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==परिचय==
'''बवासीर''' या पाइल्स या (Hemorrhoid / पाइल्स या मूलव्याधि) एक ख़तरनाक बीमारी है। बवासीर 2 प्रकार की होती है। आम भाषा में इसको ख़ूँनी और बादी बवासीर के नाम से जाना जाता है। कहीं कहीं पर इसे महेशी के नाम से भी जाना जाता है।
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==परिचय==
वैसे प्राचीनकाल से ही देखा जाए तो सभ्यता के विकास के साथ-साथ बहुत सारे आसाध्य रोग भी पैदा हुए हैं। इनमें से कुछ रोगों का इलाज तो आसान है लेकिन कुछ रोग ऐसे भी है जिनका इलाज बहुत मुश्किल से होता है। इन रोगों में से एक रोग '''बवासीर (Piles)''' भी है। इस रोग को '''हेमोरहोयड्स, पाइस या मूलव्याधि''' भी कहते हैं। बवासीर भी आधुनिक सभ्यता की देन है। इन दिनों यह रोग आम हो गया है।  
वैसे प्राचीनकाल से ही देखा जाए तो सभ्यता के विकास के साथ-साथ बहुत सारे आसाध्य रोग भी पैदा हुए हैं। इनमें से कुछ रोगों का इलाज तो आसान है लेकिन कुछ रोग ऐसे भी है जिनका इलाज बहुत मुश्किल से होता है। इन रोगों में से एक रोग '''बवासीर (Piles)''' भी है। इस रोग को '''हेमोरहोयड्स, पाइस या मूलव्याधि''' भी कहते हैं। बवासीर भी आधुनिक सभ्यता की देन है। इन दिनों यह रोग आम हो गया है। बवासीर को आयुर्वेद / [[उर्दू]] में '''अर्श''' कहते हैं। अर्श एक दीर्घकालीन प्राण-घातक बीमारी है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है - अरि+श= अर्थात्‌ दुश्मन, रिपु, शत्रु आदि तथा ‘श’- अर्थात्‌ वह वैरी रोग। अतः शास्त्रकारों ने अरिवत्‌ प्राणात्‌ श्रृणाति, हिनस्ती अर्श अति: अर्थात्‌ जो रोग शत्रु की तरह मानव के प्राणों को नष्ट कर देता हो उसे ही अर्श, बवासीर कहते हैं।<ref name="jkh">{{cite web |url=http://jkhealthworld.com/detail.php?id=5886 |title=बवासीर |accessmonthday=[[23 मार्च]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=JKHealthworld.com |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
बवासीर रोग में [[आंत|आंतों]] के अंतिम हिस्से या मलाशय (गुदा) की भीतरी दीवार में मौजूद [[रक्त]] की [[शिराएँ|नसें]] (धमनी शिराओं) सूजने के कारण तनकर फूल (फ़ैल) जाती हैं। इससे उनमें कमज़ोरी आ जाती है और मल त्याग के वक़्त ज़ोर लगाने से या कड़े मल के रगड़ खाने से ख़ून की नसों में दरार पड़ जाती हैं और उसमें से ख़ून बहने लगता है। अर्श (बवासीर) रोग जब भयंकर रूप से ग्रसित कर लेता है तब गुदा द्वार, नाभि, लिंग, अण्ड-कोष, मुख-मण्डल एवं हाथ-पैर आदि अंग-प्रत्यंगों में सूजन आ जाती है। रोग श्वांस-काश, ज्वर बेहोशी, वमन, अरुचि, [[हृदय]] में वेदना, अधिक रक्‍तस्राव, कब्जियत, गुदास्थान पक कर उसमें पीले [[रंग]] का फोड़ा होना, अत्यधिक प्यास तथा सर्वांग शिथिल होने से अत्यन्‍त कष्टमय एवं दुखित जीवन व्यतीत करना पड़ता है। बवासीर के रोगी के लिए उक्‍त लक्षण अत्यन्‍त खतरनाक एवं जीवन हीनता के अशुभ लक्षण हैं। अतिसार संग्रहणी और बवासीर यह एक दूसरे को पैदा करने वाले होते है।
बवासीर को आयुर्वेद / उर्दू में '''अर्श''' कहते हैं। अर्श एक दीर्घकालीन प्राण-घातक बीमारी है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है - अरि+श= अर्थात्‌ दुश्मन, रिपु, शत्रु आदि तथा ‘श’- अर्थात्‌ वह वैरी रोग। अतः शास्त्रकारों ने अरिवत्‌ प्राणात्‌ श्रृणाति, हिनस्ती अर्श अति: अर्थात्‌ जो रोग शत्रु की तरह मानव के प्राणों को नष्ट कर देता हो उसे ही अर्श, बवासीर कहते हैं।  
 
बवासीर रोग में गुदा की भीतरी दीवार में मौजूद खून की नसें सूजने के कारण तनकर फूल जाती हैं। इससे उनमें कमजोरी आ जाती है और मल त्याग के वक्त जोर लगाने से या कड़े मल के रगड़ खाने से खून की नसों में दरार पड़ जाती हैं और उसमें से खून बहने लगता है। अर्श (बवासीर) रोग जब भयंकर रूप से ग्रसित कर लेता है तब गुदा द्वार, नाभि, लिंग, अण्ड-कोष, मुख-मण्डल एवं हाथ-पैर आदि अंग-प्रत्यंगों में सूजन आ जाती है। रोग श्वांस-काश, ज्वर बेहोशी, वमन, अरूचि, हृदय में वेदना, अधिक रक्‍तस्राव, कब्जियत, गुदास्थान पक कर उसमें पीले रंग का फोड़ा होना, अत्यधिक प्यास तथा सर्वांग शिथिल होने से अत्यन्‍त कष्टमय एवं दुखित जीवन व्यतीत करना पड़ता है। बवासीर के रोगी के लिए उक्‍त लक्षण अत्यन्‍त खतरनाक एवं जीवन हीनता के अशुभ लक्षण हैं। अतिसार संग्रहणी और बवासीर यह एक दूसरे को पैदा करने वाले होते है।  


==प्रकार==
==प्रकार==
बवासीर 2 प्रकार (kind of piles) की होती हैं। एक भीतरी बवासीर तथा दूसरी बाहरी बवासीर।
बवासीर 2 प्रकार (kind of piles) की होती हैं। एक भीतरी बवासीर तथा दूसरी बाहरी बवासीर।
;भीतरी / खूनी बवासीर / आन्तरिक / रक्‍त स्रावी अर्श / रक्तार्श (Internal or Bleeding Piles) -
;भीतरी / ख़ूनी बवासीर / आन्तरिक / रक्‍त स्रावी अर्श / रक्तार्श  
खूनी बवासीर में मलाशय की आकुंचक पेशी के अन्दर अर्श होता है तो वह म्युकस मेम्ब्रेन (Mucous Membrane) से ढका रहता है। खूनी बवासीर में किसी प्रक़ार की तकलीफ नही होती है केवल खून आता है। पहले पखाने में लगके, फिर टपक के, फिर पिचकारी की तरह से सिफॅ खून आने लगता है। इसके अन्दर मस्सा होता है। जो कि अन्दर की तरफ होता है फिर बाद में बाहर आने लगता है। टट्टी के बाद अपने से अन्दर चला जाता है। पुराना होने पर बाहर आने पर हाथ से दबाने पर ही अन्दर जाता है। आखिरी स्टेज में हाथ से दबाने पर भी अन्दर नही जाता है। भीतरी बवासीर हमेशा धमनियों और शिराओं के समूह को प्रभावित करती है। फैले हुए रक्त को ले जाने वाली नसें जमा होकर रक्त की मात्रा के आधार पर फैलती हैं तथा सिकुड़ती है। इस रोग में गुदा की भीतरी दीवार में मौजूद खून की नसें सूजने के कारण तनकर फूल जाती हैं। इससे उनमें कमजोरी आ जाती है और मल त्याग के वक्त जोर लगाने से या कड़े मल के रगड़ खाने से खून की नसों में दरार पड़ जाती हैं और उसमें से खून बहने लगता है। इन भीतरी मस्सों से पीड़ित रोगी वहां दर्द, घाव, खुजली, जलन, सूजन और गर्मी की शिकायत करते हैं। यह बवासीर रोगी को तब होती है जब वह मलत्याग करते समय अधिक जोर लगाता है। बच्चे को जन्म देते समय यदि स्त्री अधिक जोर लगाती है तब भी उसे यह बवासीर हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगी अधिकतर कब्ज से पीड़ित रहते हैं। इसमें भी मलावरोध रहता है। इस बवासीर के कारण मलत्याग करते समय रोगी को बहुत तेज दर्द होता है। इस बवासीर के कारण मस्सों से खून निकलने लगता है। यह बहुत भयानक रोग है, क्योंकि इसमें पीड़ा तो होती ही है साथ में शरीर का खून भी व्यर्थ नष्ट होता है।
ख़ूनी बवासीर में मलाशय की आकुंचक पेशी के अन्दर अर्श होता है तो वह म्युकस मेम्ब्रेन (Mucous Membrane) से ढका रहता है। ख़ूनी बवासीर में किसी प्रक़ार की तकलीफ नहीं होती है केवल ख़ून आता है। पहले पखाने में लगके, फिर टपक के, फिर पिचकारी की तरह से सिर्फ़ ख़ून आने लगता है। इसके अन्दर मस्सा होता है। जो कि अन्दर की तरफ होता है फिर बाद में बाहर आने लगता है। टट्टी के बाद अपने से अन्दर चला जाता है। पुराना होने पर बाहर आने पर हाथ से दबाने पर ही अन्दर जाता है। आख़िरी स्टेज में हाथ से दबाने पर भी अन्दर नहीं जाता है।<ref name="ba">{{cite web |url=http://bawasiraspatal.com/Piles.htm |title=बवासीर क़्य़ा है |accessmonthday=[[23 मार्च]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=बवासीर अस्पताल |language=[[हिन्दी]]}}</ref>भीतरी बवासीर हमेशा धमनियों और शिराओं के समूह को प्रभावित करती है। फैले हुए [[रक्त]] को ले जाने वाली नसें जमा होकर रक्त की मात्रा के आधार पर फैलती हैं तथा सिकुड़ती है। इस रोग में गुदा की भीतरी दीवार में मौजूद ख़ून की नसें सूजने के कारण तनकर फूल जाती हैं। इससे उनमें कमज़ोरी आ जाती है और मल त्याग के वक़्त ज़ोर लगाने से या कड़े मल के रगड़ खाने से ख़ून की नसों में दरार पड़ जाती हैं और उसमें से ख़ून बहने लगता है। इन भीतरी मस्सों से पीड़ित रोगी वहां दर्द, घाव, खुजली, जलन, सूजन और गर्मी की शिकायत करते हैं। यह बवासीर रोगी को तब होती है जब वह मलत्याग करते समय अधिक ज़ोर लगाता है। बच्चे को जन्म देते समय यदि स्त्री अधिक ज़ोर लगाती है तब भी उसे यह बवासीर हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगी अधिकतर कब्ज से पीड़ित रहते हैं।<ref name="jkh"/> इसमें भी मलावरोध रहता है। इस बवासीर के कारण मलत्याग करते समय रोगी को बहुत तेज दर्द होता है। इस बवासीर के कारण मस्सों से ख़ून निकलने लगता है। यह बहुत भयानक रोग है, क्योंकि इसमें पीड़ा तो होती ही है साथ में शरीर का ख़ून भी व्यर्थ नष्ट होता है।
 
