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''ग़ुलाम हैदर'' ([[अंग्रेज़ी]]: 'Ghulam Haider', जन्म- [[1908]]; मृत्यु- [[9 नवम्बर]], [[1953]]) जाने-माने संगीतकार थे, जिन्होंने [[भारत]] में और आज़ादी के बाद [[पाकिस्तान]] में काम किया। उन्होंने पंजाबी संगीत के कगार और लय के साथ लोकप्रिय रागों को मिलाकर फिल्मी गीतों के चेहरे को बदल दिया। मास्टर ग़ुलाम हैदर को ये सम्मान हासिल है कि उन्होंने उपमहाद्वीप के [[संगीत]] को 'मलिका-ए-तरन्नुम' [[नूरजहाँ (गायिका)|नूरजहां]] और [[लता मंगेशकर]] जैसी सुरीली आवाज़ों का तोहफ़ा दिया। इतना ही नहीं बल्कि मास्टर ग़ुलाम हैदर ने ही 12 साल की उम्र में लोगों से [[शमशाद बेगम]] का परिचय कराया, जो बाद में अविभाजित भारत की पहली प्रसिद्ध फ़िल्म गायिका बनीं।
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==कैसे बने संगीतकार==
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ग़ुलाम हैदर
ग़ुलाम हैदर
ग़ुलाम हैदर
पूरा नाम मास्टर ग़ुलाम हैदर
जन्म 1908
जन्म भूमि हैदराबाद, सिंध, अविभाजित भारत
मृत्यु 9 नवम्बर, 1953
मृत्यु स्थान लाहौर, पाकिस्तान
कर्म भूमि भारतपाकिस्तान
कर्म-क्षेत्र फ़िल्मी संगीत
प्रसिद्धि संगीतकार
संबंधित लेख नूरजहां और लता मंगेशकर, शमशाद बेगम
सक्रिय वर्ष 1932-1953
अन्य जानकारी मास्टर ग़ुलाम हैदर ने फ़िल्मी गीत के लिए साज़ और आवाज़ का तालमेल बिठाया। दक्षिण एशिया का फ़िल्मी संगीत आज भी उसी रास्ते पर चल रहा है, जो मास्टर जी और उनके बाद उनके कुछ साथियों ने शुरू किया था।

ग़ुलाम हैदर (अंग्रेज़ी: 'Ghulam Haider', जन्म- 1908; मृत्यु- 9 नवम्बर, 1953) जाने-माने संगीतकार थे, जिन्होंने भारत में और आज़ादी के बाद पाकिस्तान में काम किया। उन्होंने पंजाबी संगीत के कगार और लय के साथ लोकप्रिय रागों को मिलाकर फिल्मी गीतों के चेहरे को बदल दिया। मास्टर ग़ुलाम हैदर को ये सम्मान हासिल है कि उन्होंने उपमहाद्वीप के संगीत को 'मलिका-ए-तरन्नुम' नूरजहां और लता मंगेशकर जैसी सुरीली आवाज़ों का तोहफ़ा दिया। इतना ही नहीं बल्कि मास्टर ग़ुलाम हैदर ने ही 12 साल की उम्र में लोगों से शमशाद बेगम का परिचय कराया, जो बाद में अविभाजित भारत की पहली प्रसिद्ध फ़िल्म गायिका बनीं।

कैसे बने संगीतकार

ग़ुलाम हैदर का जन्म 1906 में सिंध के हैदराबाद शहर में हुआ। उन्हें बचपन से ही संगीत में रुचि थी, लेकिन उन्होंने दांतों की डॉक्टरी की पढाई की और अपना डेंटल क्लिनिक भी शुरू किया। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि अपने समय के मशहूर फ़िल्म निर्माता और पंचोली स्टूडियो के मालिक सेठ दिलसुख पंचोली उनके पास दांत के इलाज के लिए आए। बातचीत के दौरान सेठ पंचोली ने कहा कि उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए एक म्यूज़िक डायरेक्टर की तलाश है। डॉक्टर ग़ुलाम हैदर ने उसी समय क्लिनिक में ही हारमोनियम खोला और सेठ पंचोली को कई धुनें सुनाई। यहीं से पिताजी का संगीत करियर शुरू हुआ और उन्हें पंचोली स्टूडियो में संगीत विभाग का प्रमुख बना दिया गया।[1]

