खुदाई की। इसमें उन्हें महेत के पश्चिम में स्थित [[शोभनाथ मन्दिर श्रावस्ती|शोभनाथ जैन मंदिर]] के खंडहरों में कुछ मूर्तियाँ मिली।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-08, पृष्ठ 83</ref> श्री ''होवी'' ने इस क्षेत्र का गहन अन्वेषण 15 दिसम्बर 1884 से 15 मई 1885 तक किया तथा इसे क्षेत्र में बड़ी संख्या में स्मारकों का पता लगाया। अपनी रिपोर्ट में<ref>जर्नल ऑफ़ एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल (1892), प्लेट 1, अतिरिक्त संख्या (भाग 61</ref> ''होवी'' ने कुछ स्मारकों का समीकरण चीनी यात्रियों द्वारा वर्णित स्मारकों से करने का प्रयास किया, पंरतु अधिकांश स्मारकों के विषय में प्रर्याप्त प्रमाण का अभाव है। ''होवी'' द्वारा उत्खनित वस्तुओं में कुछ निम्नलिखित हैं<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वेऑफ़ इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-8, पृष्ठ 131-132</ref>-
# संवत् 1176 (1119 ई.) का एक [[शिलालेख]]।<ref>इस [[शिलालेख]] पर 18 पंक्तियों में [[देवनागरी लिपि]] एवं [[संस्कृत भाषा]] में एक लेख खुदा हुआ है। लेख भगवान [[बुद्ध]] की वंदना से प्रांरभ होता है, जिसे छोड़कर शेष संपूर्ण लेख [[छंद|छंदों]] में हैं। </ref>
# गुप्तलिपि में अभिलिखित एक [[लाल रंग]] का बलुए पत्थर का टुकड़ा।
# जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों पर अंकित दो अभिलेखों के : टुकड़े।
# एक प्राचीन दवात।
# एक अग्निमुख नाग की काँसे की प्रतिमा
# कच्ची मिट्टी की दस मुहरें। ये सभी [[बौद्ध धर्म]] संबंधित हैं।  
# कच्ची मिट्टी की 500 मुहरें।
# कर्नेकी (संभवत: [[कनिष्क]]) की एक [[तांबा|तांबे]] की मुद्रा।
[[चित्र:Jetavana-Sravasti-1.jpg|thumb|250px|left|जेतवन, श्रावस्ती]]
====जे.पी.एच.''फोगल'' तथा दयाराम साहनी का उत्खनन====
''होवी'' के उत्खनन के 23 वर्ष उपरांत [[फरवरी]]-[[अप्रैल]] 1908 ई. में ''जे.पी.एच.''फोगल'''' तथा दयाराम साहनी ने उत्खनन किया। ''फोगल'' ने महेत के प्राचीर की दीवारों और उसके प्रवेश-द्वारों की खोज की तथा उसके विस्तार को निरूपित किया। महेत के प्रमुख टीलों में उन्होंने पक्की कुटी, कच्ची कुटी और शोभनाथ मंदिर की खोज की। कच्ची कुटी में विशेष रूप से [[मिट्टी]] की मूर्तियाँ, खिलौने आदि मिले, जिनका कलात्मक एवं ऐतिहासिक दोनों महत्व है। शोभनाथ मंदिर से अनेक जैन मूर्तियाँ भी प्राप्त हुईं। सहेत के क्षेत्र से भी अनेक विहारों, [[स्तूप|स्तूपों]] और मंदिरों की रूपरेखा स्पष्ट की गई और बुद्ध तथा बोधिसत्व की मूर्तियाँ, सिक्के, मृण्मूर्तियाँ व मुहरें निकाली गईं।<ref>विस्तार के लिए द्रष्टव्य, आर्कियोलाजिकल सर्वेऑफ़ इंडिया (एनुअल रिपोर्ट), 1907-08, पृष्ठ 117</ref> इन वस्तुओं में सबसे महत्त्वपूर्ण [[कन्नौज]] के राजा गोविदचंद्र का एक दानपत्र है। इसी लेख के आधार पर विद्वानों ने सहेत को जेतवन से और महेत को श्रावस्ती से समीकृत किया है।


सन 1910-11 ई. में विख्यात पुरातत्त्ववेत्ता सर जान मार्शल की अध्यक्षता में दयाराम साहनी ने इस क्षेत्र की पुन: खुदाई की। इनका मुख्य कार्यस्थल जेतवन टीला था। उस उत्खनन में कुछ [[अभिलेख]], मूर्तियाँ, बड़ी मात्रा में मुद्राएँ तथा लेखयुक्त मुहरें, साँचे, मृण्मूर्तियाँ, मृण्भांड और ईंटें आदि मिली हैं।<ref>मेमायर्स ऑफ़ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, संख्या 50, पृष्ठ 3</ref> यद्यपि [[कनिंघम]] और ''होवी'' के उत्खननों में महेत और श्रावस्ती के समीकरण में कोई संदेह नहीं रह जाता फिर भी विंसेंट स्मिथ ने 1898 में एक लेख प्रकाशित करके कनिंघम के इस समीकरण पर आपत्ति प्रस्तुत की।<ref>वी.ए. स्मिथ, कौशांबी एंड श्रावस्ती, जर्नल आफ दि रायल एशियाटिक सोसाइटी (1898) पृष्ठ 527</ref> स्मिथ के तर्क का अनुमान चीनी यात्रियों के यात्रा-विवरणों पर आधारित था। उन्होंने श्रावस्ती को [[नेपाल]] की तराई में [[बालापुर]], कामदी और इंतावा गाँवों के मध्य में स्थित बतलाया है।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
आषाढ़ मास में  गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा हेतु प्राय: सभी क्षेत्रों से यात्री गोवर्धन आते हैं, जिसमें आभूषणों, परिधानों आदि से क्षेत्र की शिल्प कला उद्भाषित होती है। [[श्रावण]] मास में हिन्डोलों के उत्सव में विभिन्न प्रकार से कलात्मक ढंग से सज्जा की जाती है। भाद्रपद में मन्दिरों में विशेष कलात्मक झांकियां तथा सजावट होती है। आश्विन माह में सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र में कन्याएं घर की दीवारों पर गोबर से विभिन्न प्रकार की कृतियां बनाती हैं, जिनमें कौड़ियों तथा रंगीन चमकदार [[काग़ज़|काग़ज़ों]]  के आभूषणों से अपनी सांझी को कलात्मक ढंग से सजाकर [[आरती पूजन|आरती]] करती हैं। इसी माह से मन्दिरों में [[काग़ज़]] के सांचों से सूखे रंगों की वेदी का निर्माण कर उस पर [[अल्पना]] बनाते हैं। इसको भी 'सांझी' कहते हैं। कार्तिक मास तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिपूर्ण रहता है। [[अक्षय तृतीया]] तथा [[देवोत्थान एकादशी]] को मथुरा तथा वृन्दावन  की परिक्रमा लगाई जाती है। [[बसंत पंचमी]] को सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र बसन्ती होता है। फाल्गुन मास में तो जिधर देखो उधर नगाड़ों , झांझ पर चौपाई तथा [[होली]] के [[रसिया]] की ध्वनियां सुनाई देती हैं। नन्दगांव तथा बरसाना की [[होली|लठामार होली]], [[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी का हुरंगा]] जगत प्रसिद्ध है।
==ब्रज का प्राचीन संगीत==
ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी 16वीं शताब्दी के [[भक्तिकाल]] से मिलती है। इस काल में अनेकों [[संगीतज्ञ]]  वैष्णव संत हुए। संगीत शिरोमणि [[स्वामी हरिदास जी]], इनके गुरु आशुधीर जी तथा उनके शिष्य [[तानसेन]] आदि का नाम सर्वविदित है। [[बैजूबावरा]] के गुरु भी [[हरिदास|श्री हरिदास]] जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने [[अष्टछाप]] के कवि [[संगीतज्ञ]]  [[गोविंदस्वामी|गोविन्द स्वामी जी]] से ही संगीत का अभ्यास किया था। निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और [[संगीतज्ञ]]  हुए। अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि [[सूरदास]], [[नंददास|नन्ददास]], [[परमानन्ददास]] जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं। स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रज–संगीत के [[ध्रुपद]]–[[धमार]] की गायकी और [[रासलीला|रास–नृत्य]] की परम्परा चलाई।
[[चित्र:Rath-Yatra-Rang-Ji-Temple-Vrindavan-Mathura-5.jpg|thumb|180px|left|[[रंग नाथ जी मन्दिर वृन्दावन|रथ यात्रा]], [[वृन्दावन]]]]
====<u>संगीत</u>====
मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, [[बांसुरी]] ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है। वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में [[ढोल]] [[मृदंग]], [[झांझ]], [[मंजीरा]], ढप, [[नगाड़ा]], [[पखावज]], [[एकतारा]] आदि [[वाद्य यंत्र|वाद्य यंत्रों]] का प्रचलन है।


====स्मिथ के अनुसार====
16 वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ। यहाँ सबसे पहले [[वल्लभाचार्य|बल्लभाचार्य]] जी ने स्वामी हरदेव के सहयोग से [[विश्राम घाट मथुरा|विश्रांत घाट]] पर रास किया। रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है। ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है। अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई। सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया।
स्मिथ ने अपने एक परवर्ती लेख में बोधिसत्व के प्राप्ति-स्थान के संदर्भ में आपत्ति की जिस पर [[कनिंघम]] का सिद्धांत आधारित था। स्मिथ का यह अनुमान तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि पर्याप्त साहित्यिक और [[पुरातत्त्व|पुरातात्त्विक]] प्रमाणों ने श्रावस्ती का सहेत-महेत से समीकरण प्रमाणित कर दिया है। अधिक संभव है कि स्मिथ द्वारा अन्वेषित [[बालापुर]] के भग्नावशेष सेतव्य के हों। साहित्यक प्रमाणों से भी इस बात की पुष्टि होती है। [[पालि |पालि साहित्य]]<ref>सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13; जी.पी. मललसेकर, डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स, भाग दो, (लंदन 1960), पृष्ठ 1126</ref> में सेतव्य को श्रावस्ती और [[राजगृह]] के मार्ग के बीच में स्थित कहा गया है। इस प्रकार सेतव्य, संभवत: श्रावस्ती और [[कपिलवस्तु]] के बीच कहीं स्थित रही होगी। अत: स्मिथ का यह कथन कि सेतव्या ही श्रावस्ती थी, उचित नहीं प्रतीत होता।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>


==सहेत का उत्खनन==
स्वामी हरिदास  संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे। तानसेन जैसे प्रसिद्ध [[संगीतज्ञ]] भी उनके शिष्य थे। सम्राट [[अकबर]] भी स्वामी जी के मधुर संगीत- गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहाँ दूर से संगीत कला सीखने आते रहे।
[[चित्र:Jetavan-Monastery-Sravasti.jpg|thumb|250px|जेतवन विहार के अवशेष, श्रावस्ती]]
‘सहेत’ जो कि प्राचीन जेतवन विहार था, एक अत्यंत प्राचीन और महत्त्वपूर्ण स्थल था। यह संपूर्ण क्षेत्र 457.2 X 152.4 मीटर विस्तृत क्षेत्र में फैला था। यह टीला मैदान से 16 फुट ऊँचाई पर स्थित था। इस पुरातात्त्विक स्थल पर बड़ी संख्या में छोटे-छोटे टीले मिले हैं। इन टीलों में 20 का उत्खनन [[कनिंघम]] ने करवाया था। श्री ''होवी'' ने भी सहेत का उत्खनन करवाया था, लेकिन किसी भी भवन का पूर्ण उत्खनन न होने से तत्कालीन [[इतिहास]] पर प्रकाश नहीं पड़ता।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट 1907-8), पृष्ठ 117</ref> विभिन्न उत्खननों से सहेत का जेतवन से समीकरण निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। बौद्ध-स्थल होने के कारण यहाँ विशेष रूप से मंदिर, स्तूप और विहार मिलते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख पुरातात्विक स्थल निम्नलिखित हैं-
==== मंदिर और मठ स्थल 19 ====
इसकी खोज सर्वप्रथम श्री ''होवी'' ने की थी।<ref>जर्नल ऑफ़ द एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल, भाग 1, अतिरिक्त संख्या 1892, प्लेट 5 </ref> उन्होंने सतह से 3 फुट नीचे इस भवन के चारों तरफ खुदाई करवाई जिससे इस मंदिर के दो बार निर्मित होने की पुष्टि होती है। निर्माण संरचना से यह भवन 10वीं शताब्दी का प्रतीत होता है, परंतु कालांतर में ''फोगल'' की अध्यक्षता में इस क्षेत्र का पुन: [[उत्खनन]] प्रारंभ हुआ, जिससे यह ज्ञात हुआ कि यह जेतवन में स्थित एक विशाल भवन था, जिसका प्रवेश-द्वार पूर्व की ओर था। {{बाँयाबक्सा|पाठ=इस नगर के अन्य प्रसिद्ध स्थानों में '''पूर्वाराम और मल्लिकाराम''' उल्लेखनीय हैं। पूर्वाराम का निर्माण नगर के धनिक सेठ मृगधर की पुत्रवधु विशाखा के द्वारा कराया गया था। यह नगर के पूर्वी दरवाज़े के पास बना था। संभवत: इसीलिये इसका नाम पूर्वाराम<ref> अर्थात पूरबी मठ</ref> पड़ा। यह दो मंज़िला भवन था, जिसमें मज़बूती लाने के लिये पत्थरों की चुनाई की गई थी। लगता है कि मल्लिकाराम इससे बड़ा विश्राम-भवन था, जिसमें ऊपर और नीचे कई कमरे थे। इसका निर्माण श्रावस्ती की मल्लिका नाम की साम्राज्ञी के द्वारा कराया गया था।|विचारक=}}इस मठ में एक मंदिर भी था। आँगनयुक्त इस मठ में बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए 24 कमरे बने हुए थे।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 119 </ref> इस संरचना का निर्माण तीन बार इसी नींव पर हुआ था। प्रारंभिक भवन का निर्माण, जिसकी दीवार पर स्पष्ट हैं, छठी शताब्दी में हुआ था और मध्यवर्ती भवन का निर्माण [[गुप्त काल]] में हुआ था। इसका काल-निर्धारण दीवारों की निर्माण-पद्धति एवं एक कमरे से प्राप्त पकाई [[मिट्टी]] की मुहर से संभव हुआ। इस मुहर में [[बुद्ध]] को [[धर्मचक्र]]-प्रवर्तन मुद्रा में अंकित दिखाया गया है और नीचे गुप्त-लिपि में तीन पंक्तियाँ अंकित हैं। परवर्ती भवन इसी नींव पर 10वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था। श्री ''होवी'' के उत्खनन से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।
;अन्य उत्खनित वस्तु
अन्य उत्खनित वस्तुओं में बुद्ध प्रतिमाओं की संख्या अधिक है। इनमें से एक प्रतिमा [[अवलोकितेश्वर]] व [[मैत्रेय]] के साथ भूमि स्पर्श मुद्रा में है। एक अन्य मूर्ति में भगवान बुद्ध एक बंदर से कटोरा ग्रहण कर रहे हैं। यह दृश्य [[वैशाली]] की उस घटना का विवरण प्रस्तुत करता है, जिसमें [[बुद्ध]] एक [[बंदर]] से [[शहद]] ग्रहण करते हुए प्रदर्शित किए गए हैं। ये दोनों मूर्तियाँ 9वीं-10वीं शताब्दी की हैं।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
;नवीनतम संरचना
इस स्थान पर नवीनतम संरचना 11वीं-12वीं शताब्दी में हुई, जो चौकोर है। इसका एक भाग 35.90 मीटर विस्तृत है। इसके आंतरिक भाग के बीच में एक खुला आँगन था, जिसके चारों ओर कक्ष बने हुए थे। कक्ष और आँगन के मध्य गलियारा भी था। इसमें बने कमरे छोटे आकार के हैं। एक कमरे में पश्चिमी दीवार की ओर एक ईंट का बना 1.20 मीटर का चबूतरा था। यहीं एक कमरे से [[कन्नौज]] के शासक [[गोविन्द चन्द्र|गोविंद्रचन्द्र गहड़वाल]] का लिखित ताम्रपत्र मिला है।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स (कलकत्ता, प्रथम संस्करण, 1971), पृष्ठ 77 </ref> इन महत्त्वपूर्ण सूचनाओं से जेतवन की सहेत से समानता निश्चित हो जाती है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ [[बौद्ध धर्म]] का प्रभाव 12वीं शताब्दी तक स्थायी रहा।
;स्तूप
मठ के समीपवर्ती पूर्व और उत्तर-पूर्व कई [[स्तूप|स्तूपों]] का निर्माण हुआ, जिनमें आठ स्तूप मुख्य है। इनमें से एक स्तूप का नवीनीकरण दयाराम साहनी द्वारा किया गया यहाँ से 5वीं शताब्दी की एक लिपियुक्त मुहर मिली है जिस पर बुद्धदेव का नाम अंकित है। इन स्तूपों के उत्तर-पश्चिम एक अष्टभुजीय [[कुआँ]] स्थित था, जो आज भी वर्तमान है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 120 </ref>
====मंदिर स्थल 11 और 12====
ये दोनों भवन एक समान थे। इनका प्रवेश-द्वार उत्तराभिमुख था। प्रत्येक मंदिर एक केंद्रीय कक्ष से युक्त था जो अंदर से 2.10 मीटर (7 फुट) चौकोर क्षेत्र में विस्तृत था। इस कक्ष में एक 6 इंच ऊँचा ईंटों का चबूतरा था। मंदिर के दोनों किनारे के कक्ष अपेक्षाकृत बड़े थे, जिनकी भीतरी लंबाई-चौड़ाई 10 फुट X 9 फुट थी। केंद्रीय कक्ष की बनावट से ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें बुद्ध प्रतिमा स्थापित रही होगी और किनारे के कमरों में अन्य [[देवता|देवताओं]] की प्रतिमाएँ स्थापित रही होंगी। [[कनिंघम]] का मत है कि मध्य का कमरा बुद्ध प्रतिमा से युक्त रहा होगा और किनारे के कमरे बौद्ध-भिक्षुओं के आवासगृह रहे होंगे।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 121</ref>
[[चित्र:Gandhakuti-Jetavana-Vihara-2.jpg|thumb|250px|गंधकुटी जेतवन विहार के भिक्षु, श्रावस्ती]]
====मंदिर स्थल 6 और 7====
अष्टभुजीय कुएँ के उत्तर दो मंदिरों के [[अवशेष]] मिले है। इनमें से मंदिर स्थल 6 का प्रवेश-द्वार उत्तर की ओर है, जबकि मंदिर स्थल 7 का प्रवेश-द्वार पूर्व की तरफ है। मंदिर स्थल-अपेक्षाकृत बड़ा है जो कि एक 3.60 मीटर वर्गाकार कमरे से युक्त था। इस मंदिर में प्रयुक्त ईंटें बड़े आकार की हैं, जिससे संभावना है कि यह मंदिर जेतवन के प्राचीन मंदिरों में से एक था।
====स्तूप स्थल 17 और 18====
पूर्व उल्लिखित मंदिर के पूर्व में दो स्तूप थे जिन्हें स्तूप 17 और 18 नाम दिया गया है। स्तूप स्थल 17 का मूल वर्गाकार है, उसके ऊपर वृत्ताकार अंड है। इसका व्यास 6.70 मीटर था। यह भाग बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है। प्रारंभिक अधिष्ठान 60 सेन्टीमीटर ऊँचा था, जो [[कुषाण काल|कुषाणकालीन]] (प्रथम शती ई.) है। स्तूप का अधोभाग कंकरीट फर्श के सतह से नीचे खुला नहीं था, लेकिन इस सरंचना की गहराई को ज्ञात करने के लिए स्तूप को शीर्ष पर खोल दिया गया तथा परवर्ती स्तर की सतह से लगभग 2.10 मीटर नीचे मध्यभाग में एक दंड गाड़ दिया गया। इस स्तूप के गर्भ में एक धातु-पात्र मिला है, जिसमें [[सोना|सोने]] के तार, मनके एवं स्फटिकतुल्य वस्तुएँ थीं।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स (कलकत्ता, प्रथम संस्करण, 1971 ई.) पृष्ठ 78</ref> ये सभी वस्तुएँ तथा सतह के नीचे की संरचना [[कुषाण काल|कुषाणकालीन]] (प्रथम शती ई.) है।


