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'''आन्वीक्षिकी''' न्यायशास्त्र का प्राचीन अभिधान। प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी विचारशास्त्र या दर्शन की सामान्य संज्ञा थी और यह त्रयी (वेदत्रयी), वार्ता (अर्थशास्त्र), दंडनीति (राजनीति) के साथ चतुर्थ विद्या के रूप में प्रतिष्ठित थी<ref>आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दंडनीतिश्च शाश्वती। विद्या ह्येताश्चतस्रस्तु लोकसंसृतिहेतव:</ref> जिसका उपयोग लोक के व्यवहार निर्वाह के लिए आवश्यक माना जाता था। कालांतर में इस शब्द का प्रयोग केवल न्यायशास्त्र के लिए संकुचित कर दिया गया। वात्स्यायन के न्यायभाष्य के अनुसार अन्वीक्षा द्वारा प्रवृत्त होने के कारण ही इस विद्या की संज्ञा 'आन्वीक्षिकी' पड़ गई। अन्वीक्षा के दो अर्थ हैं: (1) प्रत्यक्ष तथा आगम पर आश्रित अनुमान तथा (2) प्रत्यक्ष और शब्दप्रमाण की सहायता से अवगत होने वाले विषयों का अनु (पश्चात्) ईक्षण (पर्यालोचन, अर्थात ज्ञान), अर्थात अनुमिति। न्यायशास्त्र का प्रधान लक्ष्य तो है प्रमाणों के द्वारा अर्थो का परीक्षण,<ref>प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:-न्यायभाष्य 1।1।1</ref> परंतु इन प्रमाणों में भी अनुमान का महत्वपूर्ण स्थान है और इस अनुमान द्वारा प्रवृत्त होने के कारण तर्क प्रधान 'आन्वीक्षिकी' का प्रयोग न्यायभाष्यकार वात्स्यायन मुनि ने न्यायदर्शन के लिए ही उपयुक्त माना है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=382 |url=}}</ref> | '''आन्वीक्षिकी''' न्यायशास्त्र का प्राचीन अभिधान। प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी विचारशास्त्र या दर्शन की सामान्य संज्ञा थी और यह त्रयी (वेदत्रयी), वार्ता (अर्थशास्त्र), दंडनीति (राजनीति) के साथ चतुर्थ विद्या के रूप में प्रतिष्ठित थी<ref>आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दंडनीतिश्च शाश्वती। विद्या ह्येताश्चतस्रस्तु लोकसंसृतिहेतव:</ref> जिसका उपयोग लोक के व्यवहार निर्वाह के लिए आवश्यक माना जाता था। कालांतर में इस शब्द का प्रयोग केवल न्यायशास्त्र के लिए संकुचित कर दिया गया। वात्स्यायन के न्यायभाष्य के अनुसार अन्वीक्षा द्वारा प्रवृत्त होने के कारण ही इस विद्या की संज्ञा 'आन्वीक्षिकी' पड़ गई। अन्वीक्षा के दो अर्थ हैं: (1) प्रत्यक्ष तथा आगम पर आश्रित अनुमान तथा (2) प्रत्यक्ष और शब्दप्रमाण की सहायता से अवगत होने वाले विषयों का अनु (पश्चात्) ईक्षण (पर्यालोचन, अर्थात ज्ञान), अर्थात अनुमिति। न्यायशास्त्र का प्रधान लक्ष्य तो है प्रमाणों के द्वारा अर्थो का परीक्षण,<ref>प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:-न्यायभाष्य 1।1।1</ref> परंतु इन प्रमाणों में भी अनुमान का महत्वपूर्ण स्थान है और इस अनुमान द्वारा प्रवृत्त होने के कारण तर्क प्रधान 'आन्वीक्षिकी' का प्रयोग न्यायभाष्यकार वात्स्यायन मुनि ने न्यायदर्शन के लिए ही उपयुक्त माना है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=382 |url=}}</ref> | ||
दूसरी धारा में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द, इन चार प्रमाणों का गंभीर अध्ययन तथा विश्लेषण मुख्य उद्देश्य था। फलत: इस प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक'<ref>एपिस्टोमोलाजिकल</ref> कहते हैं। इसका प्रवर्तन गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) ने अपने प्रख्यात ग्रंथ 'तत्वचिंतामणि'में किया। 'प्राचीन न्याय' (प्रथम धारा) में पदार्थों की मीमांसा मुख्य विषय है, 'नव्यन्याय' (द्वितीय धारा) में प्रमाणों का विश्लेषण मुख्य लक्ष्य है। नव्यन्याय का उदय मिथिला में हुआ, परंतु इसका अभ्युदय बंगाल में संपन्न हुआ। मध्ययुगीन बौद्ध तार्किकों के साथ घोर संघर्ष होने से खंडन मंडन के द्वारा यह शास्त्र विकसित होता गया। प्राचीन न्याय के मुख्य आचार्य हैं गौतम, वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, जयंत भट्ट, भा सर्वज्ञ तथा उदयनाचार्य। नव्यन्याय के आचार्य हैं गंगेश उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ, जगदीश भट्टाचार्य तथा गदाधर भट्टाचार्य। इन दोनों धाराओं में मध्य बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय के अभ्युदय का काल आता है। बौद्ध नैयायिकों में वसुवंधु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति के नाम प्रमुख हैं।<ref>सं.ग्रं.