"सुग्रीव": अवतरणों में अंतर
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[[बाली]] और सुग्रीव दोनों सगे भाई थे। दोनों भाइयों में बड़ा प्रेम था। बाली बड़ा था, इसलिये वही वानरों का राजा था। एक बार | [[चित्र:Vali-and-Sugriva.jpg|thumb|250px|[[बाली]] और सुग्रीव]] | ||
'''सुग्रीव''' [[बाली]] का भाई और वानरों का राजा था। वह [[किष्किन्धा]] में रहता था। यह [[श्रीराम]] का [[भक्त]] तथा सखा था। सीताहरण के पश्चात् [[सीता|सीताजी]] को ढूँढते हुए जब श्रीराम किष्किन्धा पहुँचे, तब [[हनुमान]] ने सुग्रीव की मित्रता श्रीराम से करवाई थी। सुग्रीव का राज्य उसके भाई बाली ने छीन लिया था, और उसकी पत्नी [[रूमा]] को भी अपने पास रख लिया था। श्रीराम ने बाली का वध कर सुग्रीव की पत्नी को मुक्त कराया और उसे किष्किन्धा का नया राजा बनाया। [[राम]]-[[रावण]] युद्ध में सुग्रीव ने श्रीराम की बहुत मदद की। सुग्रीव [[सूर्य देव|भगवान सूर्य]] के पुत्र कहे जाते हैं। | |||
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[[बाली]] और सुग्रीव दोनों सगे भाई थे। दोनों भाइयों में बड़ा प्रेम था। बाली बड़ा था, इसलिये वही वानरों का राजा था। एक बार [[दुंदुभी दैत्य]] रात्रि में [[किष्किन्धा]] में आकर बाली को युद्ध के लिये चुनौती देते हुए घोर गर्जना करने लगा। बलशाली बाली अकेला ही उस से युद्ध करने के लिये निकल पड़ा। भ्रातृप्रेम के वशीभूत होकर सुग्रीव भी उसकी सहायता के लिये बाली के पीछे-पीछे चल पड़े। वह राक्षस एक बड़ी भारी गुफ़ा में प्रविष्ट हो गया। बाली अपने छोटे भाई सुग्रीव को गुफ़ा के द्वार पर अपनी प्रतीक्षा करने का निर्देश देकर राक्षस को मारने के लिये गुफ़ा के भीतर चला गया। एक मास के बाद गुफ़ा के द्वार से [[रक्त]] की धारा निकली। सुग्रीव ने अपने बड़े भाई बाली को राक्षस के द्वारा मारा गया जानकर गुफ़ा के द्वार को एक बड़ी शिला से बन्द कर दिया और किष्किन्धा लौट आये। मन्त्रियों ने राज्य को राजा से विहीन जानकर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बना दिया। राक्षस को मार कर किष्किन्धा लौटने पर जब बाली ने सुग्रीव को राज्यसिंहासन पर राजा के रूप में देखा तो उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने सुग्रीव पर प्राणघातक मुष्टिक प्रहार किया। प्राण रक्षा के लिये सुग्रीव [[ऋष्यमूक पर्वत]] पर जाकर छिप गये। बाली ने सुग्रीव का धन-स्त्री आदि सब कुछ छीन लिया। धन-स्त्री के हरण होने पर सुग्रीव दु:खी होकर अपने [[हनुमान]] आदि चार मन्त्रियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगे। | |||
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[[सीता]] जी का हरण हो जाने पर भगवान [[श्रीराम]] अपने भाई [[लक्ष्मण]] के साथ उन्हें खोजते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर आये। श्री [[हनुमान]] जी श्रीराम-लक्ष्मण को आदरपूर्वक सुग्रीव के पास ले आये और अग्नि के साक्षित्व में श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता हुई। भगवान श्रीराम ने एक ही बाण से बाली का वध करके सुग्रीव को निर्भय कर दिया। बाली के मरने पर सुग्रीव किष्किन्धा के राजा बने और [[अंगद]] को युवराज पद मिला। तदनन्तर सुग्रीव ने असंख्य वानरों को सीता जी की खोज में भेजा। श्री हनुमान जी ने सीता जी का पता लगाया। समस्त वानर-भालू श्रीराम के सहायक बने। [[लंका]] में वानरों और राक्षसों का भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में सुग्रीव ने अपनी वानरी सेना के साथ विशेष शौर्य का प्रदर्शन करके सच्चे मित्र धर्म का निर्वाह किया। अन्त में भगवान श्रीराम के हाथों [[रावण]] की मृत्यु हुई और भगवान श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण, पत्नी सीता और मित्रों के साथ [[अयोध्या]] लौटे। | |||
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'''ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥''' | '''ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥''' | ||
'''मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥''' | '''मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥''' | ||
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भगवान | भगवान श्रीराम का यह कथन उनके [[हृदय]] में सुग्रीव के प्रति अगाध स्नेह और आदर का परिचायक है। थोड़े दिनों तक अयोध्या में रखने के बाद भगवान ने सुग्रीव को विदा कर दिया। इन्होंने भगवान की लीलाओं का चिन्तन और कीर्तन करते हुए बहुत दिनों तक राज्य किया और जब भगवान ने अपनी लीला का संवरण किया, तब सुग्रीव भी उनके साथ [[साकेत (अयोध्या)|साकेत]] पधारे। | ||