इसका समीपवर्ती स्तूप स्थल 18 अपेक्षाकृत छोटा है। इसके अंड का व्यास 4.20 मीटर (14 फुट) है। उत्खनन में इस स्तूप के गर्भ से भी एक अभिलिखित मिट्टी का कटोरा मिला है, जिसमें हड्डियों के टुकड़े, पत्थर के मनके एवं मोतियाँ थीं। कटोर पर कुषाण-लिपि में ‘भदंत बुद्धदेव’ लिखा है। इस स्तूप का निर्माण भी कुषाण-काल में हुआ था, इस मंदिर सम्मुख दो चबूतरों के अवशेष भी मिलें हैं। इन चबूतरों (चंक्रम) का निर्माण उसी स्थान पर किया गया है, जहाँ [[बुद्ध]] टहलते थे।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
====<u>लोक गीत</u>====
ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है। श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है। लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहल–तबील, भगत आदि संगीत भी समय –समय पर सुनने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समय–समय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं।
====<u>कला</u>====
{{main|मूर्ति कला मथुरा}}
यहाँ स्थापत्य तथा मूर्ति कला के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण युग कुषाण काल के प्रारम्भ से गुप्त काल के अन्त तक रहा। यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें 12वीं शती के अन्त तक जारी रहीं। इसके बाद लगभग 350 वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरुद्ध रहा, पर 16वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा [[चित्रकला]] के रूप में दिखाई पड़ने लगता है।


====स्तूप स्थल 5====
जेतवन विहार में स्थित यह एक महत्त्वपूर्ण स्तूप था, जो 9.10 मीटर ऊँचा शंक्वाकार टीले से ढका था। इसका उत्खनन सर्वप्रथम [[कनिंघम]] ने करवाया था।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग 11, पृष्ठ 88</ref> इस [[स्तूप]] के ऊपर का भाग गोलार्द्धीय स्तूप की भाँति था, जिसकी नीचे एक चौकोर कक्ष था। यह संरचना ठोस ईंटों से निर्मित थी। इसकी प्रत्येक भुजा की लंबाई 7.50 मीटर थी। स्तूप की सफाई करते समय इसके तल में दो चबूतरों का पता चला। निचला चबूतरा 24.90 X 21.30 मीटर चौड़ा था। एक अन्य परवर्ती चबूतरे के अवशेष भी मिले हैं जो 17.80 X 15 मीटर चौड़ा था। इसमें प्रयुक्त ईंटें 11 X 7<sup>1/2</sup> X 2 इंच आकार की हैं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 122</ref> निरीक्षण करने पर पता चला कि इसकी पूर्वी दीवार में प्रवेश-द्वार के चिह्न थे, जिससे यह निश्चित हो गया कि वास्तव में यह एक प्रदक्षिणा पथयुक्त स्तूप था, किंतु बाद में इसे पूजागृह (मंदिर) बना दिया गया तथा कालांतर में इसके प्रवेश द्वार को बंद करके इसे स्तूप रूप में परिवर्तित कर दिया गया।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स, पृष्ठ 78</ref> प्रारंभिक प्रदक्षिणा पथ युक्त स्तूप कुषाणकालीन प्रतीत होता है। जेतवन में यह सबसे लंबा स्तूप है। उत्खनन में यहाँ से कुछ मिट्टी की मुहरें भी मिली हैं, जो बुद्ध के जीवनकालीन चिह्नों से युक्त है। स्तूप के ऊपरी भाग से प्राप्त वस्तुएँ 8 वीं-10वीं शताब्दी की हैं, जो परवर्ती स्तूप निर्माण का काल-क्रम निश्चित करती हैं।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
[[चित्र:Jetavan-Monastery-3.jpg|thumb|250px|left|जेतवन मठ, श्रावस्ती]]
====मंदिर और मठ स्थल 1====
इस मंदिर की अंशत: खुदाई [[कनिंघम]] ने करवाई थी। इस मठ के अवशेष अब भी द्रष्टव्य हैं। इसकी पूर्व से पश्चिम लंबाई 150 फुट तथा चौड़ाई 142 <sup>½</sup> फुट है। जेतवन में स्थित यह एक बड़ा विहार है। जो उत्तर किनारे पर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस मठ में एक मंदिर और और मंडपयुक्त आँगन भी था। सामान्य योजना के आधार पर निर्मित इस मठ के मध्य में आँगन में एक कुएँ के अवशेष भी मिले है। पूर्वी पंक्ति का केंद्रीय कक्ष अन्य सभी कक्षों में बड़ा था। ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी छत महाकक्ष (हाल) के मध्य स्थित चार स्तंभों पर आधारित थी। इन स्तंभों के आधार पर प्रयुक्त ईंटों के केवल अवशेष मात्र ही द्रष्टव्य हैं। बरामदे में प्रयुक्त खंभे संभवत: लकड़ी के बने थे। आँगन और कक्षों की फर्श में कंकरीट का प्रयोग मिलता है।


इस मठ में मंदिर और मंडप बने होने के कारण यह मठ संख्या 19 से भिन्न था। मंदिर मे प्रयुक्त ईंटें कई आकार की है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1907-08, पृष्ठ 125</ref> यथा-13 इंच X 7इंच X 2 <sup>½</sup> इंच, 10 इंच X 10 इंच X 2 <sup>½</sup> इंच X 9 इंच X 7 <sup>½</sup> इंच X 1 <sup>¾</sup> इंच। मंडप स्थल के बाहरी भाग में एक ढलावदार बरामदा बना था। उपासना स्थल को जाने वाले पथ एवं मंडप के मध्य यह बरामदा अंतराक्षेप स्वरूप स्थित था।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
==ब्रज के प्रमुख पर्व एवं त्योहार==
ब्रजभूमि पर्वों एवं त्योहारों की भूमि है। यहाँ की संस्कृति उत्सव प्रधान है। यहाँ हर ऋतु माह एवं दिनों  में पर्व और त्योहार चलते हैं। कुछ प्रमुख त्योहारों का विवरण निम्नवत है।


==== मंदिर स्थल 2 ====
<center>
मंदिर स्थल 3 से 61 मीटर उत्तर में यह मंदिर स्थित था। इसका उत्खनन सर्वप्रथम [[कनिंघम]] ने करवाया और स्थिति के आधार पर इसे गंधकुटी से समीकृत किया।<ref>कनिंघम, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, भाग 11, पृष्ठ 84</ref> कनिंघम के पश्चात श्री ''होवी'' ने इस स्थल का उत्खनन किया। ''होवी'' ने सर्वप्रथम प्रवेश-कक्ष का पता लगाया और मंदिर के चारों तरफ के कंकरीट, फर्श और चाहरदीवारी को स्पष्ट किया। इस चाहरदीवारी की लंबाई पूर्व से पश्चिम 115 फुट तथा चौड़ाई एवं मोटाई क्रमश: 39 फुट और 8 फुट थी। दक्षिण और पश्चिमी तरफ से कंकरीट फर्श को हटाने पर ''होवी'' को नीचे अधिष्ठान के [[अवशेष]] मिले। इस अधिष्ठान की लंबाई एवं चौड़ाई क्रमश: 75 फुट एवं 57 फुट थी। अधिष्ठान के पूर्वी किनारे पर 15 फुट 6 इंच गहरा एवं 12 फुट चौड़ा एक प्रक्षेपण है, जो दो कक्षों में विभाजित है। ये कक्ष आपस में संबंधित नहीं हैं, अधिक संभव है कि ये सीढ़ियों से युक्त रहे हों। इस अधिष्ठान की वर्तमान ऊँचाई 7 फुट से अधिक नहीं है।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
{| class="bharattable-green"
;गंधकुटी
! colspan="6"|पर्व एवं त्योहार
''फोगल'' ने कनिंघम के मत का खंडन करते हुए इस स्थान को गंधकुटी से समीकृत करने में आपत्ति की है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि यदि उन दिनों [[बुद्ध]] के जीवन से संबंधित स्थलों पर गंधकुटी का निर्माण होता था, तो क्या कारण है कि [[उत्खनन]] में किसी भी स्थल से इसके [[अवशेष]] नहीं मिलते? साथ ही गंधकुटी से संबंधित स्थापत्य-कला का भी कोई उदाहरण ज्ञात नहीं हो पाया है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 123-124</ref> भरहुत स्तूप<ref>बरुआ, भरहुत, भाग 2, पृष्ठ 31; रीज डेविड्स बुद्धिस्ट इंडिया, चित्र संख्या-23</ref> में चित्रित गंधकुटी के अग्र उत्सेध का ही चित्रण किया गया है। जिससे इस भवन की निर्माण योजना एवं रूपांकन के संदर्भ में निष्कर्ष निकालना कठिन है। अत: हमें '''केवल पालि साहित्य में वर्णित उद्धरणों पर ही विश्वास''' करना चाहिए। गन्धकुटी के सन्दर्भ में एच.सी.नार्मन<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 124</ref> ने एक निबंध प्रकाशित कर तीन मुख्य बातों पर ज़ोर दिया है-
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[[चित्र:Jetavan-Monastery-6.jpg|thumb|250px|जेतवन मठ, श्रावस्ती]]
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# यह बुद्ध का व्यक्तिगत निवास-स्थान था।
[[होली]]
# यह स्मारकों के मध्य में स्थित होता था।<ref>[[जातक कथा|जातकों]] में भी गंधकुटी को मध्य में स्थित बतलाया गया है- ‘सो मज्झे गंधकुटी कारेसि’, जातक, खंड 1, पृष्ठ 92</ref> इस पर चढ़ने के लिए एक सीढ़ी बनी होती थी।
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# इस मंदिर में [[पुष्प|पुष्पों]] का संग्रह होता था, जो अपने सुगंध के नामानुरूप थी।
[[कृष्ण जन्माष्टमी]]  
उपर्युक्त मत पर विचार करने से गंधकुटी का स्मारकों के मध्य स्थित होना निश्चित हो जाता है जबकि यह उत्खनित स्थल मध्य में स्थित नहीं था।<ref>[[भारतवर्ष]] में किसी भी बुद्धकालीन स्थल से इस प्रकार के भवन मध्य में नहीं मिलते। भवन संख्या 1 को संभवत: इस वर्णन के आधार पर गंधकुटी से समीकृत किया जा सकता है।</ref> जहाँ तक काल का प्रश्न है यह मंदिर [[गुप्त काल]] से पूर्ववर्ती नहीं है। अत: उपर्युक्त आधार पर मंदिर स्थल 2 का गंधकुटी से समीकरण उचित नहीं प्रतीत होता।
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====मंदिर स्थल 3====
[[यमुना षष्ठी]]  
इस मंदिर का भी उत्खनन सर्वप्रथम [[कनिंघम]] ने ही किया था। पूर्वाभिमुख यह मंदिर बोधिवृक्ष से 76.20 मीटर दूरी पर स्थित है। यह वहीं स्थित है जहाँ अनाथपिंडक ने कोसंबकुट्टी का निर्माण कराया था। कनिंघम ने भी इसकी पहचान कोसंबकुट्टी से की है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 122</ref> इस कोसंबकुट्टी का उपयोग बुद्ध के व्यक्तिगत कार्यों के लिये किया जाता था।<ref>कोसंबकुट्टी का वर्णन [[साहित्य]] में भी मिलता है, देखें, सुमंगलविलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 407</ref> उत्खनन में यहाँ से [[बोधिसत्व]] की एक प्रतिमा भी मिली जिस पर प्रथम शताब्दी ई. की [[लिपि]] में लेख अंकित है। विश्वास किया जाता है कि यह प्रतिमा कोसंबकुट्टी में बल नामक भिक्षु द्वारा [[कुषाण काल]] में स्थापित की गई थी।
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;मंदिर स्थल 3 का परिमाण
[[गुरु पूर्णिमा]]  
इस मंदिर का परिमाण 5.75 X 5.45 मीटर क्षेत्र में था। इस परिमाण के अंदर तहखाना, मंदिर की दीवारें और मंडप स्थित थे। मंदिर की भीतरी परिधि 2.45 मीटर चौकोर थी और इसकी दीवारें 1.20 मीटर मोटी थीं। इस मंदिर के दक्षिण-पूर्व और उत्तर-पूर्व में ठोस ईंटों के बने दो चबूतरे (चंक्रम) थे। इस पर चढ़ने के लिए बीच से सीढ़ियाँ बनी थीं। दक्षिण-पूर्व वाला चबूतरा 10 फुट चौड़ा और 4 फुट ऊँचा था। पूर्व की ओर इसकी लंबाई 53 फुट थी। उत्तर-पूर्व वाले चबूतरे की लंबाई पश्चिम से पूर्व 61 फुट और चौड़ाई 5 फुट थी। मंदिर के अत्यंत समीप स्थित होने के कारण [[अभिलेख]] में वर्णित चंक्रम से इसकी समता स्थापित की जा सकती है।<ref>एम. वेंकटरम्मैया, श्रावस्ती, पृष्ठ 18</ref> एक अन्य चंक्रम [[अवशेष]] [[बोधगया]] के [[महाबोधि मंदिर]] से मिले थे। बोधगया से प्राप्त चंक्रम छायादार थी।
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;मंदिर स्थल 3 का उत्खनन
[[गंगा दशहरा|गंगा–दशहरा]]
[[उत्खनन]] से प्राप्त [[बौद्ध]]-प्रतिमा पर अंकित कुषाण लिपि में<ref>एपिग्राफिया एंडिका, भाग 8 पृष्ठ 180-181</ref> चंक्रम का वर्णन है जिसकी खोज [[कनिंघम]] ने की थी, परंतु यह निश्चित नहीं कि यह [[तथागत]] के टहलने के लिए बना वास्तविक कोसंबकुट्टी का चंक्रम था। कोसंबकुट्टी नामक यह भवन श्रावस्ती के दो प्रमुख भवनों में एक था। यह प्राय: असंभव प्रतीत होता है कि इन भवनों के विनाश के पश्चात बुद्ध की उपासना स्थल के लिए किसी और स्थान का चुनाव किया गया हो। अत: पालि-साहित्य में वर्णित कोशंबकुट्टी तथा उत्खनन में प्राप्त इस स्थल के समीकरण में किसी प्रकार का संशय नहीं रह जाता।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
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[[रंग नाथ जी मन्दिर वृन्दावन|रथ–यात्रा]]
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[[रामनवमी]]  
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[[राधाष्टमी]]
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[[शरद पूर्णिमा]]  
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[[यम द्वितीया]]
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[[गोवर्धन पूजा]]  
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[[गोपाष्टमी]]  
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[[अक्षय नवमी]]  
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[[कंस मेला]]  
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[[कार्तिक स्नान]]  
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[[यम द्वितीया]]
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[[गोपाष्टमी]]
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[[शिवरात्रि]]
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{| class="bharattable-green"
|+ ब्रज के प्रमुख पर्व एवं त्योहार
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| [[चित्र:Vishram-Ghat-11.jpg|यम द्वितीया स्नान, विश्राम घाट, मथुरा|60px]]
| [[चित्र:Krishna-Janamashthmi-Mathura-1.jpg|कृष्ण जन्माष्टमी पर कृष्ण जन्मभूमि का दृश्य|60px]]
| [[चित्र:Kansa-Fair-2.jpg|कंस मेला, [[मथुरा]]|60px]]
| [[चित्र:Holi Barsana Mathura 1.jpg|लट्ठामार होली, [[बरसाना]]|60px]]
| [[चित्र:Baldev-Temple-3.jpg|होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव|60px]]
| [[चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 12.jpg|होली, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]|60px]]
| [[चित्र:Rath-Yatra-Rang-Ji-Temple-Vrindavan-Mathura-3.jpg |रथ यात्रा, [[वृन्दावन]]|60px]]
| [[चित्र:Holi-Holigate-Mathura-1.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]|60px]]
|}
</center>


==महेत का उत्खनन==
[[चित्र:Pakki-Kuti-Kachchi-Kuti-Mahet.jpg|thumb|250px|महेत, श्रावस्ती]]
महेत का समीकरण प्राचीन श्रावस्ती से किया गया है। [[कनिंघम]] ने इसकी परिधि का विस्तार 17300 फुट निर्धारित किया है।<ref>ए. कनिंघम , ऐंश्येंट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया, पृष्ठ 346</ref> ''फोगल'' ने श्रावस्ती नगर का घेरा 17250 फुट तथा संपूर्ण क्षेत्रफल 40.773 एकड़ निश्चित किया है। इस नगर में ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी के बीच निरंतर परिवर्तन होते रहे। चीनी चात्रियों ने इस नगर को परित्यक्त एवं निर्जन पाया। [[कोशल|कोशल राज्य]] के पतन के पश्चात इस नगर का क्रमश: ह्रास होता गया। अत: श्रावस्ती नगर के विस्तार का कभी मौक़ा नहीं मिल पाया। इस नगर का पूर्ण विनाश 12 वीं शताब्दी में [[मुसलमान|मुसलमानों]] द्वारा किया गया। इस प्रकार ''फोगल'' द्वारा उल्लिखित वर्तमान महेत का 17250 फुट का घेरा श्रावस्ती की प्राचीन सीमा से बढ़ा हुआ नहीं प्रतीत होता।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
====विस्तार और विन्यास====
विस्तार और विन्यास की दृष्टि से महेत प्राचीन नगर का एक प्रमुख स्थल था। नगर का बाहरी विस्तार [[मिट्टी]] की प्राचीरों से परिवेष्टित था। प्राचीरों की ऊँचाई एक समान नहीं है। पश्चिमी ओर की प्राचीरें 35 से 40 फुट ऊँची है, जबकि दक्षिण और पूर्व की प्राचीरों की ऊँचाई 25 फुट से 30 फुट है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 84</ref> उन्नीसवीं शताब्दी संपूर्ण क्षेत्र वनों से आच्छादित था। प्राचीरों के बीच-बीच में खुला भाग था, जिन्हें लोग दरवाज़ा कहते थे।<ref>ऐसा प्रतीत होता है कि चार दरवाज़ों (पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण) को छोड़कर प्रवेश के लिए प्रयुक्त होने वाले ये वास्तविक दरवाज़े नहीं थे। वरन समय-समय पर नागरिकों द्वारा सुविधानुसार बनाए गए स्थानापन्न दरवाज़े थे। </ref> इस तरह के दरवाज़ों की संख्या अट्ठाइस है, जिसमें ''फोगल'' ने ग्यारह को ही दरवाज़ा माना है, जिनमें से उत्तर और पूर्व की ओर एक-एक, दक्षिण की ओर चार और पश्चिम की ओर पाँच दरवाज़े हैं।


