"लखनऊ": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
छो (Text replacement - "तेजी " to "तेज़ी")
 
(3 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 22: पंक्ति 22:
अवधी [[तुलसीदास]] के समय में अपनी पूर्णता पर पहुँची, पर बीसवीं शताब्दी में भी इसमें कविताएँ होती रहीं। [[अवध के नवाब|अवध के नवाबों]] ने देशी भाषाओं के साथ हिन्दी-उर्दू कविता को भी प्रश्रय दिया। इस प्रकार लखनऊ और उसके आस-पास ऐसा सांस्कृतिक परिवेश रहा है जिसे हम सम्पूर्ण कला-संसार कह सकते हैं। लखनऊ की गज़ल गायकी, संगीत-नृत्य का अपना स्थान है और कइयों का नाम अदब से लिया जाता है।
अवधी [[तुलसीदास]] के समय में अपनी पूर्णता पर पहुँची, पर बीसवीं शताब्दी में भी इसमें कविताएँ होती रहीं। [[अवध के नवाब|अवध के नवाबों]] ने देशी भाषाओं के साथ हिन्दी-उर्दू कविता को भी प्रश्रय दिया। इस प्रकार लखनऊ और उसके आस-पास ऐसा सांस्कृतिक परिवेश रहा है जिसे हम सम्पूर्ण कला-संसार कह सकते हैं। लखनऊ की गज़ल गायकी, संगीत-नृत्य का अपना स्थान है और कइयों का नाम अदब से लिया जाता है।
लखनऊ का संसार शुद्धतावादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि स्थान की संस्कृति के अपने दबाव रहे हैं। इस दृष्टि से यहाँ रचना का एक सम्मिलित रूप उभरा, जिसे [[भगवतीचरण वर्मा]] की ’दो बाँके‘ जैसी कहानियों में देखा जा सकता है। पुराने इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं, पर लखनऊ से माधुरी, सुधा जैसी [[पत्रिका|पत्रिकाएँ]] प्रकाशित हुई और बैसवाड़ा क्षेत्र के महाकवि [[सूर्यकांत त्रिपाठी निराला]] पर्याप्त समय तक यहाँ रहे। [[रामविलास शर्मा|डॉ. रामविलास शर्मा]] ने ’निराला की साहित्य-साधना‘ में इसकी चर्चा विस्तार से की है कि तीसरे-चौथे दशक में मध्ययुगीन प्रवृत्तियों से जूझते हुए, निराला ने नये भाव-बोध का प्रतिनिधि किया। यहीं ’दान‘ जैसी कविता में विश्वविद्यालय के पास के गोमती पुल के दूत हैं और महाकवि की उक्ति हैं: सबमें है श्रेष्ठ, धन्य मानव। कई अन्य नाम जो यहाँ कुछ समय रहे, फिर अन्यत्र चले गए जैसे कवि [[रघुवीर सहाय]] और कुछ यहीं बस गए जैसे [[श्रीलाल शुक्ल]] आदि। डॉ. देवराज, [[कुंवर नारायण]], कृष्णनारायण कक्कड़, प्रताप टंडन, प्रेमशंकर ने जब ’युग चेतना‘ का सम्पादन-प्रकाशन सहयोगी प्रयास के रूप में आरंभ किया, तब सभी लेखकों का व्यापक समर्थन मिलस। यह लखनऊ की मिली-जुली तहजीब के प्रति सदाशयता भाव तो है ही, इस तथ्य का प्रमाण भी कि वैचारिक विभाजन और शिविरबद्धता का ऐसा दृश्य नहीं था कि संवेदन की उदारता ही संकट में पड़ जाए। <br />
लखनऊ का संसार शुद्धतावादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि स्थान की संस्कृति के अपने दबाव रहे हैं। इस दृष्टि से यहाँ रचना का एक सम्मिलित रूप उभरा, जिसे [[भगवतीचरण वर्मा]] की ’दो बाँके‘ जैसी कहानियों में देखा जा सकता है। पुराने इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं, पर लखनऊ से माधुरी, सुधा जैसी [[पत्रिका|पत्रिकाएँ]] प्रकाशित हुई और बैसवाड़ा क्षेत्र के महाकवि [[सूर्यकांत त्रिपाठी निराला]] पर्याप्त समय तक यहाँ रहे। [[रामविलास शर्मा|डॉ. रामविलास शर्मा]] ने ’निराला की साहित्य-साधना‘ में इसकी चर्चा विस्तार से की है कि तीसरे-चौथे दशक में मध्ययुगीन प्रवृत्तियों से जूझते हुए, निराला ने नये भाव-बोध का प्रतिनिधि किया। यहीं ’दान‘ जैसी कविता में विश्वविद्यालय के पास के गोमती पुल के दूत हैं और महाकवि की उक्ति हैं: सबमें है श्रेष्ठ, धन्य मानव। कई अन्य नाम जो यहाँ कुछ समय रहे, फिर अन्यत्र चले गए जैसे कवि [[रघुवीर सहाय]] और कुछ यहीं बस गए जैसे [[श्रीलाल शुक्ल]] आदि। डॉ. देवराज, [[कुंवर नारायण]], कृष्णनारायण कक्कड़, प्रताप टंडन, प्रेमशंकर ने जब ’युग चेतना‘ का सम्पादन-प्रकाशन सहयोगी प्रयास के रूप में आरंभ किया, तब सभी लेखकों का व्यापक समर्थन मिलस। यह लखनऊ की मिली-जुली तहजीब के प्रति सदाशयता भाव तो है ही, इस तथ्य का प्रमाण भी कि वैचारिक विभाजन और शिविरबद्धता का ऐसा दृश्य नहीं था कि संवेदन की उदारता ही संकट में पड़ जाए। <br />
औद्योगिक व्यवस्था तथा मध्यवर्ग के विकास के साथ व्यक्तिवाद तेजी से बढ़ा और कई बार ’अंधेरे बंद कमरे‘ जैसी स्थिति। पर उन दिनों गोष्ठियों का जमाना था। विश्वविद्यालय की पंडिताई का पुस्तकीय संसार था, पर डी.पी. मुखर्जी जैसे प्रोफेसर भी थे, जो संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र, संगीत, साहित्य में समानज्ञान रखते थे। डायवर्सिटीज नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में उन्होंने उल्लेख किया है कि [[उत्तर भारत]] मुझे समाजशास्त्री मानता है, मेरा बंगदेश मुझे साहित्यकार के रूप में देखता है और संगीत मुझे प्रिय है। ’सोशियालजी ऑफ इंडियन कल्चर‘ पुस्तक में उनका समग्र व्यक्तित्व देखा जा सकता है। प्रो. पूरनचन्द्र जोशी उनके योग्य शिष्यों में हैं। वास्तव में उन दिनों जीवन, रचना और विभिन्न अनुशासनों के बीच ऐसी दूरी न थी कि वे एक-दूसरे से अधिक सींख ही न सकें। लखनऊ के उस दौर में शुद्ध साहित्य, शास्त्र-चर्चा के कई भ्रम टूटते थे, साथ ही राजनीतिक वातावरण की सीमाएँ भी स्पष्ट होती थीं। रचना जीवन से साक्षात्कार मात्र नहीं, संवेदन-वैचारिक संघर्ष भी है, पर सब कुछ कला में विलयित होकर समान रूप में आना चाहिए। शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रमों को देखते हुए प्रायः टिप्पणी की जाती है कि वे प्रतिभा के समुचित विकास में बाधा हैं। [[श्रीकांत वर्मा]] ने तो ’अध्यापकीय आलोचना‘ का फिरका ही गढ़ लिया था जिसका प्रतिवाद देवीशंकर अवस्थी ने किया था। पर ध्यान दें तो एक ही स्थान पर कई संसार हो सकते हैं। [[काशी]] की पण्डित नगरी में [[तुलसीदास]] की काव्य-रचना हुई, देशी भाषा में रामकथा को नये आशय देती। वहीं [[भारतेन्दु हरिशचंद्र]] सांस्कृतिक जागरण के प्रथम प्रस्थान बने। भाग्य से लखनऊ की मिली-जुली सभ्यता और अवध की उदार संस्कृति में कट्टरता की गुंजाशय कम थी। नवाबी परिवेश को उजागर करते निराला ने ’कुकुरमुत्ता‘ व्यंग्य की रचना 1941 में की थी।<br />[[चित्र:Raghuvir-Sahay.jpg|thumb|left|[[रघुवीर सहाय]]]]
