"छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-4 खण्ड-10 से 17": अवतरणों में अंतर

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आचार्य सत्यकाम ने सबसे अन्त में उपकोसल से कहा-'हे वत्स! इन अग्नियों ने तुम्हें केवल लोकों का ज्ञान दिया है। अब मैं तुम्हें पापकर्मों को नष्ट करने वाला ज्ञान देता हूं। उपकोसल! नेत्रों में जो यह पुरुष दिखाई देता है, यही आत्मा हे। यह अविनाशी, भयरहित और ब्रह्मस्वरूप है। सम्पूर्ण शोभन और सर्वोपयोगी वस्तुएं यही धारण करता है और साधक को पुण्यकर्मों का फल प्रदान करता है। यह पुरुष निश्चय ही प्रकाशमान है व सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाला है। जब मन पूर्ण रूप से पवित्र हो जाता है, तब अज्ञान का अन्धकार मिट जाता है और साधक अपने मन में परब्रह्म के दर्शन करता है।'
आचार्य सत्यकाम ने सबसे अन्त में उपकोसल से कहा-'हे वत्स! इन अग्नियों ने तुम्हें केवल लोकों का ज्ञान दिया है। अब मैं तुम्हें पापकर्मों को नष्ट करने वाला ज्ञान देता हूं। उपकोसल! नेत्रों में जो यह पुरुष दिखाई देता है, यही आत्मा हे। यह अविनाशी, भयरहित और ब्रह्मस्वरूप है। सम्पूर्ण शोभन और सर्वोपयोगी वस्तुएं यही धारण करता है और साधक को पुण्यकर्मों का फल प्रदान करता है। यह पुरुष निश्चय ही प्रकाशमान है व सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाला है। जब मन पूर्ण रूप से पवित्र हो जाता है, तब अज्ञान का अन्धकार मिट जाता है और साधक अपने मन में परब्रह्म के दर्शन करता है।'


तान्त्रिक मतानुसार दोनों भौंहों के मध्य आज्ञचक्र स्थित है, जहां ध्यान लगाने पर 'ओंकार' स्वरूप प्रणव ब्रह्म का दर्शन होता है। यह प्रवहमान वायु ही यज्ञ है। यह सम्पूर्ण जगत को पवित्र करता है। 'वाणी' और 'मन' इसके दो मार्ग हैं। एक मार्ग का [[संस्कार]] ब्रह्मा अपने मन से करता है, दूसरे का होता अपनी वाणी से करता है। ऐसा यज्ञ करके यजमान विशेष श्रेय का अधिकारी हो जाता है।  
तान्त्रिक मतानुसार दोनों भौंहों के मध्य आज्ञचक्र स्थित है, जहां ध्यान लगाने पर 'ओंकार' स्वरूप प्रणव ब्रह्म का दर्शन होता है। यह प्रवहमान वायु ही यज्ञ है। यह सम्पूर्ण जगत् को पवित्र करता है। 'वाणी' और 'मन' इसके दो मार्ग हैं। एक मार्ग का [[संस्कार]] ब्रह्मा अपने मन से करता है, दूसरे का होता अपनी वाणी से करता है। ऐसा यज्ञ करके यजमान विशेष श्रेय का अधिकारी हो जाता है।  
;यज्ञ का ब्रह्म कौन है?
;यज्ञ का ब्रह्म कौन है?
अन्त में, प्रजापति [[ब्रह्मा]] तप करके लोकों का रसतत्त्व उत्पन्न करता हैं। पृथ्वी से अग्नि, अन्तरिक्ष से वायु और द्युलोक से आदित्य को ग्रहण करता है। अग्नि से ऋक्, वायु से यजुष और आदित्यदेव से साम को ग्रहण करता है। ऋचाओं से 'भू:' यजु:, कण्डिकाओं से 'भुव:' तथा साम मन्त्रों से 'स्व:' को ग्रहण करता है।
अन्त में, प्रजापति [[ब्रह्मा]] तप करके लोकों का रसतत्त्व उत्पन्न करता हैं। पृथ्वी से अग्नि, अन्तरिक्ष से वायु और द्युलोक से आदित्य को ग्रहण करता है। अग्नि से ऋक्, वायु से यजुष और आदित्यदेव से साम को ग्रहण करता है। ऋचाओं से 'भू:' यजु:, कण्डिकाओं से 'भुव:' तथा साम मन्त्रों से 'स्व:' को ग्रहण करता है।

13:52, 30 जून 2017 के समय का अवतरण

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-4 खण्ड-10 से 17
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
विवरण 'छान्दोग्य उपनिषद' प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। नाम के अनुसार इस उपनिषद का आधार छन्द है।
अध्याय चौथा
कुल खण्ड 17 (सत्रह)
सम्बंधित वेद सामवेद
संबंधित लेख उपनिषद, वेद, वेदांग, वैदिक काल, संस्कृत साहित्य
अन्य जानकारी सामवेद की तलवकार शाखा में छान्दोग्य उपनिषद को मान्यता प्राप्त है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिम आठ अध्याय ही छान्दोग्य उपनिषद में लिये गये हैं।

छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय चार का यह दसवें से सत्रहवाँ खण्ड है।

अग्नियों द्वारा ब्रह्मज्ञान का उपदेश

गुरु से ज्ञान प्राप्त कर सत्यकाम आचार्यपद पर आसीन हो गये। तब उन्होंने अपने शिष्य उपकोसल को विभिन्न अग्नियों का उदाहरण देकर 'ब्रह्मज्ञान' का उपदेश-दिया।

कमल का पुत्र उपकोसल ब्रह्मचर्यपूर्वक बारह वर्ष तक सत्यकाम जाबाल के पास रहकर अग्नियों की सेवा में लाभ रहा। दीक्षा समाप्त होने पर सत्यकाम ने सभी शिष्यों को दीक्षा दी, पर उपकोसल को नहीं दीं इस पर उपकोसल निराश होकर भोजन त्याग का निर्णन कर बैठा। इस पर अग्नियों ने एकत्रित होकर निर्णय लिया कि वे उपकोसल को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देंगी।

अग्नियों ने कहा-'उपकोसल वत्स! प्राण ही ब्रह्म है। 'क' (सुख) ब्रह्म है और 'ख' (आकाश) भी ब्रह्म है। प्राण का आधार आकाश है। पृथ्वी, अग्नि, अन्न और आदित्य, इन चारों में मैं ही हूं। आदित्य के मध्य जो पुरुष दिखाई देता है, वह मैं हूं। वही मेरा विराट रूप है। जो पुरुष इस प्रकार जानकर उस आदित्य पुरुष की उपासना करता है, वह पापकर्मों को नष्ट कर देता है। वह अग्नि के समस्त भोगों को प्राप्त करता है तथा पूर्ण आयु और तेजस्वी जीवन जीता है।'

इसके बाद आहवनीय अग्नि ने प्राण, आकाश, द्युलोक और विद्युत में अपनी उपस्थिति बतायी और कहा-'हे सौम्य! हमने तुझे आत्म-विद्या का ज्ञान कराया। अब आचार्य तुझे आगे बतायेंगे।'

आचार्य सत्यकाम ने सबसे अन्त में उपकोसल से कहा-'हे वत्स! इन अग्नियों ने तुम्हें केवल लोकों का ज्ञान दिया है। अब मैं तुम्हें पापकर्मों को नष्ट करने वाला ज्ञान देता हूं। उपकोसल! नेत्रों में जो यह पुरुष दिखाई देता है, यही आत्मा हे। यह अविनाशी, भयरहित और ब्रह्मस्वरूप है। सम्पूर्ण शोभन और सर्वोपयोगी वस्तुएं यही धारण करता है और साधक को पुण्यकर्मों का फल प्रदान करता है। यह पुरुष निश्चय ही प्रकाशमान है व सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाला है। जब मन पूर्ण रूप से पवित्र हो जाता है, तब अज्ञान का अन्धकार मिट जाता है और साधक अपने मन में परब्रह्म के दर्शन करता है।'

तान्त्रिक मतानुसार दोनों भौंहों के मध्य आज्ञचक्र स्थित है, जहां ध्यान लगाने पर 'ओंकार' स्वरूप प्रणव ब्रह्म का दर्शन होता है। यह प्रवहमान वायु ही यज्ञ है। यह सम्पूर्ण जगत् को पवित्र करता है। 'वाणी' और 'मन' इसके दो मार्ग हैं। एक मार्ग का संस्कार ब्रह्मा अपने मन से करता है, दूसरे का होता अपनी वाणी से करता है। ऐसा यज्ञ करके यजमान विशेष श्रेय का अधिकारी हो जाता है।

यज्ञ का ब्रह्म कौन है?

अन्त में, प्रजापति ब्रह्मा तप करके लोकों का रसतत्त्व उत्पन्न करता हैं। पृथ्वी से अग्नि, अन्तरिक्ष से वायु और द्युलोक से आदित्य को ग्रहण करता है। अग्नि से ऋक्, वायु से यजुष और आदित्यदेव से साम को ग्रहण करता है। ऋचाओं से 'भू:' यजु:, कण्डिकाओं से 'भुव:' तथा साम मन्त्रों से 'स्व:' को ग्रहण करता है।

यदि ऋचाओं के यज्ञ में कोई त्रुटि हो, तो 'भू: स्वाहा' कहकर यज्ञ करें।

यदि यजु: कण्डिकाओं के यज्ञ में कोई त्रुटि हो, तो 'भुव: स्वाहा' कहकर यज्ञ करें।

यदि साम मन्त्रों के यज्ञ में कोई त्रुटि हो तो, 'स्व: स्वाहा' कहकर यज्ञ करें।

जिस यज्ञ में ब्रह्मा ऋत्विक होता है, वहां वह यज्ञ की, यजमान की और समस्त ऋत्विजों की सब ओर से रक्षा करता है। इस प्रकार श्रेष्ठ ज्ञानवान को ही यज्ञ का ब्रह्मा बनाना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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