;बाहरी / बादी बवासीर / अरक्‍त स्रावी या ब्राह्य अर्श ( External or Blind or Non-bleeding piles) -
बादी बवासीर रहने पर पेट खराब रहता है। कब्ज बना रहता है। गैस बनती है। न कि पेट गड़बड़ की वजह से बवासीर होती है। इसमें जलन, ददॅ, खुजली, शरीर मै बेचैनी, काम में मन न लगना इत्यादि। टट्टी कड़ी होने पर इसमें खून भी आ सकता है। बाहरी बवासीर मलद्वार के बाहरी किनारे पर होती है। इसमें गुदा द्वार पर मस्से (अंकुर) हो जाते है। जो सुखे और फुले दो प्रकार के होते है। इस बवासीर के अनेक आकार होते हैं तथा इस बवासीर के मस्से एक या कई सारे हो सकते हैं। इस बवासीर के मस्सों के गुच्छे भी हो सकते हैं। ये मस्से पहले कठोर होना शुरू होते हैं, जिससे गुदा में कोचन और चुभन-सी होने लगती है। ऐसी स्थिति होते ही व्यक्ति को सतर्क हो जाना चाहिए। इस स्थिति में ध्यान न दिया जाए तो मस्से फूल जाते हैं और एक-एक मस्से का आकार मटर के दाने या चने बराबर हो जाता है। ऐसी स्थिति में मल विसर्जन करते समय तो भारी पीड़ा होती है। रोगी को न बैठे चैन मिलता है और न लेटे हुए। बाहरी बवासीर में मलाशय की आकुंचक पेशी (Sphineter) के बाहर बवासीर होता है तो वह चमड़े से ढका रहता है, इसमें मस्से बाहर निकल कर फूल जाते हैं। जब तक मांसांकुर छोटे रहते हैं तब तक पीड़ा नहीं होती किन्तु जलन, गर्मी, कब्जियत आदि बने रहते हैं। बड़े होने पर सम्पूर्ण मलद्वार में कष्ट होता है। मल विसर्जन के वक्त इसमें असहनीय पीड़ा होती है तथा खून भी निकलता है इससे रोगी कमजोर हो जाता है। इसमें मस्सा अन्दर होने की वजह से पखाने का रास्ता छोटा पड़ता है और चुनन फट जाती है और वहाँ घाव हो जाता है उसे डाक्टर अपनी जवान में फिशर भी कहते हें। जिससे असहाय जलन और पीडा होती है। बवासीर बहुत पुराना होने पर भगन्दर हो जाता है। जिसे अंग़जी में फिस्टुला कहते हें। फिस्टुला कई प्रक़ार का होता है। भगन्दर में पखाने के रास्ते के बगल से एक छेद हो जाता है जो पखाने की नली में चला जाता है। और फोड़े की शक्ल में फटता, बहता और सूखता रहता है। कुछ दिन बाद इसी रास्ते से पखाना भी आने लगता है। बवासीर, भगन्दर की आखिरी स्टेज होने पर यह केंसर का रूप ले लेता है। जिसको रिक्टम केंसर कहते हें। जो कि जानलेवा साबित होता है। यह बवासीर तब होती है जब मलद्वार के पास की कोई नस फैल जाती है तथा फैलकर फट जाती है। फूली हुई नस के तंतु सूज जाते हैं। नस की कमजोर दीवारों से खून निकलकर जम जाता है तथा कठोर हो जाता है। रोगी को गुदा के पास दबाव और सूजन महसूस होती है और थोड़ी देर के लिए तेज दर्द होने लगता है। हकीम गण इसे ही बवासीर ‘सफराबी’ कहते हैं।


;बाहरी / बादी बवासीर / अरक्‍त स्रावी या ब्राह्य अर्श
बादी बवासीर रहने पर पेट ख़राब रहता है। कब्ज बना रहता है। [[गैस]] बनती है। न कि पेट गड़बड़ की वजह से बवासीर होती है। इसमें जलन, दर्द, खुजली, शरीर मै बेचैनी, काम में मन न लगना इत्यादि। टट्टी कड़ी होने पर इसमें [[ख़ून]] भी आ सकता है। इसमें मस्सा अन्दर होने की वजह से पखाने का रास्ता छोटा पड़ता है और चुनन फट जाती है और वहाँ घाव हो जाता है उसे डाक्टर अपनी जवान में फिशर भी कहते हें। जिससे असहाय जलन और पीडा होती है। बवासीर बहुत पुराना होने पर भगन्दर हो जाता है। जिसे अंग़जी में फिस्टुला कहते हें। फिस्टुला कई प्रक़ार का होता है। भगन्दर में पखाने के रास्ते के बगल से एक छेद हो जाता है जो पखाने की नली में चला जाता है। और फोड़े की शक्ल में फटता, बहता और सूखता रहता है। कुछ दिन बाद इसी रास्ते से पखाना भी आने लगता है। बवासीर, भगन्दर की आख़िरी स्टेज होने पर यह केंसर का रूप ले लेता है। जिसको रिक्टम केंसर कहते हें। जो कि जानलेवा साबित होता है।<ref name="ba"/>
==लक्षण==
==लक्षण==
अन्दरूनी बवासीर में गुदाद्वार के अन्दर सूजन हो जाती है तथा यह मलत्याग करते समय गुदाद्वार के बाहर आ जाती है और इसमें जलन तथा दर्द होने लगता है। बाहरी बवासीर में गुदाद्वार के बाहर की ओर के मस्से मोटे-मोटे दानों जैसे हो जाते हैं। जिनमें से रक्त का स्राव और दर्द होता रहता है तथा जलन की अवस्था भी बनी रहती है। खूनी बवासीर में मस्से खूनी सुर्ख होते है और उनसे खून गिरता है, जबकि बादी वाली बवासीर में मस्से काले रंग के होते है, और मस्सों में खाज पीडा और सूजन होती है।  
अन्दरूनी बवासीर में गुदाद्वार के अन्दर सूजन हो जाती है तथा यह मलत्याग करते समय गुदाद्वार के बाहर आ जाती है और इसमें जलन तथा दर्द होने लगता है। बाहरी बवासीर में गुदाद्वार के बाहर की ओर के मस्से मोटे-मोटे दानों जैसे हो जाते हैं। जिनमें से रक्त का स्राव और दर्द होता रहता है तथा जलन की अवस्था भी बनी रहती है। ख़ूनी बवासीर में मस्से ख़ूनी सुर्ख होते है और उनसे ख़ून गिरता है, जबकि बादी वाली बवासीर में मस्से काले रंग के होते है, और मस्सों में खाज पीडा और सूजन होती है।  
 
इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को बैठने में परेशानी होने लगती है जिसके कारण से रोगी ठीक से बैठ नहीं पाता है। एक बवासीर मे तो मस्सों में से ख़ून निकलता है और यह ख़ून निकलना और तेज जब हो जाता है जब रोगी व्यक्ति शौच करता है। इस रोग के कारण व्यक्ति को मलत्याग करने में बहुत अधिक कष्टों का सामना करना पड़ता है।<ref name="jkh"/> <br />
इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को बैठने में परेशानी होने लगती है जिसके कारण से रोगी ठीक से बैठ नहीं पाता है। एक बवासीर मे तो मस्सों में से खून निकलता है और यह खून निकलना और तेज जब हो जाता है जब रोगी व्यक्ति शौच करता है। इस रोग के कारण व्यक्ति को मलत्याग करने में बहुत अधिक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
 