औद्योगिक व्यवस्था तथा मध्यवर्ग के विकास के साथ व्यक्तिवाद तेज़ीसे बढ़ा और कई बार ’अंधेरे बंद कमरे‘ जैसी स्थिति। पर उन दिनों गोष्ठियों का जमाना था। विश्वविद्यालय की पंडिताई का पुस्तकीय संसार था, पर डी.पी. मुखर्जी जैसे प्रोफेसर भी थे, जो संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र, संगीत, साहित्य में समानज्ञान रखते थे। डायवर्सिटीज नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में उन्होंने उल्लेख किया है कि [[उत्तर भारत]] मुझे समाजशास्त्री मानता है, मेरा बंगदेश मुझे साहित्यकार के रूप में देखता है और संगीत मुझे प्रिय है। ’सोशियालजी ऑफ इंडियन कल्चर‘ पुस्तक में उनका समग्र व्यक्तित्व देखा जा सकता है। प्रो. पूरनचन्द्र जोशी उनके योग्य शिष्यों में हैं। वास्तव में उन दिनों जीवन, रचना और विभिन्न अनुशासनों के बीच ऐसी दूरी न थी कि वे एक-दूसरे से अधिक सींख ही न सकें। लखनऊ के उस दौर में शुद्ध साहित्य, शास्त्र-चर्चा के कई भ्रम टूटते थे, साथ ही राजनीतिक वातावरण की सीमाएँ भी स्पष्ट होती थीं। रचना जीवन से साक्षात्कार मात्र नहीं, संवेदन-वैचारिक संघर्ष भी है, पर सब कुछ कला में विलयित होकर समान रूप में आना चाहिए। शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रमों को देखते हुए प्रायः टिप्पणी की जाती है कि वे प्रतिभा के समुचित विकास में बाधा हैं। [[श्रीकांत वर्मा]] ने तो ’अध्यापकीय आलोचना‘ का फिरका ही गढ़ लिया था जिसका प्रतिवाद देवीशंकर अवस्थी ने किया था। पर ध्यान दें तो एक ही स्थान पर कई संसार हो सकते हैं। [[काशी]] की पण्डित नगरी में [[तुलसीदास]] की काव्य-रचना हुई, देशी भाषा में रामकथा को नये आशय देती। वहीं [[भारतेन्दु हरिशचंद्र]] सांस्कृतिक जागरण के प्रथम प्रस्थान बने। भाग्य से लखनऊ की मिली-जुली सभ्यता और अवध की उदार संस्कृति में कट्टरता की गुंजाशय कम थी। नवाबी परिवेश को उजागर करते निराला ने ’कुकुरमुत्ता‘ व्यंग्य की रचना 1941 में की थी।<br />[[चित्र:Raghuvir-Sahay.jpg|thumb|left|[[रघुवीर सहाय]]]]
हिन्दी रचनाशीलता के प्रमुख दावेदारों में [[काशी]], [[प्रयाग]] रहे हैं। महानगरों के अपने दुःख-सुख, पर उनके आकर्षण से बच पाना आसान नहीं। जैसे गाँव उजड़कर शहरों की ओर भाग रहे हैं, वैसी स्थिति कई बार रचनाकारों की भी दिखाई देती है। भगवती बाबू [[मुम्बई]] गए, लौट आए और मायानगरी के अपने अनुभवों को ’आखिरी दाँव‘ में लिपिबद्ध किया। [[अमृतलाल नागर]] जी भी लखनऊ लौटे। कथा लेखिकाओं में [[शिवानी]] जी हैं जो पहाड़ियों से सामग्री प्राप्त करती हैं, जिसे वे शान्तिनिकेतन शिक्षा से नया संवेदन-संसार देती हैं, पर लखनऊ भी उनमें और उनकी बेटी [[मृणाल पाण्डे]] में उपस्थित है। मुद्राराक्षस कलकत्ता गए थे, पर अपनी जमीन में लौटे; उन्होंने अपनी प्रखरता से कई विवाद उपजाए, पर नये प्रयोगों से चर्चित हुए। कई विधाओं में उन्होंने कार्य किया। उनसे पूछा जाय तो कहेंगे: लखनऊ हम पर फ़िदा और हम फ़िदाए लखनऊ। काशी के अग्रज ठाकुर प्रसाद सिंह (पूर्व सूचना निदेशक) से एक बार पूछा कि लखनऊ कैसा लगता है तो बोले, यहाँ तो काशी के लोग मुझसे पहले से मौजूद हैं। उनमें से कुछ ने भंग के रंग की शिकायत की है, पर लखनऊ की अपनी तहजीब है। नागर जी का उदाहरण दिया जाता है कि उनमें लखनऊ का ’चौक‘ मुहल्ला रचा-बचा है। [[सुल्तानपुर]] के विलोचन जी का सम्बन्ध प्रायः काशी से स्थापित किया जाता है, पर उन्होंने ’अमौला‘ के माध्यम से अपनी अवधी कविताएँ प्रस्तुत कीं, उन्नीस मात्राओं के बरवे छन्द में कविता की है-  
हिन्दी रचनाशीलता के प्रमुख दावेदारों में [[काशी]], [[प्रयाग]] रहे हैं। महानगरों के अपने दुःख-सुख, पर उनके आकर्षण से बच पाना आसान नहीं। जैसे गाँव उजड़कर शहरों की ओर भाग रहे हैं, वैसी स्थिति कई बार रचनाकारों की भी दिखाई देती है। भगवती बाबू [[मुम्बई]] गए, लौट आए और मायानगरी के अपने अनुभवों को ’आखिरी दाँव‘ में लिपिबद्ध किया। [[अमृतलाल नागर]] जी भी लखनऊ लौटे। कथा लेखिकाओं में [[शिवानी]] जी हैं जो पहाड़ियों से सामग्री प्राप्त करती हैं, जिसे वे शान्तिनिकेतन शिक्षा से नया संवेदन-संसार देती हैं, पर लखनऊ भी उनमें और उनकी बेटी [[मृणाल पाण्डे]] में उपस्थित है। मुद्राराक्षस कलकत्ता गए थे, पर अपनी जमीन में लौटे; उन्होंने अपनी प्रखरता से कई विवाद उपजाए, पर नये प्रयोगों से चर्चित हुए। कई विधाओं में उन्होंने कार्य किया। उनसे पूछा जाय तो कहेंगे: लखनऊ हम पर फ़िदा और हम फ़िदाए लखनऊ। काशी के अग्रज ठाकुर प्रसाद सिंह (पूर्व सूचना निदेशक) से एक बार पूछा कि लखनऊ कैसा लगता है तो बोले, यहाँ तो काशी के लोग मुझसे पहले से मौजूद हैं। उनमें से कुछ ने भंग के रंग की शिकायत की है, पर लखनऊ की अपनी तहजीब है। नागर जी का उदाहरण दिया जाता है कि उनमें लखनऊ का ’चौक‘ मुहल्ला रचा-बचा है। [[सुल्तानपुर]] के विलोचन जी का सम्बन्ध प्रायः काशी से स्थापित किया जाता है, पर उन्होंने ’अमौला‘ के माध्यम से अपनी अवधी कविताएँ प्रस्तुत कीं, उन्नीस मात्राओं के बरवे छन्द में कविता की है-  
<poem>दाउद महमद तुलसी कह हम दास
<poem>दाउद महमद तुलसी कह हम दास
केहि गिनती मंह गिनती जस बन-घास।</poem>  
केहि गिनती मंह गिनती जस बन-घास।</poem>  
[[स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन|स्वतंत्रता संग्राम]] के दौर में सनेही जी से लेकर पढ़ीस जी, रमई काका और वंशीधर शुल्क तक अवधी कवियों की एक पूरी पंक्ति थी जो अलख लगाती थी। [[बालकृष्ण शर्मा नवीन]] और [[सोहन लाल द्विवेदी] की कविताएँ तो सर्वविदित हैं ही। लखनऊ और उसके आस-पास की चर्चा करते हुए, हमारा ध्यान लखनवी तहजीब, तौर-तरीके की ओर जाता है, जिसने आस-पास की रचनाशीलता को भी अपनी उदार दृष्टि से प्रभावित किया। वहाँ के उर्दू अदब का ज़िक्र करते हुए प्रो. एहतिशाम हुसैन ने उर्दू साहित्य के इतिहास में लखनऊ की आधुनिक काव्य रचना में परिवर्तनों का विशेष उल्लेख किया है। इसे उन्होंने ’लखनवी रंग‘ कहा है और चकबस्त, [[मजाज़]] आदि के साथ कई मशहूर [[शायर|शायरों]] के नाम गिनाए हैं। मुहम्मद हुसैन आज़ाद अपनी पुस्तक उर्दू काव्य की जीवनधारा में भी कुछ पुरानों का भी उल्लेख करते हैं।<ref name="अभिव्यक्ति">{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/nagarnama/lucknow2.htm |title=हम फिदाए लखनऊ |accessmonthday=4 मार्च |accessyear=2014 |last= |first=डॉ. प्रेमशंकर |authorlink= |format= |publisher=अभिव्यक्ति|language=हिंदी }}</ref>