उपर्युक्त दरवाज़ों में से कुछ का नामकरण उसकी स्थिति के आधार पर किया गया है। उदाहरणार्थ- एक दरवाज़ा '''पिपरहवा''' के नाम से जाना जाता है। इसका नामकरण प्राचीर के आस-पास एक विशेष प्रकार के वृक्ष, [[पीपल]] के उगने के कारण हुआ था। अन्य मुख्य दरवाज़ों में गंगापुर, बंकी, गेलही, नौसहरा, काँदभारी एवं बाज़ार दरवाज़े हैं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 85-90</ref> उत्खनन में इस स्थल से कच्ची कुटी, पक्की कुटी एवं शोभनाथ मंदिर के अवशेष मिले हैं। इन स्थलों से प्राप्त वस्तुओं में मृण्मूतियाँ, मृण्भांड, मुहरें, प्रतिमाएँ एवं लोहे के उपकरण भी हैं।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
==ब्रज के मुख्य दर्शनीय स्थल==
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! style="width:15%"| नाम
! style="width:58%"| संक्षिप्त विवरण
! style="width:15%"| चित्र
! style="width:12%"|मानचित्र लिंक
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| [[कृष्ण जन्मभूमि]]
| style="text-align:left"|भगवान [[कृष्ण|श्री कृष्ण]] की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्त्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर [[मथुरा]] जनपद भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। [[पर्यटन]] की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं [[कृष्ण जन्मभूमि|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Krishna Birth Place Mathura-13.jpg|कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा|150px]]
| [http://maps.google.com/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=shri+krishna+janm+bhoomi&sll=27.505493,77.665958&sspn=0.016596,0.042272&ie=UTF8&hq=shri+krishna+janm+bhoomi&hnear=&ll=27.509794,77.665873&spn=0.033495,0.084543&z=14 गूगल मानचित्र]
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| [[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|द्वारिकाधीश मन्दिर]]
| style="text-align:left"|[[मथुरा]] नगर के राजाधिराज बाज़ार में स्थित यह मन्दिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला एवं सौन्दर्य के लिए अनुपम है। [[ग्वालियर]] राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने इसका निर्माण 1814–15 में प्रारम्भ कराया, जिनकी मृत्यु पश्चात इनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचन्द्र ने मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया [[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Dwarikadish-temple-1.jpg|द्वारिकाधीश मन्दिर|150px]]
| [http://maps.google.com/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=dwarkadhish+temple+mathura&sll=27.509794,77.665873&sspn=0.035399,0.084543&ie=UTF8&hq=dwarkadhish+temple&hnear=Mathura,+Uttar+Pradesh+281001,+India&ll=27.510022,77.684669&spn=0.033495,0.084543&z=14 गूगल मानचित्र]
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| [[राजकीय संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]]
| style="text-align:left"|मथुरा का यह विशाल संग्रहालय डेम्पीयर नगर, मथुरा में स्थित है। भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है । भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अंकित मानवीय आकारों में बनी प्रतिमाएं दिखलाई पड़ती हैं  [[राजकीय संग्रहालय मथुरा|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Mathura-Museum-1.jpg|राजकीय संग्रहालय|150px]]
| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=mathura+museum&sll=27.576574,77.682352&sspn=0.020694,0.042272&ie=UTF8&hq=museum&hnear=Mathura,+Uttar+Pradesh+281001&z=16&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[बांके बिहारी मन्दिर वृन्दावन|बांके बिहारी मन्दिर]]
| style="text-align:left"|बांके बिहारी मंदिर [[मथुरा]] ज़िले के [[वृंदावन]] धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी [[कृष्ण]] का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री [[हरिदास]] जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया [[बांके बिहारी मन्दिर वृन्दावन|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Banke-Bihari-Temple.jpg|150px|बांके बिहारी मन्दिर]]
| [http://maps.google.com/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=banke+bihari+temple+vrindavan&sll=28.386568,79.425488&sspn=0.083666,0.110378&ie=UTF8&hq=banke+bihari+temple&hnear=Vrindavan,+Mathura,+Uttar+Pradesh+281124,+India&ll=27.581215,77.691042&spn=0.010061,0.013797&z=16&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[रंग नाथ जी मन्दिर वृन्दावन|रंग नाथ जी मन्दिर]]
| style="text-align:left"|श्री सम्प्रदाय के संस्थापक [[रामानुज|रामानुजाचार्य]] के विष्णु-स्वरूप भगवान रंगनाथ या रंगजी के नाम से रंग जी का मन्दिर सेठ लखमीचन्द के भाई सेठ गोविन्ददास और राधाकृष्ण दास द्वारा निर्माण कराया गया था। उनके महान गुरु [[संस्कृत]] के आचार्य स्वामी रंगाचार्य द्वारा दिये गये मद्रास के रंग नाथ मन्दिर की शैली के मानचित्र के आधार पर यह बना था। इसकी बाहरी दीवार की लम्बाई 773 फीट और चौड़ाई 440 फीट है [[रंग नाथ जी मन्दिर वृन्दावन|.... और पढ़ें]]
|[[चित्र:Rang-ji-temple-2.jpg|150px|रंग नाथ जी मन्दिर]]
| [http://maps.google.com/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=rang+nath+temple+vrindavan&sll=27.581215,77.691042&sspn=0.010061,0.013797&ie=UTF8&ll=27.583269,77.704196&spn=0.020122,0.027595&z=15&iwloc=lyrftr:m,12219994355026929546,27.582242,77.70175 गूगल मानचित्र]
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| [[गोविन्द देव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्द देव मन्दिर]]
| style="text-align:left"|गोविन्द देव जी का मंदिर वृंदावन में स्थित [[वैष्णव संप्रदाय]] का मंदिर है। मंदिर का निर्माण ई. 1590 में तथा इसे बनाने में 5 से 10 वर्ष लगे। मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है [[औरंगज़ेब]] ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक [[वृन्दावन]] के वैभवशाली मंदिरों की है [[गोविन्द देव मन्दिर वृन्दावन|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Govind-dev-temple-6.jpg|150px|गोविन्द देव मन्दिर]]
| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=Govindji+Temple,+Vrindavan,+Uttar+Pradesh&sll=21.125498,81.914063&sspn=43.661359,86.572266&ie=UTF8&hq=Govindji+Temple,&hnear=Vrindavan,+Mathura,+Uttar+Pradesh+281124&ll=27.581462,77.69954&spn=0.010346,0.021136&z=16&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन|इस्कॉन मन्दिर]]
| style="text-align:left"|[[वृन्दावन]] के आधुनिक मन्दिरों में यह एक भव्य मन्दिर है। इसे अंग्रेज़ों का मन्दिर भी कहते हैं। केसरिया वस्त्रों में हरे रामा–हरे कृष्णा की धुन में तमाम विदेशी महिला–पुरुष यहाँ देखे जाते हैं। मन्दिर में राधा कृष्ण की भव्य प्रतिमायें हैं और अत्याधुनिक सभी सुविधायें हैं [[इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Iskcon-Temple-1.jpg|इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन|150px]]
| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=Iskcon+Temple+vrindavan&sll=21.125498,81.914063&sspn=43.661359,86.572266&ie=UTF8&hq=Iskcon+Temple&hnear=Vrindavan,+Mathura,+Uttar+Pradesh+281124&ll=27.576574,77.682352&spn=0.020694,0.042272&z=15&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन|मदन मोहन मन्दिर]]
| style="text-align:left"|[[श्रीकृष्ण]] भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर [[मथुरा]] ज़िले के [[वृंदावन]] धाम में विद्यमान है। विशालकायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। पुरातनता में यह मंदिर [[गोविन्द देव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्द देव जी के मंदिर]] के बाद आता है [[मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन|.... और पढ़ें]] 
| [[चित्र:Madan-Mohan-Temple-4.jpg|100px|मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन]]
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| [[दानघाटी गोवर्धन|दानघाटी मंदिर]]
| style="text-align:left"|मथुरा–[[डीग भरतपुर|डीग]] मार्ग पर [[गोवर्धन]] में यह मन्दिर स्थित है। गिर्राजजी की परिक्रमा हेतु आने वाले लाखों श्रृद्धालु इस मन्दिर में पूजन करके अपनी परिक्रमा प्रारम्भ कर पूर्ण लाभ कमाते हैं। ब्रज में इस मन्दिर की बहुत महत्ता है। यहाँ अभी भी इस पार से उसपार या उसपार से इस पार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय [[कृष्ण]] ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक–झोंक के साथ दानलीला की है [[दानघाटी गोवर्धन|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 2.jpg|100px|दानघाटी]]
| [http://maps.google.co.in/maps?f=d&source=s_d&saddr=Major+District+Road+70/MDR+70&daddr=27.50066,77.65306+to:Pagal+Baba+Temple&geocode=FVyKowEdovydBA;FXSgowEdROSgBCnnLCTn2XNzOTESPc4ps-4wlA;FXSgowEdROSgBA&hl=en&mra=dvme&mrcr=0&mrsp=1&sz=12&via=1&sll=27.488477,77.5597&sspn=0.165682,0.338173&ie=UTF8&ll=27.487867,77.561417&spn=0.165683,0.338173&z=12 गूगल मानचित्र]
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| [[मानसी गंगा गोवर्धन|मानसी गंगा]]
| style="text-align:left"|[[गोवर्धन]] गाँव के बीच में श्री मानसी गंगा है। परिक्रमा करने में दायीं और पड़ती है और पूंछरी से लौटने पर भी दायीं और इसके दर्शन होते हैं। मानसी गंगा के पूर्व दिशा में- श्री मुखारविन्द, श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर, श्री किशोरीश्याम मन्दिर, श्री गिरिराज मन्दिर, श्री मन्महाप्रभु जी की बैठक, श्री राधाकृष्ण मन्दिर स्थित हैं [[मानसी गंगा गोवर्धन|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Mansi-Ganga-1.jpg|150px|मानसी गंगा]]
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| [[कुसुम सरोवर गोवर्धन|कुसुम सरोवर]]
| style="text-align:left"|[[मथुरा]] में [[गोवर्धन]] से लगभग 2 किलोमीटर दूर [[राधाकुण्ड गोवर्धन|राधाकुण्ड]] के निकट स्थापत्य कला के नमूने का एक समूह [[जवाहर सिंह]] द्वारा अपने पिता [[सूरजमल]] ( ई.1707-1763) की स्मृति में बनवाया गया। कुसुम सरोवर गोवर्धन के परिक्रमा मार्ग में स्थित एक रमणीक स्थल है जो अब सरकार के संरक्षण में है [[कुसुम सरोवर गोवर्धन|.... और पढ़ें]] 
| [[चित्र:Kusum-sarovar-01.jpg|150px|कुसुम सरोवर]]
| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=kusum+sarovar+govardhan&sll=21.125498,81.914063&sspn=44.429312,86.572266&ie=UTF8&hq=kusum+sarovar&hnear=kusum+sarovar,+Mathura,+Uttar+Pradesh&ll=27.537348,77.483826&spn=0.069714,0.169086&z=13&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[जयगुरुदेव मन्दिर मथुरा|जयगुरुदेव मन्दिर]]
| style="text-align:left"|मथुरा में [[आगरा]]-[[दिल्ली]] राजमार्ग पर स्थित जय गुरुदेव आश्रम की लगभग डेढ़ सौ एकड़ भूमि पर संत बाबा जय गुरुदेव की एक अलग ही दुनिया बसी हुई है। उनके देश विदेश में 20 करोड़ से भी अधिक अनुयायी हैं। उनके अनुयायियों में अनपढ़ किसान से लेकर प्रबुद्ध वर्ग तक के लोग हैं [[जयगुरुदेव मन्दिर मथुरा|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Jai-Gurudev-Temple-1.jpg|150px|जयगुरुदेव मन्दिर]]
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| [[राधा रानी मंदिर बरसाना|राधा रानी मंदिर]]
| style="text-align:left"|इस मंदिर को [[बरसाना|बरसाने]] की लाड़ली जी का मंदिर भी कहा जाता है। [[राधा]] का यह प्राचीन मंदिर मध्यकालीन है जो लाल और पीले पत्थर का बना है। राधा-[[कृष्ण]] को समर्पित इस भव्य और सुन्दर  मंदिर का निर्माण राजा वीर सिंह ने 1675 में करवाया था। बाद में स्थानीय लोगों द्वारा पत्थरों को इस मंदिर में लगवाया। [[राधा रानी मंदिर बरसाना|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Barsana-temple-3.jpg|150px|राधा रानी मंदिर]]
| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=barsana+temple+barsana&sll=27.502181,77.46048&sspn=0.316096,0.676346&ie=UTF8&hq=barsana+temple&hnear=Barsana,+Bharatpur,+Rajasthan&ll=27.652666,77.373426&spn=0.009864,0.021136&z=16&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[नन्द जी मंदिर नन्दगाँव|नन्द जी मंदिर]]
| style="text-align:left"|[[नन्द]] जी का मंदिर, [[नन्दगाँव]] में स्थित है। नन्दगाँव [[ब्रजमंडल]] का प्रसिद्ध तीर्थ है। [[गोवर्धन]] से 16 मील पश्चिम उत्तर कोण में, [[कोसी]] से 8 मील दक्षिण में तथा [[वृन्दावन]] से 28 मील पश्चिम में नन्दगाँव स्थित है। नन्दगाँव की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) चार मील की है। यहाँ पर [[कृष्ण]] लीलाओं से सम्बन्धित 56 कुण्ड हैं। जिनके दर्शन में 3–4 दिन लग जाते हैं [[नन्द जी मंदिर नन्दगाँव|.... और पढ़ें]]
| [[चित्र:Nand-Ji-Temple-1.jpg|150px|नन्द जी मंदिर]]
| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=nandgaon+mathura&sll=27.581462,77.69954&sspn=0.010346,0.021136&ie=UTF8&cd=1&hq=nandgaon&hnear=Mathura,+Uttar+Pradesh+281001&ll=27.728514,77.332764&spn=0.630883,1.352692&z=10 गूगल मानचित्र]
|}


====कच्ची कुटी====
कच्ची कुटी का उत्खनन सर्वप्रथम ''होवी'' ने किया था। तत्पश्चात ''फोगल'' ने इस खंडहर से विभिन्न काल की संरचनाओं का पता लगाया। उत्खनन के समय ''फोगल'' को टीले के ऊपरी हिस्से में आधुनिक काल का एक ईंटों का मंदिर मिला था। जिसकी उत्तरी और पश्चिमी दीवारे अब भी विद्यमान हैं। अन्य दोनों किनारे<ref> पूर्वी और उत्तरी</ref> कच्ची चिनाई से पुनर्निर्मित हैं, जिसका निर्माण वहाँ निवास करने वाले किसी महात्मा ने करवाया था। इसी महात्मा ने पूर्ववर्ती चिनाई को खुदवाकर मंदिर का भी निर्माण करवाया था। इस वर्तमान मंदिर का प्रवेश-द्वार पूर्व तरफ से है। पूर्ववर्ती मंदिर का वास्तविक द्वार पश्चिम तरफ से था, जिसे यहाँ निवास करने वाले किसी [[साधु]] ने एक बड़े पत्थर से बंद कर दिया था। यह पत्थर (3 फुट 6 इंच X 1 फुट 6 इंच X 7 ½ फुट) एक मूर्ति की पीठिका प्रतीत होती है। संभव है यह पीठिका एवं मूर्ति पहले इसी मंदिर में स्थापित रही हों।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 91</ref>


=====कच्ची कुटी का उत्खनन=====
==ब्रज चौरासी कोस की यात्रा==
उत्खनन में ''फोगल'' को यहाँ से कुछ पत्थर के टुकड़े मिले थे, जो निश्चित रूप से किसी प्रतिमा के खंडित अंश हैं। यद्यपि ये टुकड़े इतने छोटे हैं कि इनको मिलाकर किसी प्रतिमा का प्रारूप तैयार करना कठिन है; फिर भी यह तो लगभग निश्चित है कि परवर्ती काल में निर्मित यह मंदिर जिसके खंडहर अभी भी वर्तमान हैं, एक प्रस्तर प्रतिमा से युक्त रहा होगा।
{{Main|ब्रज चौरासी कोस की यात्रा}}
[[चित्र:Shobhnath-Temple-1.jpg|thumb|250px|left|शोभनाथ मन्दिर, श्रावस्ती]]
[[चित्र:Chetanya-Mahaprabhu-2.jpg|चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]
;अधिष्ठान
*[[वराह पुराण]] कहता है कि [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर 66 अरब तीर्थ हैं और वे सभी चातुर्मास में ब्रज में आकर निवास करते हैं। यही वजह है कि व्रज यात्रा करने वाले इन दिनों यहाँ खिंचे चले आते हैं।  हज़ारों श्रद्धालु ब्रज के वनों में डेरा डाले रहते हैं।
इस मंदिर का अधिष्ठान<ref> नींव</ref> अत्यंत प्राचीन है, जिसका विस्तार पूर्व से पश्चिम 105 फुट तथा उत्तर से दक्षिण 72 फुट था। मंदिर में पहुँचने के लिए पश्चिम तरफ से 45 फुट लंबी और 14 फुट 5 इंच चौड़ी सीढ़ियाँ बनी थीं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 92</ref> मंदिर के आयताकार अधिष्ठान का प्रत्येक किनारा 18 फुट से 19 फुट के प्रक्षेपण से युक्त था। इसका उत्तरी-पूर्वी किनारा पुनर्निर्मित है। 14 फुट ऊँची उत्तरी दीवारें अभी भी सुरक्षित हैं। इस दीवार का ऊपरी भाग अनालंकृत ईंटों से निर्मित भित्तिस्तंभ की पंक्तियों से सुसज्जित है, जिनमें 11 इंच विस्तृत निमग्नफलक आपस में 3 फुट 10 इंच की दूरी पर बने हैं।
*ब्रजभूमि की यह पौराणिक यात्रा हज़ारों साल पुरानी है। चालीस दिन में पूरी होने वाली ब्रज चौरासी कोस यात्रा का उल्लेख [[वेद]]-[[पुराण]] व श्रुति ग्रंथसंहिता में भी है। [[कृष्ण]] की बाल क्रीड़ाओं से ही नहीं, [[सत युग]] में भक्त [[ध्रुव]] ने भी यही आकर [[नारद]] जी से गुरु मन्त्र ले अखंड तपस्या की व ब्रज परिक्रमा की थी।
*[[त्रेता युग]] में प्रभु [[राम]] के लघु भ्राता [[शत्रुघ्न]] ने मधु पुत्र लवणासुर को मार कर ब्रज परिक्रमा की थी। गली बारी स्थित शत्रुघ्न मंदिर यात्रा मार्ग में अति महत्त्व का माना जाता है।
*[[द्वापर युग]] में [[उद्धव]] जी ने [[गोपी|गोपियों]] के साथ ब्रज परिक्रमा की।
*[[कलि युग]] में [[जैन]] और [[बौद्ध]] धर्मों के [[स्तूप]] बैल्य संघाराम आदि स्थलों के सांख्य इस परियात्रा की पुष्टि करते हैं।  
*14वीं शताब्दी में जैन धर्माचार्य जिन प्रभु शूरी की में ब्रज यात्रा का उल्लेख आता है।
*15वीं शताब्दी में [[माध्व सम्प्रदाय]] के आचार्य मघवेंद्र पुरी महाराज की यात्रा का वर्णन है तो  
*16वीं शताब्दी में महाप्रभु [[वल्लभाचार्य]], गोस्वामी विट्ठलनाथ, चैतन्य मत केसरी  [[चैतन्य महाप्रभु]], [[रूप गोस्वामी]], [[सनातन गोस्वामी]], नारायण भट्ट, [[निम्बार्क संप्रदाय]] के चतुरानागा  आदि ने ब्रज यात्रा की थी।
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|thumb|250px|left|[[सूरदास]], सूरसरोवर, [[आगरा]]]]
==ब्रजभाषा==
{{Main|ब्रजभाषा}}
ब्रजभाषा मूलत: ब्रजक्षेत्र की बोली है। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ  भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। शुद्ध रूप में यह आज भी [[मथुरा]], [[आगरा]], धौलपुर और अलीगढ़ ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। प्रारम्भ में ब्रजभाषा में ही काव्य रचना हुई। [[भक्तिकाल]] के कवियों ने अपनी रचनाएं ब्रजभाषा में ही लिखी हैं जिनमें [[सूरदास]], [[रहीम]], [[रसखान]], [[बिहारीलाल]], केशव, [[घनानन्द कवि]] आदि कवि प्रमुख हैं। हिन्दी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है।