जब कोई व्यक्‍ति बवासीर से ग्रसित हो जाता है तो कब्ज की उसे शिकायत सदा बनी रहती है तथा अन्य लक्षण संक्षेप में निम्नांकित हैं :-  
जब कोई व्यक्‍ति बवासीर से ग्रसित हो जाता है तो कब्ज की उसे शिकायत सदा बनी रहती है तथा अन्य लक्षण संक्षेप में निम्नांकित हैं :-  
#मांसांकुर / अंकुर / मस्से :- इसमें गुदाद्वार की त्रिवलि की नसें फूलकर बड़ी हो जाती हैं जो मटर ‘चना या मुनक्‍का’ की तरह देखने में लगती हैं। यह एक-दो से लेकर दस-बारह तक अंगूरों के गुच्छे की तरह हो सकते हैं। रोग के प्रारंभ में बवासीर के मस्से गुदा के बाहर नहीं आते हैं। फिर जैसे-जैसे बीमारी पुरानी होती जाती है यह मस्से बहार निकलना शुरू कर देते हैं। ऐसे में इन्हें मल त्याग के पश्चात हाथों से भीतर धकेलना पड़ता है। अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंचने पर तो वह इस स्थिति में पहुंच जाते हैं कि हमेशा गुदा के बाहर ही लटके रह जाते हैं और हाथों से ढकेलने पर भी अंदर नहीं जाते। ऐसी अवस्था में इन मस्सों से एक चिपचिपे पदार्थ का स्राव होने लगता है।  
#मांसांकुर / अंकुर / मस्से :- इसमें गुदाद्वार की त्रिवलि की नसें फूलकर बड़ी हो जाती हैं जो मटर ‘चना या मुनक्‍का’ की तरह देखने में लगती हैं। यह एक-दो से लेकर दस-बारह तक [[अंगूर|अंगूरों]] के गुच्छे की तरह हो सकते हैं। रोग के प्रारंभ में बवासीर के मस्से गुदा के बाहर नहीं आते हैं। फिर जैसे-जैसे बीमारी पुरानी होती जाती है।  यह मस्से बहार निकलना शुरू कर देते हैं। ऐसे में इन्हें मल त्याग के पश्चात् हाथों से भीतर धकेलना पड़ता है। अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंचने पर तो वह इस स्थिति में पहुंच जाते हैं कि हमेशा गुदा के बाहर ही लटके रह जाते हैं और हाथों से ढकेलने पर भी अंदर नहीं जाते। ऐसी अवस्था में इन मस्सों से एक चिपचिपे पदार्थ का स्राव होने लगता है।  
#खुजली :- अर्श रोग की प्रारम्भिक अवस्था में जब अर्बुद ढीले रहते हैं तब उसमें कोई कष्ट नहीं होता। ऐसी हालात में शौच के पूर्व पश्‍चात्‌ मलाशय में खुजली होती है। ‘मल द्वार खुजलाता है, सुरसुरी होती है, कभी-कभी प्रदाह और दर्द होता है, सूजन आ जाती है, जलन होती है और इस स्थान से उठी दुर्गंध भी अनेक लोग महसूस करते हैं। इस समय चलने-फिरने में रोगी को बड़ी भारी तकलीफ होती है। पाखाने के समय बड़ी तकलीफ होती है।
#खुजली :- अर्श रोग की प्रारम्भिक अवस्था में जब अर्बुद ढीले रहते हैं तब उसमें कोई कष्ट नहीं होता। ऐसी हालात में शौच के पूर्व पश्‍चात्‌ मलाशय में खुजली होती है। ‘मल द्वार खुजलाता है, सुरसुरी होती है, कभी-कभी प्रदाह और दर्द होता है, सूजन आ जाती है, जलन होती है और इस स्थान से उठी दुर्गंध भी अनेक लोग महसूस करते हैं। इस समय चलने-फिरने में रोगी को बड़ी भारी तकलीफ होती है। पाखाने के समय बड़ी तकलीफ होती है।
#मलाशय में अटकने की अनुभूति :- शौच के समय जोर लगाने पर मस्से बाहर निकलते हैं जिसे पुनः अन्दर करने में रोगी को कष्ट होता है, कभी-कभी मस्सों को उंगली से भीतर करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में पूर्णरूप से मल विसर्जन भी नहीं होता।
#मलाशय में अटकने की अनुभूति :- शौच के समय ज़ोर लगाने पर मस्से बाहर निकलते हैं जिसे पुनः अन्दर करने में रोगी को कष्ट होता है, कभी-कभी मस्सों को उंगली से भीतर करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में पूर्णरूप से मल विसर्जन भी नहीं होता।
#मलावरोध :- बवासीर की जड़ एक मात्र कब्ज ही है। रोगी को कब्ज हमेशा बना रहता है, कठिन मल खूब जोर लगाने पर गांठ-गांठ निकलता है। दस्तकारक दवाएं खाने से भी कब्ज दूर नहीं होती। कई दिनों तक पाखाना नहीं होता।
#मलावरोध :- बवासीर की जड़ एक मात्र कब्ज ही है। रोगी को कब्ज हमेशा बना रहता है, कठिन मल खूब ज़ोर लगाने पर गांठ-गांठ निकलता है। दस्तकारक दवाएं खाने से भी कब्ज दूर नहीं होती। कई दिनों तक पाखाना नहीं होता।
#दर्द एवं रक्‍तस्राव :- खूनी बवासीर में शौच के पूर्व एवं पश्‍चात बवासीर से रक्‍त मिलता है। खून की पिचकारी-सी चलती है, नवीन (Acute) अवस्था में बहुत ज्यादा दर्द रहता है, शौच करते वक्‍त जब मस्से बाहर निकलते हैं तब भारी तकलीफ होती है। मस्से बाहर निकल आने से मलद्वार की आकुंचन पेशी (र्स्फीटर) उन्हें दबा लेती है जिससे प्रदाह हो जाता है।
#दर्द एवं रक्‍तस्राव :- ख़ूनी बवासीर में शौच के पूर्व एवं पश्‍चात बवासीर से [[रक्‍त]] मिलता है। ख़ून की पिचकारी-सी चलती है, नवीन (Acute) अवस्था में बहुत ज़्यादा दर्द रहता है, शौच करते वक्‍त जब मस्से बाहर निकलते हैं तब भारी तकलीफ होती है। मस्से बाहर निकल आने से मलद्वार की आकुंचन पेशी (र्स्फीटर) उन्हें दबा लेती है जिससे प्रदाह हो जाता है।
#मनोविकार :- अधिक दिनों तक रोग भोगने से ‘मनोस्नायु दौर्बल्य’ चिन्ता, उन्माद आदि मनोविकारों के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
#मनोविकार :- अधिक दिनों तक रोग भोगने से ‘मनोस्नायु दौर्बल्य’ चिन्ता, उन्माद आदि मनोविकारों के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
#मल :- बवासीर के रोगी का मल ढीला, कड़ा, गांठदार, रक्‍त-मिश्रित, आंवयुक्‍त आदि हो सकते हैं किन्तु अर्श के मल को पहचानने के कुछ विशेष लक्षण भी स्मरणीय हैं - बवासीर के रोगी में गुदा मार्ग से रक्तस्राव जो शुरूआत में सीमित मात्रा में मल त्याग के समय या उसके तुरंत बाद होता है। यह रक्त या तो मल के साथ लिपटा होता है या बूंद-बूंद टपकता है। कभी-कभी यह बौछार या धारा के रूप में भी मल द्वारा से निकलता है। तो कभी पिचकारी की तरह तो कभी झरने की तरह निःसृत होता है। अक्सर यह रक्त चमकीले लाल रंग का होता है, कभी काले-काले, कई रंगों की तरह गिरते हैं, मगर कभी-कभी हल्का बैंगनी या गहरे लाल रंग का भी हो सकता है। कभी तो खून की गिल्टियां भी मल के साथ मिली होती हैं। किन्तु कड़े मल के एक ओर खून की एक पृथक रेखा-सी बनकर स्पष्ट दिखायी देती है। इस रोग मे मल्त्याग के बाद रोगी पूर्ण रुप से संतुष्टि नही महसूस करता है।
#मल :- बवासीर के रोगी का मल ढीला, कड़ा, गांठदार, रक्‍त-मिश्रित, आंवयुक्‍त आदि हो सकते हैं किन्तु अर्श के मल को पहचानने के कुछ विशेष लक्षण भी स्मरणीय हैं - बवासीर के रोगी में गुदा मार्ग से [[रक्तस्राव]] जो शुरुआत में सीमित मात्रा में मल त्याग के समय या उसके तुरंत बाद होता है। यह रक्त या तो मल के साथ लिपटा होता है या बूंद-बूंद टपकता है। कभी-कभी यह बौछार या धारा के रूप में भी मल द्वारा से निकलता है। तो कभी पिचकारी की तरह तो कभी झरने की तरह निःसृत होता है। अक्सर यह रक्त चमकीले [[लाल रंग]] का होता है, कभी काले-काले, कई रंगों की तरह गिरते हैं, मगर कभी-कभी हल्का बैंगनी या गहरे लाल [[रंग]] का भी हो सकता है। कभी तो ख़ून की गिल्टियां भी मल के साथ मिली होती हैं। किन्तु कड़े मल के एक ओर ख़ून की एक पृथक् रेखा-सी बनकर स्पष्ट दिखायी देती है। इस रोग मे मल्त्याग के बाद रोगी पूर्ण रुप से संतुष्टि नहीं महसूस करता है।
 
इस बीमारी की जांच किसी भी कुशल चिकित्सक द्वारा करायी जा सकती है। गुदा की भीतरी रचना और उसके विकार का पता उंगली से जांच द्वारा और एक विशेष उपकरण के द्वारा लगाया जा सकता है। इससे यह भी जानकारी मिल सकती है कि रोग कितना फैला हुआ है, उसमें कोई अन्य जटिलतायें तो शामिल नहीं है।
इस बीमारी की जांच किसी भी कुशल चिकित्सक द्वारा करायी जा सकती है। गुदा की भीतरी रचना और उसके विकार का पता उंगली से जांच द्वारा और एक विशेष उपकरण के द्वारा लगाया जा सकता है। इससे यह भी जानकारी मिल सकती है कि रोग कितना फैला हुआ है, उसमें कोई अन्य जटिलतायें तो शामिल नहीं है।