[[स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन|स्वतंत्रता संग्राम]] के दौर में सनेही जी से लेकर पढ़ीस जी, रमई काका और वंशीधर शुल्क तक अवधी कवियों की एक पूरी पंक्ति थी जो अलख लगाती थी। [[बालकृष्ण शर्मा नवीन]] और [[सोहन लाल द्विवेदी]] की कविताएँ तो सर्वविदित हैं ही। लखनऊ और उसके आस-पास की चर्चा करते हुए, हमारा ध्यान लखनवी तहजीब, तौर-तरीके की ओर जाता है, जिसने आस-पास की रचनाशीलता को भी अपनी उदार दृष्टि से प्रभावित किया। वहाँ के उर्दू अदब का ज़िक्र करते हुए प्रो. एहतिशाम हुसैन ने उर्दू साहित्य के इतिहास में लखनऊ की आधुनिक काव्य रचना में परिवर्तनों का विशेष उल्लेख किया है। इसे उन्होंने ’लखनवी रंग‘ कहा है और चकबस्त, [[मजाज़]] आदि के साथ कई मशहूर [[शायर|शायरों]] के नाम गिनाए हैं। मुहम्मद हुसैन आज़ाद अपनी पुस्तक उर्दू काव्य की जीवनधारा में भी कुछ पुरानों का भी उल्लेख करते हैं।<ref name="अभिव्यक्ति">{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/nagarnama/lucknow2.htm |title=हम फिदाए लखनऊ |accessmonthday=4 मार्च |accessyear=2014 |last= |first=डॉ. प्रेमशंकर |authorlink= |format= |publisher=अभिव्यक्ति|language=हिंदी }}</ref>
[[कुंवर नारायण]] के कविता संकलन ’अपने सामने‘ में ’लखनऊ‘ शीर्षक कविता है, पूर्व स्मृतियों की कथा कहती-  
[[कुंवर नारायण]] के कविता संकलन ’अपने सामने‘ में ’लखनऊ‘ शीर्षक कविता है, पूर्व स्मृतियों की कथा कहती-  
[[चित्र:Kunwvar-Narayan.jpg|thumb|[[कुंवर नारायण]]]]  
[[चित्र:Kunwvar-Narayan.jpg|thumb|[[कुंवर नारायण]]]]  
पंक्ति 47: पंक्ति 47:
यही है क़िबला
यही है क़िबला
हमारा और आपका लखनऊ।<ref name="अभिव्यक्ति"/></poem>
हमारा और आपका लखनऊ।<ref name="अभिव्यक्ति"/></poem>
==कला-संगीत==
==कला-संगीत==
लखनऊ का अपना कला संगीत संसार है। अरूण कुमार सेन ने [[विष्णुनारायण भातखंडे]] की ’उत्तर भारतीय संगीत पुस्तक‘ का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करते हुए उन्हें उद्धृत किया है कि लखनऊ के अंतिम नवाब [[वाजिद अली शाह]] द्वारा [[ठुमरी]] को प्रतिष्ठा मिली, यह एक प्रकार से उत्तरी संगीत का पुनरूत्थान है। इसी प्रकार लखनऊ में [[कथक नृत्य]] का घराना विकसित हुआ, जिसमें महाराज बिंदादीन से लेकर अच्छन महाराज और लच्छू महाराज तक के नाम हैं। [[बृहस्पति ऋषि|आचार्य बृहस्पति ]] ने ’मुसलमान और भारतीय संगीत‘ पुस्तक में वाजिद अली शाह युग के संगीत की सराहना की है। 1926 ई. में भातखंडे जी ने जिस संगीत विद्यालय का आरंभ किया, वह हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति का शिक्षा केन्द्र बना। लखनऊ के कलावृत्त ने समग्र रचना संसार को प्रभावित किया, इसमें संदेह नहीं। स्वतंत्रता के पहले दौर में जो भाई-चारा था, उसे सभी ने देश-प्रेम की भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी।<ref name="अभिव्यक्ति"/>
लखनऊ का अपना कला संगीत संसार है। अरूण कुमार सेन ने [[विष्णुनारायण भातखंडे]] की ’उत्तर भारतीय संगीत पुस्तक‘ का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करते हुए उन्हें उद्धृत किया है कि लखनऊ के अंतिम नवाब [[वाजिद अली शाह]] द्वारा [[ठुमरी]] को प्रतिष्ठा मिली, यह एक प्रकार से उत्तरी संगीत का पुनरूत्थान है। इसी प्रकार लखनऊ में [[कथक नृत्य]] का घराना विकसित हुआ, जिसमें महाराज बिंदादीन से लेकर अच्छन महाराज और लच्छू महाराज तक के नाम हैं। [[बृहस्पति ऋषि|आचार्य बृहस्पति ]] ने ’मुसलमान और भारतीय संगीत‘ पुस्तक में वाजिद अली शाह युग के संगीत की सराहना की है। 1926 ई. में भातखंडे जी ने जिस संगीत विद्यालय का आरंभ किया, वह हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति का शिक्षा केन्द्र बना। लखनऊ के कलावृत्त ने समग्र रचना संसार को प्रभावित किया, इसमें संदेह नहीं। स्वतंत्रता के पहले दौर में जो भाई-चारा था, उसे सभी ने देश-प्रेम की भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी।<ref name="अभिव्यक्ति"/>
पंक्ति 65: पंक्ति 66:
==शिक्षा==
==शिक्षा==
[[चित्र:La-Martiniere-Lucknow.jpg|thumb|300px|ला मार्टिनियर महाविद्यालय, लखनऊ]]
[[चित्र:La-Martiniere-Lucknow.jpg|thumb|300px|ला मार्टिनियर महाविद्यालय, लखनऊ]]
;लखनऊ में छः विश्वविद्यालय हैं:
;लखनऊ में छह विश्वविद्यालय हैं:
* [[लखनऊ विश्वविद्यालय]]
* [[लखनऊ विश्वविद्यालय]]
* उत्तर प्रदेश तकनीकी विश्वविद्यालय (यू. पी. टी. यू.)
* उत्तर प्रदेश तकनीकी विश्वविद्यालय (यू. पी. टी. यू.)
पंक्ति 97: पंक्ति 98:
* [[लखनऊ विकास प्राधिकरण]]
* [[लखनऊ विकास प्राधिकरण]]
==जनसंख्या==
==जनसंख्या==
[[भारत सरकार]] की 2001 की जनगणना, सामाजिक, आर्थिक सूचकांक के अनुसार, लखनऊ ज़िला अल्पसंख्यकों की घनी आबादी वाला ज़िला है। [[कानपुर]] के बाद यह नगर उत्तर-प्रदेश का सबसे बड़ा शहरी क्षेत्र है। आज का लखनऊ एक जीवंत शहर है। लखनऊ को भारत के तेजी से बढ़ रहे गैर-महानगरों के शीर्ष पंद्रह में से एक माना गया है। लखनऊ की अधिकांश जनसंख्या पूर्वी [[उत्तर प्रदेश]] से है। फिर भी यहाँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के अलावा बंगाली, दक्षिण भारतीय एवं आंग्ल-भारतीय लोग भी बसे हुए हैं। लखनऊ की कुल जनसंख्या का 77% [[हिन्दू]] एवं 20% [[मुस्लिम]] लोग हैं। शेष भाग में [[सिक्ख]], [[जैन]], [[ईसाई]] एवं [[बौद्ध]] लोग हैं।
[[भारत सरकार]] की 2001 की जनगणना, सामाजिक, आर्थिक सूचकांक के अनुसार, लखनऊ ज़िला अल्पसंख्यकों की घनी आबादी वाला ज़िला है। [[कानपुर]] के बाद यह नगर उत्तर-प्रदेश का सबसे बड़ा शहरी क्षेत्र है। आज का लखनऊ एक जीवंत शहर है। लखनऊ को भारत के तेज़ीसे बढ़ रहे गैर-महानगरों के शीर्ष पंद्रह में से एक माना गया है। लखनऊ की अधिकांश जनसंख्या पूर्वी [[उत्तर प्रदेश]] से है। फिर भी यहाँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के अलावा बंगाली, दक्षिण भारतीय एवं आंग्ल-भारतीय लोग भी बसे हुए हैं। लखनऊ की कुल जनसंख्या का 77% [[हिन्दू]] एवं 20% [[मुस्लिम]] लोग हैं। शेष भाग में [[सिक्ख]], [[जैन]], [[ईसाई]] एवं [[बौद्ध]] लोग हैं।
==साक्षरता==
==साक्षरता==
लखनऊ [[भारत]] के सबसे साक्षर शहरों में से एक है। यहाँ की साक्षरता दर 82.5% है, स्त्रियों की 78% एवं पुरुषों की साक्षरता 89% हैं।
लखनऊ [[भारत]] के सबसे साक्षर शहरों में से एक है। यहाँ की साक्षरता दर 82.5% है, स्त्रियों की 78% एवं पुरुषों की साक्षरता 89% हैं।
पंक्ति 191: पंक्ति 192:
चित्र:Chattar-Manzil-Lucknow.jpg|[[छतर मंज़िल|छत्तर मंज़िल]], लखनऊ (1870)
चित्र:Chattar-Manzil-Lucknow.jpg|[[छतर मंज़िल|छत्तर मंज़िल]], लखनऊ (1870)
चित्र:Kudiya-ghat.JPG|कुडिया घाट, लखनऊ  
चित्र:Kudiya-ghat.JPG|कुडिया घाट, लखनऊ  
चित्र:Lucknow-Post-Office.jpg|डाकघर, लखनऊ
</gallery>
</gallery>