इसमें प्रयुक्त ईंटें भिन्न आकारों की हैं। सबसे निचली परतों में डिनेटेड ईंटों का प्रयोग मिलता है। इसके ऊपर की परतों में गोलाकार ईंटों का प्रयोग मिलता है। कार्निश के नीचे 6 से 8 फुट की दूरी पर वीप-होल्स की कतारें भी मिली हैं।


श्री ''होवी'' ने कच्ची कुटी के उत्खनन में दक्षिण और उत्तरी ओर की दीवारों के नींच की खुदाई करके दो कक्षों का पता लगाया।<ref>''होवी'' ने इन दोनों कक्षों को ‘ए’ और ‘बी’ नामों से अभिहित किया है।</ref> ये दोनों कक्ष आकार में आयताकार थे जो ऊँची ईंटों की दीवारों से परिवेष्टित थे। निर्माण संरचना के आधार पर ''फोगल'' ने इन कक्षों को आवास-गृह नहीं माना है। कच्ची कुटी से '''नौशहरा और काँदभारी''' दरवाज़ों की ओर दो रास्ते जाते थे। 
==ब्रज की वेशभूषा==
परम्परागत रूप से धार्मिकता और सादगी ब्रज की जीवनशैली का अंग है। बुजुर्गों में पुरुषों को श्वेत धोती–कुर्ता कंधे पर गमछा या शाल और सर पर पगड़ी तथा नारियों को लहंगा–चुनरी अथवा साड़ी ब्लाउज सहित बच्चों को झंगा-झंगली, झबला पहनावों में सामान्य रूप से देखा जाता है। सर्दियों में रूई की बण्डी, खादी के बन्द गले का कोट, सदरी और ऊनी स्वेटर भी परम्परागत पुरुषों के पहनावे हैं। अधिक सर्दी के दिनों में पुरुष लोई अथवा कम्बल भी ओढ़ते हैं। महिलायें स्वेटर पहनने के अलावा शॉल ओढ़ती हैं। पैरों में सामान्यत: जूते, चप्पल पहने जाते हैं। आधुनिकता के दौर में युवक जीन्स, पेन्ट–शर्ट, सूट और युवतियों पर मिडी, सलवार सूट, टी–शर्ट आदि आधुनिक पहनावों का असर है। साधुओं की वेशभूषा में सामान्यत: केसरिया, श्वेत अथवा पीत वस्त्रों का चलन है। सर्दी के दिनों में ये गर्म कपड़ों का भी प्रयोग करते हैं और पैरों में [[खड़ाऊँ]] अथवा कन्तान की जूती पहनते हैं।


[[उत्खनन]] में यहाँ से ''फोगल'' को 356 मृण्मूर्तियाँ एवं कुछ प्रस्तर प्रतिमाएँ मिली थी।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 95</ref> इसमें से अधिकांश मूर्तियाँ खंडित हैं।  अन्य वस्तुओं में मिट्टी की मुहरें, मृण्भांड एवं लोहे के उपकरण उल्लेखनीय हैं।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>
==ब्रज का विशेष भोजन==
ब्रज का विशेष भोजन जो दालबाटी चूरमा के नाम से जाना जाता है यह ब्रजवासियों का विशेष भोजन है। समारोह, उत्सवों, और [[सैर]] सपाटों एवं विशेष अवसरों पर यह भोजन तैयार किया जाता है और लोग इसका आनन्द लेते हैं। यह भोजन पूरी तरह से देशी घी में तैयार होता है। इसके अलावा मिस्सी रोटी (गुड़चनी), मालपुआ, आदि भी बहुतायत में खाया जाता है।


====शोभनाथ का मंदिर====
[[चित्र:Shobhnath-Temple.jpg|[[शोभनाथ मन्दिर श्रावस्ती |शोभनाथ मन्दिर]], श्रावस्ती|250px|thumb]]
{{Main|शोभनाथ मन्दिर श्रावस्ती}}
शोभनाथ का मंदिर महेत के पश्चिम में स्थित है। इस मंदिर का शोभनाथ नाम तीसवें [[तीर्थंकर]] [[संभवनाथ]] के नाम पर पड़ा। विश्वास किया जाता है कि जैनियों के तीसरे तीर्थकर संभवनाथ का जन्म श्रावस्ती में ही हुआ था।<ref>देखें; व्यूहलर और बर्गेस ‘दि इंडियन सेक्ट जैनाज, (लंदन 1903) पृष्ठ 67 </ref> श्री ''होवी'' ने सर्वप्रथम यहाँ 1824-25 और 1875-76 में सीमित उत्खनन करवाया था लेकिन उत्खनन से प्राप्त विवरण अत्यंत संक्षिप्त एवं संदिग्ध है।<ref name="उत्तर प्रदेश"/>


====पक्की कुटी====
==ब्रज की मिठाई==
‘महेत’ में स्थित पक्की कुटी एक महत्त्वपूर्ण स्थल है जो कच्ची कुटी से उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसका आधुनिक नाम यहाँ निवास करने वाले किसी [[फ़क़ीर]] (साधु) के निवास-स्थान के कारण पड़ा। [[कनिंघम]] ने इसे चीनी यात्रियों के '''अंगुलिमाल स्तूप''' से समीकृत किया है। इस खंडहर की आंशिक खुदाई श्री ''होवी'' ने की थी। कालांतर में ''फोगल'' ने इस क्षेत्र का उत्खनन करवाया जिससे ज्ञात हुआ कि इसका आकार चतुष्कोणीय था। इसका उत्तर से दक्षिण विस्तार 120 फुट तथा पूर्व से पश्चिम 77 फुट 8 इंच था। इस कुटी के पूर्वी किनारे का उत्खनन अभी नहीं हो पाया है। संभव है कि इस भवन का विस्तार और आगे तक रहा हो।
[[चित्र:Pera-Mathura.jpg|पेड़ा|thumb|150px]]
ब्रज में मिठाईयों का बहुत महत्त्व है। ब्रज की सबसे प्रसिद्ध मिठाई है पेड़ा।  [[चित्र:Ghewar.jpg|thumb|150px|घेवर|left]] ब्रज जैसा पेड़ा कहीं नहीं मिलता। ब्रज में मथुरा के पेड़े से अच्छे और स्वादिष्ट पेड़े दुनिया भर में कहीं भी नहीं मिलते हैं। आप यदि पारम्परिक तौर पर मथुरा के पेड़े  का एक टुकड़ा भी चखते हैं तो कम से कम चार पेड़े से कम खाकर तो आप रह ही नहीं पायेंगे। ब्रज में ज़्यादातर व्यक्तियों की पसंदीदा चीज़ मिठाई होती है। ब्रज के लोग मिठाई खाने के बहुत शौक़ीन होते हैं। वैसे तो ब्रज की हर मिठाई प्रसिद्ध होती है, लेकिन पेड़ा मुख्य है। पेड़े के अलावा खुरचन, रबड़ी, सोनहलवा, इमरती आदि प्रमुख हैं।


इस कुटी की आंतरिक संरचना में अनियमित ढंग की दीवारें तथा आयताकार एवं वर्गाकार कक्ष मिले हैं। इन कक्षों में दरवाज़ों एवं खिड़कियों का अभाव इस तथ्य का साक्षी है कि इस संरचना का प्रयोग आवासगृह के रूप में नहीं हो होता था। वस्तुत: यह एक [[स्तूप]] था। उत्खनन में इस स्थल से कोई भी ऐसी वस्तु नहीं मिली है, जिससे इसकी बुद्धकालीन विहार की सूचना को प्रश्रय मिले।
==ब्रज की होली==
{{Main|होली}}
यह ब्रज का विशेष त्योहार है यों तो [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराण कथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें यज्ञ रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती है। [[प्रह्लाद]] की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं। होली दहन के दिन [[कोसी]] के निकट फालैन गांव में प्रह्लाद कुण्ड  के पास भक्त प्रह्लाद का मेला लगता है। यहाँ तेज़ जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है। [[फाल्गुन]] के माह रंगभरनी एकादशी से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो दौज तक चलते हैं। दौज को बल्देव ([[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी]]) में हुरंगा होता है। [[बरसाना]], [[नन्दगांव]], जाव, बठैन, [[जतीपुरा गोवर्धन|जतीपुरा]], आन्यौर आदि में भी [[होली]] खेली जाती है।


टीले के केंद्र में वक्राकार दीवारें भी मिली हैं। श्री ''होवी'' ने उत्खनन करते समय इस कुटी के मध्य भाग में दक्षिण से उत्तर की ओर एक सुरंग बना दी ताकि [[वर्षा]] से इस टीले की रक्षा हो सके। ''होवी'' की भूमि की सतह पर विभाजक दीवारों के भी [[अवशेष]] मिले हैं।
<div align="center">
{| class="bharattable-green" border="1"  align="center"
<caption>
'''ब्रज में [[होली]] के विभिन्न दृश्य'''
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| [[चित्र:Baldev-Temple-3.jpg|60px|होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव]]
| [[चित्र:Holi-Barsana-Mathura-4.jpg|60px|होली, राधा रानी मन्दिर, बरसाना]]
| [[चित्र:Holi-Barsana-Mathura-5.jpg|60px|होली, राधा रानी मन्दिर, बरसाना]]
| [[चित्र:Baldev-Holi-Mathura-29.jpg|60px|होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव]]
| [[चित्र:Lathmar-Holi-Barsana-Mathura-23.jpg|60px|लट्ठामार होली]]
| [[चित्र:Holi-Holigate-Mathura-15.jpg|60px|होली, होली दरवाज़ा, मथुरा]]
| [[चित्र:Baldev-Holi-Mathura-30.jpg|60px|होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव]]
| [[चित्र:Lathmar-Holi-Barsana-Mathura-17.jpg|60px|लट्ठामार होली]]
| [[चित्र:Holi-Holigate-Mathura-1.jpg|60px|होली, होली दरवाज़ा, मथुरा]]
| [[चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 12.jpg|60px|होली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा]]
|}</div>


[[उत्खनन]] में पक्की कुटी से ऐसी कोई वस्तु नहीं मिली, जिससे उसकी धार्मिकता प्रमाणित हो सके। चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों में उल्लिखत प्राचीन न्यायालय कक्ष की संरचना को ''होवी'' पक्की कुटी से समीकृत करते हैं। ''होवी'' इस संरचना को परवर्ती काल की पुनर्निर्मित संरचना मानते हैं।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स, पृष्ठ 78</ref><ref name="उत्तर प्रदेश"/>
[[चित्र:Anandabodhi-Tree-Sravasti.jpg|thumb|left|आनंद बोधि वृक्ष, [[जेतवन श्रावस्ती|जेतवन]], श्रावस्ती]]


====स्तूप ‘ए’====
==ब्रज में गोपी बने त्रिपुरारि==
इस [[स्तूप]] को श्री ''होवी'' ने [[ह्वेनसांग]] द्वारा वर्णित '''अंगुलिमाल स्तूप''' से समीकृत किया है। यह पक्की कुटी से पूर्व में और कच्ची कुटी से उत्तर-पूर्व में स्थित था। ''होवी'' ने 9 फुट की परिधि में 30 इंच तक नीचे खुदाई की और पाया कि इसका आंतरिक भाग ठोस है। स्तूप के ऊपर का अंड 20 फुट परिधि में विस्तृत था। इसमें प्रयुक्त ईंटें कई आकार की हैं। सबसे बड़ी ईंटें 12 ½ इंच X 9 इंच X 2 ½ इंच आकार की हैं। इस स्तूप के बाहरी स्थल का उत्खनन ''फोगल'' ने 8 फुट नीचे तक करवाया था। इसका निचला अधिष्ठान एक आयताकार चबूतरे (72 फुट X 45 फुट) से युक्त था, जिसके पूर्व में सीढ़ियाँ थीं। ये सीढ़ियाँ 22 फुट लंबी और 14 फुट चौड़ी थीं, जो कच्ची कुटी और [[शोभनाथ मंदिर श्रावस्ती|शोभनाथ मंदिर]] में प्रयुक्त सीढ़ियों के सदृश थीं। उत्तरी ओर का चबूतरा सुरक्षित था जिसकी ऊँचाई 4 फुट थी। यहाँ से प्राप्त अधिकांश ईंटें खंडित हैं। वैसे सामान्यतया ईंटों की माप 12 ½ इंच X 9 इंच X 2 ½ इंच है। चिनाई में नक़्क़ाशीदार ईंटों का सर्वथा अभाव मिलता हैं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 110</ref>
[[चित्र:Galteshwar-Mahadeva-Temple-2.jpg|250px|[[गर्तेश्वर महादेव मथुरा|गर्तेश्वर महादेव]], [[मथुरा]]|thumb]]
; स्तूप ‘ए’ का उत्खनन
<poem>श्रीमद्रोपीश्वरं वन्दे शंकरं करुणाकरम्।
कच्ची कुटी के द्वार से स्तूप की दिशा में ''फोगल'' ने 6 ½ फुट विस्तृत एक [[खत्ती]] खुदवाई थी। यहाँ से उन्हें एक निचली संरचना के [[अवशेष]] मिले थे। इस संरचना में प्रयुक्त ईंटों को चार परतों का भी पता चलता है। [[उत्खनन]] में बड़ी संख्या में छोटे मृण्भांड एवं कुछ मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं।
सर्वक्लेशहरं देवं वृन्दारण्ये रतिप्रदम्।।</poem>
{{seealso|खत्ती}}
====राम अवतार के समय====
;स्तूप ‘ए’ का वैज्ञानिक उत्खनन
जब-जब धरती पर भगवान ने अवतार लिया, तब-तब उनके बालरूप के दर्शन करने के लिए भगवान शंकर पृथ्वी पर पधारे। श्रीरामावतार के समय भगवान [[शंकर]] वृद्ध ज्योतिषी के रूप में श्री काकभुशुण्डि जी के साथ अयोध्या में पधारे और रनिवास में प्रवेश कर भगवान [[श्रीराम]], [[लक्ष्मण]], [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] और शत्रुघ्न के दर्शन किये।
श्रावस्ती का वैज्ञानिक उत्खनन 1959-60 ई. में श्री कृष्ण कुमार सिन्हा द्वारा किया गया,<ref>कृष्ण कुमार सिन्हा, एक्सकैवेशंस ऐट श्रावस्ती, (वाराणसी, 1967</ref> जिससे यहाँ की दुर्ग संरचना तथा सुरक्षात्मक दीवार के काल-क्रम पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ा है। इनके उत्खनन से ज्ञात हुआ कि श्रावस्ती का विकास तीन कालों में हुआ था। इन कालों में यहाँ से प्राप्त वस्तुओं तथा निर्माण प्रक्रिया में अंतर दृष्टिगत होता है।
<poem>औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी।।
;प्रथम काल
काकभुसंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।</poem>
[[चित्र:Bell-Sravasti.jpg|thumb|250px|शांति [[घण्टा]], श्रावस्ती]]
प्रथम काल में नगर की बाहरी दीवारों का निर्माण नहीं हुआ था। उल्लेखनीय है परवर्ती काल में बाहरी दीवारें मिलती हैं। इस काल के मृण्भांड विकसित परंपरा में मिलते हैं। यहाँ से उत्तरी कृष्ण परिमार्जित मृण्भांड बड़ी संख्या से प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त कुछ मृण्भांड 600 ई. पू. के एथेनियन कलशों के समान हैं।<ref>रोचक हैं कि इस तरह के मृण्भांड [[भारत]] के अन्य स्थलों से नहीं मिले हैं।</ref> इस प्रकार के मृण्भांडों को विस्तार [[भारत]]-[[पाकिस्तान]] उपमहाद्वीपीय क्षेत्र में मिलता है। इसके अतिरिक्त शीशे की पारभाषी [[चूड़ी|चूड़ियाँ]] भी मिली हैं। [[धातु]] के रूप में इस समय मुख्यत: [[ताँबा|ताँबे]] का ही प्रयोग किया जाता था, तथापि [[लोहा|लोहे]] का प्रचलन भी हो चुका था। ताँबे का प्रयोग मुख्य रूप से गृहस्थी के सामानों एवं [[आभूषण|आभूषणों]] के रूप में किया जाता था।<ref>कृष्ण कुमार सिन्हा, एक्सकैवेशंस ऐट श्रावस्ती, पृष्ठ 9</ref>
;द्वितीय काल
यद्यपि प्रथम काल के अंत तथा द्वितीय काल के प्रारंभ में समय की दृष्टि से कोई विशेष अंतर नहीं है तथापि दोनों की निर्मित वस्तुओं में पर्याप्त भिन्नता दिखाई देती है। द्वितीय काल में [[लोहा|लोहे]] का उपयोग प्रचुरता से मिलता है। साथ ही अस्थिनिर्मित बाणाग्र भी बड़ी संख्या में मिले हैं। इस काल की मुख्य विशेषता दुर्ग-संरचना है। मुख्य प्राचीरों के परवर्ती कालों में विस्तृत रूप से समान अंतराल पर बने दुर्ग एवं इनकी दीवारें नगर के विकास-क्रम को सिद्ध करती है। '''श्रावस्ती की नगरीय दीवारों की संरचना की तुलना [[कौटिल्य]] के [[अर्थशास्त्र]] में उल्लिखित दुर्ग-संरचना से की जा सकती है।'''<ref>अर्थशास्त्र (आर. शामशास्त्री संस्करण), मैसूर 1919, अध्याय 2</ref>


