जाबाल

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जाबाल अथवा सत्यकाम जाबाल महर्षि गौतम के शिष्य थे जिनकी माता का नाम जबाला था। इनकी कथा छांदोग्य उपनिषद में दी गई है। सत्यकाम जब गुरु के पास गए तो नियमानुसार गौतम ने उनसे उनका गोत्र पूछा। सत्यकाम ने स्पष्ट कह दिया कि मुझे अपने गोत्र का पता नहीं, मेरी माता का नाम जबाला और मेरा नाम सत्यकाम है। मेरे पिता युवावस्था में ही मर गए और घर में नित्य अतिथियों के आधिक्य से माता को बहुत काम करना पड़ता था जिससे उन्हें इतना भी समय नहीं मिलता था कि वे पिता जी से उनका गोत्र पूछ सकतीं। गौतम ने शिष्य की इस सीधी सच्ची बात पर विश्वास करके सत्यकाम को ब्राह्मणपुत्र मान लिया और उसे शीघ्र ही पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो गई। इन्हें भी देखें: सत्यकाम की कथा

सत्यकाम जाबाल कथा

समृद्धिशाली परिवारों में परिचारिका के कार्य से जीविकानिर्वाह करने वाली एक स्त्री थी जिसका नाम था जबाला। उसे यौवन वयस में एक पुत्र हुआ जिसका नाम सत्यकाम था। जाबाला के पुत्र सत्यकाम ने गुरुकुल के लिए प्रस्थान करने से पूर्व जाबाला से अपना गोत्र पूछा। माँ ने बताया कि वह अतिथि-सत्कार करने वाली परिचारिणी थी, वहीं उसे पुत्र की प्राप्ति हुई थी- गोत्र क्या है, वह नहीं जानती। साथ ही माँ ने कहा-'तुम मेरे पुत्र हो, अपना नाम 'सत्यकाम जाबाल' बताना।

सत्यकाम हारिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचा। आचार्य गौतम के पूछने पर उसने माँ की कही बात ज्यों की ज्यों दोहरा दी। आचार्य ने कहा-'इतना स्पष्टवादी बालक ब्राह्मण के अतिरिक्त और कौन हो सकता है?' तथा उसका उपनयन करवाकर उसे 400 दुर्बल गौ चराने के लिए सौंप दीं। सत्यकाम ने कहा-'मैं तभी वापस आऊंगा जब इनकी संख्या एक सहस्त्र हो जायेगी।' सत्यकाम बहुत समय तक जंगल में रहा। उसकी सत्यनिष्ठा, तप और श्रद्धा से प्रसन्न होकर दिग्व्यापी वायु देवता ने सांड़ का रूप धारण किया और उससे कहा कि गौवों की संख्या एक सहस्त्र हो गयी है, अत: वह आश्रम जाए। मार्ग में अग्नि ने 'अनंतवान', हंस ने 'ज्योतिष्मान' और मद्गु ने 'आयतनवान' नामक चतुष्कल पदों के आदेश दिये। आश्रम में पहुंचने पर गौतम को वह ब्रह्मज्ञानी जान पड़ा। गौतम ऋषि ने उसे विभिन्न ऋषियों से दिए गये उपदेश का परिवर्द्धन कर उसके ज्ञान को पूर्ण कर दिया। ब्रह्म के चार-चार कलाओं से युक्त चार पद माने गए हैं-

  1. प्रकाशवान- पूर्वदिक्कला, पश्चिम दिक्कला, दक्षिण दिक्कला, उत्तर दिक्कला।
  2. अनंतवान- पृथ्वीकला, अंतरिक्षकला, द्युलोककला, समुद्रकला।
  3. ज्योतिष्मान- सूर्यककला, चंद्रककला, विद्युतकला, अग्निकला।
  4. आयतनवान- प्राणकला, चक्षुकला, श्रोत्रकला, मनकला।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छान्दोग्य उपनिषद, अ. 4, खंड 4,5,6,7,8,9

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