08:18, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

लखनऊ
विवरण लखनऊ भारत गणराज्य के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी है।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला लखनऊ ज़िला
निर्माता आसफ़उद्दौला
स्थापना 1775 ई.
भौगोलिक स्थिति उत्तर- 26°85', पूर्व- 80°92'
मार्ग स्थिति लखनऊ शहर सड़क द्वारा इलाहाबाद से 205 किमी, वाराणसी से 323 किलोमीटर, आगरा से 325 किमी, मथुरा से 374 किमी, दिल्ली से 468 किमी दूरी पर स्थित है।
प्रसिद्धि लखनऊ शहर एक विशिष्‍ट प्रकार की कढ़ाई, चिकन से सजे हुए परिधानों और कपड़ों के लिए भी प्रसिद्ध है।
कैसे पहुँचें हवाई जहाज़, रेल, बस आदि से पहुँचा जा सकता है।
हवाई अड्डा अमौसी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा
रेलवे स्टेशन चारबाग़ रेलवे स्टेशन, ऐशबाग़ रेलवे स्टेशन, लखनऊ सिटी रेलवे स्टेशन, आलमनगर रेलवे स्टेशन, बादशाहनगर रेलवे स्टेशन, अमौसी रेलवे स्टेशन
बस अड्डा चारबाग़ बस टर्मिनस, केसरबाग़ बस टर्मिनस, डॉ. भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस
यातायात सिटी बस सेवा, टैक्सी, साइकिल रिक्शा, ऑटोरिक्शा, टेम्पो एवं सीएनजी बसें
क्या देखें घंटाघर, जामा मस्जिद, बड़ा इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा, रेसीडेंसी संग्रहालय, छतर मंज़िल आदि
कहाँ ठहरें होटल, धर्मशाला, अतिथि ग्रह
क्या खायें ज़ायकेदार मलाई गिलौरी (पान), बादाम हलवा, रस-मलाई और चटपटी चाट
क्या ख़रीदें चिकनकारी और जरदोजी के कपड़े, आभूषण और हस्तशिल्प कला का सामान ख़रीदा जा सकता है।
एस.टी.डी. कोड 0522
ए.टी.एम लगभग सभी
गूगल मानचित्र
भाषा हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी
अद्यतन‎

