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'''राजा नल'''<br /> | |||
[[निषध]] देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम के एक राजा हो चुके हैं। वे बड़े गुणवान्, परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ एवं ब्राह्मणभक्त थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी।। वे स्वयं अस्त्रविद्या में बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रबल पराक्रमी भी थे। उन्हें जुआ खेलने का भी कुछ-कुछ शौक़ था। | |||
==दमयंती से अनुराग== | |||
निषध देश से [[विदर्भ]] में जानने वाले भी [[दमयन्ती]] के सामने राजा नल के रूप, गुण और पवित्र चरित्र का वर्णन करते। इससे दोनों के हृदय में पारस्परिक अनुराग अंकुरित हो गया। एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंस को पकड़ लिया। हंस ने कहा - ‘आप मुझे छोड़ दीजिये तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य-अवश्य वर लेगी।’ नल ने हंस को छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देश में गये। | |||
==दमयंती का अनुराग== | |||
दमयन्ती हंस के मुँह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन-सी दीखने लगी। सखियों ने दमयन्ती के हृदय का भाव ताड़कर विदर्भराज से निवेदन किया कि ‘आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है।’ राजा भीम ने अपनी पुत्री के सम्बन्ध में बड़ा विचार किया। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओं को स्वयंवर का निमन्त्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओं को दमयन्ती के स्वयंवर में पधारकर लाभ उठाना चाहिये और मेरा मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। देश-देश के नरपति हाथी, घोड़े और रथों की ध्वनि से पृथ्वी को मुखरित करते हुए सज-धजकर विदर्भ देश में पहुँचने लगे। भीम ने सबके स्वागत सत्कार की समुचित व्यवस्था की।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=1052|title=नल दमयंती|accessmonthday=7 मई|accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह|language=हिन्दी}}</ref> | |||
==स्वयंवर== | |||
निषध देश के राजा नल ने भी इस स्वयंवर के लिये प्रस्थान किया। उधर देवलोक से राजा [[इन्द्र]], [[वरुण]], [[अग्निदेव|अग्नि]] तथा [[यमराज|यम]] - [[देवता]] भी ‘दमयन्ती’ को प्राप्त करने के लिये चल दिये। देवताओं को भली-भाँति विदित था कि दमयन्ती, राजा ‘नल’ को चाहती है। स्वयंवर के लिए आते समय मार्ग में सूर्य के समान कीर्तिवान अति-सुन्दर राजा ‘नल’ के तेज को देखकर देवतागण आश्चर्यचकित रह गये। मध्य-मार्ग में ही वे राजा नल के पास गये और बोले कि राजन! सुना है आपकी सत्यवृत्ति की पताका आकाश में लहराती है। क्या इस स्वयंवर में आप हमारी सहायता के लिये हमारा दूत बनना स्वीकार करेंगे? राजा नल ने देवताओं का आग्रह स्वीकार कर लिया। | |||
==नल की परीक्षा== | |||
देवताओं ने राजा की परीक्षा लेते हुए कहा कि हे राजन्! आप हमारे दूत के रूप में दमयन्ती से जाकर कहिए कि हम लोग उससे विवाह करना चाहते हैं। अतः हम में से वह किसी को भी अपना पति चुन ले। राजा नल ने नम्रता - पूर्वक कहा कि हे देवलोक वासियो! आप लोग जिस उद्देश्य से दमयन्ती के पास जा रहे हैं, उसी उद्देश्य से मैं भी उसके पास जा रहा हूँ अतः वहाँ मेरा, आपका दूत बनकर जाना उचित नहीं है। देवतागण कहने लगे कि हे राजन्! आप पहले ही हमारा दूत बनना स्वीकार कर चुके हैं। अतः अब आप अपनी मर्यादा को तजकर अपना वचन असत्य ना करें। राजा नल को देवताओं का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। साथ ही साथ इन्द्र ने राजा नल को वरदान दिया कि दमयन्ती-स्वयंवर में प्रविष्ट होते समय आपको द्वारपाल आदि भी न देख सकेंगे, इससे आप सहज ही राजमहल में प्रवेश कर जायेंगे। | |||