श्रावस्ती के इस सीमित क्षेत्र के उत्खनन से सुरक्षा प्राचीरों पर पूर्णत: प्रकाश नहीं पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन रक्षा-प्राचीरों का निर्माण हिन्द-[[यवन]] राजाओं के आक्रमण के सुरक्षार्थ किया गया था। यह घटना [[मौर्यवंश]] के पतन के पश्चात स्थानीय राज्यों के अभ्युदय के समकालिक है। द्वितीय काल में निर्मित मकानों में मिट्टी के गारे से युक्त पकी ईंटों का प्रयोग मिलता है। इस काल की निर्माण संरचना की तीन अवस्थाएँ दृष्टिगत होती हैं। श्री सिन्हा<ref>कृष्ण कुमार सिन्हा, एक्सकैवेशन्स ऐट श्रावस्ती, (वाराणसी, 1967), पृष्ठ 12 </ref> ने इन तीनों प्रावस्थाओं का काल-क्रम निम्नलिखित रूप से निर्धारित किया है-
====श्रीकृष्णावतार के समय====
#प्रारम्भिक प्रावस्था – 275 ई. पू. से 200 ई. पू.
श्रीकृष्णावतार के समय साधु वेष में बाबा भोलेनाथ गोकुल पधारे। यशोदा भोलेनाथ जी का वेष देखकर यशोदा जी ने कान्हा का दर्शन नहीं कराया। धूनी लगा दी द्वार पर, लाला रोने लगे, नज़र लग गयी। बाबा भोलेनाथ ने लाला की नज़र उतारी। बाबा भोलेनाथ कान्हा को गोद में लेकर नन्द के आंगन में नाच उठे। आज भी नन्द गाँव में भोलेनाथ `नन्देश्वर' नाम से विराजमान हैं।
#मध्यवर्ती प्रावस्था – 200 ई. पू. से 125 ई. पू.
#परवर्ती प्रावस्था – 125 ई. पू. से 50 ई. पू.।
;तृतीय काल
[[उत्खनन]] से तृतीय काल के [[अवशेष]] अत्यंत सीमित क्षेत्र से मिले हैं, इससे यह प्रतीत होता है कि इस समय यह नगर विनष्ट हो चुका था। उत्खनन से परवर्ती काल में निर्मित कुछ संरचनाओं का भी पता चला है।<ref name= "उत्तर प्रदेश"/>


==ब्रज में स्वामी हरिदास जी==
[[चित्र:Swami-Haridas-Nidhivan-Vrindavan.jpg|250px|[[स्वामी हरिदास]] जी की समाधि, [[निधिवन वृन्दावन|निधिवन]], [[वृन्दावन]]|thumb]]
{{Main|स्वामी हरिदास जी}}
श्री [[बांके बिहारी मन्दिर वृन्दावन|बांकेबिहारी]] जी महाराज को [[वृन्दावन]] में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदास जी का जन्म विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी (श्री [[राधाष्टमी]]) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। इनके पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगादेवी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात [[अलीगढ़]] जनपद की कोल तहसील में 'ब्रज' आकर एक गांव में बस गए। विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में श्री हरिदास वृन्दावन पहुंचे। वहां उन्होंने [[निधिवन वृन्दावन|निधिवन]] को अपनी तप स्थली बनाया।
{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक3|पूर्णता=|शोध=}}
==वीथिका==
==वीथिका==
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चित्र:Anandabodhi-Tree.jpg|आनन्दबोधी, श्रावस्ती
चित्र:kambojika-1.jpg|महाराज्ञी [[कम्बोजिका]], [[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]
चित्र:Jetavan-Monastery-1.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
चित्र:Buddha-3.jpg|[[बुद्ध]] प्रतिमा, [[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]
चित्र:Jetavan-Monastery-4.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
चित्र:Vishram-Ghat-11.jpg|[[यमुना नदी|यमुना]] स्नान, [[विश्राम घाट मथुरा|विश्राम घाट]], [[मथुरा]]
चित्र:Jetavan-Monastery-5.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
चित्र:rang-ji-temple-2.jpg|[[रंग नाथ जी मन्दिर वृन्दावन|रंग नाथ जी मन्दिर]], [[वृन्दावन]]
चित्र:Jetavan-Monastery.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
चित्र:Mansi-Ganga-1.jpg|[[मानसी गंगा गोवर्धन|मानसी गंगा]], [[गोवर्धन]]
चित्र:kuber-1.jpg|आसवपायी [[कुबेर]]
चित्र:Ramlila-Mathura-7.jpg|[[रामलीला]], [[मथुरा]]
चित्र:Keshi-Ghat-1.jpg|[[केशी घाट वृन्दावन|केशी घाट]], [[वृन्दावन]]
चित्र:kanishk.jpg|[[कनिष्क]], [[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]
चित्र:dwarikadish-temple-1.jpg|[[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|द्वारिकाधीश मन्दिर]], [[मथुरा]]
चित्र:Mathura-Museum-1.jpg|[[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]
चित्र:Ghats-of-Yamuna-4.jpg|[[यमुना के घाट, मथुरा|यमुना के घाट]], [[मथुरा]]
चित्र:Baldev-Temple-3.jpg|[[होली]], [[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव मथुरा|बलदेव]]
चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 2.jpg|[[दानघाटी गोवर्धन|दानघाटी]] मंदिर, [[गोवर्धन]]
चित्र:barsana-temple-3.jpg|[[राधा रानी मंदिर बरसाना|राधा रानी मंदिर]], [[बरसाना]]
चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-9.jpg|[[सूरदास]], सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]
चित्र:Nand-Ji-Temple-1.jpg|नन्द जी मंदिर, [[नन्दगाँव]]
चित्र:Brhamand-Ghat-1.jpg|[[ब्रह्माण्ड घाट महावन|ब्रह्माण्ड घाट]], [[महावन]]
चित्र:raskhan-1.jpg|[[रसखान]] की समाधि, [[महावन]]
चित्र:Yamuna Gokul-3.jpg|गोकुल घाट, [[गोकुल]]
चित्र:Surkuti Sur Sarovar-Agra-1.jpg|सूर श्याम मंदिर, सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]
चित्र:Yamuna-Satiburj.jpg|[[यमुना नदी|यमुना]] पार से [[सती बुर्ज मथुरा|सती बुर्ज]], [[मथुरा]]
चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 10.jpg|[[चरकुला नृत्य]], [[होली]], [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]
चित्र:Peacock-Mathura-3.jpg|मोर, [[मथुरा]]
चित्र:shaka-1.jpg|[[शक]] राज पुरुष, [[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]
चित्र:yaksha-1.jpg|[[यक्ष]], [[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]
चित्र:Kansa-Fair-2.jpg|[[कंस मेला]], [[मथुरा]]
चित्र:23rd-Tirthankara-Parsvanatha-Jain-Museum-Mathura-9.jpg|[[तीर्थंकर पार्श्वनाथ]], [[जैन संग्रहालय मथुरा|राजकीय जैन संग्रहालय]], [[मथुरा]]
चित्र:Krishna Kund Govardhan Mathura 2.jpg|कृष्ण कुण्ड, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]
चित्र:Radha Kund Govardhan Mathura 2.jpg|[[राधाकुण्ड गोवर्धन|राधाकुण्ड]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]
चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 12.jpg|[[होली]], [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]
चित्र:Holi-Gate-1.jpg|[[होली दरवाज़ा मथुरा|होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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12:49, 10 जून 2017 के समय का अवतरण

रविन्द्र१
ब्रज के विभिन्न दृश्य
ब्रज के विभिन्न दृश्य
विवरण भागवत में ‘ब्रज’ क्षेत्र विशेष को इंगित करते हुए ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है। 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेश के अर्थ में होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तब उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था।
ब्रज क्षेत्र आज जिसे हम ब्रज क्षेत्र मानते हैं उसकी दिशाऐं, उत्तर दिशा में पलवल (हरियाणा), दक्षिण में ग्वालियर (मध्य प्रदेश), पश्चिम में भरतपुर (राजस्थान) और पूर्व में एटा (उत्तर प्रदेश) को छूती हैं।
ब्रज के केंद्र मथुरा एवं वृन्दावन
ब्रज के वन कोटवन, काम्यवन, कुमुदवन, कोकिलावन, खदिरवन, तालवन, बहुलावन, बिहारवन, बेलवन, भद्रवन, भांडीरवन, मधुवन, महावन, लौहजंघवन एवं वृन्दावन
भाषा हिंदी और ब्रजभाषा
प्रमुख पर्व एवं त्योहार होली, कृष्ण जन्माष्टमी, यम द्वितीया, गुरु पूर्णिमा, राधाष्टमी, गोवर्धन पूजा, गोपाष्टमी, नन्दोत्सव एवं कंस मेला
प्रमुख दर्शनीय स्थल कृष्ण जन्मभूमि, द्वारिकाधीश मन्दिर, राजकीय संग्रहालय, बांके बिहारी मन्दिर, रंग नाथ जी मन्दिर, गोविन्द देव मन्दिर, इस्कॉन मन्दिर, मदन मोहन मन्दिर, दानघाटी मंदिर, मानसी गंगा, कुसुम सरोवर, जयगुरुदेव मन्दिर, राधा रानी मंदिर, नन्द जी मंदिर, विश्राम घाट , दाऊजी मंदिर
संबंधित लेख ब्रज का पौराणिक इतिहास, ब्रज चौरासी कोस की यात्रा, मूर्ति कला मथुरा
अन्य जानकारी ब्रज के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज़ से वातावरण गुन्जायमान रहता है।

ब्रज शब्द के अर्थ का काल-क्रमानुसार ही विकास हुआ है। वेदों और रामायण-महाभारत के काल में जहाँ इसका प्रयोग ‘गोष्ठ’-'गो-स्थान’ जैसे लघु स्थल के लिये होता था। वहाँ पौराणिक काल में ‘गोप-बस्ती’ जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये किया जाने लगा। उस समय तक यह शब्द एक प्रदेश के लिए प्रयुक्त न होकर क्षेत्र विशेष का ही प्रयोजन स्पष्ट करता था। भागवत में ‘ब्रज’ क्षेत्र विशेष को इंगित करते हुए ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है। 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेश के अर्थ में होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तब उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था। उस समय मथुरा नगर ‘ब्रज’ में सम्मिलित नहीं माना जाता था। सूरदास तथा अन्य ब्रजभाषा कवियों ने ‘ब्रज’ और मथुरा का पृथक रूप में ही कथन किया है।

कृष्ण उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी सुविस्तृत हो गया था। उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज संस्कृति और ब्रज-भाषा से प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे। वर्तमान काल में मथुरा नगर सहित मथुरा ज़िले का अधिकांश भाग तथा राजस्थान के डीग और कामवन का कुछ भाग, जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है। ब्रज संस्कृति और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है। उक्त समस्त भू-भाग के प्राचीन नाम, मधुबन, शूरसेन, मधुरा, मधुपुरी, मथुरा और मथुरा मंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या ब्रजमंडल हैं। यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में समय-समय पर अन्तर होता रहा है। इस भू-भाग की धार्मिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपरा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है।

'व्रज' शब्द की परिभाषा

श्री शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोश में 'व्रज' शब्द की परिभाषा- प्रस्तुति [1]

व्रज्- (भ्वादिगण परस्मैपद व्रजति) व्रजः-(व्रज्+क)
  • 1.जाना, चलना, प्रगति करना-नाविनीतर्व्रजद् धुर्यैः[2]
  • 2.पधारना, पहुँचना, दर्शन करना-मामेकं शरणं ब्रज-भगवद्गीता[3]
  • 3.विदा होना, सेवा से निवृत्त होना, पीछे हटना
  • 4.(समय का) बीतना-इयं व्रजति यामिनी त्यज नरेन्द्र निद्रारसम् विक्रमांकदेवचरित।[4]
  • अनु-
    • 1.बाद में जाना, अनुगमन करना[5]
    • 2.अभ्यास करना, सम्पन्न करना
    • 3.सहारा लेना,
  • आ-आना, पहुँचना,
  • परि-भिक्षु या साधु के रूप में इधर उधर घूमना, सन्न्यासी या परिव्राजक हो जाना,
    • 1.निर्वासित होना,
    • 2.संसारिक वासनाओं को छोड़ देना, चौथे आश्रम में प्रविष्ट होना, अर्थात् सन्न्यासी हो जाना[6]
  • 1.समुच्चय, संग्रह, रेवड़, समूह, नेत्रव्रजाःपौरजनस्य तस्मिन् विहाय सर्वान्नृपतीन्निपेतुः[7]
  • 2.ग्वालों के रहने का स्थान
  • 3.गोष्ठ, गौशाला-शिशुपालवध 2।64
  • 4.आवास, विश्रामस्थल
  • 5.सड़क, मार्ग
  • 6.बादल,
  • 7.मथुरा के निकट एक ज़िला।
    • सम.-अग्ङना,
    • युवति:-(स्त्री.) व्रज में रहने वाली स्त्री, ग्वालन-भामी. 2|165,
    • अजिरम-गोशाला,
    • किशोर:-नाथ:, मोहन:, वर:, वल्ल्भ: कृष्ण के विशेषण।
व्रजनम् (व्रज+ल्युट्) व्रज्या (व्रज्+क्यप्+टाप्)
  • 1.घूमना, फिरना, यात्रा करना
  • 2.निर्वासन, देश निकाला
  • 1.साधु या भिक्षु के रूप में इधर उधर घूमना,
  • 2.आक्रमण, हमला, प्रस्थान,
  • 3.खेड़, समुदाय, जनजाति या क़बीला, संम्प्रदाय,
  • 4.रंगभूमि, नाट्यशाला।

भौगोलिक स्थिति

ब्रज क्षेत्र

केदारनाथ मंदिर, काम्यवन

ब्रज को यदि ब्रज-भाषा बोलने वाले क्षेत्र से परिभाषित करें तो यह बहुत विस्तृत क्षेत्र हो जाता है। इसमें पंजाब से महाराष्ट्र तक और राजस्थान से बिहार तक के लोग भी ब्रज भाषा के शब्दों का प्रयोग बोलचाल में प्रतिदिन करते हैं। कृष्ण से तो पूरा विश्व परिचित है। ऐसा लगता है कि ब्रज की सीमाऐं निर्धारित करने का कार्य आसान नहीं है, फिर भी ब्रज की सीमाऐं तो हैं ही और उनका निर्धारण भी किया गया है। पहले यह पता लगाऐं कि ब्रज शब्द आया कहाँ से और कितना पुराना है? वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था। ई. सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था। दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी। वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है। प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है। शूरसेन जनपद की सीमाऐं समय-समय पर बदलती रहीं। इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी। कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ।

वैदिक साहित्य में इसका प्रयोग प्राय: पशुओं के समूह, उनके चरने के स्थान (गोचर भूमि) या उनके बाड़े के अर्थ में मिलता है। रामायण, महाभारत तथा परवर्ती संस्कृत साहित्य में भी प्राय: इन्हीं अर्थों में ब्रज का शब्द मिलता है। पुराणों में कहीं-कहीं स्थान के अर्थ में ब्रज का प्रयोग आया है, और वह भी संभवत: गोकुल के लिये। ऐसा प्रतीत होता है कि जनपद या प्रदेश के अर्थ में ब्रज का व्यापक प्रयोग ईस्वी चौदहवीं शती के बाद से प्रारम्भ हुआ। उस समय मथुरा प्रदेश में कृष्ण-भक्ति की एक नई लहर उठी, जिसे जनसाधारण तक पहुँचाने के लिये यहाँ की शौरसेनी प्राकृत से एक कोमल-कांत भाषा का आविर्भाव हुआ। इसी समय के लगभग मथुरा जनपद की, जिसमें अनेक वन उपवन एवं पशुओं के लिये बड़े ब्रज या चरागाह थे, ब्रज (भाषा में ब्रज) संज्ञा प्रचलित हुई होगी।

बांके बिहारी मन्दिर, वृन्दावन

ब्रज प्रदेश में आविर्भूत नई भाषा का नाम भी स्वभावत: ब्रजभाषा रखा गया। इस कोमल भाषा के माध्यम द्वारा ब्रज ने उस साहित्य की सृष्टि की जिसने अपने माधुर्य-रस से भारत के एक बड़े भाग को आप्लावित कर दिया। इस वर्णन से पता चलता है कि सातवीं शती में मथुरा राज्य के अन्तर्गत वर्तमान मथुरा-आगरा ज़िलों के अतिरिक्त आधुनिक भरतपुर तथा धौलपुर ज़िले और ऊपर मध्यभारत का उत्तरी लगभग आधा भाग रहा होगा। प्राचीन शूरसेन या मथुरा जनपद का प्रारम्भ में जितना विस्तार था उसमें हुएन-सांग के समय तक क्या हेर-फेर होते गये, इसके संबंध में हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते, क्योंकि हमें प्राचीन साहित्य आदि में ऐसे प्रमाण नहीं मिलते जिनके आधार पर विभिन्न कालों में इस जनपद की लम्बाई-चौड़ाई का ठीक पता लग सके।

आधुनिक सीमाऐं

सातवीं शती के बाद से मथुरा राज्य की सीमाऐं घटती गईं। इसका प्रधान कारण समीप के कन्नौज राज्य की उन्नति थी, जिसमें मथुरा तथा अन्य पड़ोसी राज्यों के बढ़े भू-भाग सम्मिलित हो गये। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से जो कुछ पता चलता है वह यह कि शूरसेन या शौरसेन अथवा मथुरा प्रदेश के उत्तर में कुरुदेश (आधुनिक दिल्ली और उसके आस-पास का प्रदेश) था, जिसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ तथा हस्तिनापुर थी। दक्षिण में चेदि राज्य (आधुनिक बुंदेलखंड तथा उसके समीप का कुछ भाग) था, जिसकी राजधानी का नाम था सूक्तिमती नगर। पूर्व में पंचाल राज्य (आधुनिक रुहेलखंड) था, जो दो भागों में बँटा हुआ था - उत्तर पंचाल तथा दक्षिण पंचाल। उत्तर वाले राज्य की राजधानी अहिच्छत्र (बरेली ज़िले में वर्तमान रामनगर) और दक्षिण वाले की कांपिल्य (आधुनिक कंपिल, ज़िला फर्रूख़ाबाद) थी। शूरसेन के पश्चिम वाला जनपद मत्स्य (आधुनिक अलवर रियासत तथा जयपुर का पूर्वी भाग) था। इसकी राजधानी विराट नगर (आधुनिक वैराट, जयपुर में) थी।