लखनऊ भारत गणराज्य के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी है। लखनऊ नगर गोमती नदी के किनारे पर बसा हुआ है। लखनऊ, लखनऊ ज़िला और लखनऊ मंडल का प्रशासनिक मुख्यालय है। लखनऊ नगर अपनी ख़ास नज़ाकत और तहजीब वाली बहुसंस्कृति, आम के बाग़ों और चिकन की कढ़ाई, नामचीन कत्थक नृत्य कला का जन्मस्थल, बेगम अख़्तर की ग़ज़लों का सरूर लिए 'पहले आप' की तहज़ीबो-अदब और शाम-ए-अवध के लिए जाने जाना वाला नवाबी तबियत का पूरी दुनिया में एक ही शहर है। इस नगर को 'बाग़ों का शहर' भी कहा जाता है। यहाँ राजकीय संग्रहालय भी है। जिसकी स्थापना 1863 ई. में की गई थी। 500 वर्ष पुरानी मुस्लिम सन्त शाह मीना की क़ब्र भी यहीं पर है।

घंटाघर, लखनऊ

भौगोलिक स्थिति

गंगा के विशाल उत्तरी मैदान के हृदय क्षेत्र में स्थित लखनऊ शहर बहुत से प्रसिद्ध स्थानों से घिरा है जैसे- अमराइयों का शहर मलिहाबाद, ऐतिहासिक काकोरी, मोहनलालगंज, गोसांईगंज, चिह्नट और इटौंजा। इस शहर के पूर्वी ओर बाराबंकी ज़िला है, पश्चिम ओर उन्नाव ज़िला एवं दक्षिण की ओर रायबरेली ज़िला है। इसके उत्तर में सीतापुर और हरदोई ज़िले हैं। गोमती नदी, मुख्य भौगोलिक भाग, शहर के बीचों बीच से निकलती है और लखनऊ को ट्रांस-गोमती एवं सिस-गोमती क्षेत्रों में विभाजित करती है। लखनऊ शहर भूकम्प क्षेत्र के तृतीय स्तर में आता है। शहर के बीच से गोमती नदी बहती है, जो लखनऊ की संस्कृति का हिस्सा है।

इतिहास

लखनऊ को ऐतिहासिक रूप से अवध क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार इसका प्राचीन नाम लक्ष्मणपुर था। राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने इसे बसाया था। यहाँ के शिया नवाबों ने शिष्टाचार, ख़ूबसूरत उद्यानों, कविता, संगीत और बढ़िया व्यंजनों को सदैव संरक्षण दिया। लखनऊ को नवाबों का शहर भी कहा जाता है। लखनऊ को पूर्व का स्वर्ण नगर और शिराज-ए-हिंद के रूप में जाना जाता है। लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था। इसे भगवान राम ने अपने भाई लक्ष्मण को सौंप दिया था। इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से भी जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया। लखनऊ से अयोध्या सिर्फ़ 40 मील की दूरी पर है। इन्हें भी देखें: अवध, अवध के नवाब एवं अवध की बेगमें

अवध के नवाबों का योगदान

अवध के नवाबों ने जब लखनऊ को राजधानी बनाया तो मेरठ और दिल्ली के साथ-साथ एक और बड़ा शहर लखनऊ अस्तित्व में आया। मुग़ल वास्तुकला से देखें तो अवध के नवाबों ने लखनऊ को भव्य इमारतों का नगर बनाने में कोई कमी बाकी नहीं रखी। कला और संस्कृति के संरक्षक अवध के नवाबों के शासनकाल में की गई मुग़ल चित्रकारी आज भी कई संग्रहालयों में है। बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा तथा रूमी दरवाज़ा मुग़ल वास्तुकला के अद्भुत उदाहरण हैं।

छोटा इमामबाड़ा, लखनऊ

लखनऊ के वर्तमान स्वरूप की स्थापना नवाब आसफ़उद्दौला ने 1775 ई. में की थी। अवध के शासकों ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाकर इसे समृद्ध किया। कालांतर में नवाब विलासी और निकम्मे सिद्ध हुए। इन नवाबों के आलसी स्वभाव के कारण लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध को बिना युद्ध ही अधिग्रहण कर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। 1850 में अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली। लखनऊ के नवाबों का शासन इस प्रकार समाप्त हुआ।

यूनाइटेड प्रोविन्स या 'यूपी'

सन 1902 में 'नार्थ वेस्ट प्रोविन्स' का नाम बदल कर 'यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध' कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे 'यूनाइटेड प्रोविन्स' या 'यूपी' कहा गया। सन 1920 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया। 'अखिल भारतीय किसान सभा' का आयोजन 1934 ई. में लखनऊ में ही किया गया था। स्वतन्त्रता के बाद 12 जनवरी सन् 1950 में इसका नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना। इस प्रकार यह अपने पूर्व लघुनाम 'यूपी' से जुड़ा रहा।

उच्च न्यायालय

प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने। अक्टूबर 1963 में सुचेता कृपलानी उत्तर-प्रदेश एवं भारत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री बनीं।

भाषा

यह हिन्दी और उर्दू साहित्य के केंद्रों में से एक है। लखनऊ में अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं। यहाँ की हिन्दी में लखनवी अंदाज़ है, जो विश्वप्रसिद्ध है। इसके अलावा यहाँ उर्दू और अंग्रेज़ी भी बोली जाती हैं।

साहित्य में लखनऊ का योगदान

संस्कृति का एक समन्वित रूप लखनऊ में विकसित हुआ। अवध क्षेत्र होने के कारण एक ओर यहाँ अवधी की रचनाएँ हुई, दूसरी ओर मेल-जोल की स्थिति ने हिन्दी-उर्दू की निकटता स्थापित की। जायस के मलिक मुहम्मद जायसी ने सोलहवीं सदी के मध्य में जिस प्रेम-पंथ का आवाह्न किया था, वह आज भी प्रासंगिक है:

श्रीलाल शुक्ल

’’तीन लोक चौदह खंड सबै परै मोहिं सूझ
प्रेम छांड़ि नहि लीन किछु जो देखा मन बूझ।‘‘

अवधी तुलसीदास के समय में अपनी पूर्णता पर पहुँची, पर बीसवीं शताब्दी में भी इसमें कविताएँ होती रहीं। अवध के नवाबों ने देशी भाषाओं के साथ हिन्दी-उर्दू कविता को भी प्रश्रय दिया। इस प्रकार लखनऊ और उसके आस-पास ऐसा सांस्कृतिक परिवेश रहा है जिसे हम सम्पूर्ण कला-संसार कह सकते हैं। लखनऊ की गज़ल गायकी, संगीत-नृत्य का अपना स्थान है और कइयों का नाम अदब से लिया जाता है। लखनऊ का संसार शुद्धतावादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि स्थान की संस्कृति के अपने दबाव रहे हैं। इस दृष्टि से यहाँ रचना का एक सम्मिलित रूप उभरा, जिसे भगवतीचरण वर्मा की ’दो बाँके‘ जैसी कहानियों में देखा जा सकता है। पुराने इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं, पर लखनऊ से माधुरी, सुधा जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई और बैसवाड़ा क्षेत्र के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पर्याप्त समय तक यहाँ रहे। डॉ. रामविलास शर्मा ने ’निराला की साहित्य-साधना‘ में इसकी चर्चा विस्तार से की है कि तीसरे-चौथे दशक में मध्ययुगीन प्रवृत्तियों से जूझते हुए, निराला ने नये भाव-बोध का प्रतिनिधि किया। यहीं ’दान‘ जैसी कविता में विश्वविद्यालय के पास के गोमती पुल के दूत हैं और महाकवि की उक्ति हैं: सबमें है श्रेष्ठ, धन्य मानव। कई अन्य नाम जो यहाँ कुछ समय रहे, फिर अन्यत्र चले गए जैसे कवि रघुवीर सहाय और कुछ यहीं बस गए जैसे श्रीलाल शुक्ल आदि। डॉ. देवराज, कुंवर नारायण, कृष्णनारायण कक्कड़, प्रताप टंडन, प्रेमशंकर ने जब ’युग चेतना‘ का सम्पादन-प्रकाशन सहयोगी प्रयास के रूप में आरंभ किया, तब सभी लेखकों का व्यापक समर्थन मिलस। यह लखनऊ की मिली-जुली तहजीब के प्रति सदाशयता भाव तो है ही, इस तथ्य का प्रमाण भी कि वैचारिक विभाजन और शिविरबद्धता का ऐसा दृश्य नहीं था कि संवेदन की उदारता ही संकट में पड़ जाए।