==कारण==
==कारण==
दोनों प्रकार की बवासीर होने के कारण (Important Aetiology of Piles) निम्नलिखित हैं -
दोनों प्रकार की बवासीर होने के कारण निम्नलिखित हैं -
*कब्ज (Constipation) - बवासीर रोग होने का मुख्य कारण पेट में कब्ज बनना है। दीर्घकालीन कब्ज बवासीर की जड़ है। 50 से भी अधिक प्रतिशत व्यक्तियों को यह रोग कब्ज के कारण ही होता है। इसलिए जरूरी है कि कब्ज होने को रोकने के उपायों को हमेशा अपने दिमाग में रखें। कब्ज की वजह से मल सूखा और कठोर हो जाता है जिसकी वजह से उसका निकास आसानी से नहीं हो पाता मलत्याग के वक्त रोगी को काफी वक्त तक पखाने में उकडू बैठे रहना पड़ता है, जिससे रक्त वाहनियों पर जोर पड़ता है और वह फूलकर लटक जाती हैं। कब्ज के कारण मलाशय की नसों के रक्त प्रवाह में बाधा पड़ती है जिसके कारण वहां की नसें कमजोर हो जाती हैं और आन्तों के नीचे के हिस्से में भोजन के अवशोषित अंश अथवा मल के दबाव से वहां की धमनियां चपटी हो जाती हैं तथा झिल्लियां फैल जाती हैं। जिसके कारण व्यक्ति को बवासीर हो जाती है।
*कब्ज- बवासीर रोग होने का मुख्य कारण पेट में कब्ज बनना है। दीर्घकालीन कब्ज बवासीर की जड़ है। 50 से भी अधिक प्रतिशत व्यक्तियों को यह रोग कब्ज के कारण ही होता है। सुबह-शाम शौच न जाने या शौच जाने पर ठीक से पेट साफ़ न होने और काफ़ी देर तक शौचालय में बैठने के बाद मल निकलने या ज़ोर लगाने पर मल निकलने या जुलाब लेने पर मल निकलने की स्थिति को कब्ज होना कहते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि कब्ज होने को रोकने के उपायों को हमेशा अपने दिमाग में रखें। कब्ज की वजह से मल सूखा और कठोर हो जाता है जिसकी वजह से उसका निकास आसानी से नहीं हो पाता। मलत्याग के वक़्त रोगी को काफ़ी वक़्त तक पखाने में उकडू बैठे रहना पड़ता है, जिससे रक्त वाहनियों पर ज़ोर पड़ता है और वह फूलकर लटक जाती हैं। कब्ज के कारण मलाशय की नसों के रक्त प्रवाह में बाधा पड़ती है जिसके कारण वहां की नसें कमज़ोर हो जाती हैं और [[आंत|आन्तों]] के नीचे के हिस्से में भोजन के अवशोषित अंश अथवा मल के दबाव से वहां की धमनियां चपटी हो जाती हैं तथा झिल्लियां फैल जाती हैं। जिसके कारण व्यक्ति को बवासीर हो जाती है।
*यह रोग व्यक्ति को तब भी हो सकता है जब वह शौच के वेग को किसी प्रकार से रोकता है।
*यह रोग व्यक्ति को तब भी हो सकता है जब वह शौच के वेग को किसी प्रकार से रोकता है।
*इस कष्टदायी रोग से मुक्ति पाने के लिए परहेज जरुरी है। मैदा, बेसन और मावे से बने पदार्थों से बचे। मोटे आटे से बनी रोटी खाएं।  
*इस कष्टदायी रोग से मुक्ति पाने के लिए परहेज ज़रूरी है। मैदा, बेसन और मावे से बने पदार्थों से बचे। मोटे आटे से बनी रोटी खाएं।  
*भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी होने के कारण बिना पचा हुआ भोजन का अवशिष्ट अंश मलाशय में इकट्ठा हो जाता है और निकलता नहीं है, जिसके कारण मलाशय की नसों पर दबाव पड़ने लगता हैं और व्यक्ति को बवासीर हो जाती है।
*भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी होने के कारण बिना पचा हुआ भोजन का अवशिष्ट अंश मलाशय में इकट्ठा हो जाता है और निकलता नहीं है, जिसके कारण मलाशय की नसों पर दबाव पड़ने लगता हैं और व्यक्ति को बवासीर हो जाती है।
*गरिष्ठ भोजन - अत्यधिक मिर्च, मसाला, तली हुई चटपटी चीजें, मांस, अंडा, रबड़ी, मिठाई, मलाई, अति गरिष्ठ तथा उत्तेजक भोजन करने के कारण भी बवासीर रोग हो सकता है।
*गरिष्ठ भोजन - अत्यधिक मिर्च, मसाला, तली हुई चटपटी चीज़ें, मांस, अंडा, रबड़ी, मिठाई, मलाई, अति गरिष्ठ तथा उत्तेजक भोजन करने के कारण भी बवासीर रोग हो सकता है।
*अधिक भोजन - अतिभोजन अर्श रोग मूल कारणम्‌ अर्थात्‌ आवश्यकता से अधिक भोजन करना बवासीर का प्रमुख कारण है।
*अधिक भोजन - अतिभोजन अर्श रोग मूल कारणम्‌ अर्थात्‌ आवश्यकता से अधिक भोजन करना बवासीर का प्रमुख कारण है।
*शौच करने के बाद मलद्वार को गर्म पानी से धोने से भी बवासीर रोग हो सकता है।
*शौच करने के बाद मलद्वार को गर्म पानी से धोने से भी बवासीर रोग हो सकता है।
*दवाईयों का अधिक सेवन करने के कारण भी यह रोग व्यक्ति को हो सकता है।
*दवाईयों का अधिक सेवन करने के कारण भी यह रोग व्यक्ति को हो सकता है। डिस्पेपसिया और किसी जुलाब की गोली का अधिक दिनॊ तक सेवन करना।
*रात के समय में अधिक जगने के कारण भी व्यक्ति को बवासीर का रोग हो सकता है।
*रात के समय में अधिक जगने के कारण भी व्यक्ति को बवासीर का रोग हो सकता है।<ref name="jkh"/>
*कुछ व्यक्तियों में यह रोग पीढ़ी दर पीढ़ी पाया जाता है। अतः अनुवांशिकता इस रोग का एक कारण हो सकता है।  
*कुछ व्यक्तियों में यह रोग पीढ़ी दर पीढ़ी पाया जाता है। अतः अनुवांशिकता इस रोग का एक कारण हो सकता है।  
*जिन व्यक्तियों को अपने रोजगार की वजह से घंटों खड़े रहना पड़ता हो, जैसे बस कंडक्टर, ट्रॉफिक पुलिस, पोस्टमैन या जिन्हें भारी वजन उठाने पड़ते हों,- जैसे कुली, मजदूर, भारोत्तलक वगैरह, उनमें इस बीमारी से पीड़ित होने की संभावना अधिक होती है।  
*जिन व्यक्तियों को अपने रोज़गार की वजह से घंटों खड़े रहना पड़ता हो, जैसे बस कंडक्टर, ट्रॉफिक पुलिस, पोस्टमैन या जिन्हें भारी वजन उठाने पड़ते हों,- जैसे कुली, मज़दूर, भारोत्तलक वगैरह, उनमें इस बीमारी से पीड़ित होने की संभावना अधिक होती है।  
*बवासीर गुदा के कैंसर की वजह से या मूत्र मार्ग में रूकावट की वजह से या गर्भावस्था में भी हो सकता है।
*बवासीर गुदा के कैंसर की वजह से या मूत्र मार्ग में रूकावट की वजह से या गर्भावस्था में भी हो सकता है।<ref name="rex">{{cite web |url=http://ranchiexpress.com/48035.php |title=बवासीर : कारण एवं उपचार |accessmonthday=[[23 मार्च]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=रांची एक्सप्रेस |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
*गर्भावस्था मे भ्रूण का दबाब पडना।
*बवासीर मतलब पाइल्स यह रोग बढ़ती उम्र के साथ जिनकी जीवनचर्या बिगड़ी हुई हो, उनको होता है।  
*बवासीर मतलब पाइल्स यह रोग बढ़ती उम्र के साथ जिनकी जीवनचर्या बिगड़ी हुई हो, उनको होता है।  
*यकृत (Liver) :- पाचन संस्थान का यकृत सर्वप्रधान अंग है। इसके भीतर तथा यकृत धमनी आदि में पोर्टल सिस्टम रक्‍त की अधिकता (Congestion) होकर यह रोगित्पन्‍न होता है।  
*[[यकृत]] :- पाचन संस्थान का यकृत सर्वप्रधान अंग है। इसके भीतर तथा यकृत धमनी आदि में पोर्टल सिस्टम रक्‍त की अधिकता होकर यह रोगित्पन्‍न होता है। जैसे - सिरोसिस आफ़ लिवर।
*[[हृदय]] की कुछ बीमारियाँ।
*उदरामय - निरन्तर तथा तेज उदरामय निश्‍चित रूप से बवासीर उत्पन्‍न करता है।
*उदरामय - निरन्तर तथा तेज उदरामय निश्‍चित रूप से बवासीर उत्पन्‍न करता है।
*मद्यपान एवं अन्य नशीले पदार्थों का सेवन - अत्यधिक शराब, ताड़ी, भांग, गांजा, अफीम आदि के सेवन से बवासीर होता है।
*मद्यपान एवं अन्य नशीले पदार्थों का सेवन - अत्यधिक शराब, ताड़ी, भांग, गांजा, अफीम आदि के सेवन से बवासीर होता है।
*चाय एवं धूम्रपान - अधिकाधिक चाय, कॉफी आदि पीने तथा दिन रात धूम्रपान करने से अर्शोत्पत्ति होती है।
*चाय एवं धूम्रपान - अधिकाधिक [[चाय]], कॉफी आदि पीने तथा दिन रात धूम्रपान करने से अर्शोत्पत्ति होती है।
*पेशाब संस्थान - मूत्राशय की गड़बड़ी, पौरूष ग्रन्थि की वृद्धि, मूत्र पथरी आदि रोग में पेशाब करते समय ज्यादा जोर लगाने के कारण" भी यह रोग होता है।
*पेशाब संस्थान - मूत्राशय की गड़बड़ी, पौरुष ग्रन्थि की वृद्धि, मूत्र पथरी आदि रोग में पेशाब करते समय ज़्यादा ज़ोर लगाने के कारण" भी यह रोग होता है। मल त्याग के समय या मूत्र नली की बीमारी मे पेशाब करते समय काँखना।
*शारीरिक परिश्रम का अभाव - जो लोग दिन भर आराम से बैठे रहते हैं और शारीरिक श्रम नहीं करते उन्हें यह रोग हो जाता है।
*शारीरिक परिश्रम का अभाव - जो लोग दिन भर आराम से बैठे रहते हैं और शारीरिक श्रम नहीं करते उन्हें यह रोग हो जाता है।
*बवासीर को आधुनिक सभ्यता का विकार कहें तो कॊई अतिश्योक्ति होगी । खाने पीने मे अनिमियता, जंक फ़ूड का बढता हुआ चलन और व्यायाम का घटता महत्व, लेकिन और भी कई कारण हैं बवासीर के रोगियों के बढने में।
*बवासीर को आधुनिक सभ्यता का विकार कहें तो कोई अतिशयोक्ति होगी। खाने पीने मे अनिमियता, जंक फ़ूड का बढता हुआ चलन और व्यायाम का घटता महत्त्व, लेकिन और भी कई कारण हैं बवासीर के रोगियों के बढने में।
 