ब्रज नामकरण और उसका अभिप्राय

गोकुल घाट, गोकुल

कोशकारों ने ब्रज के तीन अर्थ बतलाये हैं - (गायों का खिरक), मार्ग और वृंद (झुंड) - गोष्ठाध्वनिवहा व्रज:[8] इससे भी गायों से संबंधित स्थान का ही बोध होता है। सायण ने सामान्यत: 'व्रज' का अर्थ गोष्ठ किया है। गोष्ठ के दो प्रकार हैं :- 'खिरक`- वह स्थान जहाँ गायें, बैल, बछड़े आदि को बाँधा जाता है।

गोचर भूमि- जहाँ गायें चरती हैं। इन सब से भी गायों के स्थान का ही बोध होता है। इस संस्कृत शब्द `व्रज` से ब्रज भाषा का शब्द `ब्रज' बना है।

पौराणिक साहित्य में ब्रज (व्रज) शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर- भूमि के अर्थों में प्रयुक्त हुआ, अथवा गायों के खिरक (बाड़ा) के अर्थ में आया है। `यं त्वां जनासो भूमि अथसंचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ।' (10 - 4 - 2) अर्थात- शीत से पीड़ित गायें उष्णता प्राप्ति के लिए इन गोष्ठों में प्रवेश करती हैं।`व्यू व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीरव्रञ्छुचय: पावका।(4 - 51 - 2) अर्थात - प्रज्वलित अग्नि 'व्रज' के द्वारों को खोलती है। यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को `व्रज' और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है - `व्रजं गच्छ गोष्ठान्`[9] शुक्ल यजुर्वेद में सुन्दर सींगो वाली गायों के विचरण-स्थान से `व्रज' का संकेत मिलता है। अथर्ववेद' में एक स्थान पर `व्रज' स्पष्टत: गोष्ठ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। `अयं घासों अयं व्रज इह वत्सा निवध्नीय:'[10] अर्थात यह घास है और यह व्रज है जहाँ हम बछडी को बाँधते हैं। उसी वेद में एक संपूर्ण सूक्त[11] ही गोशालाओं से संबंधित है।

विम तक्षम, राजकीय संग्रहालय, मथुरा

श्रीमद् भागवत और हरिवंश पुराण में `व्रज' शब्द का प्रयोग गोप-बस्ती के अर्थ में ही हुआ है, - `व्रजे वसन् किमकसेन् मधुपर्या च केशव:'[12] तद व्रजस्थानमधिकम् शुभे काननावृतम्[13] स्कंद पुराण में महर्षि शांडिल्य ने `व्रज' शब्द का अर्थ `व्याप्ति' करते हुए उसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है,[14] किंतु यह, अर्थ व्रज की आध्यात्मिकता से संबंधित है। कुछ विद्वानों ने निम्न संभावनाएं भी प्रकट की हैं - बौद्ध काल में मथुरा के निकट `वेरंज' नामक एक स्थान था। कुछ विद्वानों की प्रार्थना पर गौतम बुद्ध वहाँ पधारे थे। वह स्थान वेरंज ही कदाचित कालांतर में `विरज' या `व्रज' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यमुना को `विरजा' भी कहते हैं। विरजा का क्षेत्र होने से मथुरा मंडल `विरज' या `व्रज` कहा जाने लगा। मथुरा के युद्धोपरांत जब द्वारिका नष्ट हो गई, तब श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्र (वज्रनाभ) मथुरा के राजा हुए थे। उनके नाम पर मथुरा मंडल भी 'वज्र प्रदेश` या `व्रज प्रदेश' कहा जाने लगा। नामकरण से संबंधित उक्त संभावनाओं का भाषा विज्ञान आदि की दृष्टि से कोई प्रमाणिक आधार नहीं है, अत: उनमें से किसी को भी स्वीकार करना संभव नहीं है। वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध गायों से रहा है; चाहे वह गायों के बाँधने का बाड़ा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर- भूमि हो और चाहे गोप- बस्ती हो। भागवत कार की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और ब्रज समानार्थक शब्द हैं।

भागवत के आधार पर सूरदास आदि कवियों की रचनाओं में भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है; इसलिए `वेरज', `विरजा' और `वज्र` से ब्रज का संबंध जोड़ना समीचीन नहीं है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्रागैतिहासिक काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चरागाहों, सुंदर गोष्ठों ओर दुधारू गायों के लिए प्रसिद्ध रहा है। भगवान् श्री कृष्ण का जन्म यद्यपि मथुरा में हुआ था, तथापि राजनीतिक कारणों से उन्हें गुप्त रीति से यमुना पार की गोप-बस्ती (गोकुल) में भेज दिया गया था। उनका शैशव एवं बाल्यकाल गोपराज नंद और उनकी पत्नी यशोदा के लालन-पालन में बीता था। उनका सान्निध्य गोपों, गोपियों एवं गो-धन के साथ रहा था। वस्तुत: वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध अधिकतर गायों से रहा है; चाहे वह गायों के चरने की `गोचर भूमि' हो चाहे उन्हें बाँधने का खिरक (बाड़ा) हो, चाहे गोशाला हो, और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवत्कार की दृष्टि में व्रज, गोष्ठ ओर गोकुल समानार्थक शब्द हैं।

यमुना
मथुरा नगर का यमुना नदी पार से विहंगम दृश्य
Panoramic View of Mathura Across The Yamuna

पौराणिक इतिहास

ब्रज
शूरसेन जनपद का नक्शा
शूरसेन जनपद का नक्शा
शूरसेन जनपद का नक्शा
कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
ब्रज की गौ (गायें)
ब्रज की गौ (गायें)
ब्रज की गौ (गायें)
गोविन्द देव मन्दिर, वृन्दावन
गोविन्द देव मन्दिर, वृन्दावन
गोविन्द देव मन्दिर, वृन्दावन
यमुना नदी
यमुना नदी
यमुना नदी
नेमिनाथ तीर्थंकर
नेमिनाथ तीर्थंकर
नेमिनाथ तीर्थंकर
राधा-कृष्ण
राधा-कृष्ण
राधा-कृष्ण
मौर्य कालीन मृण्मूर्ति
मौर्य कालीन मृण्मूर्ति
मौर्य कालीन मृण्मूर्ति
शुंग कालीन मृण्मूर्ति
शुंग कालीन मृण्मूर्ति
शुंग कालीन मृण्मूर्ति
कनिष्क
कनिष्क
कनिष्क
ऋषभनाथ
ऋषभनाथ
ऋषभनाथ
जैन तीर्थंकर
जैन तीर्थंकर
जैन तीर्थंकर
गणेश
गणेश
गणेश
बुलंद दरवाज़ा, फ़तेहपुर सीकरी
बुलंद दरवाज़ा, फ़तेहपुर सीकरी
बुलंद दरवाज़ा, फ़तेहपुर सीकरी
कुसुम सरोवर
कुसुम सरोवर
कुसुम सरोवर
मोर
मोर
मोर
अहोई अष्टमी
अहोई अष्टमी
अहोई अष्टमी
अकबर, तानसेन और हरिदास
अकबर, तानसेन और हरिदास
अकबर, तानसेन और हरिदास
बाँसुरी
बाँसुरी
बाँसुरी
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा

आर्य और उनका प्रारंभिक निवास

आर्य और उनका प्रारंभिक निवास (वैदिक संस्कृति)- जिसे `सप्त सिंघव' देश कहा गया है, वह भाग भारतवर्ष का उत्तर पश्चिमी भाग था। मान्यताओं के अनुसार यही सृष्टि का आरंभिक स्थल और आर्यों का आदि देश है। सप्त सिंघव देश का फैलाव कश्मीर, पाकिस्तान और पंजाब के अधिकांश भाग में था। आर्य, उत्तरी ध्रुव, मध्य एशिया अथवा किसी अन्य स्थान से भारत आये हों, भारतीय मान्यता में पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है। भारत में ही नहीं विश्व भर में संख्या 'सात' का आश्चर्यजनक मह्त्व है जैसे सात सुर, सात रंग, सप्त-ॠषि, सात सागर, आदि इसी तरह सात नदियों के कारण सप्त सिंघव देश के नामकरण हुआ था।

आदिम काल (पूर्व कृष्ण काल)

राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। प्राचीन समय के राजाओं की वंशावली का अध्ययन करने से पता चलता है कि पंचाल राजा सुदास के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा रहा होगा। इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। अंधक अपने पिता भीम के समान वीर न था। इस युद्ध से ज्ञात होता है कि वह भी सुदास से हार गया था।

कृष्ण काल में ब्रज

श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है। अनेक इतिहासकार कृष्ण को ऐतिहासिक चरित्र नहीं मानते। यूँ भी आस्था के प्रश्नों का हल इतिहास में तलाशने का कोई अर्थ नहीं है। आपने जो इतिहास की सामग्री अक्सर खंगाली होगी वह संभवतया कृष्ण की ऐतिहासिता पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाती होगी। हमारा प्रयास है कि जो जैसा उपलब्ध है। आप तक पहुँचायें। कई विद्वान श्री कृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है। इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है।

मौर्य काल में ब्रज

मौर्य शासकों ने यातायात की सुविधा तथा व्यापारिक उन्नति के लिए अनेक बडी़ सड़कों का निर्माण करवाया। सबसे बड़ी सड़क पाटलिपुत्र से पुरुषपुर (पेशावर) तक जाती थी जिसकी लंबाई लगभग 1,850 मील थी। यह सड़क राजगृह, काशी, प्रयाग, साकेत, कौशाम्बी, कन्नौज, मथुरा, हस्तिनापुर, शाकल, तक्षशिला और पुष्कलावती होती हुई पेशावर जाती थी। मैगस्थनीज़ के अनुसार इस सड़क पर आध-आध कोस के अंतर पर पत्थर लगे हुए थे। मेगस्थनीज संभवत: इसी मार्ग से होकर पाटलिपुत्र पहुँचा था। इस बडी़ सड़क के अतिरिक्त मौर्यों के द्वारा अन्य अनेक मार्गों का निर्माण भी कराया गया।

प्राचीन साहित्य में मधुरा या मथुरा का नाम तो बहुत मिलता है पर कृष्णापुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं नहीं प्राप्त होता है। अतः ठीक यही जान पड़ता है कि यूनानी लेखकों ने भूल से मथुरा और कृष्णपुर [केशवपुर] को, जो वास्तव में एक ही थे, अलग-अलग लिख दिया है।--- श्री कृष्णदत्त वाजपेयी

अलउत्वी के अनुसार महमूद ग़ज़नवी के समय में यमुना पार आजकल के महावन के पास एक राज्य की राजधानी थी, जहाँ एक सुदृढ़ दुर्ग भी था। वहाँ के राजा कुलचंद ने मथुरा की रक्षा के लिए महमूद से महासंग्राम किया था। संभवतः यह कोई पृथक् नगर नहीं था, वरन वह मथुरा का ही एक भाग था। उस समय में यमुना नदी के दोनों ही ओर बने हुए मथुरा नगर की बस्ती थी [यह मत अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है]। चीनी यात्री फ़ाह्यान और हुएन-सांग ने भी यमुना नदी के दोनों ही ओर बने हुए बौद्ध संघारामों का विवरण किया है। इस प्रकार मैगस्थनीज का क्लीसोबोरा (कृष्णपुरा) कोई प्रथक नगर नहीं वरन उस समय के विशाल मथुरा नगर का ही एक भाग था, जिसे अब गोकुल-महावन के नाम से जाना जाता है। इस संबंध में श्री कृष्णदत्त वाजपेयी के मत तर्कसंगत लगता है– प्राचीन साहित्य में मधुरा या मथुरा का नाम तो बहुत मिलता है पर कृष्णापुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं नहीं प्राप्त होता है। अतः ठीक यही जान पड़ता है कि यूनानी लेखकों ने भूल से मथुरा और कृष्णपुर [केशवपुर] को, जो वास्तव में एक ही थे, अलग-अलग लिख दिया है। भारतीय लोगों ने मैगस्थनीज को बताया होगा कि शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा केशवपुरी है। उसने उन दोनों नामों को एक दूसरे से पृथक् समझ कर उनका उल्लेख अलग-अलग नगर के रूप में किया होगा। यदि शूरसेन जनपद में मथुरा और कृष्णपुर नाम के दो प्रसिद्ध नगर होते, तो मेगस्थनीज के कुछ समय पहले उत्तर भारत के जनपदों के जो वर्णन भारतीय साहित्य [विशेष कर बौद्ध एवं जैन ग्रंथो] में मिलते हैं, उनमें मथुरा नगर के साथ कृष्णापुर या केशवपुर का भी नाम मिलता है।

शुंग काल में ब्रज

शुंगवशीय शासक वैदिक धर्म को मानते थे[15] फिर भी शुंग शासन-काल में बौद्ध धर्म की काफ़ी उन्नति हुई। बोधगया मंदिर की वेदिका का निर्माण भी इनके शासन-काल में ही हुआ। अहिच्छत्र के राजा इन्द्रमित्र तथा मथुरा के शासक ब्रह्ममित्र और उसकी रानी नागदेवी, इन सब के नाम बोधगया की वेदिका में उत्कीर्ण है। [16] इससे ज्ञात होता है कि सुदूर पंचाल और शूरसेन जनपद में इस काल में बौद्ध धर्म के प्रति भी आस्था थी। महाभाष्य में पतंजलि ने मथुरा का विवरण देते हुए लिखा है, यहाँ के लोग पाटलिपुत्र के नागरिकों की अपेक्षा अधिक सपंन्न थे। [17] शुंग काल में उत्तरी भारत के मुख्य नगरों में मथुरा की भी गिनती होती थी।

शक कुषाण काल में ब्रज

कुषाणों के एक सरदार का नाम कुजुल कडफाइसिस था। उसने क़ाबुल और कन्दहार पर अधिकार कर लिया। पूर्व में यूनानी शासकों की शक्ति कमज़ोर हो गई थी, कुजुल ने इस का लाभ उठा कर अपना प्रभाव यहाँ बढ़ाना शुरू कर दिया। पह्लवों को पराजित कर उसने अपने शासन का विस्तार पंजाब के पश्चिम तक स्थापित कर लिया। मथुरा में इस शासक के तांबे के कुछ सिक्के प्राप्त हुए है। मथुरा में कुषाणों के देवकुल होने तथा विम की मूर्ति प्राप्त होने से यह अनुमान किया जा सकता है कि मथुरा में विम का निवास कुछ समय तक अवश्य रहा होगा और यह नगर कुषाण साम्राज्य के मुख्य केन्द्रों में से एक रहा होगा। विम ने राज्य की पूर्वी सीमा बनारस तक बढा ली। इस विस्तृत राज्य का प्रमुख केन्द्र मथुरा नगर बना। चीनियों की पौराणिक मान्यता के अनुसार विम के उत्तरी साम्राज्य की प्रमुख राजधानी हिंदुकुश‎ के उत्तर तुखार देश में थी। भारतीय राज्यों का शासन 'क्षत्रपों' से कराया जाता था। विम का विशाल साम्राज्य एक तरफ चीन के साम्राज्य को लगभग छूता था तो दूसरी तरफ उसकी सीमाऐं दक्षिण के सातवाहन राज्य को छूती हुई थी। इतने विशाल एवं विस्तृत राज्य के लिए प्रादेशिक शासकों का होना भी आवश्यक था।

गुप्त काल में ब्रज

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय के तीन लेख मथुरा नगर से मिले हैं। पहला लेख (मथुरा संग्रहालय सं. 1931) गुप्त संवत 61 (380 ई.) का है यह मथुरा नगर में रंगेश्वर महादेव के समीप एक बगीची से प्राप्त हुआ है। शिलालेख लाल पत्थर के एक खंभे पर है। यह सम्भवतः चंद्रगुप्त के पाँचवे राज्यवर्ष में लिखा गया था। इस शिलालेख़ में उदिताचार्य द्वारा उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नामक शिव-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना का वर्णन है। खंभे पर ऊपर त्रिशूल तथा नीचे दण्डधारी रुद्र (लकुलीश) की मूर्ति है।

चंद्रगुप्त के शासन-काल के उपलब्ध लेखों में यह लेख सब से प्राचीन है। इससे तत्कालीन मथुरा में शैव धर्म के होने की पुष्टि के होती है। अन्य दोनों शिलालेख मथुरा के कटरा केशवदेव से मिले हैं। इनमें से एक शिलालेख (मथुरा संग्रहालय सं. क्यू. 5) में महाराज गुप्त से लेकर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य तक की वंशावली अंकित है। लेख में अन्त में चंद्रगुप्त द्वारा कोई बड़ा धार्मिक कार्य किये जाने का अनुमान होता है। लेख का अंतिम भाग खंडित है इस कारण यह निश्चित रूप से कहना कठिन है। बहुत संभव है कि महाराजाधिराज चंद्रगुप्त के द्वारा श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया हो, जिसका विवरण इस शिलालेख़ में रहा होगे।[18] तीसरा शिलालेख़ (मथुरा संग्रहालय सं. 3835) कृष्ण जन्मस्थान की सफ़ाई कराते समय 1954 ई.. में मिला है। यह लेख बहुत खंडित है। इसमें गुप्त-वंशावली के प्रारंभिक अंश के अतिरिक्त शेष भाग खंड़ित है।

मध्य काल में ब्रज

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग आधी शताब्दी तक उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति अस्थिर रही। छोटे-बड़े राजा अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। सम्राट् हर्षवर्धन के शासन में आने तक कोई ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता न थी जो छोटे-छोटे राज्यों को सुसंगठित करके शासित करती। छठी शती के मध्य में मौखरी, वर्धन, गुर्जन, मैत्रक कलचुरि आदि राजवंशों का अभ्युदय प्रारम्भ हुआ। मथुरा प्रदेश पर अनेक वंशों का राज्य मध्यकाल में रहा। यहाँ अनेक छोटे बड़े राज्य स्थापित हो गये थे और उनके शासक अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रयास में आपस लड़ रहे थे। उस समय देश में दो राजवंशों का उदय हुआ, मौखरि राजवंश और वर्धन राजवंश

मौखरी वंश का प्रथम राजा ईशानवर्मन था, वह बड़ा शाक्तिशाली राजा था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग 554 ई. में मौखरी शासक ईशानवर्मन ने 'महाराजाधिराज' उपाधि धारण की। ईशानवर्मन के समय में मौखरी राज्य की सीमाऐं पूर्व में मगध तक, दक्षिण में मध्य प्रांत और आंध्र तक, पश्चिम में मालवा तथा उत्तर-पश्चिम में थानेश्वर राज्य तक थी। उसके राज्य की दो राजधानियाँ थीं,