औद्योगिक व्यवस्था तथा मध्यवर्ग के विकास के साथ व्यक्तिवाद तेज़ीसे बढ़ा और कई बार ’अंधेरे बंद कमरे‘ जैसी स्थिति। पर उन दिनों गोष्ठियों का जमाना था। विश्वविद्यालय की पंडिताई का पुस्तकीय संसार था, पर डी.पी. मुखर्जी जैसे प्रोफेसर भी थे, जो संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र, संगीत, साहित्य में समानज्ञान रखते थे। डायवर्सिटीज नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में उन्होंने उल्लेख किया है कि उत्तर भारत मुझे समाजशास्त्री मानता है, मेरा बंगदेश मुझे साहित्यकार के रूप में देखता है और संगीत मुझे प्रिय है। ’सोशियालजी ऑफ इंडियन कल्चर‘ पुस्तक में उनका समग्र व्यक्तित्व देखा जा सकता है। प्रो. पूरनचन्द्र जोशी उनके योग्य शिष्यों में हैं। वास्तव में उन दिनों जीवन, रचना और विभिन्न अनुशासनों के बीच ऐसी दूरी न थी कि वे एक-दूसरे से अधिक सींख ही न सकें। लखनऊ के उस दौर में शुद्ध साहित्य, शास्त्र-चर्चा के कई भ्रम टूटते थे, साथ ही राजनीतिक वातावरण की सीमाएँ भी स्पष्ट होती थीं। रचना जीवन से साक्षात्कार मात्र नहीं, संवेदन-वैचारिक संघर्ष भी है, पर सब कुछ कला में विलयित होकर समान रूप में आना चाहिए। शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रमों को देखते हुए प्रायः टिप्पणी की जाती है कि वे प्रतिभा के समुचित विकास में बाधा हैं। श्रीकांत वर्मा ने तो ’अध्यापकीय आलोचना‘ का फिरका ही गढ़ लिया था जिसका प्रतिवाद देवीशंकर अवस्थी ने किया था। पर ध्यान दें तो एक ही स्थान पर कई संसार हो सकते हैं। काशी की पण्डित नगरी में तुलसीदास की काव्य-रचना हुई, देशी भाषा में रामकथा को नये आशय देती। वहीं भारतेन्दु हरिशचंद्र सांस्कृतिक जागरण के प्रथम प्रस्थान बने। भाग्य से लखनऊ की मिली-जुली सभ्यता और अवध की उदार संस्कृति में कट्टरता की गुंजाशय कम थी। नवाबी परिवेश को उजागर करते निराला ने ’कुकुरमुत्ता‘ व्यंग्य की रचना 1941 में की थी।

रघुवीर सहाय

हिन्दी रचनाशीलता के प्रमुख दावेदारों में काशी, प्रयाग रहे हैं। महानगरों के अपने दुःख-सुख, पर उनके आकर्षण से बच पाना आसान नहीं। जैसे गाँव उजड़कर शहरों की ओर भाग रहे हैं, वैसी स्थिति कई बार रचनाकारों की भी दिखाई देती है। भगवती बाबू मुम्बई गए, लौट आए और मायानगरी के अपने अनुभवों को ’आखिरी दाँव‘ में लिपिबद्ध किया। अमृतलाल नागर जी भी लखनऊ लौटे। कथा लेखिकाओं में शिवानी जी हैं जो पहाड़ियों से सामग्री प्राप्त करती हैं, जिसे वे शान्तिनिकेतन शिक्षा से नया संवेदन-संसार देती हैं, पर लखनऊ भी उनमें और उनकी बेटी मृणाल पाण्डे में उपस्थित है। मुद्राराक्षस कलकत्ता गए थे, पर अपनी जमीन में लौटे; उन्होंने अपनी प्रखरता से कई विवाद उपजाए, पर नये प्रयोगों से चर्चित हुए। कई विधाओं में उन्होंने कार्य किया। उनसे पूछा जाय तो कहेंगे: लखनऊ हम पर फ़िदा और हम फ़िदाए लखनऊ। काशी के अग्रज ठाकुर प्रसाद सिंह (पूर्व सूचना निदेशक) से एक बार पूछा कि लखनऊ कैसा लगता है तो बोले, यहाँ तो काशी के लोग मुझसे पहले से मौजूद हैं। उनमें से कुछ ने भंग के रंग की शिकायत की है, पर लखनऊ की अपनी तहजीब है। नागर जी का उदाहरण दिया जाता है कि उनमें लखनऊ का ’चौक‘ मुहल्ला रचा-बचा है। सुल्तानपुर के विलोचन जी का सम्बन्ध प्रायः काशी से स्थापित किया जाता है, पर उन्होंने ’अमौला‘ के माध्यम से अपनी अवधी कविताएँ प्रस्तुत कीं, उन्नीस मात्राओं के बरवे छन्द में कविता की है-

दाउद महमद तुलसी कह हम दास
केहि गिनती मंह गिनती जस बन-घास।

स्वतंत्रता संग्राम के दौर में सनेही जी से लेकर पढ़ीस जी, रमई काका और वंशीधर शुल्क तक अवधी कवियों की एक पूरी पंक्ति थी जो अलख लगाती थी। बालकृष्ण शर्मा नवीन और सोहन लाल द्विवेदी की कविताएँ तो सर्वविदित हैं ही। लखनऊ और उसके आस-पास की चर्चा करते हुए, हमारा ध्यान लखनवी तहजीब, तौर-तरीके की ओर जाता है, जिसने आस-पास की रचनाशीलता को भी अपनी उदार दृष्टि से प्रभावित किया। वहाँ के उर्दू अदब का ज़िक्र करते हुए प्रो. एहतिशाम हुसैन ने उर्दू साहित्य के इतिहास में लखनऊ की आधुनिक काव्य रचना में परिवर्तनों का विशेष उल्लेख किया है। इसे उन्होंने ’लखनवी रंग‘ कहा है और चकबस्त, मजाज़ आदि के साथ कई मशहूर शायरों के नाम गिनाए हैं। मुहम्मद हुसैन आज़ाद अपनी पुस्तक उर्दू काव्य की जीवनधारा में भी कुछ पुरानों का भी उल्लेख करते हैं।[1] कुंवर नारायण के कविता संकलन ’अपने सामने‘ में ’लखनऊ‘ शीर्षक कविता है, पूर्व स्मृतियों की कथा कहती-