==उपचार==
==उपचार==
रोग निदान के पश्चात प्रारंभिक अवस्था में कुछ घरेलू उपायों द्वारा रोग की तकलीफों पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। सबसे पहले कब्ज को दूर कर मल त्याग को सामान्य और नियमित करना आवश्यक है। इसके लिये तरल पदार्थों, हरी सब्जियों एवं फलों का बहुतायात में सेवन करें। बादी और तली हुई चीजें, मिर्च-मसालों युक्त गरिष्ठ भोजन न करें। रात में सोते समय एक गिलास पानी में '''इसबगोल की भूसी''' के दो चम्मच डालकर पीने से भी लाभ होता है। गुदा के भीतर रात के सोने से पहले और सुबह मल त्याग के पूर्व दवायुक्त बत्ती या क्रीम का प्रवेश भी मल निकास को सुगम करता है। गुदा के बाहर लटके और सूजे हुए मस्सों पर ग्लिसरीन और मैग्नेशियम सल्फेट के मिश्रण का लेप लगाकर पट्टी बांधने से भी लाभ होता है। मलत्याग के पश्चात गुदा के आसपास की अच्छी तरह सफाई और गर्म पानी का सेंक करना भी फायदेमंद होता है। इससे कभी बवासीर नही होता है। इसके लिये आवश्यक है कि नाखून कतई बडा नही हो, अन्यथा भीतरी मुलायम खाल के जख्मी होने का खतरा होता है, प्रारंभ में यह उपाय अटपटा लगता है, पर शीघ्र ही इसके अभ्यस्त हो जाने पर तरोताजा महसूस भी होने लगता है। यदि उपरोक्त उपायों के पश्चात भी रक्त स्राव होता है तो चिकित्सक से सलाह लें। इन मस्सों को हटाने के लिये कई विधियां उपलब्ध है। मस्सों में इंजेक्शन द्वारा ऐसी दवा का प्रवेश जिससे मस्से सूख जायें। मस्सों पर एक विशेष उपकरण द्वारा रबर के छल्ले चढ़ा दिये जाते हैं, जो मस्सों का रक्त प्रवाह अवरूध्द कर उन्हें सुखाकर निकाल देते हैं। एक अन्य उपकरण द्वारा मस्सों को बर्फ में परिवर्तित कर नष्ट किया जाता है। शल्यक्रिया द्वारा मस्सों को काटकर निकाल दिया जाता है।
रोग निदान के पश्चात् प्रारंभिक अवस्था में कुछ घरेलू उपायों द्वारा रोग की तकलीफों पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है। सबसे पहले कब्ज को दूर कर मल त्याग को सामान्य और नियमित करना आवश्यक है। इसके लिये तरल पदार्थों, हरी सब्जियों एवं [[भारत के फल|फलों]] का बहुतायात में सेवन करें। बादी और तली हुई चीज़ें, मिर्च-मसालों युक्त गरिष्ठ भोजन न करें। मलत्याग के पश्चात् गुदा के आसपास की अच्छी तरह सफाई और गर्म पानी का सेंक करना भी फ़ायदेमंद होता है। इससे कभी बवासीर नहीं होता है। इसके लिये आवश्यक है कि नाख़ून क़तई बड़ा नहीं हो, अन्यथा भीतरी मुलायम खाल के जख्मी होने का ख़तरा होता है, प्रारंभ में यह उपाय अटपटा लगता है, पर शीघ्र ही इसके अभ्यस्त हो जाने पर तरोताजा महसूस भी होने लगता है। यदि उपरोक्त उपायों के पश्चात् भी रक्त स्राव होता है तो चिकित्सक से सलाह लें। इन मस्सों को हटाने के लिये कई विधियां उपलब्ध है। मस्सों में इंजेक्शन द्वारा ऐसी दवा का प्रवेश जिससे मस्से सूख जायें। मस्सों पर एक विशेष उपकरण द्वारा रबर के छल्ले चढ़ा दिये जाते हैं, जो मस्सों का रक्त प्रवाह अवरुद्ध कर उन्हें सुखाकर निकाल देते हैं। एक अन्य उपकरण द्वारा मस्सों को बर्फ़ में परिवर्तित कर नष्ट किया जाता है। शल्यक्रिया द्वारा मस्सों को काटकर निकाल दिया जाता है।<ref name="rex"/>
 
;दोनों प्रकार की बवासीर रोग से पीड़ित व्यक्ति का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार -
*बवासीर रोग का इलाज करने के लिए रोगी को सबसे पहले 2 दिन तक '''रसाहार चीजों''' का सेवन करके उपवास रखना चाहिए। इसके बाद 2 सप्ताह तक '''बिना पके हुआ भोजन''' का सेवन करके उपवास रखना चाहिए।
*रोगी व्यक्ति को सुबह तथा शाम के समय में 2 भिगोई हुई '''अंजीर''' खानी चाहिए और इसका पानी पीना चाहिए। फिर इसके बाद '''त्रिफला का चूर्ण''' लेना चाहिए। ऐसा कुछ दिनों तक करने से रोगी का बवासीर रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
*2 चम्मच '''माला तिल''' चबाकर ठंडे पानी के साथ प्रतिदिन सेवन करने से पुराना से पुराना बवासीर भी कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
*कुछ ही दिनों तक प्रतिदिन '''गुड़ में बेलगिरी''' मिलाकर खाने से रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक लाभ मिलता है और बवासीर रोग ठीक हो जाता है।
*इस रोग से पीड़ित रोगी को कभी भी चाय, कॉफी, मिर्च मसाले आदि गर्म तथा उत्तेजक चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।
*इस रोग से पीड़ित रोगी को रात को सोते समय प्रतिदिन गुदा के मस्सों पर '''सरसों का तेल''' लगाना चाहिए। फिर इसके बाद अपने पेड़ू पर '''मिट्टी की पट्टी''' करनी चाहिए और इसके बाद एनिमा लेना चाहिए तथा मस्सों पर मिट्टी का गोला रखना चाहिए।
*यदि इस रोग से पीड़ित रोगी के मस्सों की सूजन बढ़ गई हो या फिर मस्सों से खून अधिक निकल रहा है तो '''मिट्टी की पट्टी को बर्फ से ठंडा''' करके फिर इसको मस्सों पर 10 मिनट तक रखकर इस पर गर्म सेंक देना चाहिए। इसके बाद इन पर मिट्टी की पट्टी रखने से कुछ ही दिनों में मस्से मुरझाकर नष्ट हो जाते हैं और उसका यह रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
*इस रोग से पीड़ित रोगी को '''कटिस्नान''' तथा शाम के समय में '''मेहनस्नान''' करना चाहिए तथा इसके साथ-साथ प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार इलाज कराना चाहिए। जिसके परिणाम स्वरूप कुछ ही दिनों के बाद रोगी का बवासीर रोग ठीक हो जाता है। कटिस्नान के लिए एक टब लेना होता है, जिसमें इतना पानी भरे कि नाभी तक पेट डूबे। कम से कम दस मिनट इसमें बैठे। पानी गर्मी में ठंडा और ठंड में गुनगुना लेना चाहिए। यह संभव नहीं हो तो पेट पर ठंडे पानी की पट्टी लपेटने से भी लाभ मिलता है। मोटे सूती कपड़े की 6 इंच चौड़ी और तीन मीटर लंबी पट्टी लेनी चाहिए। इसे ठंडे पानी में भिगो कर नाभी के नीचे चारों तरफ लपेट लें इसके उपर मफलर या तौलिया लपेट लें।
*दोनों प्रकार की बवासीर को ठीक करने के लिए कई प्रकार के आसन है जिनको नियमपूर्वक करने से कुछ ही दिनों के बाद रोगी का रोग ठीक हो जाता है।
*दोनों प्रकार के बवासीर रोग को ठीक करने के लिए कुछ उपयोगी आसन है जैसे- नाड़ीशोधन, कपालभाति, भुजांगासन, प्राणायाम, पवनमुक्तासन, शलभासन, सुप्तवज्रासन, धनुरासन, शवासन, सर्वांगासन, मत्स्यासन, हलासन, चक्रासन आदि।
*रोगी के बवासीर रोग में होने वाले दर्द तथा जलन को कम करने के लिए '''वैसलीन में बराबर मात्रा में कपूर''' मिलाकर बवासीर के मस्सों पर लगाने से बहुत अधिक लाभ मिलता है।
*यदि बवासीर के रोगी के मस्सों से खून नहीं आ रहा हो तो उसे '''गरम पानी''' से कटिस्नान कराना चाहिए और यदि मस्सों से खून निकल रहा हो तो '''ठंडे पानी''' से कटिस्नान करना चाहिए। सुबह, शाम या फिर रात के समय में रोगी को ठंडे पानी से स्नान कराना चाहिए और फिर प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार उसका इलाज कराना चाहिए।
*रोगी व्यक्ति को कम से कम दिन में एक बार '''ठंडे पानी में कपड़ा भिगोकर लंगोट बांधनी''' चाहिए और फिर इस पर ठंडे पानी की फुहार देनी चाहिए और फिर प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार इलाज कराना चाहिए।
*रात को 100 ग्राम '''किशमिश''' पानी में भिगों दें और इसे सुबह के समय में इसे उसी पानी में इसे मसल दें। इस पानी को रोजाना सेवन करने से कुछ ही दिनों में बवासीर रोग ठीक हो जाता है।
*इस रोग से पीड़ित रोगी को रात को सोते समय '''केले''' खाने चाहिए इससे रोगी को बहुत अधिक लाभ मिलता है और धीरे-धीरे बवासीर रोग ठीक होने लगता है।
*रोगी व्यक्ति को अपने भोजन में '''चुकन्दर, जिमीकन्द, फूल गोभी और हरी सब्जियों''' का बहुत अधिक उपयोग करना चाहिए।
*दोनों प्रकार के बवासीर रोग से पीड़ित रोगी को सुबह तथा शाम को 1 गिलास '''मट्ठे''' में 1 चम्मच भुना '''जीरा पाउडर''' डालकर सेवन करना चाहिए।
*बवासीर रोग से पीड़ित रोगी को आधा गिलास पानी में 1-1 चम्मच '''जीरा, सौंफ व धनिए''' के बीज डालकर उबालने चाहिए। जब यह पानी उबलते-उबलते आधा रह जाए तो इसे छान लेना चाहिए। फिर इस मिश्रण में 1 चम्मच '''देशी घी''' मिलाना चाहिए और इसको प्रतिदिन 2 बार सेवन करना चाहिए।
*दोनों प्रकार के बवासीर रोग से पीड़ित रोगी के रोग को ठीक करने के लिए सबसे पहले इस रोग के होने के कारणों को खत्म करना चाहिए फिर इसका इलाज प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार कराना चाहिए।
*रोगी व्यक्ति को यदि पेट में कब्ज बन रही हो तो इसका इलाज सही ढंग से कराना चाहिए क्योंकि बवासीर रोग होने का सबसे बड़ा कारण कब्ज होता है।
*रोगी व्यक्ति को प्रतिदनि सुबह-शाम 15 से 30 मिनट तक बवासीर के मस्सों पर '''भाप''' देनी चाहिए तथा इसके बाद कटिस्नान करना चाहिए इससे रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक लाभ मिलता है।
*जीरे को जरूरत के अनुसार भून कर उसमे मिश्री मिलाकर मुंह में डालकर चूंसने से तथा बिना भुने जीरे को पीस कर मस्सों पर लगाने से बवासीर की बीमारी में फ़ायदा होता है।
*पके केले को बीच से चीरकर दो टुकडे कर लें और उसपर चार ग्राम कत्था पीसकर छिडक दें, इसके बाद उस केले को खुले आसमान के नीचे शाम को रख दें, सुबह को उस केले को प्रातःकाल की क्रिया करके खालें, एक हफ़्ते तक इस प्रयोग को करने के बाद भयंकर से भयंकर बवासीर समाप्त हो जाती है।
*छोटी पिप्पली को पीस कर चूर्ण बना ले, और दो ग्राम चूर्ण एक चम्मच शहद के साथ लेने से आराम मिलता है।
*एक चम्मच आंवले का चूर्ण सुबह शाम शहद के साथ लेने पर बवासीर में लाभ मिलता है, इससे पेट के अन्य रोग भी समाप्त होते है।
*खूनी बवासीर में नींबू को बीच से चीर कर उस पर चार ग्राम कत्था पीसकर बुरक दें, और उसे रात में छत पर रख दें, सुबह दोनो टुकडों को चूस लें, यह प्रयोग पांच दिन करें खूनी बवासीर की यह उत्तम दवा है।
*खूनी बवासीर में गेंदे के हरे पत्ते नौ ग्राम काली मिर्च के पांच दाने और मिश्री दस ग्राम लेकर साठ ग्राम पानी में पीस कर मिला लें, दिन में एक बार चार दिन तक इस पानी को पिएं, गरम चीजों को न खायें, खूनी बवासीर खत्म हो जायेगा।
*पचास ग्राम बडी इलायची तवे पर रख कर जला लें,ठंडी होने पर पीस लें, रोज सुबह तीन ग्राम चूर्ण पंद्रह दिनो तक ताजे पानी से लें, बवासीर में लाभ होता है।
*दूध का ताजा मक्खन और काले तिल दोनो एक एक ग्राम को मिलाकर खाने से बवासीर में फ़ायदा होता है।
*नागकेशर मिश्री और ताजा मक्खन इन तीनो को रोजाना सम भाग खाने से बवासीर में फ़ायदा होता है।
*नीम के ग्यारह बीज और छः ग्राम शक्कर रोजाना सुबह को फ़ांकने से बवासीर में आराम मिलता है।
*कमल का हरा पत्ता पीसकर उसमे मिश्री मिलाकर खायें,बवासीर का खून आना बन्द हो जाता है।
*सुबह शाम को बकरी का दूध पीने से बवासीर से खून आना बन्द हो जाता है।
*प्रतिदिन दही और छाछ का प्रयोग बवासीर का नाशक है।
*गुड के साथ हरड खाने से बवासीर में फ़ायदा होता है।
*बवासीर में छाछ अम्रुत के समान है, लेकिन बिना सेंधा नमक मिलाये इसे नही खाना चाहिये।
*मूली का नियमित सेवन बवासीर को ठीक कर देता है।
*इस रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन सुबह तथा शाम के समय में स्नान करना चाहिए जिससे रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक लाभ मिलता है और इसके साथ-साथ प्राकृतिक नियमों का पालन करना चाहिए तभी यह रोग ठीक हो सकता है। इस प्रकार से रोगी का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से करने से कुछ ही दिनों में उसका बवासीर रोग ठीक हो जाता है।
*होमिओपथिक इलाज - बायोकामि्बनेशन नम्बर 17 ले आएं। दिन में चार बार चार-चार गोलियाँ चूसे। अगर दस्त के साथ रक्त जाता हो तो हेमेमिलिस मदरटिंचर भी ले आएं, इसकी पाँच से सात बूँदें आधा कप पानी के साथ दिन में दो तीन बार लें।