==नल का दूत कर्तव्य== | |||
तत्पश्चात् राजा नल, दमयन्ती के भवन में पहुँच गये। दमयन्ती तथा उसकी सखियाँ परम-सुन्दर युवा-पुरुष को अपने समीप आया देखकर आश्चर्य-चकित रह गयीं। वो अपनी सुध-बुध ही खो बैठीं। राजा नल ने दमयन्ती से अपना परिचय देकर कहा कि हे देवी! मैं इन्द्र, वरुण, यम और अग्नि-देवता का दूत बनकर आपके पास आया हूँ। ये देवतागण आपसे विवाह करना चाहते हैं, अतः आप इनमें से किसी को भी अपना ‘वर’ चुन सकती हैं। दमयन्ती ने राजा नल का परिचय पाकर कहा कि हे नरेन्द्र! मैं तो पहले ही अपने मन में आपको अपना ‘वर’ मान चुकी हूँ। मैंने आपके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है। अतः कृपया अब आप अपनी इस तुच्छ दासी को, अपने चरणों में स्थान दीजिये। यदि आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं विष खाकर या आग में जलकर अथवा जल में डूबकर या फिर फाँसी लगाकर अपने प्राण त्याग दूंगी। | |||
राजा नल ने बड़ी सच्चाई से ‘दूत’ के कर्तव्य का पालन किया। वो अपने कर्तव्य पर अडिग रहे। यद्यपि वे स्वयं दमयन्ती को चाहते थे, फिर भी उन्होंने देवगणों के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का वर्णन करके दमयन्ती को समझाने का पूर्ण प्रयत्न किया। लेकिन दमयन्ती स्वर्ग के ऐश्वर्य तथा मरीचिका से तनिक भी प्रभावित नहीं हुई। राजा नल ने कहा, हे देवी! देवताओं को छोड़कर आपका मुझ मनुष्य को चाहना, कदापि उचित व तर्क-संगत नहीं है। अतः आप अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं को क्रोधित करने से मनुष्य की मृत्यु भी हो जाती है। अतः आपको मेरी बात मान लेनी चाहिए। यह सुनकर दमयन्ती डर गयी और उसके नेत्रों से अश्रुधरा प्रवाहित होने लगी। दमयन्ती कहने लगी, हे राजन्! मैं देवताओं को नतमस्तक होकर, मन में आपको ही अपना पति मानती हूँ। अब कोई दूसरा उपाय सोचने योग्य नहीं रहा। फिर भी राजा नल ने दमयन्ती को स्वयंवर में देवताओं को ही अपना वर चुनने का परामर्श दिया तथा वहाँ से विदा ली। लौटकर देवताओं को राजा नल ने समस्त वृत्तांत कह सुनाया। | |||
==दमयंती द्वारा वरण== | |||
स्वयंवर की सभा प्रारम्भ होने पर चारों देवता राजा नल के समान अपना ‘रूप’ धारण करके, राजन के पास बैठ गए। जब दमयन्ती वरमाला लेकर स्वयंवर-सभा में आयी तथा उसने राजा नल के समान पाँच पुरुषों को पदासीन देखा तो वह ‘नल’ को न पहचान सकी और अत्यन्त सोच में पड़ गई। उसे बड़ा दुःख हुआ। अन्त में उसने इस समस्या के समाधान के लिये देवताओं की शरण में जाने का निश्चय किया। दमयन्ती कहने लगी, हे परम-पूज्य देवगणों! आपको विदित ही है कि मैं पहले ही मन तथा वाणी से राजा नल को अपना पति-परमेश्वर स्वीकार कर चुकी हूँ। राजा नल की प्राप्ति के लिये मैं चिरकाल से तप तथा व्रत भी कर रही हूँ। अतः हे भगवन्! यदि मैं पतिव्रता हूँ तो मेरे सत्य के प्रताप से देवलोक के देवतागण मुझे मेरे राजा नल के दर्शन करा दें तथा ऐश्वर्यशाली देवतागण भी अपने आपको प्रकट करें, जिससे मैं नरपति नल को पहचान सकूं। पतिव्रता का तिरस्कार करने का साहस तो देवताओं को भी नहीं होता। दमयन्ती की इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवताओं ने उसे ‘देवता’ तथा ‘मनुष्य’ में भेद करने की शक्ति प्रदान कर दी। उसने देखा कि पाँच में से चार पुरुषों के शरीर पर न तो पसीना है, न धूल है तथा उनके शरीर की ‘छाया’ पृथ्वी पर नहीं पड़ रही है और वे पृथ्वी को स्पर्श भी नहीं कर रहे हैं व उनकी माला के ‘पुष्प’ तनिक भी नहीं कुंभला रहे हैं। दमयन्ती ने सभी देवताओं को पहचानकर उन्हें प्रणाम किया। पाँचवे ‘पुरुष’ को जिसके शरीर पर कुछ धूल पड़ी थी, कुछ पसीना आ गया था व उसके शरीर की छाया भी पृथ्वी पर पड़ रही थी तथा वह भूमि को स्पर्श भी कर रहा था और उसकी माला के पुष्प कुछ कुंभला गये थे, दमयन्ती ने पहचान लिया कि ये ही राजा नल हैं। उसने तुरन्त उनके कंठ में जयमाला डाल दी। इस प्रकार अपनी दृढ़-निष्ठा तथा पतिव्रता के प्रभाव से, दमयन्ती ने पति रूप में राजा नल को ही प्राप्त किया।<ref>{{cite web |url=http://yoggranth.blogspot.com/2009/04/blog-post_27.html|title=राजा नल व दमयन्ती|accessmonthday=7 मई |accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=योग ग्रंथ|language=[[हिन्दी]]}}</ref> | |||
==जुए में हार== | |||
राजा नल बडे प्रतापी राजा थे। वे सर्वगुण सम्पन्न, सदाचारी और प्रजा पालक थे। उनकी कृति की गाथा हर दिशा में गाई जाती थी। पता नहीं एक दिन क्या हुआ कि राजा असावधानी वश शौचादि के बाद बिना पवित्र हुए ही संध्या वंदन करने लगे। राजा जैसे ही अपने नियमों के प्रति सुस्त हुए उनकी बुद्धि मंद हो गई। बुद्धि मंद हुई तो उनके निर्णय प्रभावित होने लगें। एक दिन वे अपने भाई और मित्र राजा पुष्कर के साथ बातों-बातों में जुआ खेलनें बैठ गए। वे हारने लगे और हारते ही चले गए। हारने के लिए अपनी पत्नी दमयंती के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा। अपनी पत्नी दमयंती को भी दांव पर लगाने ही वाले थे कि अच्छे विचारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया। उन्हें याद आ गया कि यह वहीं दमयंती है जो उनकी धर्मपत्नी हैं। जब उसके साथ विवाह हुआ था तो आशीर्वाद देने के लिए इन्द्र आदि देवताओं को भी आना पडा था। | |||
लेकिन जब तक उनके मन में अच्छे विचार आते, तब तक तो वे अपना सर्वस्व खो चुके थें। जुए में सब हारने के बाद अपना भरा-पूरा राजपाट छोड कर दमयंती के साथ महल से बाहर निकल गए। एक ग़लत निर्णय ने राजा को बर्बाद कर दिया था। इधर राजा पुष्कर ने अपने नगर में घोषणा कर दी थी कि ’जो कोई राजा नल या उनकी पत्नी दमयंती की किसी भी प्रकार मदद करेगा तो उसे फाँसी की सज़ा दे दी जाएगी।‘ इसलिए राजा नल की चाह कर भी उनकी प्रजा ने कोई मदद नहीं की। तीन दिनों तक अपने नगर में भूखे-प्यासें भटकने के बाद वे जंगल की ओर चल पडे। | |||
एक दिन राजा नल ने कुछ ख़ूबसूरत सुनहरे पंखों वाली पंछियों का एक झुंड देखा। उन्हें लगा कि वे सभी सोने के पंखों वाली चिडया हैं जिन्हें पकड कर और उनके पंखों को बेच कर धन कमाया जा सकता हैं। लेकिन बिना जाल के पकडना संभव नहीं था। | |||
लेकिन लोभ में राजा ने फौरन अपने वस्त्रों को शरीर से उतारा और उसका जाल बना कर पंछियों की तरफ फेंका। वे उनको पकड पाते इसके पहले ही वे जाल के साथ आसमान में उड गई। राजा नग्न अवस्था में रह गए। उन्हें अपने ऊपर काफ़ी शर्म आ रही थी। एक प्रतापी राजा की ऐसी मति भ्रष्ट हुई कि वह नग्न हो गया था। उनके पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं थे।<ref>{{cite web |url=http://gaurtalab.blogspot.com/2008/06/blog-post_15.html|title=राजा नल की दुर्दशा|accessmonthday=7 मई |accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= गौरतलब|language=हिन्दी}}</ref> | |||