कुंवर नारायण

किसी मुर्दा शानो शौकत की क़ब्र-सा
किसी बेवा के सब्र सा
जर्जर गुम्बदों के ऊपर
अवध की उदास शामों का शामियाना थामें
किसी तवाइफ़ की ग़ज़ल-सा
हर आने वाला दिन किसी बीते हुए कल-सा
कमान-कमर नवाब के झुके हुए
शरीफ़ आदाब-सा लखनऊ
बारीक मलमल पर कढ़ी हुई बारीकियों की तरी
इस शहर की कमज़ोर नफ़ासत
नवाबी ज़माने की ज़नानी अदाओं में
किसी मनचले को रिझाने के लिए
क़ब्वालियाँ गाती नज़ाकत
किसी गरीज़ की तरह नयी ज़िन्दगी के लिए तरसता
सरशार और मजाज का लखनऊ
किसी शौकीन और हाय किसी बेनियाज़ का लखनऊ
यही है क़िबला
हमारा और आपका लखनऊ।[1]

कला-संगीत

लखनऊ का अपना कला संगीत संसार है। अरूण कुमार सेन ने विष्णुनारायण भातखंडे की ’उत्तर भारतीय संगीत पुस्तक‘ का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करते हुए उन्हें उद्धृत किया है कि लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह द्वारा ठुमरी को प्रतिष्ठा मिली, यह एक प्रकार से उत्तरी संगीत का पुनरूत्थान है। इसी प्रकार लखनऊ में कथक नृत्य का घराना विकसित हुआ, जिसमें महाराज बिंदादीन से लेकर अच्छन महाराज और लच्छू महाराज तक के नाम हैं। आचार्य बृहस्पति ने ’मुसलमान और भारतीय संगीत‘ पुस्तक में वाजिद अली शाह युग के संगीत की सराहना की है। 1926 ई. में भातखंडे जी ने जिस संगीत विद्यालय का आरंभ किया, वह हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति का शिक्षा केन्द्र बना। लखनऊ के कलावृत्त ने समग्र रचना संसार को प्रभावित किया, इसमें संदेह नहीं। स्वतंत्रता के पहले दौर में जो भाई-चारा था, उसे सभी ने देश-प्रेम की भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी।[1]

उद्योग एवं व्यवसाय

सोने की पुरानी खान, लखनऊ

चिकनकारी और ज़री के काम का यह प्रमुख केन्द्र है। लखनऊ का चिकन, यहाँ के हुनरमंदों की कारीगरी,[2] लखनवी ज़रदोज़ी की बहुत प्रसिद्धि है। पुराने लखनऊ के चौक इलाके का ज़्यादातर हिस्सा चिकन कशीदाकारी की दुकानों से भरा पड़ा है। लखनऊ का चिकन की कढ़ाई का व्यापार बहुत प्रसिद्ध है। यह एक लघु-उद्योग है। यह लघु उद्योग यहाँ के चौक क्षेत्र के घर घर में फैला हुआ है। चिकन एवं लखनवी ज़रदोज़ी, दोनों ही देश के लिए विदेशी मुद्रा लाते हैं। चिकन ने बॉलीवुड एवं विदेशों के फैशन डिज़ाइनरों को सदैव आकर्षित किया है। चौक में ही मुँह में पानी ला देने वाले मिठाइयों की दुकाने भी हैं। यहाँ की ज़ायकेदार मलाई गिलौरी (पान), बादाम हलवा और रस-मलाई, और चटपटी चाट बहुत प्रसिद्ध है। लखनऊ हमेशा से ही लजीज पकवानों के लिए मशहूर रहा है। सबसे ज़्यादा प्रसिद्धि मिली है टुंडे नवाब के कबाब को। चौक की घुमावदार गलियों में से एक गली में मौजूद है टुंडे नवाब की यह 100 साल पुरानी दुकान। शहर में आज भी अतीत की सुंदर झलकियां देखी जा सकती हैं। प्राचीन काल से ही यह शहर रेशम, इत्र, चिकन के कपड़ें, आभूषण, स्वादिष्ट भोजन और नवाबी शिष्टाचार के लिए प्रसिद्ध है।

कला

अवध के नवाबों के इस शहर में कथक, ठुमरी, ख़्याल नृत्य, दादरा, कव्वाली, ग़ज़ल और शेरो शायरी जैसी कला भी शिखर पर पहुंची थी।

यातायात और परिवहन

वायुमार्ग

लखनऊ का 'अमौसी एयरपोर्ट' दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चैन्नई, बैंगलोर, जयपुर, पुणे, भुवनेश्वर, गुवाहाटी और अहमदाबाद से प्रतिदिन सीधी फ्लाइट द्वारा जुड़ा हुआ है। अमौसी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा लखनऊ का मुख्य विमान क्षेत्र है। यह नगर से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर है। यह कई अंतर्राष्ट्रीय वायु सेवाओं के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय गंतव्यों से जुड़ा हुआ है। इन गंतव्यों में लंदन, दुबई, जेद्दाह, मस्कट, शारजाह, सिंगापुर एवं हांगकांग आदि हैं। हज मुबारक के समय यहाँ से विशेष उड़ानें सीधे जेद्दाह के लिए रहती हैं।

आसफ़ी मस्जिद, लखनऊ

रेलमार्ग

लखनऊ जंक्शन भारत के प्रमुख शहरों से अनेक रेलगाड़ियों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। दिल्ली से लखनऊ मेल और शताब्दी एक्सप्रेस, मुम्बई से पुष्पक एक्सप्रेस, कोलकाता से दून और अमृतसर एक्सप्रेस के माध्यम से लखनऊ पहुंचा जा सकता है। लखनऊ में कई रेलवे स्टेशन हैं। शहर में मुख्य रेलवे स्टेशन चारबाग़ रेलवे स्टेशन है। इस स्टेशन का सुन्दर महलनुमा भवन 1923 में बना था। मुख्य टर्मिनल उत्तर रेलवे का है जिसका स्टेशन कोड: LKO है। दूसरा टर्मिनल पूर्वोत्तर रेलवे मंडल का है, जिसका स्टेशन कोड: LJN है। लखनऊ एक प्रधान जंक्शन स्टेशन है, जो भारत के लगभग सभी मुख्य नगरों से रेल द्वारा जुड़ा हुआ है। मुख्य रेलवे स्टेशन पर आजकल 15 रेलवे प्लेटफ़ॉर्म हैं।

सड़क मार्ग

राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से दिल्ली से सीधे लखनऊ पहुंचा जा सकता है। लखनऊ का राष्ट्रीय राजमार्ग 2 दिल्ली को आगरा, इलाहाबाद, वाराणसी और कानपुर के रास्ते कोलकाता को जोड़ता है। प्रमुख बस टर्मिनस आलमबाग़ का डॉ. भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस है। इसके अतिरिक्त अन्य प्रमुख बस टर्मिनस केसरबाग़ और चारबाग़ थे, जिनमें से चारबाग़ बस टर्मिनस को, जो चारबाग़ रेलवे स्टेशन के सामने था, नगर बस डिपो बना कर स्थानांतरित कर दिया गया है। यह स्थानांतरण रेलवे स्टेशन के सामने की भीड़भाड़ को नियंत्रित करने के लिए किया गया है।