;अर्श निरोधिनी चिकित्सा (Prophylactic Treatment of Haemorrhoids) -
बवासीर जैसे संघातिक एवं दीर्घकालीन कष्टदायक रोग से मुक्‍ति पाने के लिए सौ दवा की तुलना में एक संयम ही अधिक श्रेयष्कर है। सच तो यह है कि यदि कुपथ्य न किया जाए तो दवाओं की आवश्यकता नहीं पड़ती तथा रोगी मात्र खान-पान एवं आहार-व्यवहार से स्वस्थ हो जाएगा। अतः अर्श रोग की चिकित्सा का पहला कदम है - ‘कब्ज न रहने देना ।’ इस हेतु हमें ऐसा भोजन करना चाहिए जिससे मलावरोध न हो सके। बवासीर-रोगी को निम्नांकित खाद्य-पदार्थ प्रयोगनीय हैं -
*खाद्यान्‍न - चोकर समेत आटे की रोटी, गेहूं का दलिया, हाथ कुटा- पुराना चावल, सोठी चावल का भात, चना और उसका सत्तू, मूंग, कुलथी, मोठ की दाल, सही, तक्र (छाछ-अर्श रोग के लिए सर्वोत्तम है) आदि ।
*हरी सब्जियां - परवल, पपीता, भिण्डी, अंद्रिअम, केला का फूल, मूली, गूलर, ओल, गाजर, शलजम,, करेला, तुरई ।
*शाक - पालक, बथुआ, पत्ता गोभी, चौलाई, सोया, जिवन्ती, काली जीरी के पत्ते का शाक ।
*फल - पका पपीता, पका बेल, सेव, नाशपाती, अंगूर, तरबूज, मौसमी फल, किशमिश, छुआरा, मुनक्‍का, अंजीर, नारियल, सन्तरा, आम, अनार, ओल, आंवले का मुरब्बा, गूलर, जामुन ।
*रस - नीम्बू, गाजर, आंवला, मधु ।
*दूध - गाय, बकरी, ऊंटनी ।
बवासीर के रोगी का भोजन  - सवेरे-पपीता या खरबूजा या नाशपाती और दूध; दोपहर-दलिया और कोई पत्तीदार भाजी; शाम - (1) कोई तरकारी और किशमिश या (2) रोटी-तरकारी और थोड़ा मुनक्‍का या अंजीर अथवा (3) कोई फल और नारियल या (4) तरकारी और नारियल। (अंजीर, किशमिश, मुनक्‍का एक बार में पचास ग्राम से सौ ग्राम तक लिए जा सकते हैं) नारियल की गिरी कच्ची हो तो सौ ग्राम तक और सूखी हो तो एक बार में पचास ग्राम तक ली जा सकती है। केवल भोजन के इस परिवर्तन से कितने ही बवासीर के रोगियों का कब्ज जा सकता है और उन्हें अपने रोग में बहुत राहत मिल सकती है, पर जितना पुराना रोग हो गया है अथवा जिसकी आंतों की गर्मी के कारण मल सूख जाया करता है, उन्हें आंतों की मदद के लिए कुछ दिनों तक ईसबगोल का प्रयोग करना पड़ सकता है। इसके लिए या तो प्रत्येक भोजन के साथ ईसबगोल की भूसी तीन ग्राम भर की मात्रा में प्रयोग करना चाहिए (यदि ईसबगोल का इस्तेमाल करना हो तो ईसबगोल को बीस गुणे वजन पानी में बारह से चौबीस घंटे पहले भिगो देना चाहिए)। जब पेट साफ होने लगे, ईसबगोल की मात्रा कम करते हुए इसका उपयोग बंद कर देना चाहिए।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
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#[http://jkhealthworld.com/detail.php?id=5886 बवासीर(Piles)]
#[http://www.samaydarpan.com/june1/swasth.aspxबवासीर(Piles) अर्श (बवासीर, PILES)]
#[http://hindi.ind.in/piles.html बवासीर]
#[http://hindi.ind.in/piles.html बवासीर]
#[http://ranchiexpress.com/48035.php बवासीर : कारण एवं उपचार]
#[http://pilesclinicdadri.com/types.php बवासीर]
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==संबंधित लेख==
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07:55, 6 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

बवासीर या पाइल्स या (Hemorrhoid / पाइल्स या मूलव्याधि) एक ख़तरनाक बीमारी है। बवासीर 2 प्रकार की होती है। आम भाषा में इसको ख़ूँनी और बादी बवासीर के नाम से जाना जाता है। कहीं कहीं पर इसे महेशी के नाम से भी जाना जाता है।