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==टीका | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | ||
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==संबंधित लेख== | |||
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नल | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- नल (बहुविकल्पी) |
राजा नल
निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम के एक राजा हो चुके हैं। वे बड़े गुणवान्, परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ एवं ब्राह्मणभक्त थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी।। वे स्वयं अस्त्रविद्या में बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रबल पराक्रमी भी थे। उन्हें जुआ खेलने का भी कुछ-कुछ शौक़ था।
दमयंती से अनुराग
निषध देश से विदर्भ में जानने वाले भी दमयन्ती के सामने राजा नल के रूप, गुण और पवित्र चरित्र का वर्णन करते। इससे दोनों के हृदय में पारस्परिक अनुराग अंकुरित हो गया। एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंस को पकड़ लिया। हंस ने कहा - ‘आप मुझे छोड़ दीजिये तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य-अवश्य वर लेगी।’ नल ने हंस को छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देश में गये।
दमयंती का अनुराग
दमयन्ती हंस के मुँह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन-सी दीखने लगी। सखियों ने दमयन्ती के हृदय का भाव ताड़कर विदर्भराज से निवेदन किया कि ‘आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है।’ राजा भीम ने अपनी पुत्री के सम्बन्ध में बड़ा विचार किया। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओं को स्वयंवर का निमन्त्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओं को दमयन्ती के स्वयंवर में पधारकर लाभ उठाना चाहिये और मेरा मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। देश-देश के नरपति हाथी, घोड़े और रथों की ध्वनि से पृथ्वी को मुखरित करते हुए सज-धजकर विदर्भ देश में पहुँचने लगे। भीम ने सबके स्वागत सत्कार की समुचित व्यवस्था की।[1]
स्वयंवर
निषध देश के राजा नल ने भी इस स्वयंवर के लिये प्रस्थान किया। उधर देवलोक से राजा इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम - देवता भी ‘दमयन्ती’ को प्राप्त करने के लिये चल दिये। देवताओं को भली-भाँति विदित था कि दमयन्ती, राजा ‘नल’ को चाहती है। स्वयंवर के लिए आते समय मार्ग में सूर्य के समान कीर्तिवान अति-सुन्दर राजा ‘नल’ के तेज को देखकर देवतागण आश्चर्यचकित रह गये। मध्य-मार्ग में ही वे राजा नल के पास गये और बोले कि राजन! सुना है आपकी सत्यवृत्ति की पताका आकाश में लहराती है। क्या इस स्वयंवर में आप हमारी सहायता के लिये हमारा दूत बनना स्वीकार करेंगे? राजा नल ने देवताओं का आग्रह स्वीकार कर लिया।
नल की परीक्षा
देवताओं ने राजा की परीक्षा लेते हुए कहा कि हे राजन्! आप हमारे दूत के रूप में दमयन्ती से जाकर कहिए कि हम लोग उससे विवाह करना चाहते हैं। अतः हम में से वह किसी को भी अपना पति चुन ले। राजा नल ने नम्रता - पूर्वक कहा कि हे देवलोक वासियो! आप लोग जिस उद्देश्य से दमयन्ती के पास जा रहे हैं, उसी उद्देश्य से मैं भी उसके पास जा रहा हूँ अतः वहाँ मेरा, आपका दूत बनकर जाना उचित नहीं है। देवतागण कहने लगे कि हे राजन्! आप पहले ही हमारा दूत बनना स्वीकार कर चुके हैं। अतः अब आप अपनी मर्यादा को तजकर अपना वचन असत्य ना करें। राजा नल को देवताओं का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। साथ ही साथ इन्द्र ने राजा नल को वरदान दिया कि दमयन्ती-स्वयंवर में प्रविष्ट होते समय आपको द्वारपाल आदि भी न देख सकेंगे, इससे आप सहज ही राजमहल में प्रवेश कर जायेंगे।