- | दूसरी धारा में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द, इन चार प्रमाणों का गंभीर अध्ययन तथा विश्लेषण मुख्य उद्देश्य था। फलत: इस प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक'<ref>एपिस्टोमोलाजिकल</ref> कहते हैं। इसका प्रवर्तन गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) ने अपने प्रख्यात ग्रंथ 'तत्वचिंतामणि'में किया। 'प्राचीन न्याय' (प्रथम धारा) में पदार्थों की मीमांसा मुख्य विषय है, 'नव्यन्याय' (द्वितीय धारा) में प्रमाणों का विश्लेषण मुख्य लक्ष्य है। नव्यन्याय का उदय मिथिला में हुआ, परंतु इसका अभ्युदय बंगाल में संपन्न हुआ। मध्ययुगीन बौद्ध तार्किकों के साथ घोर संघर्ष होने से खंडन मंडन के द्वारा यह शास्त्र विकसित होता गया। प्राचीन न्याय के मुख्य आचार्य हैं गौतम, वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, जयंत भट्ट, भा सर्वज्ञ तथा उदयनाचार्य। नव्यन्याय के आचार्य हैं गंगेश उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ, जगदीश भट्टाचार्य तथा गदाधर भट्टाचार्य। इन दोनों धाराओं में मध्य बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय के अभ्युदय का काल आता है। बौद्ध नैयायिकों में वसुवंधु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति के नाम प्रमुख हैं।<ref>सं.ग्रं.-डॉ. विद्याभूषण: हिस्ट्री ऑव लाजिक, कलकत्ता, 1925</ref> | ||
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09:54, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
आन्वीक्षिकी न्यायशास्त्र का प्राचीन अभिधान। प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी विचारशास्त्र या दर्शन की सामान्य संज्ञा थी और यह त्रयी (वेदत्रयी), वार्ता (अर्थशास्त्र), दंडनीति (राजनीति) के साथ चतुर्थ विद्या के रूप में प्रतिष्ठित थी[1] जिसका उपयोग लोक के व्यवहार निर्वाह के लिए आवश्यक माना जाता था। कालांतर में इस शब्द का प्रयोग केवल न्यायशास्त्र के लिए संकुचित कर दिया गया। वात्स्यायन के न्यायभाष्य के अनुसार अन्वीक्षा द्वारा प्रवृत्त होने के कारण ही इस विद्या की संज्ञा 'आन्वीक्षिकी' पड़ गई। अन्वीक्षा के दो अर्थ हैं: (1) प्रत्यक्ष तथा आगम पर आश्रित अनुमान तथा (2) प्रत्यक्ष और शब्दप्रमाण की सहायता से अवगत होने वाले विषयों का अनु (पश्चात्) ईक्षण (पर्यालोचन, अर्थात ज्ञान), अर्थात अनुमिति। न्यायशास्त्र का प्रधान लक्ष्य तो है प्रमाणों के द्वारा अर्थो का परीक्षण,[2] परंतु इन प्रमाणों में भी अनुमान का महत्वपूर्ण स्थान है और इस अनुमान द्वारा प्रवृत्त होने के कारण तर्क प्रधान 'आन्वीक्षिकी' का प्रयोग न्यायभाष्यकार वात्स्यायन मुनि ने न्यायदर्शन के लिए ही उपयुक्त माना है।[3]
दूसरी धारा में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द, इन चार प्रमाणों का गंभीर अध्ययन तथा विश्लेषण मुख्य उद्देश्य था। फलत: इस प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक'[4] कहते हैं। इसका प्रवर्तन गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) ने अपने प्रख्यात ग्रंथ 'तत्वचिंतामणि'में किया। 'प्राचीन न्याय' (प्रथम धारा) में पदार्थों की मीमांसा मुख्य विषय है, 'नव्यन्याय' (द्वितीय धारा) में प्रमाणों का विश्लेषण मुख्य लक्ष्य है। नव्यन्याय का उदय मिथिला में हुआ, परंतु इसका अभ्युदय बंगाल में संपन्न हुआ। मध्ययुगीन बौद्ध तार्किकों के साथ घोर संघर्ष होने से खंडन मंडन के द्वारा यह शास्त्र विकसित होता गया। प्राचीन न्याय के मुख्य आचार्य हैं गौतम, वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, जयंत भट्ट, भा सर्वज्ञ तथा उदयनाचार्य। नव्यन्याय के आचार्य हैं गंगेश उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ, जगदीश भट्टाचार्य तथा गदाधर भट्टाचार्य। इन दोनों धाराओं में मध्य बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय के अभ्युदय का काल आता है। बौद्ध नैयायिकों में वसुवंधु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति के नाम प्रमुख हैं।[5]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दंडनीतिश्च शाश्वती। विद्या ह्येताश्चतस्रस्तु लोकसंसृतिहेतव:
- ↑ प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:-न्यायभाष्य 1।1।1
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 382 |
- ↑ एपिस्टोमोलाजिकल
- ↑ सं.ग्रं.-डॉ. विद्याभूषण: हिस्ट्री ऑव लाजिक, कलकत्ता, 1925