लता मंगेशकर की खोज

चूंकि शमशाद बेगम फ़िल्मी क्षेत्र की पहली प्लेबैक सिंगर थीं, इसलिए ही नूरजहां और लता मंगेशकर सहित उनके बाद आने वाली गायिकाओं ने शमशाद बेगम की शैली का उपयोग करते हुए गायकी के अपने अनोखे अंदाज़ की बुनियाद रखी। मास्टर ग़ुलाम हैदर ने ही 74 साल पहले लता मंगेशकर की क्षमताओं को पहचाना था, जब वो कमर्शियल बाजार में एक 'कोरस गर्ल' थीं। बीबीसी उर्दू से बात करते हुए लता मंगेशकर को ये बातें बिलकुल ऐसे याद थीं, जैसे कल की ही बात हो। उन्होंने कहा था, 'ये उन दिनों की बात है, जब मुंबई में फ़िल्म 'शहीद' की तैयारियां चल रही थीं। मास्टर ग़ुलाम हैदर इसके म्यूज़िक डायरेक्टर थे। ये फ़िल्म उस समय की जानी-मानी फ़िल्म कंपनी फ़िल्मिस्तान के बैनर तले बन रही थी। इसके मालिक शशिधर मुखर्जी थे, जिन्होंने मेरी आवाज़ ये कहकर ख़ारिज कर दिया कि आवाज़ बहुत बारीक और चुभती हुई है, जो दर्शकों को पसंद नहीं आएगी।' शशिधर मुखर्जी फ़िल्म उद्योग में एक प्रसिद्ध बंगाली परिवार के मुखिया थे, जिनकी पोती बॉलीवुड अभिनेत्री रानी मुखर्जी हैं।

लता मंगेशकर ने बताया था कि वो उस समय 18 साल की थीं और चार-पांच साल से कोरस में गाने के साथ-साथ मराठी फ़िल्मों में छोटे-छोटे रोल भी कर रही थीं। उनका कहना था- 'मुझे कभी हीरो की छोटी बहन का रोल तो कभी हीरोइन की सहेली का रोल मिल जाता, लेकिन मुझे एक्टिंग करना पसंद नहीं था। मैं गाना चाहती थी, लेकिन कोई मौक़ा नहीं दे रहा था। उन्हीं दिनों ऐसा हुआ कि पठान नाम का एक भला मानस जो स्टूडियो में जूनियर आर्टिस्ट सप्लाई करता था, मुझे मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब के पास ले गया। उन्होंने मेरा ऑडिशन लिया और मुझे पास कर दिया।' लताजी ने बताया था, 'मेरे ऑडिशन से मास्टर साहब बहुत ख़ुश हुए। उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं तुम्हें प्रोमोट करूंगा। फिर मास्टर साहब ने मुखर्जी को राज़ी करने की बहुत कोशिश की और ये भी कहा कि मेरी गारंटी है लेकिन उन्होंने मना कर दिया।'

लता जी के अनुसार- 'जब मास्टर साहब ने शशिधर का फ़ैसला सुना तो वे अपने आप को रोक नहीं पाए। लेकिन उन्हें ये कहा कि मुखर्जी साहब वैसे तो आपको अपनी राय बनाने का पूरा हक़ है पर मेरे शब्द लिख लें, एक दिन आएगा कि प्रोड्यूसर, लता के दरवाज़े पर लाइन लगाए खड़े होंगे।' लता जी के अनुसार, इतना कहकर मास्टर ग़ुलाम हैदर ने फ़िल्मिस्तान के कार्यालय में शशिधर को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया और उसी समय मेरे साथ बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो की ओर चल पड़े। इसके बाद शशिधर को भी अपनी ग़लती का अहसास हुआ और 'फ़िल्मिस्तान' के बैनर तले उन्होंने 'अनारकली' और 'नागिन' समेत अपनी सभी फ़िल्मों के गाने लता मंगेशकर की आवाज़ में रिकॉर्ड किए।[1]

लता जी द्वारा सम्मान

लता मंगेशकर के अनुसार- 'बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो शहर के बाहरी इलाक़े मलाड में था। मैं मास्टर साहब के साथ गोरेगांव रेलवे स्टेशन पर खड़ी ट्रेन का इंतज़ार कर रही थी। फ़िल्म 'मजबूर' के गाने की पहली धुन वहीं बनी। गाने के बोल थे 'दिल मेरा तोड़ा, मुझे कहीं का न छोड़ा।' मास्टर जी 555 ब्रांड की सिगरेट पीते थे, जिसकी पैकिंग टिन के गोल डिब्बे की थीं। उन्होंने वहीं सिगरेट के डिब्बे पर धुन बना दी। वो एक-एक लाइन पढ़ते रहे और मैं उनके साथ गुनगुनाती रही। मास्टर जी ने तय कर लिया था कि वो ये गाना मुझसे ही गवाएंगे। 'मजबूर' में मेरे चार गाने थे वो सभी खूब पसंद किए गए। इस फ़िल्म के बाद संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने मुझसे अपनी फ़िल्म 'ज़िद्दी' के गाने गवाए और फिर मैं उस समय के सभी संगीतकारों की पहली पसंद बन गई।