  1. कन्नौज
  2. मथुरा।

उत्तर मध्य काल में ब्रज

पृथ्वीराज और जयचंद्र को सन् 1191 एवं सन् 1194 वि. में हराने के बाद मुहम्मद ग़ोरी‎ ने भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डाली और अपने जीते गये राज्य की व्यवस्था अपने सेनापति क़ुतुबुद्दीन को सौंपकर ख़ुद वापस चला गया। मोहम्मद ग़ोरी के जीवन काल तक क़ुतुबुद्दीन उसके अधीनस्थ शासक बन कर मुस्लिम साम्राज्य को व्यवस्थित करता रहा। सन् 1206 में ग़ोरी की मृत्यु के बाद क़ुतुबुद्दीन भारत के मुस्लिम साम्राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक बना; उसने दिल्ली को राजधानी बनाया। शुरू से ही दिल्ली मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी रही; और बाद तक बनी रही। मुग़ल काल में अकबर ने आगरा को राजधानी बनाया ; फिर उसके पौत्र शाहजहाँ ने दोबारा दिल्ली को राजधानी बना दिया।

ख़िलजी वंश में ब्रज

अलाउद्दीन ख़िलजी वंश का सबसे मशहूर सुल्तान था। अपने चाचा की हत्या करा कर वह शासक बना और पूरे अपने जीवन काल में वह युद्ध कर राज्य का विस्तार करता रहा। वह कुटिल क्रूर और हिंसक प्रवृति का बहुत ही महत्त्वाकांक्षी और होशियार सेना प्रधान था 20 वर्ष के अपने शासन काल में उसने लगभग सारे भारत को अपने शासन में कर लिया था। उसने ही देवगिरि, गुजरात, राजस्थान, मालवा और दक्षिण के अधिकतर राज्यों पर सबसे पहले मुस्लिम शासन स्थापित किया। चित्तौड़ की रानी पद्मिनी के लिए राजपूतों से युद्ध किया, इस युद्ध में बहुत से राजपूत नर−नारियों ने बलिदान दिया। शासक बनते ही उसकी कुदृष्टि मथुरा की तरफ हुई। उसने सन् 1297 में मथुरा के असिकुण्डा घाट के पास के पुराने मंदिर को तोड़ कर एक मस्जिद बनवाई, कालान्तर में यमुना की बाढ़ से यह मस्जिद नष्ट हो गई।

मुग़ल काल में ब्रज

मुग़लों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी। सुल्तान सिंकदर लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था। यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी। मुग़ल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया। बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया। मुग़ल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को क़ायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया। इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था। कुछ समय बाद अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी को राजधानी बनाया।

मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में वैष्णव धर्म के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुराने का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्माबलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था। गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे। सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूवर्क सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था। वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे।

जाट मराठा काल में ब्रज

मुग़ल सल्तनत के आख़री समय में जो शक्तियाँ उभरी; जिन्होंने ब्रजमंडल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट और मराठा सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं। जाटों का इतिहास पुराना है। जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन औरंगज़ेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया। उधर मराठों ने छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में औरगंज़ब को भीषण चुनौती दी और सफलता भी प्राप्त की जिससे मराठा भी उत्तर भारत में मशहूर हुए।

सूरजमल का मूल्यांकन

ब्रज के जाट राजाओं में सूरजमल सबसे प्रसिद्ध शासक, कुशल सेनानी, साहसी योद्धा और सफल राजनीतिज्ञ था। उसने जाटों में सब से पहले राजा की पदवी धारण की थी; और एक शक्तिशाली हिन्दू राज्य का संचालन किया था। उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें डीग−भरतपुर के अतिरिक्त मथुरा, आगरा, धौलपुर, हाथरस, अलीगढ़, एटा, मैनपुरी, गुड़गाँव, रोहतक, रेवाड़ी, फर्रूखनगर और मेरठ के ज़िले थे। एक ओर यमुना में गंगा तक और दूसरी ओर चंबल तक का सारा प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित था।

स्वतंत्रता संग्राम 1857 में ब्रज

मथुरा के शासन की लगाम भारतीय सैनिकों के हाथों में आ गयी थी। यूरोपियन बंगले और कलक्ट्री-भवन सब आग को समर्पित कर मथुरा जेल के बन्दी कारागार से मुक्त हो गये थे। विदेशी हुकूमत को मिटाकर स्वाधीनता का शंखनाद करने वाले, अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफ़र के हाथ मज़बूत करने भारत माता के विप्लवी सपूत गर्वोन्मत भाव से मचल पड़े और चल पड़े कोसी की दिशा में शेरशाह सूरी राज मार्ग से, जहाँ अंग्रेज़ी सेना दिल्ली की ओर से मथुरा की ओर आने वाले भारतीय क्रान्तिवीरों के टिड्डी दलों को रोकने के उद्देश्य से जमा थी। थाँर्नहिल स्वयं पड़ाव डाले पड़ा था। यह सनसनीखेज कहानी किसी कल्पित उपन्यास का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो ख़ुद अंग्रेज़ कलक्टर की क़लम से पश्चिमोत्तर प्रान्त के आगरा स्थित तत्कालीन गवर्नमेंट सेक्रेटरी सी0 बी0 थॉर्नहिल के नाम 5 जून 1857 को लिखा गया था।

स्वतंत्रता संग्राम 1920-1947 में ब्रज

सन् 1921 के प्रारम्भ होने पर असहयोग आंदोलन में तेजी आने लगी तथा मथुरा ज़िले के गांवों एवं कस्बों में भी इसकी लहर फैलने लगी। अड़ींग, गोवर्धन, वृन्दावन एवं कोसी आदि स्थानों में भी राष्द्रीय हलचल प्रारम्भ हो गयी। गोवर्धन में राष्द्रीय चेतना को बढाने में सर्वश्री कृष्णबल्लभ शर्मा, ब्रजकिशोर, रामचन्द्र भट्ट एवं अपंग बाबू आदि प्रमुख थे। वृदावन में सर्वश्री गोस्वामी छबीले लाल, नारायण बी.ए., पुरुषोत्तम लाल, मूलचन्द सर्राफ आदि ने प्रमुख भाग लिया। असहयोग आन्दोलन तीव्र करने के लिए 9 अगस्त सन् 1921 को लाला लाजपत राय के सभापतित्व में वृन्दावन की मिर्जापुर वाली धर्मशाला में एक विशाल सभा हुई थी। इसमें हज़ारों की संख्या में जनता उपस्थित थी।

प्रजातांत्रिक व्यवस्था

आश्चर्यजनक है कि कृष्ण के समय से पहले ही मथुरा में एक प्रकार की प्रजातांत्रिक व्यवस्था थी। अंधक और वृष्णि, दो संघ परोक्ष मतदान प्रक्रिया से अपना मुखिया चुनते थे। उग्रसेन अंधक संघ के मुखिया थे, जिनका पुत्र कंस एक निरंकुश शासक बनना चाहता था। अक्रूर ने कृष्ण से कंस का वध करवा कर प्रजातंत्र की रक्षा करवाई। वृष्णि संघ के होने के कारण द्वारका के राजा, कृष्ण बने। दूसरे उदाहरण में बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार बुद्ध ने मथुरा आगमन पर अपने शिष्य आनन्द से मथुरा के संबंध में कहा है कि "यह आदि राज्य है, जिसने अपने लिए राजा (महासम्मत) चुना था।" [19]

इन्हें भी देखें: बुद्ध, आनन्द (बौद्ध) एवं कृष्ण नारद संवाद

संस्कृति

ब्रज के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज़ से वातावरण गुन्जायमान रहता है। बाल्यकाल से ही भगवान कृष्ण की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप मोर को भक्ति साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। सरकार ने मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर इसे संरक्षण दिया है। ब्रज की महत्ता प्रेरणात्मक, भावनात्मक व रचनात्मक है तथा साहित्य और कलाओं के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है। संगीत, नृत्य एवं अभिनय ब्रज संस्कृति के प्राण बने हैं। ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मूर्तियों, मन्दिरों, महंतो, महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है। यहाँ सभी सम्प्रदायों की आराधना स्थली है। ब्रज की रज का महात्म्य भक्तों के लिए सर्वोपरि है।

दानघाटी मन्दिर, गोवर्धन

इसीलिए ब्रज चौरासी कोस में 21 किलोमीटर की गोवर्धन–राधाकुण्ड, 27 किलोमीटर की गरुड़ गोविन्द–वृन्दावन, 5–5कोस की मथुरा–वृन्दावन, 15–15 किलोमीटर की मथुरा, वृन्दावन, 6–6 किलोमीटर नन्दगांव, बरसाना, बहुलावन, भांडीरवन, 9 किलोमीटर की गोकुल, 7.5 किलोमीटर की बल्देव, 4.5–4.5 किलोमीटर की मधुवन, लोहवन, 2 किलोमीटर की तालवन, 1.5 किलोमीटर की कुमुदवन की नंगे पांव तथा दण्डोती परिक्रमा लगाकर श्रृद्धालु धन्य होते हैं। प्रत्येक त्योहार, उत्सव, ऋतु माह एवं दिन पर परिक्रमा देने का ब्रज में विशेष प्रचलन है। देश के कोने–कोने से आकर श्रृद्धालु ब्रज परिक्रमाओं को धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान मानकर अति श्रद्धा भक्ति के साथ करते हैं। इनसे नैसर्गिक चेतना, धार्मिक परिकल्पना, संस्कृति के अनुशीलन उन्नयन, मौलिक व मंगलमयी प्रेरणा प्राप्त होती है। आषाढ़ तथा अधिक मास में गोवर्धन पर्वत परिक्रमा हेतु लाखों श्रद्धालु आते हैं। ऐसी अपार भीड़ में भी राष्ट्रीय एकता और सद्भावना के दर्शन होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण, बलदाऊ की लीला स्थली का दर्शन तो श्रद्धालुओं के लिए प्रमुख है ही यहाँ अक्रूर जी, उद्धव जी, नारद जी, ध्रुव जी और वज्रनाथ जी की यात्रायें भी उल्लेखनीय हैं।

जैन संस्कृति का प्रभाव

पौराणिक युग में ब्रज में अनेक संस्कृतियों का समन्वय होते-होते जो ब्रज संस्कृति बनी, वह ऐतिहासिक युग में और भी विकसित हुई। जैसा की प्रथम शताब्दी में जैन धर्म ने ब्रज को विशेष रूप से प्रभावित किया। जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथजी ब्रज के शौरिपुर राज्य के राजकुमार व भगवान श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। मथुरा में जब वह विवाह के लिए पधारे, तब बारात के भोजन में पकड़े गए पशुओं के विशाल समूह को देखकर उन्होंने जीव-हिंसा के विरुद्ध विवाह करना ही अस्वीकार कर दिया और तप करने चले गए। बाद में उनकी अविवाहित पत्नी राजुल ने भी उन्हीं का अनुकरण किया। इससे ब्रज में जीव-हिंसा विरोधी जो प्रतिक्रिया हुई उसने पूरे समाज को ही प्रभावित किया। आज भी ब्रजवासियों का भोजन निरामिष व सात्विक है। अभी भी अधिकांश ब्रजवासी प्याज और यहाँ तक कि कुछ तो टमाटर तक से परहेज करते हैं। मथुरा व शौरिपुर दोनों ही किसी समय जैन धर्म के गढ़ थे। बटेश्वर में तीर्थंकर की जो दिव्य प्रतिमा है, वह आल्हा द्वारा स्थापित कही जाती है। जंबू स्वामी के कारण चौरासी तीर्थ आज भी भारत प्रसिद्ध है। कंकाली टीले पर किसी युग में जैन धर्म का प्रधान केंद्र था। यहाँ का विशाल जैन स्तूप देव निर्मित माना जाता था। जैनों का एक युग में इस क्षेत्र पर भारी प्रभाव था।

बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार

बौद्ध धर्म का भी मथुरा में व्यापक प्रचार रहा था। जब भगवान गौतम बुद्ध प्रथम बार मथुरा आए तो उस समय यहाँ यक्षों का बड़ा आतंक था। वैंदा नामक यक्षिणी ने पहले भगवान बुद्ध को परेशान किया, परंतु बाद में वह उनकी भक्त बन गई थी। मथुरा में बौद्ध धर्म कितना फला-फूला और उसका यहाँ कितन विस्तार हुआ, यह चीनी यात्री फाह्यानह्वेनसांग के वर्णनों से स्पष्ट हो जाता है। बुद्ध के सौ वर्ष बाद मथुरा में ही प्रसिद्ध भिक्षु उपगुप्त का जन्म हुआ था। वे मौर्य सम्राट अशोक को अपना शिष्य बनाकर बौद्ध धर्म को भारत से बाहर पूरे एशिया में फैलाने मे सफल हुए। मथुरा के ही कुशल कलाकारों ने सर्वप्रथम भगवान बुद्ध की मूर्ति का निर्माण किया था। मथुरा में बुद्धों के जितने विहार और संघाराम थे, उनका वर्णन विदेशी यात्रियों ने बड़े विस्तार से किया है। इस प्रकार जब तक भारत स्वतंत्र रहा, ब्रज की संस्कृति समन्वय तथा उच्च आदर्शों को अनुप्रमाणित करती हुई विविध प्रभावों से नवीन ओज, तेज और संवुद्धिशाली बनी रही, परंतु देश पर मुस्लिमों के आक्रमणों के बाद स्थिति बदल गई। ब्रज की संस्कृति और संवृद्धि पर पहला आक्रमण महमूद गज़नवी के नेतृत्व में हुआ।

ब्रज की जीवन शैली

परम्परागत रूप से ब्रजवासी सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं। नित्य स्नान, भजन, मन्दिर गमन, दर्शन–झांकी करना, दीन–दुखियों की सहायता करना, अतिथि सत्कार, लोकोपकार के कार्य, पशु–पक्षियों के प्रति प्रेम, नारियों का सम्मान व सुरक्षा, बच्चों के प्रति स्नेह , उन्हें अच्छी शिक्षा देना तथा लौकिक व्यवहार कुशलता उनकी जीवन शैली के अंग बन चुके हैं। यहाँ कन्या को देवी के समान पूज्य माना जाता है। ब्रज वनितायें पति के साथ दिन–रात कार्य करते हुए कुल की मर्यादा रखकर पति के साथ रहने में अपना जीवन सार्थक मानती है। संयुक्त परिवार प्रणाली साथ रहने, कार्य करने ,एक–दूसरे का ध्यान रखने, छोटे–बड़े के प्रति यथोचित सम्मान , यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में परिलक्षित होता है। सत्य और संयम ब्रज लोक जीवन के प्रमुख अंग हैं। यहाँ कार्य के सिद्धान्त की महत्ता है और जीवों में परमात्मा का अंश मानना ही दिव्य दृष्टि है। महिलाओं की मांग में सिन्दूर , माथे पर बिन्दी, नाक में लौंग या बाली, कानों में कुण्डल या झुमकी–झाली, गले में मंगल सूत्र, हाथों में चूड़ी, पैरों में बिछुआ–चुटकी, महावर और पायजेब या तोड़िया उनकी सुहाग की निशानी मानी जाती हैं। विवाहित महिलायें अपने पति परिवार और गृह की मंगल कामना हेतु करवा चौथ का व्रत करती हैं, पुत्रवती नारियां संतान के मंगलमय जीवन हेतु अहोई अष्टमी का व्रत रखती हैं। स्वर्गस्तक सतिया चिह्न यहाँ सभी मांगलिक अवसरों पर बनाया जाता है और शुभ अवसरों पर नारियल का प्रयोग किया जाता है।

देश के कोने–कोने से लोग यहाँ पर्वों पर एकत्र होते हैं। जहां विविधता में एकता के साक्षात दर्शन होते हैं। ब्रज में प्राय: सभी मन्दिरों में रथयात्रा का उत्सव होता है। चैत्र मास में वृन्दावन में रंगनाथ जी की सवारी विभिन्न वाहनों पर निकलती है। जिसमें देश के कोने–कोने से आकर भक्त सम्मिलित होते हैं। ज्येष्ठ मास में गंगा दशहरा के दिन प्रात: काल से ही विभिन्न अंचलों से श्रद्धालु आकर यमुना में स्नान करते हैं। इस अवसर पर भी विभिन्न प्रकार की वेशभूषा और शिल्प के साथ राष्ट्रीय एकता के दर्शन होते हैं , इस दिन छोटे–बड़े सभी कलात्मक ढंग की रंगीन पतंग उड़ाते हैं।

आषाढ़ मास में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा हेतु प्राय: सभी क्षेत्रों से यात्री गोवर्धन आते हैं, जिसमें आभूषणों, परिधानों आदि से क्षेत्र की शिल्प कला उद्भाषित होती है। श्रावण मास में हिन्डोलों के उत्सव में विभिन्न प्रकार से कलात्मक ढंग से सज्जा की जाती है। भाद्रपद में मन्दिरों में विशेष कलात्मक झांकियां तथा सजावट होती है। आश्विन माह में सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र में कन्याएं घर की दीवारों पर गोबर से विभिन्न प्रकार की कृतियां बनाती हैं, जिनमें कौड़ियों तथा रंगीन चमकदार काग़ज़ों के आभूषणों से अपनी सांझी को कलात्मक ढंग से सजाकर आरती करती हैं। इसी माह से मन्दिरों में काग़ज़ के सांचों से सूखे रंगों की वेदी का निर्माण कर उस पर अल्पना बनाते हैं। इसको भी 'सांझी' कहते हैं। कार्तिक मास तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिपूर्ण रहता है। अक्षय तृतीया तथा देवोत्थान एकादशी को मथुरा तथा वृन्दावन की परिक्रमा लगाई जाती है। बसंत पंचमी को सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र बसन्ती होता है। फाल्गुन मास में तो जिधर देखो उधर नगाड़ों , झांझ पर चौपाई तथा होली के रसिया की ध्वनियां सुनाई देती हैं। नन्दगांव तथा बरसाना की लठामार होली, दाऊजी का हुरंगा जगत प्रसिद्ध है।

ब्रज का प्राचीन संगीत

ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी 16वीं शताब्दी के भक्तिकाल से मिलती है। इस काल में अनेकों संगीतज्ञ वैष्णव संत हुए। संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी, इनके गुरु आशुधीर जी तथा उनके शिष्य तानसेन आदि का नाम सर्वविदित है। बैजूबावरा के गुरु भी श्री हरिदास जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने अष्टछाप के कवि संगीतज्ञ गोविन्द स्वामी जी से ही संगीत का अभ्यास किया था। निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और संगीतज्ञ हुए। अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि सूरदास, नन्ददास, परमानन्ददास जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं। स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रज–संगीत के ध्रुपद–धमार की गायकी और रास–नृत्य की परम्परा चलाई।

रथ यात्रा, वृन्दावन

संगीत

मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है। वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है।

16 वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ। यहाँ सबसे पहले बल्लभाचार्य जी ने स्वामी हरदेव के सहयोग से विश्रांत घाट पर रास किया। रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है। ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है। अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई। सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया।

स्वामी हरिदास संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे। तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी उनके शिष्य थे। सम्राट अकबर भी स्वामी जी के मधुर संगीत- गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहाँ दूर से संगीत कला सीखने आते रहे।

लोक गीत

ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है। श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है। लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहल–तबील, भगत आदि संगीत भी समय –समय पर सुनने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समय–समय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं।