बवासीर
बवासीर
बवासीर
बवासीर
बवासीर
बवासीर
बवासीर

परिचय

वैसे प्राचीनकाल से ही देखा जाए तो सभ्यता के विकास के साथ-साथ बहुत सारे आसाध्य रोग भी पैदा हुए हैं। इनमें से कुछ रोगों का इलाज तो आसान है लेकिन कुछ रोग ऐसे भी है जिनका इलाज बहुत मुश्किल से होता है। इन रोगों में से एक रोग बवासीर (Piles) भी है। इस रोग को हेमोरहोयड्स, पाइस या मूलव्याधि भी कहते हैं। बवासीर भी आधुनिक सभ्यता की देन है। इन दिनों यह रोग आम हो गया है। बवासीर को आयुर्वेद / उर्दू में अर्श कहते हैं। अर्श एक दीर्घकालीन प्राण-घातक बीमारी है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है - अरि+श= अर्थात्‌ दुश्मन, रिपु, शत्रु आदि तथा ‘श’- अर्थात्‌ वह वैरी रोग। अतः शास्त्रकारों ने अरिवत्‌ प्राणात्‌ श्रृणाति, हिनस्ती अर्श अति: अर्थात्‌ जो रोग शत्रु की तरह मानव के प्राणों को नष्ट कर देता हो उसे ही अर्श, बवासीर कहते हैं।[1] बवासीर रोग में आंतों के अंतिम हिस्से या मलाशय (गुदा) की भीतरी दीवार में मौजूद रक्त की नसें (धमनी शिराओं) सूजने के कारण तनकर फूल (फ़ैल) जाती हैं। इससे उनमें कमज़ोरी आ जाती है और मल त्याग के वक़्त ज़ोर लगाने से या कड़े मल के रगड़ खाने से ख़ून की नसों में दरार पड़ जाती हैं और उसमें से ख़ून बहने लगता है। अर्श (बवासीर) रोग जब भयंकर रूप से ग्रसित कर लेता है तब गुदा द्वार, नाभि, लिंग, अण्ड-कोष, मुख-मण्डल एवं हाथ-पैर आदि अंग-प्रत्यंगों में सूजन आ जाती है। रोग श्वांस-काश, ज्वर बेहोशी, वमन, अरुचि, हृदय में वेदना, अधिक रक्‍तस्राव, कब्जियत, गुदास्थान पक कर उसमें पीले रंग का फोड़ा होना, अत्यधिक प्यास तथा सर्वांग शिथिल होने से अत्यन्‍त कष्टमय एवं दुखित जीवन व्यतीत करना पड़ता है। बवासीर के रोगी के लिए उक्‍त लक्षण अत्यन्‍त खतरनाक एवं जीवन हीनता के अशुभ लक्षण हैं। अतिसार संग्रहणी और बवासीर यह एक दूसरे को पैदा करने वाले होते है।

प्रकार

बवासीर 2 प्रकार (kind of piles) की होती हैं। एक भीतरी बवासीर तथा दूसरी बाहरी बवासीर।

भीतरी / ख़ूनी बवासीर / आन्तरिक / रक्‍त स्रावी अर्श / रक्तार्श

ख़ूनी बवासीर में मलाशय की आकुंचक पेशी के अन्दर अर्श होता है तो वह म्युकस मेम्ब्रेन (Mucous Membrane) से ढका रहता है। ख़ूनी बवासीर में किसी प्रक़ार की तकलीफ नहीं होती है केवल ख़ून आता है। पहले पखाने में लगके, फिर टपक के, फिर पिचकारी की तरह से सिर्फ़ ख़ून आने लगता है। इसके अन्दर मस्सा होता है। जो कि अन्दर की तरफ होता है फिर बाद में बाहर आने लगता है। टट्टी के बाद अपने से अन्दर चला जाता है। पुराना होने पर बाहर आने पर हाथ से दबाने पर ही अन्दर जाता है। आख़िरी स्टेज में हाथ से दबाने पर भी अन्दर नहीं जाता है।[2]भीतरी बवासीर हमेशा धमनियों और शिराओं के समूह को प्रभावित करती है। फैले हुए रक्त को ले जाने वाली नसें जमा होकर रक्त की मात्रा के आधार पर फैलती हैं तथा सिकुड़ती है। इस रोग में गुदा की भीतरी दीवार में मौजूद ख़ून की नसें सूजने के कारण तनकर फूल जाती हैं। इससे उनमें कमज़ोरी आ जाती है और मल त्याग के वक़्त ज़ोर लगाने से या कड़े मल के रगड़ खाने से ख़ून की नसों में दरार पड़ जाती हैं और उसमें से ख़ून बहने लगता है। इन भीतरी मस्सों से पीड़ित रोगी वहां दर्द, घाव, खुजली, जलन, सूजन और गर्मी की शिकायत करते हैं। यह बवासीर रोगी को तब होती है जब वह मलत्याग करते समय अधिक ज़ोर लगाता है। बच्चे को जन्म देते समय यदि स्त्री अधिक ज़ोर लगाती है तब भी उसे यह बवासीर हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगी अधिकतर कब्ज से पीड़ित रहते हैं।[1] इसमें भी मलावरोध रहता है। इस बवासीर के कारण मलत्याग करते समय रोगी को बहुत तेज दर्द होता है। इस बवासीर के कारण मस्सों से ख़ून निकलने लगता है। यह बहुत भयानक रोग है, क्योंकि इसमें पीड़ा तो होती ही है साथ में शरीर का ख़ून भी व्यर्थ नष्ट होता है।

बाहरी / बादी बवासीर / अरक्‍त स्रावी या ब्राह्य अर्श

बादी बवासीर रहने पर पेट ख़राब रहता है। कब्ज बना रहता है। गैस बनती है। न कि पेट गड़बड़ की वजह से बवासीर होती है। इसमें जलन, दर्द, खुजली, शरीर मै बेचैनी, काम में मन न लगना इत्यादि। टट्टी कड़ी होने पर इसमें ख़ून भी आ सकता है। इसमें मस्सा अन्दर होने की वजह से पखाने का रास्ता छोटा पड़ता है और चुनन फट जाती है और वहाँ घाव हो जाता है उसे डाक्टर अपनी जवान में फिशर भी कहते हें। जिससे असहाय जलन और पीडा होती है। बवासीर बहुत पुराना होने पर भगन्दर हो जाता है। जिसे अंग़जी में फिस्टुला कहते हें। फिस्टुला कई प्रक़ार का होता है। भगन्दर में पखाने के रास्ते के बगल से एक छेद हो जाता है जो पखाने की नली में चला जाता है। और फोड़े की शक्ल में फटता, बहता और सूखता रहता है। कुछ दिन बाद इसी रास्ते से पखाना भी आने लगता है। बवासीर, भगन्दर की आख़िरी स्टेज होने पर यह केंसर का रूप ले लेता है। जिसको रिक्टम केंसर कहते हें। जो कि जानलेवा साबित होता है।[2]

लक्षण

अन्दरूनी बवासीर में गुदाद्वार के अन्दर सूजन हो जाती है तथा यह मलत्याग करते समय गुदाद्वार के बाहर आ जाती है और इसमें जलन तथा दर्द होने लगता है। बाहरी बवासीर में गुदाद्वार के बाहर की ओर के मस्से मोटे-मोटे दानों जैसे हो जाते हैं। जिनमें से रक्त का स्राव और दर्द होता रहता है तथा जलन की अवस्था भी बनी रहती है। ख़ूनी बवासीर में मस्से ख़ूनी सुर्ख होते है और उनसे ख़ून गिरता है, जबकि बादी वाली बवासीर में मस्से काले रंग के होते है, और मस्सों में खाज पीडा और सूजन होती है। इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को बैठने में परेशानी होने लगती है जिसके कारण से रोगी ठीक से बैठ नहीं पाता है। एक बवासीर मे तो मस्सों में से ख़ून निकलता है और यह ख़ून निकलना और तेज जब हो जाता है जब रोगी व्यक्ति शौच करता है। इस रोग के कारण व्यक्ति को मलत्याग करने में बहुत अधिक कष्टों का सामना करना पड़ता है।[1]
जब कोई व्यक्‍ति बवासीर से ग्रसित हो जाता है तो कब्ज की उसे शिकायत सदा बनी रहती है तथा अन्य लक्षण संक्षेप में निम्नांकित हैं :-

  1. मांसांकुर / अंकुर / मस्से :- इसमें गुदाद्वार की त्रिवलि की नसें फूलकर बड़ी हो जाती हैं जो मटर ‘चना या मुनक्‍का’ की तरह देखने में लगती हैं। यह एक-दो से लेकर दस-बारह तक अंगूरों के गुच्छे की तरह हो सकते हैं। रोग के प्रारंभ में बवासीर के मस्से गुदा के बाहर नहीं आते हैं। फिर जैसे-जैसे बीमारी पुरानी होती जाती है। यह मस्से बहार निकलना शुरू कर देते हैं। ऐसे में इन्हें मल त्याग के पश्चात् हाथों से भीतर धकेलना पड़ता है। अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंचने पर तो वह इस स्थिति में पहुंच जाते हैं कि हमेशा गुदा के बाहर ही लटके रह जाते हैं और हाथों से ढकेलने पर भी अंदर नहीं जाते। ऐसी अवस्था में इन मस्सों से एक चिपचिपे पदार्थ का स्राव होने लगता है।
  2. खुजली :- अर्श रोग की प्रारम्भिक अवस्था में जब अर्बुद ढीले रहते हैं तब उसमें कोई कष्ट नहीं होता। ऐसी हालात में शौच के पूर्व पश्‍चात्‌ मलाशय में खुजली होती है। ‘मल द्वार खुजलाता है, सुरसुरी होती है, कभी-कभी प्रदाह और दर्द होता है, सूजन आ जाती है, जलन होती है और इस स्थान से उठी दुर्गंध भी अनेक लोग महसूस करते हैं। इस समय चलने-फिरने में रोगी को बड़ी भारी तकलीफ होती है। पाखाने के समय बड़ी तकलीफ होती है।
  3. मलाशय में अटकने की अनुभूति :- शौच के समय ज़ोर लगाने पर मस्से बाहर निकलते हैं जिसे पुनः अन्दर करने में रोगी को कष्ट होता है, कभी-कभी मस्सों को उंगली से भीतर करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में पूर्णरूप से मल विसर्जन भी नहीं होता।
  4. मलावरोध :- बवासीर की जड़ एक मात्र कब्ज ही है। रोगी को कब्ज हमेशा बना रहता है, कठिन मल खूब ज़ोर लगाने पर गांठ-गांठ निकलता है। दस्तकारक दवाएं खाने से भी कब्ज दूर नहीं होती। कई दिनों तक पाखाना नहीं होता।
  5. दर्द एवं रक्‍तस्राव :- ख़ूनी बवासीर में शौच के पूर्व एवं पश्‍चात बवासीर से रक्‍त मिलता है। ख़ून की पिचकारी-सी चलती है, नवीन (Acute) अवस्था में बहुत ज़्यादा दर्द रहता है, शौच करते वक्‍त जब मस्से बाहर निकलते हैं तब भारी तकलीफ होती है। मस्से बाहर निकल आने से मलद्वार की आकुंचन पेशी (र्स्फीटर) उन्हें दबा लेती है जिससे प्रदाह हो जाता है।
  6. मनोविकार :- अधिक दिनों तक रोग भोगने से ‘मनोस्नायु दौर्बल्य’ चिन्ता, उन्माद आदि मनोविकारों के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
  7. मल :- बवासीर के रोगी का मल ढीला, कड़ा, गांठदार, रक्‍त-मिश्रित, आंवयुक्‍त आदि हो सकते हैं किन्तु अर्श के मल को पहचानने के कुछ विशेष लक्षण भी स्मरणीय हैं - बवासीर के रोगी में गुदा मार्ग से रक्तस्राव जो शुरुआत में सीमित मात्रा में मल त्याग के समय या उसके तुरंत बाद होता है। यह रक्त या तो मल के साथ लिपटा होता है या बूंद-बूंद टपकता है। कभी-कभी यह बौछार या धारा के रूप में भी मल द्वारा से निकलता है। तो कभी पिचकारी की तरह तो कभी झरने की तरह निःसृत होता है। अक्सर यह रक्त चमकीले लाल रंग का होता है, कभी काले-काले, कई रंगों की तरह गिरते हैं, मगर कभी-कभी हल्का बैंगनी या गहरे लाल रंग का भी हो सकता है। कभी तो ख़ून की गिल्टियां भी मल के साथ मिली होती हैं। किन्तु कड़े मल के एक ओर ख़ून की एक पृथक् रेखा-सी बनकर स्पष्ट दिखायी देती है। इस रोग मे मल्त्याग के बाद रोगी पूर्ण रुप से संतुष्टि नहीं महसूस करता है।