लता जी का कहना था, 'फ़िल्मी संगीत में मेरे शिक्षक मास्टर ग़ुलाम हैदर हैं। मैं मास्टर जी को शिक्षक और एक तरह से पिता भी मानती हूं। उन्हें दुनिया से गए हुए इतना समय हो गया है, लेकिन मेरी ज़िंदगी का ऐसा कोई दिन नहीं गुज़रा जब मैंने उनके लिए प्रार्थना न की हो।' मास्टर ग़ुलाम हैदर के बेटे परवेज़ हैदर ने बीबीसी को बताया था कि वो साल 1970 में लता मंगेशकर के निमंत्रण पर अपनी मां और भाई के साथ मुंबई गए थे, जहां लता जी मेरी मां को अपनी मां के साथ बिठातीं और ख़ुद उनके चरणों में बैठा करती थीं।

जगत गुरु

परवेज़ हैदर के मुताबिक़ मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां ने भी हमेशा मास्टर ग़ुलाम हैदर का ज़िक्र बड़े आदर से किया। उनके अनुसार, वो कहती थीं कि बहुत कम उम्र में वो कलकत्ता चली गई थीं। और वो जब वहां से लाहौर आईं, तो मास्टर ग़ुलाम हैदर ने उन्हें पंचोली स्टूडियो बुलाया। उस समय संगीत की दुनिया में वो बेबी नूरजहां के नाम से मशहूर थीं। परवेज़ हैदर कहते हैं कि 'मास्टर जी को बताया गया था कि एक छोटी लड़की है, जो क्लासिकल अच्छा गा रही है। मास्टर जी ने पूछा, 'बेटी क्या सुनाओगी?' नूरजहां ने उन्हें पीलू की ठुमरी सुनाई जिसके बोल थे 'प्यारे रसिया बिहारी, सुनो बिनती हमारी'। बेबी नूरजहां को प्रोत्साहित करते हुए मास्टर जी ने कहा कि 'बेटी, तुम अपनी उम्र से बड़ा गाना गाती हो। मैं तुम्हें इनाम देता हूँ।' तुम मेरी नई पंजाबी फ़िल्म का गाना गाओगी। गाने की अस्थाई यानी मुखड़ा क्लासिकी अंग की है क्या तुम उसे गा सकोगी? नूरजहां ने मास्टर जी से कहा, 'आप कहिए तो!'[1]

'वो अस्थाई 'शाला जवानियां माने, आंखां न मोड़े जी' शुरू ही तान से होती है। नूरजहां कहती थीं कि मास्टर ग़ुलाम हैदर ने ये गाना पंजाबी फ़िल्म 'गुल बक़ावली' के लिए गवाया था। उसके बाद नूरजहां ने उनकी दूसरी पंजाबी फ़िल्म 'यमला जट' सहित कई फ़िल्मों के लिए क्लासिकल और सेमी-क्लासिकल गीत गाए।' 'इतना ही नहीं, इसके अलावा मास्टर जी ने नूरजहां से ऐसी धुनें भी गवाईं, जो सरल और सार्वजनिक भाव की थी। नूरजहां कहती थीं कि मास्टर ग़ुलाम हैदर जगत गुरु थे और फ़िल्म संगीत में उनकी हैसियत एक नायक और आविष्कारक की है।'

संगीत संस्थापक

मास्टर जी (ग़ुलाम हैदर) का सबसे बड़ा काम इस क्षेत्र के फ़िल्म संगीत को स्पष्ट करना है। लगभग एक सदी पहले, मास्टर ग़ुलाम हैदर ने फ़िल्मी गीत के लिए साज़ और आवाज़ का तालमेल बिठाया। दक्षिण एशिया का फ़िल्मी संगीत आज भी उसी रास्ते पर चल रहा है, जो मास्टर जी और उनके बाद उनके कुछ साथियों ने शुरू किया। मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां ने मास्टर ग़ुलाम हैदर का ज़िक्र हमेशा बड़े आदर से किया। ये मास्टर ग़ुलाम हैदर का ही कमाल है कि उन्होंने एक फ़िल्मी गीत को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया। आमतौर पर एक फ़िल्मी गीत की शुरुआत म्यूज़िकल इंट्रोडक्शन से होगी फिर गीत की अस्थाई यानी मुखड़ा गाया जाएगा। गीत के मुखड़े के दौरान (बारपीस) उस गीत को सजाएंगे-संवारेंगे। और फिर उसके बाद और अंतरे से पहले 'इंटरवल पीस' आएंगे।