कला

यहाँ स्थापत्य तथा मूर्ति कला के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण युग कुषाण काल के प्रारम्भ से गुप्त काल के अन्त तक रहा। यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें 12वीं शती के अन्त तक जारी रहीं। इसके बाद लगभग 350 वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरुद्ध रहा, पर 16वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा चित्रकला के रूप में दिखाई पड़ने लगता है।


ब्रज के प्रमुख पर्व एवं त्योहार

ब्रजभूमि पर्वों एवं त्योहारों की भूमि है। यहाँ की संस्कृति उत्सव प्रधान है। यहाँ हर ऋतु माह एवं दिनों में पर्व और त्योहार चलते हैं। कुछ प्रमुख त्योहारों का विवरण निम्नवत है।

पर्व एवं त्योहार

होली

कृष्ण जन्माष्टमी

यमुना षष्ठी

गुरु पूर्णिमा

गंगा–दशहरा

रथ–यात्रा

रामनवमी

राधाष्टमी

शरद पूर्णिमा

यम द्वितीया

गोवर्धन पूजा

गोपाष्टमी

अक्षय नवमी

कंस मेला

कार्तिक स्नान

यम द्वितीया

गोपाष्टमी

शिवरात्रि

ब्रज के प्रमुख पर्व एवं त्योहार
यम द्वितीया स्नान, विश्राम घाट, मथुरा कृष्ण जन्माष्टमी पर कृष्ण जन्मभूमि का दृश्य कंस मेला, मथुरा लट्ठामार होली, बरसाना होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव होली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा रथ यात्रा, वृन्दावन होली, होली दरवाज़ा, मथुरा


ब्रज के मुख्य दर्शनीय स्थल

नाम संक्षिप्त विवरण चित्र मानचित्र लिंक
कृष्ण जन्मभूमि भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्त्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर मथुरा जनपद भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं .... और पढ़ें कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा गूगल मानचित्र
द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा नगर के राजाधिराज बाज़ार में स्थित यह मन्दिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला एवं सौन्दर्य के लिए अनुपम है। ग्वालियर राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने इसका निर्माण 1814–15 में प्रारम्भ कराया, जिनकी मृत्यु पश्चात इनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचन्द्र ने मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया .... और पढ़ें द्वारिकाधीश मन्दिर गूगल मानचित्र
राजकीय संग्रहालय मथुरा का यह विशाल संग्रहालय डेम्पीयर नगर, मथुरा में स्थित है। भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है । भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अंकित मानवीय आकारों में बनी प्रतिमाएं दिखलाई पड़ती हैं .... और पढ़ें राजकीय संग्रहालय गूगल मानचित्र
बांके बिहारी मन्दिर बांके बिहारी मंदिर मथुरा ज़िले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया .... और पढ़ें बांके बिहारी मन्दिर गूगल मानचित्र
रंग नाथ जी मन्दिर श्री सम्प्रदाय के संस्थापक रामानुजाचार्य के विष्णु-स्वरूप भगवान रंगनाथ या रंगजी के नाम से रंग जी का मन्दिर सेठ लखमीचन्द के भाई सेठ गोविन्ददास और राधाकृष्ण दास द्वारा निर्माण कराया गया था। उनके महान गुरु संस्कृत के आचार्य स्वामी रंगाचार्य द्वारा दिये गये मद्रास के रंग नाथ मन्दिर की शैली के मानचित्र के आधार पर यह बना था। इसकी बाहरी दीवार की लम्बाई 773 फीट और चौड़ाई 440 फीट है .... और पढ़ें रंग नाथ जी मन्दिर गूगल मानचित्र
गोविन्द देव मन्दिर गोविन्द देव जी का मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। मंदिर का निर्माण ई. 1590 में तथा इसे बनाने में 5 से 10 वर्ष लगे। मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है औरंगज़ेब ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक वृन्दावन के वैभवशाली मंदिरों की है .... और पढ़ें गोविन्द देव मन्दिर गूगल मानचित्र
इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन के आधुनिक मन्दिरों में यह एक भव्य मन्दिर है। इसे अंग्रेज़ों का मन्दिर भी कहते हैं। केसरिया वस्त्रों में हरे रामा–हरे कृष्णा की धुन में तमाम विदेशी महिला–पुरुष यहाँ देखे जाते हैं। मन्दिर में राधा कृष्ण की भव्य प्रतिमायें हैं और अत्याधुनिक सभी सुविधायें हैं .... और पढ़ें इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन गूगल मानचित्र
मदन मोहन मन्दिर श्रीकृष्ण भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर मथुरा ज़िले के वृंदावन धाम में विद्यमान है। विशालकायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। पुरातनता में यह मंदिर गोविन्द देव जी के मंदिर के बाद आता है .... और पढ़ें मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन
दानघाटी मंदिर मथुरा–डीग मार्ग पर गोवर्धन में यह मन्दिर स्थित है। गिर्राजजी की परिक्रमा हेतु आने वाले लाखों श्रृद्धालु इस मन्दिर में पूजन करके अपनी परिक्रमा प्रारम्भ कर पूर्ण लाभ कमाते हैं। ब्रज में इस मन्दिर की बहुत महत्ता है। यहाँ अभी भी इस पार से उसपार या उसपार से इस पार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय कृष्ण ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक–झोंक के साथ दानलीला की है .... और पढ़ें दानघाटी गूगल मानचित्र
मानसी गंगा गोवर्धन गाँव के बीच में श्री मानसी गंगा है। परिक्रमा करने में दायीं और पड़ती है और पूंछरी से लौटने पर भी दायीं और इसके दर्शन होते हैं। मानसी गंगा के पूर्व दिशा में- श्री मुखारविन्द, श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर, श्री किशोरीश्याम मन्दिर, श्री गिरिराज मन्दिर, श्री मन्महाप्रभु जी की बैठक, श्री राधाकृष्ण मन्दिर स्थित हैं .... और पढ़ें मानसी गंगा
कुसुम सरोवर मथुरा में गोवर्धन से लगभग 2 किलोमीटर दूर राधाकुण्ड के निकट स्थापत्य कला के नमूने का एक समूह जवाहर सिंह द्वारा अपने पिता सूरजमल ( ई.1707-1763) की स्मृति में बनवाया गया। कुसुम सरोवर गोवर्धन के परिक्रमा मार्ग में स्थित एक रमणीक स्थल है जो अब सरकार के संरक्षण में है .... और पढ़ें कुसुम सरोवर गूगल मानचित्र
जयगुरुदेव मन्दिर मथुरा में आगरा-दिल्ली राजमार्ग पर स्थित जय गुरुदेव आश्रम की लगभग डेढ़ सौ एकड़ भूमि पर संत बाबा जय गुरुदेव की एक अलग ही दुनिया बसी हुई है। उनके देश विदेश में 20 करोड़ से भी अधिक अनुयायी हैं। उनके अनुयायियों में अनपढ़ किसान से लेकर प्रबुद्ध वर्ग तक के लोग हैं .... और पढ़ें जयगुरुदेव मन्दिर
राधा रानी मंदिर इस मंदिर को बरसाने की लाड़ली जी का मंदिर भी कहा जाता है। राधा का यह प्राचीन मंदिर मध्यकालीन है जो लाल और पीले पत्थर का बना है। राधा-कृष्ण को समर्पित इस भव्य और सुन्दर मंदिर का निर्माण राजा वीर सिंह ने 1675 में करवाया था। बाद में स्थानीय लोगों द्वारा पत्थरों को इस मंदिर में लगवाया। .... और पढ़ें राधा रानी मंदिर गूगल मानचित्र
नन्द जी मंदिर नन्द जी का मंदिर, नन्दगाँव में स्थित है। नन्दगाँव ब्रजमंडल का प्रसिद्ध तीर्थ है। गोवर्धन से 16 मील पश्चिम उत्तर कोण में, कोसी से 8 मील दक्षिण में तथा वृन्दावन से 28 मील पश्चिम में नन्दगाँव स्थित है। नन्दगाँव की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) चार मील की है। यहाँ पर कृष्ण लीलाओं से सम्बन्धित 56 कुण्ड हैं। जिनके दर्शन में 3–4 दिन लग जाते हैं .... और पढ़ें नन्द जी मंदिर गूगल मानचित्र


ब्रज चौरासी कोस की यात्रा

चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, गोवर्धन, मथुरा
  • वराह पुराण कहता है कि पृथ्वी पर 66 अरब तीर्थ हैं और वे सभी चातुर्मास में ब्रज में आकर निवास करते हैं। यही वजह है कि व्रज यात्रा करने वाले इन दिनों यहाँ खिंचे चले आते हैं। हज़ारों श्रद्धालु ब्रज के वनों में डेरा डाले रहते हैं।
  • ब्रजभूमि की यह पौराणिक यात्रा हज़ारों साल पुरानी है। चालीस दिन में पूरी होने वाली ब्रज चौरासी कोस यात्रा का उल्लेख वेद-पुराण व श्रुति ग्रंथसंहिता में भी है। कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं से ही नहीं, सत युग में भक्त ध्रुव ने भी यही आकर नारद जी से गुरु मन्त्र ले अखंड तपस्या की व ब्रज परिक्रमा की थी।
  • त्रेता युग में प्रभु राम के लघु भ्राता शत्रुघ्न ने मधु पुत्र लवणासुर को मार कर ब्रज परिक्रमा की थी। गली बारी स्थित शत्रुघ्न मंदिर यात्रा मार्ग में अति महत्त्व का माना जाता है।
  • द्वापर युग में उद्धव जी ने गोपियों के साथ ब्रज परिक्रमा की।
  • कलि युग में जैन और बौद्ध धर्मों के स्तूप बैल्य संघाराम आदि स्थलों के सांख्य इस परियात्रा की पुष्टि करते हैं।
  • 14वीं शताब्दी में जैन धर्माचार्य जिन प्रभु शूरी की में ब्रज यात्रा का उल्लेख आता है।
  • 15वीं शताब्दी में माध्व सम्प्रदाय के आचार्य मघवेंद्र पुरी महाराज की यात्रा का वर्णन है तो
  • 16वीं शताब्दी में महाप्रभु वल्लभाचार्य, गोस्वामी विट्ठलनाथ, चैतन्य मत केसरी चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, नारायण भट्ट, निम्बार्क संप्रदाय के चतुरानागा आदि ने ब्रज यात्रा की थी।
सूरदास, सूरसरोवर, आगरा

ब्रजभाषा

ब्रजभाषा मूलत: ब्रजक्षेत्र की बोली है। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। शुद्ध रूप में यह आज भी मथुरा, आगरा, धौलपुर और अलीगढ़ ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। प्रारम्भ में ब्रजभाषा में ही काव्य रचना हुई। भक्तिकाल के कवियों ने अपनी रचनाएं ब्रजभाषा में ही लिखी हैं जिनमें सूरदास, रहीम, रसखान, बिहारीलाल, केशव, घनानन्द कवि आदि कवि प्रमुख हैं। हिन्दी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है।


ब्रज की वेशभूषा

परम्परागत रूप से धार्मिकता और सादगी ब्रज की जीवनशैली का अंग है। बुजुर्गों में पुरुषों को श्वेत धोती–कुर्ता कंधे पर गमछा या शाल और सर पर पगड़ी तथा नारियों को लहंगा–चुनरी अथवा साड़ी ब्लाउज सहित बच्चों को झंगा-झंगली, झबला पहनावों में सामान्य रूप से देखा जाता है। सर्दियों में रूई की बण्डी, खादी के बन्द गले का कोट, सदरी और ऊनी स्वेटर भी परम्परागत पुरुषों के पहनावे हैं। अधिक सर्दी के दिनों में पुरुष लोई अथवा कम्बल भी ओढ़ते हैं। महिलायें स्वेटर पहनने के अलावा शॉल ओढ़ती हैं। पैरों में सामान्यत: जूते, चप्पल पहने जाते हैं। आधुनिकता के दौर में युवक जीन्स, पेन्ट–शर्ट, सूट और युवतियों पर मिडी, सलवार सूट, टी–शर्ट आदि आधुनिक पहनावों का असर है। साधुओं की वेशभूषा में सामान्यत: केसरिया, श्वेत अथवा पीत वस्त्रों का चलन है। सर्दी के दिनों में ये गर्म कपड़ों का भी प्रयोग करते हैं और पैरों में खड़ाऊँ अथवा कन्तान की जूती पहनते हैं।

ब्रज का विशेष भोजन

ब्रज का विशेष भोजन जो दालबाटी चूरमा के नाम से जाना जाता है यह ब्रजवासियों का विशेष भोजन है। समारोह, उत्सवों, और सैर सपाटों एवं विशेष अवसरों पर यह भोजन तैयार किया जाता है और लोग इसका आनन्द लेते हैं। यह भोजन पूरी तरह से देशी घी में तैयार होता है। इसके अलावा मिस्सी रोटी (गुड़चनी), मालपुआ, आदि भी बहुतायत में खाया जाता है।


ब्रज की मिठाई

पेड़ा

ब्रज में मिठाईयों का बहुत महत्त्व है। ब्रज की सबसे प्रसिद्ध मिठाई है पेड़ा।

घेवर

ब्रज जैसा पेड़ा कहीं नहीं मिलता। ब्रज में मथुरा के पेड़े से अच्छे और स्वादिष्ट पेड़े दुनिया भर में कहीं भी नहीं मिलते हैं। आप यदि पारम्परिक तौर पर मथुरा के पेड़े का एक टुकड़ा भी चखते हैं तो कम से कम चार पेड़े से कम खाकर तो आप रह ही नहीं पायेंगे। ब्रज में ज़्यादातर व्यक्तियों की पसंदीदा चीज़ मिठाई होती है। ब्रज के लोग मिठाई खाने के बहुत शौक़ीन होते हैं। वैसे तो ब्रज की हर मिठाई प्रसिद्ध होती है, लेकिन पेड़ा मुख्य है। पेड़े के अलावा खुरचन, रबड़ी, सोनहलवा, इमरती आदि प्रमुख हैं।

ब्रज की होली

यह ब्रज का विशेष त्योहार है यों तो पुराणों के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराण कथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें यज्ञ रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती है। प्रह्लाद की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं। होली दहन के दिन कोसी के निकट फालैन गांव में प्रह्लाद कुण्ड के पास भक्त प्रह्लाद का मेला लगता है। यहाँ तेज़ जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है। फाल्गुन के माह रंगभरनी एकादशी से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो दौज तक चलते हैं। दौज को बल्देव (दाऊजी) में हुरंगा होता है। बरसाना, नन्दगांव, जाव, बठैन, जतीपुरा, आन्यौर आदि में भी होली खेली जाती है।

ब्रज में होली के विभिन्न दृश्य
होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव होली, राधा रानी मन्दिर, बरसाना होली, राधा रानी मन्दिर, बरसाना होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव लट्ठामार होली होली, होली दरवाज़ा, मथुरा होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव लट्ठामार होली होली, होली दरवाज़ा, मथुरा होली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा


ब्रज में गोपी बने त्रिपुरारि

गर्तेश्वर महादेव, मथुरा

श्रीमद्रोपीश्वरं वन्दे शंकरं करुणाकरम्।
सर्वक्लेशहरं देवं वृन्दारण्ये रतिप्रदम्।।

राम अवतार के समय

जब-जब धरती पर भगवान ने अवतार लिया, तब-तब उनके बालरूप के दर्शन करने के लिए भगवान शंकर पृथ्वी पर पधारे। श्रीरामावतार के समय भगवान शंकर वृद्ध ज्योतिषी के रूप में श्री काकभुशुण्डि जी के साथ अयोध्या में पधारे और रनिवास में प्रवेश कर भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के दर्शन किये।

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी।।
काकभुसंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।

श्रीकृष्णावतार के समय

श्रीकृष्णावतार के समय साधु वेष में बाबा भोलेनाथ गोकुल पधारे। यशोदा भोलेनाथ जी का वेष देखकर यशोदा जी ने कान्हा का दर्शन नहीं कराया। धूनी लगा दी द्वार पर, लाला रोने लगे, नज़र लग गयी। बाबा भोलेनाथ ने लाला की नज़र उतारी। बाबा भोलेनाथ कान्हा को गोद में लेकर नन्द के आंगन में नाच उठे। आज भी नन्द गाँव में भोलेनाथ `नन्देश्वर' नाम से विराजमान हैं।


ब्रज में स्वामी हरिदास जी

स्वामी हरिदास जी की समाधि, निधिवन, वृन्दावन

श्री बांकेबिहारी जी महाराज को वृन्दावन में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदास जी का जन्म विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी (श्री राधाष्टमी) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। इनके पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगादेवी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात अलीगढ़ जनपद की कोल तहसील में 'ब्रज' आकर एक गांव में बस गए। विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में श्री हरिदास वृन्दावन पहुंचे। वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तप स्थली बनाया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डॉ.चन्द्रकान्ता चौधरी
  2. मनुस्मृति 4।67
  3. भगवद्गीता 18।66
  4. 11।74, (यह धातु प्रायः गम् या धातु की भाँति प्रयुक्त होती है
  5. मनुस्मृति 11।111 कु.7।38
  6. मनु.6।38,8।363
  7. रघुवंश 6।7, 7।67, शिशुपालवध 6।6,14।33
  8. अमर कोश) 3-3-30
  9. यजुर्वेद 1 - 25
  10. अथर्ववेद (4 - 38 - 7
  11. अथर्ववेद(2 - 26 - 1
  12. भागवत् 10 -1-10
  13. हरिवंश, विष्णु पर्व 6 - 30
  14. वैष्णव खंड भागवत माहात्म्य, 1 -16 - 20
  15. पुष्यमित्र के द्वारा दो अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख अयोध्या से प्राप्त एक लेख में मिलता है (एवीग्राफिया इंडिका, जि0 20, पृ0 54-8)। पतंजलि के महाभाष्य में पुष्यमित्र के यज्ञ का जो उल्लेख है उससे पता चलता है कि स्वयं पतंजलि ने इस यज्ञ में भाग लिया था।
  16. राय चौधरी - वही, पृ0 392-93। ब्रह्ममित्र मथुरा का प्रतापी शासक प्रतीत होता है। इसके सिक्के बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। 1954 के प्रारंभ में ब्रह्ममित्र के लगभग 700 तांबे के सिक्कों का घड़ा, ढेर मथुरा में मिला है।
  17. सांकाश्यकेभ्यश्च पाटलिपुत्र केभ्यश्चमाथुरा अभिरूपतरा इति (महाभाष्य, 5,3,57)। संकाश्य का आधुनिक नाम संकिसा है, जो उत्तर प्रदेश के फ़र्रु्ख़ाबाद ज़िले में काली नदी के तट पर स्थित है।
  18. लेख के प्राप्ति-स्थान कटरा केशवदेव से गुप्तकालीन कलाकृतियाँ बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि इस समय में यहाँ विभिन्न सुन्दर प्रतिमाओं सहित एक वैष्णव मंन्दिर था।
  19. …प्रजातांत्रिक व्यवस्था (हिन्दी) (पी.एच.पी) ब्रज डिस्कवरी। अभिगमन तिथि: 25 जून, 2011।