शिक्षा

ला मार्टिनियर महाविद्यालय, लखनऊ
लखनऊ में छह विश्वविद्यालय हैं
  • लखनऊ विश्वविद्यालय
  • उत्तर प्रदेश तकनीकी विश्वविद्यालय (यू. पी. टी. यू.)
  • राममनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय (लोहिया लॉ वि.वि.)
  • बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय
  • एमिटी विश्वविद्यालय
  • इंटीग्रल विश्वविद्यालय
यहाँ कई उच्च चिकित्सा संस्थान भी हैं
  • संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (एस.जी.पी.जी.आई.)
  • छत्रपति शाहूजी महाराज आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय (जिसे पहले किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज कहते थे) के अलावा निर्माणाधीन सहारा अस्पताल, अपोलो अस्पताल, एराज़ लखनऊ मेडिकल कॉलेज भी हैं।
  • प्रबंधन संस्थानों में भारतीय प्रबंधन संस्थान, लखनऊ (आई.आई.एम.), इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ आते हैं।
  • यहाँ भारत के प्रमुखतम निजी विश्वविद्यालयों में से एक, एमिटी विश्वविद्यालय का भी परिसर है।
  • इसके अलावा यहाँ बहुत से उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के भी सरकारी एवं निजी विद्यालय हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं:
    • सिटी मॉण्टेसरी स्कूल
    • ला मार्टिनियर महाविद्यालय
    • जयपुरिया स्कूल
    • कॉल्विन ताल्लुकेदार कालेज
    • एम्मा थॉम्पसन स्कूल
    • सेंट फ्रांसिस स्कूल
    • महानगर बॉयज़

अनुसंधान शोध संस्थान

रेसीडेंसी संग्रहालय, लखनऊ

लखनऊ में देश के कई उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान भी हैं। इनमें से कुछ हैं:

  • किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज
  • बीरबल साहनी अनुसंधान संस्थान
यहाँ भारत के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद की चार प्रमुख प्रयोगशालाएँ हैं-
  • केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान
  • औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केन्द्र
  • राष्ट्रीय वनस्पति विज्ञान अनुसंधान संस्थान(एन.बी.आर.आई.)
  • केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान
  • लखनऊ विकास प्राधिकरण

जनसंख्या

भारत सरकार की 2001 की जनगणना, सामाजिक, आर्थिक सूचकांक के अनुसार, लखनऊ ज़िला अल्पसंख्यकों की घनी आबादी वाला ज़िला है। कानपुर के बाद यह नगर उत्तर-प्रदेश का सबसे बड़ा शहरी क्षेत्र है। आज का लखनऊ एक जीवंत शहर है। लखनऊ को भारत के तेज़ीसे बढ़ रहे गैर-महानगरों के शीर्ष पंद्रह में से एक माना गया है। लखनऊ की अधिकांश जनसंख्या पूर्वी उत्तर प्रदेश से है। फिर भी यहाँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के अलावा बंगाली, दक्षिण भारतीय एवं आंग्ल-भारतीय लोग भी बसे हुए हैं। लखनऊ की कुल जनसंख्या का 77% हिन्दू एवं 20% मुस्लिम लोग हैं। शेष भाग में सिक्ख, जैन, ईसाई एवं बौद्ध लोग हैं।

साक्षरता

लखनऊ भारत के सबसे साक्षर शहरों में से एक है। यहाँ की साक्षरता दर 82.5% है, स्त्रियों की 78% एवं पुरुषों की साक्षरता 89% हैं।

पर्यटन स्थल

पर्यटन स्थल संक्षिप्त विवरण चित्र
बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ शहर बड़ा इमामबाड़ा नामक एक ऐतिहासिक द्वार का घर है, जहां एक ऐसी अद्भुत वास्तुकला दिखाई देती है जो आधुनिक वास्‍तुकार भी देख कर दंग रह जाएं। इमामबाड़े का निर्माण नवाब आसफ़उद्दौला ने 1784 ई. में कराया था और इसके संकल्‍पनाकार 'किफ़ायतउल्‍ला' थे, जो ताजमहल के वास्‍तुकार के संबंधी कह जाते हैं। ... और पढ़ें
छोटा इमामबाड़ा छोटा इमामबाड़ा या हुसैनाबाद इमामबाड़ा का निर्माण अवध के नवाब 'मोहम्मद अली शाह' ने 1837 ई. में करवाया गया था। ऐसा माना जाता है कि मोहम्मद अली शाह को यहीं पर दफनाया गया था। छोटे इमामबाड़े में ही मोहम्मद अली शाह की बेटी और दामाद का मक़बरा भी बना हुआ है। ... और पढ़ें
रूमी दरवाज़ा रूमी दरवाज़ा लखनऊ के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। लखनऊ का यह भवन विश्व पटल पर अपनी एक अलग पहचान रखता है। नवाब आसफ़उद्दौला ने सन‍् 1775 में लखनऊ को अपनी सल्तनत का केंद्र बना लिया था। यह दरवाज़ा जनपद लखनऊ का हस्ताक्षर शिल्प भवन है। अवध वास्तुकला के प्रतीक इस दरवाज़े को तुर्किश गेटवे कहा जाता है। ... और पढ़ें
बटलर पैलेस लखनऊ में सुल्तानगंज बांध और बनारसी बाग़ के बीच में एक आलीशान चौरुखा महल है। इस महल को 'बटलर पैलेस' के नाम से जाना जाता है। इस इमारत का नाम सन् 1907 में सी.ई डिप्टी कमिश्नर अवध बने सर हारकोर्ट बटलर के नाम पर है। किन्हीं कारणों से यह महल पूरी तरह निर्मित नहीं हो सका किंतु इसका वर्तमान स्वरूप देखकर ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि यह बना होता, तो इसकी भव्यता देखते ही बनती। ... और पढ़ें
लाल पुल लाल पुल को ‘पक्का पुल’ के नाम से भी जाना जाता है। यह पुल 10 जनवरी, 1914 को बनकर तैयार हुआ था। इस पुल को बने 100 साल हो गये हैं। अवध के नवाब आसफ़उद्दौला के द्वारा निर्मित पुराने शाही पुल को 1911 में कमज़ोर बता कर तोड़ दिये जाने के बाद अंग्रेज़ अधिकारियों ने 10 जनवरी 1914 यह पुल बनाकर लखनऊ की जनता को सौंपा था। ... और पढ़ें
छतर मंज़िल छतर मंज़िल लखनऊ का एक ऐतिहासिक भवन है। इसके निर्माण का प्रारंभ अवध के नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर ने किया था और उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने इसको पूरा करवाया। ... और पढ़ें
रेसीडेंसी संग्रहालय रेज़ीडेंसी संग्रहालय वर्तमान में एक राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक है। रेज़ीडेंसी संग्रहालय का निर्माण लखनऊ के समकालीन नवाब आसफ़उद्दौला ने सन् 1780 में प्रारम्भ करवाया था जिसे बाद में नवाब सआदत अली द्वारा सन् 1800 में पूरा करावाया गया। ... और पढ़ें
चारबाग़ रेलवे स्टेशन चारबाग़ रेलवे स्टेशन 1914 ई. में बनकर तैयार हुआ था। इसकी स्थापत्य कला में राजस्थानी भवन निर्माण शैली की झलक मिलती है। इस स्टेशन की स्थापत्य उत्कृष्टता प्रसिद्ध है। इसकी स्थापत्य कला राजस्थानी और मुग़ल चित्रकला से प्रभावित है। एक आलीशान वास्तुशैली साथ स्टेशन नवाबों शाही शानो-शौक़त का प्रतीक है। ... और पढ़ें
पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

वीथिका

बड़ा इमामबाड़ा
लखनऊ के बड़ा इमामबाड़ा का विहंगम दृश्य
Panoramic View Of Bara Imambara, Lucknow

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हम फिदाए लखनऊ (हिंदी) अभिव्यक्ति। अभिगमन तिथि: 4 मार्च, 2014।
  2. मलमल के कपड़े पर की गई कशीदाकारी

संबंधित लेख