महान संगीतकार की उपाधि

लाहौर के बाद मास्टर ग़ुलाम हैदर ने कलकत्ता और मुंबई के प्रमुख फ़िल्म इंडस्ट्री में प्लेबैक संगीत के क्षेत्र में अहम भूमिका निभाई। इसके लिए उन्हें अपने समय का 'महान संगीतकार' स्वीकार किया गया। मास्टर जी से पहले, उस्ताद झंडे अली ख़ान को अविभाजित भारत में प्लेबैक संगीत का पहला प्रामाणिक और प्रसिद्ध संगीतकार माना जाता है। उस्ताद झंडे अली ख़ान प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद के उस्ताद थे। ये वही नौशाद हैं, जिन्हें मास्टर ग़ुलाम हैदर के बाद महान संगीतकार का सम्मान मिला। वहीं पाकिस्तान में ख़्वाजा ख़ुर्शीद अनवर को उनके बराबर कहते हुए पाकिस्तान के महान संगीतकार की उपाधि दी गई।

मास्टर ग़ुलाम हैदर अपने समय के सबसे अधिक फ़ीस लेने वाले संगीतकार भी थे। साल 1945 में फ़िल्म निर्माता और डायरेक्टर महबूब की फ़िल्म 'हुमायूं' के लिए उन्हें उस वक्त एक लाख रुपए मिले, जो कि एक रिकॉर्ड है। ये वो दौर था जब एक मशहूर म्यूज़िक डायरेक्टर की फ़ीस दस हज़ार से ज़्यादा नहीं होती थी। उनसे पहले, म्यूज़िक डायरेक्टर के लिए आमतौर पर 'पीटी मास्टर' शब्द का इस्तेमाल होता था। लेकिन मास्टर ग़ुलाम हैदर का नाम अविभाजित भारत के फ़िल्मों के पोस्टर पर म्यूज़िक डायरेक्टर के रूप में लिखा गया।[1]

प्रमुख फ़िल्में

ग़ुलाम हैदर की प्रसिद्ध फ़िल्मों में स्वर्ग की सीढ़ी, मजनूं, गुल बक़ावली, यमला जट, खज़ांची, चौधरी, ख़ानदान, हुमायूँ, शमा, मेंहदी, मजधार, मजबूर, शहीद, चल चल रे नौजवान, कनीज़, शाहिदा, बेक़रार, अकेली, भीगी पलकें और गुलनार शामिल हैं।

मृत्यु

साल 1953 में गुलनार का प्रदर्शन किया गया और उसी साल केवल 45 वर्ष की आयु में मास्टर साहब का निधन हो गया। लता मंगेशकर ने बताया था कि उन दिनों जब मास्टर ग़ुलाम हैदर बीमार थे, तो वो रोज़ाना नूरजहां को नियमित रूप से फ़ोन करके मास्टर जी के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी लेती थीं। नूरजहां के ज़रिए मुझे मास्टर ग़ुलाम हैदर के स्वास्थ्य की जानकारी मिलती थी। इससे पहले मैं और नूरजहां फ़ोन पर ही अगली बातचीत का दिन तय कर लेते थे। नूरजहां पाकिस्तान के महान संगीतकारों और गायकों को भी अपने यहां ले आतीं और उनसे बात होती रहती थी। उन्हीं दिनों पता चला कि मास्टर ग़ुलाम हैदर को कैंसर हो गया। मैंने नूरजहां से कहा कि एक बार मास्टर जी से मेरी बात कराएं। जब वो नूरजहां के घर आए तो मैंने मास्टर जी से विनती की कि एक बार आप भारत आ जाएं, ताकि हम आपकी बीमारी के बारे में 'सेकंड ओपिनियन' ले सकें लेकिन वो नहीं आए। फिर यह दुखद ख़बर मिली कि 9 नवंबर, 1953 को मास्टर ग़ुलाम हैदर का निधन हो गया है।[1]


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