नल का दूत कर्तव्य
तत्पश्चात् राजा नल, दमयन्ती के भवन में पहुँच गये। दमयन्ती तथा उसकी सखियाँ परम-सुन्दर युवा-पुरुष को अपने समीप आया देखकर आश्चर्य-चकित रह गयीं। वो अपनी सुध-बुध ही खो बैठीं। राजा नल ने दमयन्ती से अपना परिचय देकर कहा कि हे देवी! मैं इन्द्र, वरुण, यम और अग्नि-देवता का दूत बनकर आपके पास आया हूँ। ये देवतागण आपसे विवाह करना चाहते हैं, अतः आप इनमें से किसी को भी अपना ‘वर’ चुन सकती हैं। दमयन्ती ने राजा नल का परिचय पाकर कहा कि हे नरेन्द्र! मैं तो पहले ही अपने मन में आपको अपना ‘वर’ मान चुकी हूँ। मैंने आपके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है। अतः कृपया अब आप अपनी इस तुच्छ दासी को, अपने चरणों में स्थान दीजिये। यदि आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं विष खाकर या आग में जलकर अथवा जल में डूबकर या फिर फाँसी लगाकर अपने प्राण त्याग दूंगी। राजा नल ने बड़ी सच्चाई से ‘दूत’ के कर्तव्य का पालन किया। वो अपने कर्तव्य पर अडिग रहे। यद्यपि वे स्वयं दमयन्ती को चाहते थे, फिर भी उन्होंने देवगणों के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का वर्णन करके दमयन्ती को समझाने का पूर्ण प्रयत्न किया। लेकिन दमयन्ती स्वर्ग के ऐश्वर्य तथा मरीचिका से तनिक भी प्रभावित नहीं हुई। राजा नल ने कहा, हे देवी! देवताओं को छोड़कर आपका मुझ मनुष्य को चाहना, कदापि उचित व तर्क-संगत नहीं है। अतः आप अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं को क्रोधित करने से मनुष्य की मृत्यु भी हो जाती है। अतः आपको मेरी बात मान लेनी चाहिए। यह सुनकर दमयन्ती डर गयी और उसके नेत्रों से अश्रुधरा प्रवाहित होने लगी। दमयन्ती कहने लगी, हे राजन्! मैं देवताओं को नतमस्तक होकर, मन में आपको ही अपना पति मानती हूँ। अब कोई दूसरा उपाय सोचने योग्य नहीं रहा। फिर भी राजा नल ने दमयन्ती को स्वयंवर में देवताओं को ही अपना वर चुनने का परामर्श दिया तथा वहाँ से विदा ली। लौटकर देवताओं को राजा नल ने समस्त वृत्तांत कह सुनाया।
दमयंती द्वारा वरण
स्वयंवर की सभा प्रारम्भ होने पर चारों देवता राजा नल के समान अपना ‘रूप’ धारण करके, राजन के पास बैठ गए। जब दमयन्ती वरमाला लेकर स्वयंवर-सभा में आयी तथा उसने राजा नल के समान पाँच पुरुषों को पदासीन देखा तो वह ‘नल’ को न पहचान सकी और अत्यन्त सोच में पड़ गई। उसे बड़ा दुःख हुआ। अन्त में उसने इस समस्या के समाधान के लिये देवताओं की शरण में जाने का निश्चय किया। दमयन्ती कहने लगी, हे परम-पूज्य देवगणों! आपको विदित ही है कि मैं पहले ही मन तथा वाणी से राजा नल को अपना पति-परमेश्वर स्वीकार कर चुकी हूँ। राजा नल की प्राप्ति के लिये मैं चिरकाल से तप तथा व्रत भी कर रही हूँ। अतः हे भगवन्! यदि मैं पतिव्रता हूँ तो मेरे सत्य के प्रताप से देवलोक के देवतागण मुझे मेरे राजा नल के दर्शन करा दें तथा ऐश्वर्यशाली देवतागण भी अपने आपको प्रकट करें, जिससे मैं नरपति नल को पहचान सकूं। पतिव्रता का तिरस्कार करने का साहस तो देवताओं को भी नहीं होता। दमयन्ती की इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवताओं ने उसे ‘देवता’ तथा ‘मनुष्य’ में भेद करने की शक्ति प्रदान कर दी। उसने देखा कि पाँच में से चार पुरुषों के शरीर पर न तो पसीना है, न धूल है तथा उनके शरीर की ‘छाया’ पृथ्वी पर नहीं पड़ रही है और वे पृथ्वी को स्पर्श भी नहीं कर रहे हैं व उनकी माला के ‘पुष्प’ तनिक भी नहीं कुंभला रहे हैं। दमयन्ती ने सभी देवताओं को पहचानकर उन्हें प्रणाम किया। पाँचवे ‘पुरुष’ को जिसके शरीर पर कुछ धूल पड़ी थी, कुछ पसीना आ गया था व उसके शरीर की छाया भी पृथ्वी पर पड़ रही थी तथा वह भूमि को स्पर्श भी कर रहा था और उसकी माला के पुष्प कुछ कुंभला गये थे, दमयन्ती ने पहचान लिया कि ये ही राजा नल हैं। उसने तुरन्त उनके कंठ में जयमाला डाल दी। इस प्रकार अपनी दृढ़-निष्ठा तथा पतिव्रता के प्रभाव से, दमयन्ती ने पति रूप में राजा नल को ही प्राप्त किया।[2]
जुए में हार
राजा नल बडे प्रतापी राजा थे। वे सर्वगुण सम्पन्न, सदाचारी और प्रजा पालक थे। उनकी कृति की गाथा हर दिशा में गाई जाती थी। पता नहीं एक दिन क्या हुआ कि राजा असावधानी वश शौचादि के बाद बिना पवित्र हुए ही संध्या वंदन करने लगे। राजा जैसे ही अपने नियमों के प्रति सुस्त हुए उनकी बुद्धि मंद हो गई। बुद्धि मंद हुई तो उनके निर्णय प्रभावित होने लगें। एक दिन वे अपने भाई और मित्र राजा पुष्कर के साथ बातों-बातों में जुआ खेलनें बैठ गए। वे हारने लगे और हारते ही चले गए। हारने के लिए अपनी पत्नी दमयंती के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा। अपनी पत्नी दमयंती को भी दांव पर लगाने ही वाले थे कि अच्छे विचारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया। उन्हें याद आ गया कि यह वहीं दमयंती है जो उनकी धर्मपत्नी हैं। जब उसके साथ विवाह हुआ था तो आशीर्वाद देने के लिए इन्द्र आदि देवताओं को भी आना पडा था। लेकिन जब तक उनके मन में अच्छे विचार आते, तब तक तो वे अपना सर्वस्व खो चुके थें। जुए में सब हारने के बाद अपना भरा-पूरा राजपाट छोड कर दमयंती के साथ महल से बाहर निकल गए। एक ग़लत निर्णय ने राजा को बर्बाद कर दिया था। इधर राजा पुष्कर ने अपने नगर में घोषणा कर दी थी कि ’जो कोई राजा नल या उनकी पत्नी दमयंती की किसी भी प्रकार मदद करेगा तो उसे फाँसी की सज़ा दे दी जाएगी।‘ इसलिए राजा नल की चाह कर भी उनकी प्रजा ने कोई मदद नहीं की। तीन दिनों तक अपने नगर में भूखे-प्यासें भटकने के बाद वे जंगल की ओर चल पडे।
एक दिन राजा नल ने कुछ ख़ूबसूरत सुनहरे पंखों वाली पंछियों का एक झुंड देखा। उन्हें लगा कि वे सभी सोने के पंखों वाली चिडया हैं जिन्हें पकड कर और उनके पंखों को बेच कर धन कमाया जा सकता हैं। लेकिन बिना जाल के पकडना संभव नहीं था।
लेकिन लोभ में राजा ने फौरन अपने वस्त्रों को शरीर से उतारा और उसका जाल बना कर पंछियों की तरफ फेंका। वे उनको पकड पाते इसके पहले ही वे जाल के साथ आसमान में उड गई। राजा नग्न अवस्था में रह गए। उन्हें अपने ऊपर काफ़ी शर्म आ रही थी। एक प्रतापी राजा की ऐसी मति भ्रष्ट हुई कि वह नग्न हो गया था। उनके पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं थे।[3]
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टीका टिप्पणी
- ↑ नल दमयंती (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 7 मई, 2011।
- ↑ राजा नल व दमयन्ती (हिन्दी) योग ग्रंथ। अभिगमन तिथि: 7 मई, 2011।
- ↑ राजा नल की दुर्दशा (हिन्दी) गौरतलब। अभिगमन तिथि: 7 मई, 2011।
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