इस बीमारी की जांच किसी भी कुशल चिकित्सक द्वारा करायी जा सकती है। गुदा की भीतरी रचना और उसके विकार का पता उंगली से जांच द्वारा और एक विशेष उपकरण के द्वारा लगाया जा सकता है। इससे यह भी जानकारी मिल सकती है कि रोग कितना फैला हुआ है, उसमें कोई अन्य जटिलतायें तो शामिल नहीं है।

कारण

दोनों प्रकार की बवासीर होने के कारण निम्नलिखित हैं -

  • कब्ज- बवासीर रोग होने का मुख्य कारण पेट में कब्ज बनना है। दीर्घकालीन कब्ज बवासीर की जड़ है। 50 से भी अधिक प्रतिशत व्यक्तियों को यह रोग कब्ज के कारण ही होता है। सुबह-शाम शौच न जाने या शौच जाने पर ठीक से पेट साफ़ न होने और काफ़ी देर तक शौचालय में बैठने के बाद मल निकलने या ज़ोर लगाने पर मल निकलने या जुलाब लेने पर मल निकलने की स्थिति को कब्ज होना कहते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि कब्ज होने को रोकने के उपायों को हमेशा अपने दिमाग में रखें। कब्ज की वजह से मल सूखा और कठोर हो जाता है जिसकी वजह से उसका निकास आसानी से नहीं हो पाता। मलत्याग के वक़्त रोगी को काफ़ी वक़्त तक पखाने में उकडू बैठे रहना पड़ता है, जिससे रक्त वाहनियों पर ज़ोर पड़ता है और वह फूलकर लटक जाती हैं। कब्ज के कारण मलाशय की नसों के रक्त प्रवाह में बाधा पड़ती है जिसके कारण वहां की नसें कमज़ोर हो जाती हैं और आन्तों के नीचे के हिस्से में भोजन के अवशोषित अंश अथवा मल के दबाव से वहां की धमनियां चपटी हो जाती हैं तथा झिल्लियां फैल जाती हैं। जिसके कारण व्यक्ति को बवासीर हो जाती है।
  • यह रोग व्यक्ति को तब भी हो सकता है जब वह शौच के वेग को किसी प्रकार से रोकता है।
  • इस कष्टदायी रोग से मुक्ति पाने के लिए परहेज ज़रूरी है। मैदा, बेसन और मावे से बने पदार्थों से बचे। मोटे आटे से बनी रोटी खाएं।
  • भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी होने के कारण बिना पचा हुआ भोजन का अवशिष्ट अंश मलाशय में इकट्ठा हो जाता है और निकलता नहीं है, जिसके कारण मलाशय की नसों पर दबाव पड़ने लगता हैं और व्यक्ति को बवासीर हो जाती है।
  • गरिष्ठ भोजन - अत्यधिक मिर्च, मसाला, तली हुई चटपटी चीज़ें, मांस, अंडा, रबड़ी, मिठाई, मलाई, अति गरिष्ठ तथा उत्तेजक भोजन करने के कारण भी बवासीर रोग हो सकता है।
  • अधिक भोजन - अतिभोजन अर्श रोग मूल कारणम्‌ अर्थात्‌ आवश्यकता से अधिक भोजन करना बवासीर का प्रमुख कारण है।
  • शौच करने के बाद मलद्वार को गर्म पानी से धोने से भी बवासीर रोग हो सकता है।
  • दवाईयों का अधिक सेवन करने के कारण भी यह रोग व्यक्ति को हो सकता है। डिस्पेपसिया और किसी जुलाब की गोली का अधिक दिनॊ तक सेवन करना।
  • रात के समय में अधिक जगने के कारण भी व्यक्ति को बवासीर का रोग हो सकता है।[1]
  • कुछ व्यक्तियों में यह रोग पीढ़ी दर पीढ़ी पाया जाता है। अतः अनुवांशिकता इस रोग का एक कारण हो सकता है।
  • जिन व्यक्तियों को अपने रोज़गार की वजह से घंटों खड़े रहना पड़ता हो, जैसे बस कंडक्टर, ट्रॉफिक पुलिस, पोस्टमैन या जिन्हें भारी वजन उठाने पड़ते हों,- जैसे कुली, मज़दूर, भारोत्तलक वगैरह, उनमें इस बीमारी से पीड़ित होने की संभावना अधिक होती है।
  • बवासीर गुदा के कैंसर की वजह से या मूत्र मार्ग में रूकावट की वजह से या गर्भावस्था में भी हो सकता है।[3]
  • गर्भावस्था मे भ्रूण का दबाब पडना।
  • बवासीर मतलब पाइल्स यह रोग बढ़ती उम्र के साथ जिनकी जीवनचर्या बिगड़ी हुई हो, उनको होता है।
  • यकृत :- पाचन संस्थान का यकृत सर्वप्रधान अंग है। इसके भीतर तथा यकृत धमनी आदि में पोर्टल सिस्टम रक्‍त की अधिकता होकर यह रोगित्पन्‍न होता है। जैसे - सिरोसिस आफ़ लिवर।
  • हृदय की कुछ बीमारियाँ।
  • उदरामय - निरन्तर तथा तेज उदरामय निश्‍चित रूप से बवासीर उत्पन्‍न करता है।
  • मद्यपान एवं अन्य नशीले पदार्थों का सेवन - अत्यधिक शराब, ताड़ी, भांग, गांजा, अफीम आदि के सेवन से बवासीर होता है।
  • चाय एवं धूम्रपान - अधिकाधिक चाय, कॉफी आदि पीने तथा दिन रात धूम्रपान करने से अर्शोत्पत्ति होती है।
  • पेशाब संस्थान - मूत्राशय की गड़बड़ी, पौरुष ग्रन्थि की वृद्धि, मूत्र पथरी आदि रोग में पेशाब करते समय ज़्यादा ज़ोर लगाने के कारण" भी यह रोग होता है। मल त्याग के समय या मूत्र नली की बीमारी मे पेशाब करते समय काँखना।
  • शारीरिक परिश्रम का अभाव - जो लोग दिन भर आराम से बैठे रहते हैं और शारीरिक श्रम नहीं करते उन्हें यह रोग हो जाता है।
  • बवासीर को आधुनिक सभ्यता का विकार कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। खाने पीने मे अनिमियता, जंक फ़ूड का बढता हुआ चलन और व्यायाम का घटता महत्त्व, लेकिन और भी कई कारण हैं बवासीर के रोगियों के बढने में।

उपचार

रोग निदान के पश्चात् प्रारंभिक अवस्था में कुछ घरेलू उपायों द्वारा रोग की तकलीफों पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है। सबसे पहले कब्ज को दूर कर मल त्याग को सामान्य और नियमित करना आवश्यक है। इसके लिये तरल पदार्थों, हरी सब्जियों एवं फलों का बहुतायात में सेवन करें। बादी और तली हुई चीज़ें, मिर्च-मसालों युक्त गरिष्ठ भोजन न करें। मलत्याग के पश्चात् गुदा के आसपास की अच्छी तरह सफाई और गर्म पानी का सेंक करना भी फ़ायदेमंद होता है। इससे कभी बवासीर नहीं होता है। इसके लिये आवश्यक है कि नाख़ून क़तई बड़ा नहीं हो, अन्यथा भीतरी मुलायम खाल के जख्मी होने का ख़तरा होता है, प्रारंभ में यह उपाय अटपटा लगता है, पर शीघ्र ही इसके अभ्यस्त हो जाने पर तरोताजा महसूस भी होने लगता है। यदि उपरोक्त उपायों के पश्चात् भी रक्त स्राव होता है तो चिकित्सक से सलाह लें। इन मस्सों को हटाने के लिये कई विधियां उपलब्ध है। मस्सों में इंजेक्शन द्वारा ऐसी दवा का प्रवेश जिससे मस्से सूख जायें। मस्सों पर एक विशेष उपकरण द्वारा रबर के छल्ले चढ़ा दिये जाते हैं, जो मस्सों का रक्त प्रवाह अवरुद्ध कर उन्हें सुखाकर निकाल देते हैं। एक अन्य उपकरण द्वारा मस्सों को बर्फ़ में परिवर्तित कर नष्ट किया जाता है। शल्यक्रिया द्वारा मस्सों को काटकर निकाल दिया जाता है।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 बवासीर (हिन्दी) (पी.एच.पी) JKHealthworld.com। अभिगमन तिथि: 23 मार्च, 2011
  2. 2.0 2.1 बवासीर क़्य़ा है (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) बवासीर अस्पताल। अभिगमन तिथि: 23 मार्च, 2011
  3. 3.0 3.1 बवासीर : कारण एवं उपचार (हिन्दी) (पी.एच.पी) रांची एक्सप्रेस। अभिगमन तिथि: 23 मार्च, 2011

बाहरी कड़ियाँ

  1. बवासीर
  2. बवासीर

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