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07:37, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
सुग्रीव बाली का भाई और वानरों का राजा था। वह किष्किन्धा में रहता था। यह श्रीराम का भक्त तथा सखा था। सीताहरण के पश्चात् सीताजी को ढूँढते हुए जब श्रीराम किष्किन्धा पहुँचे, तब हनुमान ने सुग्रीव की मित्रता श्रीराम से करवाई थी। सुग्रीव का राज्य उसके भाई बाली ने छीन लिया था, और उसकी पत्नी रूमा को भी अपने पास रख लिया था। श्रीराम ने बाली का वध कर सुग्रीव की पत्नी को मुक्त कराया और उसे किष्किन्धा का नया राजा बनाया। राम-रावण युद्ध में सुग्रीव ने श्रीराम की बहुत मदद की। सुग्रीव भगवान सूर्य के पुत्र कहे जाते हैं।
राज्य से निष्कासन
बाली और सुग्रीव दोनों सगे भाई थे। दोनों भाइयों में बड़ा प्रेम था। बाली बड़ा था, इसलिये वही वानरों का राजा था। एक बार दुंदुभी दैत्य रात्रि में किष्किन्धा में आकर बाली को युद्ध के लिये चुनौती देते हुए घोर गर्जना करने लगा। बलशाली बाली अकेला ही उस से युद्ध करने के लिये निकल पड़ा। भ्रातृप्रेम के वशीभूत होकर सुग्रीव भी उसकी सहायता के लिये बाली के पीछे-पीछे चल पड़े। वह राक्षस एक बड़ी भारी गुफ़ा में प्रविष्ट हो गया। बाली अपने छोटे भाई सुग्रीव को गुफ़ा के द्वार पर अपनी प्रतीक्षा करने का निर्देश देकर राक्षस को मारने के लिये गुफ़ा के भीतर चला गया। एक मास के बाद गुफ़ा के द्वार से रक्त की धारा निकली। सुग्रीव ने अपने बड़े भाई बाली को राक्षस के द्वारा मारा गया जानकर गुफ़ा के द्वार को एक बड़ी शिला से बन्द कर दिया और किष्किन्धा लौट आये। मन्त्रियों ने राज्य को राजा से विहीन जानकर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बना दिया। राक्षस को मार कर किष्किन्धा लौटने पर जब बाली ने सुग्रीव को राज्यसिंहासन पर राजा के रूप में देखा तो उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने सुग्रीव पर प्राणघातक मुष्टिक प्रहार किया। प्राण रक्षा के लिये सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर जाकर छिप गये। बाली ने सुग्रीव का धन-स्त्री आदि सब कुछ छीन लिया। धन-स्त्री के हरण होने पर सुग्रीव दु:खी होकर अपने हनुमान आदि चार मन्त्रियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगे।
श्रीराम से मित्रता
सीता जी का हरण हो जाने पर भगवान श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ उन्हें खोजते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर आये। श्री हनुमान जी श्रीराम-लक्ष्मण को आदरपूर्वक सुग्रीव के पास ले आये और अग्नि के साक्षित्व में श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता हुई। भगवान श्रीराम ने एक ही बाण से बाली का वध करके सुग्रीव को निर्भय कर दिया। बाली के मरने पर सुग्रीव किष्किन्धा के राजा बने और अंगद को युवराज पद मिला। तदनन्तर सुग्रीव ने असंख्य वानरों को सीता जी की खोज में भेजा। श्री हनुमान जी ने सीता जी का पता लगाया। समस्त वानर-भालू श्रीराम के सहायक बने। लंका में वानरों और राक्षसों का भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में सुग्रीव ने अपनी वानरी सेना के साथ विशेष शौर्य का प्रदर्शन करके सच्चे मित्र धर्म का निर्वाह किया। अन्त में भगवान श्रीराम के हाथों रावण की मृत्यु हुई और भगवान श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण, पत्नी सीता और मित्रों के साथ अयोध्या लौटे।
राम के स्नेही
अयोध्या में भगवान श्रीराम ने गुरुदेव वसिष्ठ को सुग्रीव आदि का परिचय देते हुए कहा-
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥
भगवान श्रीराम का यह कथन उनके हृदय में सुग्रीव के प्रति अगाध स्नेह और आदर का परिचायक है। थोड़े दिनों तक अयोध्या में रखने के बाद भगवान ने सुग्रीव को विदा कर दिया। इन्होंने भगवान की लीलाओं का चिन्तन और कीर्तन करते हुए बहुत दिनों तक राज्य किया और जब भगवान ने अपनी लीला का संवरण किया, तब सुग्रीव भी उनके साथ साकेत पधारे।
वाल्मीकि रामायण में ही लिखा गया है कि शूरसेन प्रदेश का नाम शत्रुघ्न तथा उनके पुत्रों का इससे संबंध होने से पहिले ही प्रसिद्ध हो चुका था। सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए वानर सेना को जिन प्रदेशों में जाने के लिए कहा था, उनमें 'शूरसेन' का भी नामोल्लेख हुआ है। वाल्मीकि-रामायण में इस संबंध में संकेत पाया जाता है।
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